रिलायंस द रीयल नटवर : अरुण अग्रवाल

वोल्कर समिति की रिपोर्ट का गहन अध्ययन उन तमाम आशकाओं से परे है, जो राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (एनडीए) उन पर लगाती रही है। ईराक में तेल के बदले अनाज कार्यक्रम के संबंध में हुए पूरे विवाद में नटवर सिंह को ही सिर्फ निशाने पर रखा गया; अर्थात कांग्रेस पार्टी या अन्यों के किसी भी स्तर का कोई भी नेता-व्यक्ति नटवर सिंह पर निशाना साधने से नहीं चूकता ताकि घोटाले से रिलायंस पेट्रोलियम के लिप्त होने की तरफ से लोगों का ध्यान भटकाया जा सके।
बड़े दुख की बात है कि इसमें नटवर सिंह कि किसी भी घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी को भी किसी भी संकोच का सामना नहीं करना पड़ा। इससे न तो पार्टी में और न ही कोषदाताओं में किसी बात की घबराहट हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। इधर रिलायंस शुरू से ही शीर्ष पदस्थ व्यक्तियों जो शक्तिसंपन्न और उदार हो उनसे मित्रता रखने के सिध्दांत पर कार्य करता रहा है।
कंपनी गर्व से कहती है कि वह निगमित शासन के क्रियान्वयन में सबसे आगे है जो बहुत से प्रशंसनीय सिध्दांतों पर आधारित है जिसमें इसके कर्मचारी, ग्राहक, अंशधारक और निवेशक सहित सभी पूंजीधारकों के साथ उचित और समान व्यवहार शामिल है। उसके पूंजीधारकों में देश के सभी शक्तिशाली अभिजात्य यहां तक कि मीडिया भी शामिल है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वित्तीय संकट और तेल की किल्लत झेल रही सरकार वर्षों से रिलायंस द्वारा राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से अर्जित लाभ पर कोई टैक्स नहीं लगा पाई। वी पी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को छोड़कर अन्य किसी भी सरकार ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कोई ऐसा कर नहीं लगाया जो रिलायंस के विशेष हित के विपरीत हो।
रिलायंस के अन्वेषी कार्य की असाधारण रूप से बढ़ती गतिविधि किसी को भी आश्चर्यचकित कर सकती है कि कंपनी को अन्वेषी कार्य मिला हो या तेल क्षेत्रों की खोज का; बात चाहे जो भी हो अंतिम परिणाम के रूप में रिलायंस को 10000 करोड़ डॉलर का मुनाफा हुआ। ये संसाधन देश के आम लोगों से संबंधित थीं और उनका उपयोग आम लोगों के लाभ के लिए होना था जैसा कि संविधान के नीति-निर्देशक तत्व में कहा गया है।
फिर रिलायंस के पीटीए प्लांट का मामला आया जिसमें रिलायंस ने स्वीकृत क्षमता से ज्यादा मात्रा मे मशीनरी का अवैध आयात किया था। इसमें 120 करोड़ रूपए के सीमा शुल्क का मामला अभी भी न्यायालय में लंबित पड़ा है।
मामले की सामान्य सच्चाई यही है कि वित्तीय अभियांत्रिकी जैसे ऋण का इक्विटी में विलय, अपने शेयर की कीमत खुद से उपर उठाना, सार्वजनिक संस्थानाें को शेयर देना, सार्वजनिक रूप से नई कंपनियों के शेयर निर्गत करना और उसके बाद कंपनियों का विलय करना, प्रोमोटर को खुद की पूंजी बढ़ाने के लिए शेयर आवंटित करना, करों को नकारना और कर व्यवस्था को कंपनी के उपयुक्त बनाना और अंतत: सरकार द्वारा तेल बोनंजा का हस्तांतरण जिसके द्वारा रिलायंस भारत की सबसे बड़ी कंपनी बन गई और इसके मालिक देश के सबसे धनी व्यक्ति। और आश्चर्यजनक रूप से मात्र तीस साल में इसका कुल व्यापार लगभग 100 करोड़ से बढ़कर 100000 करोड़ रुपये का हो गया।
आज रिलायंस ऐसी कंपनी मानी जाती है जिसे किसी बात का कोई भय न हो। कोई भी आज इससे उसी तरह नहीं उलझना चाहता जैसे भारत के किसी अंडरवर्ल्ड के डॉन से।
संक्षेप में तथ्य यह स्थापित करता है कि सरकारी तेल नीति का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस बना जो इसकी संपत्ति का बड़ा हिस्सा है। इसलिए 1999 में रिफाइनरी के खोज कार्य में जाने से छ: महीने पूर्व ही कंपनी ने खुद को यूएन में राष्ट्रीय तेल खरीदार के रूप में पंजीकृत करवा लिया। बीपीसीएल , एचपीसीएल, और एचपी जैसे पीएसयू की शिकायतों को अनदेखा किया गया। इराक तेल के बदले अनाज कार्यक्रम के तहत रिलायंस द्वारा आयातित पहली खेप में ही भारी रिश्वत दी गई।
लेकिन केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री द्वारा जबाब में सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत संबंधित फाइल की मांग इस बात पर जोर देता है कि उनको इस बात का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था कि रिलायंस पेट्रोलियम ने खुद के राष्ट्रीय तेल खरीदार होने का दावा अपनी वेबसाइट के उसी खंड में किया है जिसमें तेल के बदले अनाज कार्यक्रम घोटाले में किसी भी अनियमितता या अवैधानिकता से खुद को दोषमुक्त कहा है। कंपनी और सरकार द्वारा किए गए दावे में किसी अंतर्विरोध की स्थिति में वर्तमान तथ्य सत्य प्रतीत होते हैं। आखिरकार वह कहनेवाला कौन है जो अंतर्विरोध की स्थिति में सरकार से कुछ कहता है ? और इसीलिए सरकार तेल के बदले अनाज कार्यक्रम में भारत का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस पेट्रोलियम लिमिटेड द्वारा क्रियान्वित सौदे की वैधानिकता की जांच की मांग को दृढ़ अस्वीकृति से अनसुना कर देती है।
यद्यपि वोल्कर घोटाले में शामिल रकम जिसमें रिलायंस पेट्रोलियम का नाम एक गैर अनुबंधित लाभभोगी के रूप में आया है, रिलायंस और अंतरराष्ट्रीय दोनों पैमानों पर बहुत छोटी है। लेकिन इससे राज्य के किसी भी अंग पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
नटवर सिंह मामले में शामिल रकम 70लाख रूपए भी भारत के आज के राजनीतिक भ्रष्टाचार के हिसाब से बहुत कम है लेकिन व्यवस्था ने जिस तरह पूरे मामले में अपनी प्रतिक्रिया दर्शायी वह शामिल रकम की तुलना में असमानुपाती है। वैसे शामिल रकम कोई मुद्दा नहीं है।
अगर व्यवस्था की असफलता की बात हो तो रिलायंस मामले में सामूहिक माफी सोची जा सकती है लेकिन यहां व्यवस्था असफल नहीं हुआ बल्कि रिलायंस का साझीदार बन गया।
अब यह पता नहीं है कि चीजें कैसे खत्म होनी चाहिए और कैसे खत्म होगी । लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है। जो घटनाएं घटीं वे उतना दुखद नहीं कही जा सकतीं, लेकिन जिस तरह उसको हल किया गया वो निश्चित रूप से दुखद है।
अपराध के ज्यादातर मामलों में संबंधित तथ्य खुद ही सारी कहानी बयां करते हैं। सरकार और उसकी संस्था अभी भी मूक बनी हुई है कि क्या कहे। लेकिन देश के लोग उन आवाजों को ज्यादा जोर और स्पष्टता से सुन रहे हैं। यही सबसे बड़ी बात है।
पुस्तक ''रिलायंस द रीयल नटवर'' मानस प्रकाशन ने छापी है।

अदम्य बॉबी, न कि तितली

फिल्म समीक्षा :
फ्रांसीसी क्रान्ति को आत्मसात करता हुआ (Embodying French Revolution)
अग्र मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने के परिणामस्वरूप अपने स्वयं के ही शरीर में वस्तुत: फंसे एक फ्रांसीसी लेखक पलक झपकने के रास्ते ही अपने सर्वोत्तम को प्रकट करते हैं। परिणाम में आयी है एक आश्चर्यजनक किताब जिस पर बाद में पुरष्कृत फिल्म भी बनी : एक समीक्षा।
-ऑंचल खुराना

द डाइविंग बैल एण्ड द बटरफ्लाई एक फ्रांसीसी पत्रकार, लेखक और इली मैगजीन के सम्पादक-जीन डॉमीनीक बॉबी के जीवन पर आधारित सत्य कहानी है, जिसमें उसका जीवन पलक झपकने जितने समय में ही बदल जाता है। वह अपने शरीर में ही कैद रहता है जब तक उसकी स्वयं की कल्पना उसे मुक्त नहीं करती। शीर्षक द डाइविंग बैल उसके शरीर को व्यक्त करता है जिसमें वह कैद है और तितली, विचारों की उसकी स्वतंत्रता को। बॉबी को मस्तिष्कीय आघात हुआ और उसके अग्र मस्तिष्क की सारी गतिविधियां रूक गयी, एक तरह से निष्क्रिय हो गयी। इस स्थिति को लोकप्रिय भाषा में ताले में

विकलांगता : अधिकारों को लंगड़ा बनाती

(राजीव रतूड़ी लिखते हैं कि मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा से शुरू होने वाली विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की छ: दशक पुरानी लड़ाई इस घोषणा और बाद में हुए तमाम अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों के फलस्वरूप देश में बने कानूनों के लागू न हो पाने के कारण अभी खत्म नहीं हुई है।) भारत में फैले 700 लाख विकलांग व्यक्तियों के साथ आज भी दूसरे दर्जे के नागरिक का बर्ताव किया जाता है। उनके लिये अलगाव, सीमांतीकरण और भेदभाव आज भी अपवाद नहीं बल्कि आम है। प्रचलित रुख के कारण खड़ी हुई रूकावटों से रूबरू विकलांग आज भी दया और कल्याण के पात्र समझे जाते हैं और विश्व उनके सबसे बुनियादी अधिकारों को कुचलता हुआ आगे बढ़ जाता है। 1948 में मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा, जो न्याय, स्वतंत्रता और शांति सुनिश्चित करने के लिये मानव अधिकारों के पालन को जरूरी पूर्व शर्त मानती है, हो जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है।

अधिकारों के लिए उठे कदम - राकेश मालवीय, भोपाल

बड़वानी, गर्मियों में यह जिला सबसे ज्यादा तापमान के कारण चर्चा में रहता है और बाकी समय गरीबी, भूख, कुपोषण से हो रही मौतों के कारण। इसकी थाती पर नर्मदा का पानी है और सिर के चारों ओर उंचे पहाड़ भी। लेकिन विकास की अवधारणाएं यहां के वांषिदों के लिए ठीक उल्टी ही साबित हो रही हैं। इसलिए अपने अधिकारों के लिए सबसे ज्यादा आवाज और संघर्ष के नारे भी यहां से सुनाई देते हैं। चाहे नर्मदा की लड़ाई हो अथवा रोजगार गारंटी स्कीम में काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता देने की मांग। इसी बीच लोगों की अपनी छोटी-छोटी कोषिषें भी हैं जो उन्हें अखबार की सुर्खियों में ला देती हैं। मामला चाहे पर्यावरण के लिए अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन का हो अथवा स्वास्थ्य के लिए आदिवासी महिलाओं की जागरूकता का। झमाझम बारि में भी इस जिले के लोग उटकर मोर्चा संभालते हैं और तहसीलदार से सवाल-जवाब करते नजर आते हैं।
आदिवासी मुक्ति संगठन सेंधवा के विजय भाई से बस के सफर के दौरान ही इस क्षेत्र के हालात पर थोड़ी बहुत चर्चा हुई। कयास यह भी लगाए गए कि बारिश के चलते शायद बहुत लोग मोर्चे में न आ पाएं। सोचा भी यही था ब्लॉक के सबसे बड़े अधिकारी को ज्ञापन सौंपने के बाद घंटे दो घंटे में कार्यक्रम तय हो जाएगा। . . . . Read More

माया महाठगिनी - शाहनवाज़ आलम

20 मार्च 1927 को डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने हजारों 'अघूतों' के साथ महार के एक 'प्रतिबन्धित' तालाब से पानी पीकर इतिहास को एक नयी दिशा दी थी। लेकिन जब वो ऐसा कर रहे थे तब शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि 40 साल बाद उन्हीं के नाम पर वोटों की ठगी करके सत्ता में आने वालों के शासनकाल में भी दलितों के लिए सार्वजनिक तालाब 'प्रतिबन्धित' रहेंगे। हम बात कर रहे हैं मिर्जापुर मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर स्थित भुड़कुड़ा गाँव की। जहाँ संविधान और उसके न्यायालयों के फैसलों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। जहाँ आजादी के 60 साल बाद भी मनुवादी ढाँचा जस का तस बना हुआ है। जहाँ आज भी दबंगो द्वारा दलितों को सार्वजनिक तालाबों के इस्तेमाल पर 'प्रतिबन्ध' लगाया जाता है, जिसके कारण दलितों को बूँद-बूँद के लिए भी दूर तक भटकना पड़ता है। तालाब के किनारे स्थित इस दलित बस्ती में सामन्ती फरमानों के आगे जिन्दगी कैसे रेंगती है इसका अनुमान आप बस्ती के ही राम सहाय कें इस बात से लगा सकते है, 'साहब! हम पानी के पास रहकर भी प्यासे रहते हैं। हम पानी को देख तो सकते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते'। . . . . . . पूरा पढ़ें

गुजरात का नरेन्द्र मोदी शासन: जहाँ आम आदमी की जिंदगी मोदी- रहमोकरम पर.......

-मीनाक्षी अरोड़ा
सोहराबुद्दीन शेख की हत्या का मामला फिर गरमा गया है। आखिर बौखलाहट में सच्चाई मोदी की जुबान पर आ ही गयी। मोदी ने सोहराबुद्दीन शेख की हत्या को सही ठहराया और कहा कि ऐसे लोगों का यही हस्र होना चाहिए। बौखलाहट की वजह साफ है हिन्दूकार्ड का नहीं चलना। भाजपा बागियों के कारण घिर गये मोदी हिन्दू वोटों को बंटने से रोकने के लिए यह साम्प्रदायिक कार्ड खेला है। वैसे सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ के आरोपपत्र में सीआईडी ने स्पष्ट कहा है कि इन सबने सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर पब्लिसिटी और प्रमोशन पाने के लिए किया था।
क्या है मामला-
सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स को पुलिस अधिकारियों ने लश्कर का आतंकवादी बता फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा. उज्जैन के पास स्थित गांव झिरनया निवासी सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच है. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है.कटघरे में कौन - गुजरात के डीआइजी डीजी बंजाराए एसपी राजकुमार पांडयन और राजस्थान में अलवर के एसपी एमएन दिनेश. तीनों गिरफ्तार. पुलिस के कुछ और अधिकारियों के नाम सामने आने की संभावना.
फूलप्रूफ प्लानिंग
22 नवंबर 2005 - बस से हैदराबाद से सांगली जा रहे पति-पत्नी सोहराबुद्दीन शेख व कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति को पुलिस ने बिना अरेस्ट वारेंट के उतार लिया. कौसर बी को उतारने के लिए कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं.
24 नवंबर 2005 - गोपनीय पूछताछ के नाम पर एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड इन्हें व्यापारी गिरीश पटेल के गांधीनगर के पास जमियतपुरा स्थित फार्म हाऊस में ले गये.
26 नवंबर 2005 - 25.26 की रात पुलिस सोहराबुद्दीन को अहमदाबाद के पास ले गयी. तीनों अधिकारी पहले से मौजूद. एक कांस्टेबल को एटीएस में रखी हीरो होंडा बाइक लाने को कहा गया. तड़के करीब 4 बजे राजस्थान पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर ने थोड़ी दूर तक बाइक चलायी और चलती बाइक को सड़क पर रपट कर कूद गया. सोहराबुद्दीन को भी कार से निकालकर बाइक के पास फेंका गया. 4 इंस्पेक्टरों ने उसे गोलियों से भून डाला.
28 नवंबर 2005 - कौसर बी की हत्या कर शव को जला दिया गया. सीआइडी के मुताबिक हत्या बंजारा के गांव के पास की गयी.

गुजरात में ही सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी की हत्या की तर्ज पर ही इशरतजहाँ और उसके साथियों को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। नरेन्द्र मोदी शासन सुराग तक ढूंढने में नाकाम रहा था। गुजरात में फर्जी मुठभेड़ का तो जैसे पिटारा ही खुल गया है। खाकी वर्दी में साम्प्रदायिक हिंसकों का जैसे एक नया वर्ग पनप रहा है।
जहाँ साम्प्रदायिक नफरत इस कदर पनप रही है कि हिंसको का यह वर्ग शासन पर भी भारी पड़ रहा हो, तो उसके बारे में आप क्या कहेंगे, क्या किसी से न्याय की उम्मीद की जा सकती है, आतंकवादी तो रोज रहस्यमय परिस्थितियों में मारे जाते हैं लेकिन सोहराबुद्दीन शेख और बाद में उसकी पत्नी और एकमात्र चश्मदीद गवाह तुलसीराम प्रजापति जैसे निर्दोष लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या करने के लिये न तो राजनीति के ठेकेदारों की कोई जवाबदेही है, न ही पुलिस प्रशासन की।
गुजरात पुलिस के डायरेक्टर जनरल पी सी पांडे के नापाक कैरियर पर तो जरा गौर कीजिये जिनके सरपरस्त मोदी जी खुद हैं। यह जानते हुए भी कि उनका रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। उस दौरान शहर के पुलिस चीफ रहे पांडे ने अहमदाबाद को मौत की आग में झोंक दिया। गोधरा रेल हत्याकांड के बाद विश्व हिंदू परिषद् और बजरंग दल ने न केवल पुरुषों और बच्चों की निर्मम हत्याएं की बल्कि स्त्रियों के साथ बलात्कार किए, घरों और दुकानों में लूटपाट की। मिली खबरों और मीडिया ने गृहमंत्री गोरधन जडाफिया, नरेंद्र मोदी, पांडे और उसके पुलिस बल की पोल खोलकर रख दी कि यह हत्याकांड पूर्व नियोजित तरीके से राज्य और सत्ता के ठेकेदारों के संरक्षण में किया गया है। भाजपा-विहिप नेताओं की पुलिस कंट्रोल रूम से सेलफोन पर बातचीत के रिकॉर्ड मौजूद हैं, यहाँ तक कि जडाफिया भी इसमे सीधे तौर पर शामिल थे। खबरों के हिसाब से तो पांडे पूर्व कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी से मिले और उन्हें पुलिस सुरक्षा का विश्वास भी दिलाया, लेकिन दंगइयों ने अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसाइटी में बीसियों लोगों को जिंदा जला दिया। जाफरी की पत्नी ने अपने पति और निर्दोष लोगों की बेरहमी से की गई हत्या को अपनी आंखों से देखा और पांडे जी की पुलिस का तो अता-पता भी नहीं था।
दंगों के शिकार लोगों ने नरौडा पटिया में भाजपा-विहिप नेताओं मायाबेन कोडनानी, बाबू बजरंगी और जयदीप पटेल पर खुले तौर पर दंगे भड़काने का आरोप लगाया। अहमदाबाद में युवकों और किशोरियों खासतौर पर मुसलमानों को निशाना बनाकर बजरंगी ने अकेले ही फिल्म परजन्या को रोक दिया जबकि गुजरात पुलिस ने अलग रास्ता अख्तियार किया। भाजपा सांसद बाबूभाई कटारा हाल ही में मानव व्यापार के दोषी पाए गए, इतना ही नहीं उनके बेटे का गुजरात दंगों में हाथ होने का भी सबूत मिला है, तो ऐसे में आरएसएस और भाजपा सत्ता की ठेकेदार कैसे बन सकती है? कैसे गुजरात पुलिस इस रैकेट का भंडाफोड़ करने में नाकाम रही? क्यों पुलिस के हाथ कोई सुराग नहीं लगा?
ऐसे में जहां मोदी की सरपरस्ती में फर्जी मुठभेड़ राज्य का चरित्र बन गया हो वहां सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर बी जैसे निर्दोष लोग फर्जी मुठभेड़ में मार दिए जायें तो इसमें हैरानी ही क्या हैघ् जहां-जहां मोदी और उसके चेलों ने 'मुसलमानों पाकिस्तान लौटो' का नारा बुलंद किया वहीं अनेक मुसलमानों को आतंकवादी करार देकर फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतार दिया गया।
नफरत को एक खूबसूरत जामा पहनाया गया है ठीक वैसे ही जैसे एक आर्किटेक्ट एक शहर का डिजाईन बनाता हैए जिसमें खुद ही राज्य की छत्रछाया में दंगे कराओ, जेल में मुसलमानों को डाल दो, वो भी पोटा के तहत, हत्यारे और बलात्कारी आजाद हवा में सांस लें, महज इसलिए कि वें आपके संघ परिवार के लंगोटिए हैं। उस साम्प्रदायिक पुलिस का क्या- उसे भी आप कोई दंड नहीं देते, हजारों लोगों को आप मजबूर कर देते हैं शरण्ाार्थियों की तरह खुले आसमान के नीचे तम्बुओं में रहने के लिएए इस तरह लाचार लोगों को अपनी ही जमीन से बेघर करके खुद ही आप तानाशाह बन जाते हैंए न्यायालय के दरवाजे बंद कर देते हैं। उन गरीबों, बेघरों की रोजी तक छीनकर, उन्हें समाज से भी अलग-थलग कर देते हैं या फिर 'जाहिरा शेख केस' की तरह रिश्वत देकर शिकायत वापिस लेने की धमकी देते हैं और जर्मन के फासीवादी और इसराइल के यहूदीवादियों की तरह भारतीय मुसलमानों के दिल में एक ऐसा खौफ भर रहे हें कि उन्हें लोकतंत्र, न्याय तो दूर मदद की एक उम्मीद तक आपसे नहीं है। अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रह गए हैं।
इतना ही नहीं खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए भी मोदी के गैर- संवैधानिक तरीकों के खिलाफ़ गूंगी और बहरी बन गई है। मोदी खुद को विकास पुरुष कहते हैं दरअसल उनकी ऑंखें केंद्र पर टिकी हैंए वे तो खुद को भावी प्रधानमंत्री समझते हैं। धर्म निरपेक्षता के नाम पर आप सब कुछ कर सकते हैं; दंगे-फसाद और हिंसा, लेकिन बस विकास का पल्ला पकडे रहिए।
जहाँ राजनीति के ठेकेदार खुद ही धर्मनिर्पेक्षता और लोकतंत्र की धज्ज्ाियां उड़ा दें, पुलिस नौकरशाही और कानून, सब साम्प्रदायिक हो गए हों ऐसे में गुजरात सरकार 'एंटी- टेरारिस्ट स्क्वाड' के आत्मसमर्पण में इतनी नैतिक कैसे हो गई?
'एंटी-टेरारिस्ट स्क्वाड' के हैड डी.जी. वन्जारा, एस. पी. इंटेलिजेंस राजकुमार पंडियान और एम. एन. दिनेश कुमार एस. पी. अलवर राजस्थान को 26 नवम्बर 2005 को हुई सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है तीन अन्यों को भी गिरफ्तार किया गया है जिसमें एक व्यक्ति्त वह है जिसने जांच अधिकारी गीता चौधरी को ग्राफ़िक डिटेल दिए थे। वन्जारा को मोदी का आदमी बताया गया था। खैर इस सबसे यह तो साफ़ है कि इन दंगों के पीछे मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का हाथ है। भाजपा विरोधी नलिन भट्ट ने भी वन्जारा द्वारा अंजाम दी गई इस रहस्यमय मुठभेड़ों की सी.बी.आई. जाँच की माँग की है। सब इस बात को जानते हैं कि वन्जारा तो मात्र एक कठपुतली था। इशरत जहां, समीर पठान और अन्य लोगों की हत्या के मामले एक बार फ़िर उठाए जा रहे हैं, अगर इस बार गुजरात पुलिस मोदी को हत्यारा साबित करने में नाकाम रहती हैं तो मोदी और उसकी राजनीतिक ठेकेदार और पुलिस को कुछ भी कर के साफ़ बच निकलने का आसान रास्ता मिल जाएगा।
सी.आई.डी.(क्राइम) आईजी. गीता चौधरी की रिपोर्ट कि सोहराबुद्दीन शेख की हत्या का मामला फ़र्जी मुठभेड़ का मामला है, के बाद गिरफ्तारी का निर्णय लिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उन्होने जाँच की और दिसंबर 2006 में अपनी रिपोर्ट दे दी थी तो फ़िर राज्य सरकार इतने समय तक चुप क्यों रही? क्यों और कैसे इस जाँच को गीता चौधरी के हाथ से लेकर किसी दूसरे अफसर को दे दिया गया? सच तो यह है कि गुजरात पुलिस में आज ईमानदार पुलिस अफसर का गला घोंटा जा रहा है। उनके लिए वहां कोई जगह नहीं है। 2002 के दंगों में कुछ पुलिस अफ़सर और प्रशासनिक अधिकारीए हिंदुत्ववादियों को दंगा भड़काने से रोकना चाहते थे, लेकिन मोदी ने इस पर गौर नहीं किया। दंगों के बाद श्रीकुमार ने मोदी के खिलाफ़ आवाज उठाई लेकिन उसे और उसके जैसे अनेक अफ़सरों को दंगों के दौरान और बाद में भाजपा सरकार और हिंदुत्ववादी झंडेबरदारों का कोपभाजक बनना पड़ा।
मुख्यमंत्री और गृहमंत्री का फ़र्जी मुठभेड़ में हाथ होने की पोल खुलने के डर से गुजरात पुलिस सी.बी.आई. जाँच का विरोध कर रही है।

कौसर बी के साथ बलात्कार, फिर हत्या -
इस बात के पुख्ता सबूत मिल रहे हैं कि शेख की पत्नी कौसर बी के साथ बलात्कार करके हत्या की गई। उसे गाँधीनगर के पास एक फार्म हाउस पर ले जाया गया और 26 नवम्बर 2006 शेख की हत्या करने के बाद 28 नवंबर को मार दिया गया। उसकी लाश को वन्जारा के गांव इलोल, हिम्मतनगर लाने के बाद जला दिया गया। एक सिपाही ने यह सब अपनी ऑंखों से देखा और बताया कि कैसे बलात्कार के बाद वह बीमार हो गई इसलिए उसे जला दिया गया। यहाँ तक कि चश्मदीद सिपाही की भी हत्या कर दी गई।
अपहरण, हत्या बलात्कार के इस दहलाने वाले मंजर को पुलिस के आला अफ़सरों, सिपाहियों ने मिलकर अंजाम दिया। कितने दिन और रात गैर- कानूनी साधन जुटाए, वाहन किराय के लिए गए और फ़ार्म हाउस एक भाजपा नेता का था और ऐसे में मजेदार बात तो यह है कि मोदी शासन, उसकी पुलिस और नौकरशाही के हाथ कोई सुराग तक नहीं है।
शेख के बारे में भी कुछ अफ़वाहें सुनने में आ रही हैं कि उसे इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह उनके अंदर के बहुत से राज जानता था। वह खुद भी सीडी साजिश में शामिल था और उसके परिवार के राजस्थान में भाजपा से सम्बंध्द थेए उसकी माँ गाँव की सरपंच थी और परिवार मारबल का व्यापार करता था लेकिन व्यापार छिन जाने के बाद वह संकट में आ गया वगैरह....... लेकिन इन सब कहानियों को सच नहीं माना जा सकता। सी. आई. ड़ी. गीता चौधरी की रिपोर्ट और गुजरात पुलिस व सरकार के हस्तक्षेप के बिना उचित सी. बी. आई. जाँच के बाद निश्चित रूप से इन रहस्यमयी हत्याओं का पर्दाफ़ाश होगा। इतना ही नहीं और भी बहुत सी फ़र्जी हत्याओं के रहस्य से पर्दा उठेगा।जरा मुम्बरा की इशरत जहां और अहमदाबाद में तीन फिदायीन आतंकवादियों की जून 15ए 2004 को हुई निर्मम हत्या को याद कीजिए। जिसके बारे में कहा गया कि वें मोदी की हत्या के मिशन पर आए थे। 'नेशनल सिविल लिबर्टीज' की टीम में अपने अध्ययन में पाया कि पुलिस के बयान के मुताबिक केवल एक आतंकवादी भागा था। उन चारों के पास से केवल एक एके-56 और दो पिस्तौलें बरामद हुईए 20 पुलिस कर्मियों के दो दलए जो एके-47 और रिवॉल्वरों से लैस थे। कार को घेरने के बावजूद भी विपक्षी दल पर कमजोर पड़ गई। इस बात से पुलिस की नीयत पर सीधा शक जाता है कि वे उनकी हत्या के इरादतन वहाँ गई थी.........
अगर पुलिस की इस बात को माने कि आतंकवादियों ने बयालिस बार गोली चलाई तो एक भी पुलिस कर्मी के बदन पर गोली का निशान तक क्यों नहीं पाया गया? इस बात का सबूत न होने से उनके इस झूठ को सच नहीं माना जा सकता कि उन्होंने अपने बचाव में गोलियां चलाईं थीं.....

मोदी की स्वीकारोक्ति से उठे सवाल
मोदी की स्वीकारोक्ति के बाद क्यों सोहराबुद्दीन शेख हत्या के मामले में मोदी को आरोपी नहीं बनाया जा रहा है? जबकि सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी के बारे में सुप्रीम कोर्ट में दिया गया गुजरात सरकार का यह बयान कि ये दोनों एनकाउंटर में नहीं मारे गये थे। बल्कि पुलिस ने सोच-समझ कर उनकी हत्या की थी। किसी सरकार द्वारा की गयी एक महत्वपूर्ण और शर्मनाक स्वीकारोक्ति है. पर देखने की बात यह है कि इस स्वीकारोक्ति से देश का आम आदमी चौंका नहीं है. जाहिर है कि इस तरह के एनकाउंटर आम बात हो चुके हैं। 2003 से लेकर 2006 के बीच नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कम से कम 27 एनकाउंटर हो चुके हैं. यह कहना तो कठिन है कि इनमें से कितने सचमुच एनकाउंटर थे और कितने फर्जी लेकिन यह इस बात का सबूत तो हैं ही कि कथित अपराधियों के खात्मे का यह तरीका प्रशासन को रास आता है.

गुजरात में भी एंटी टेररिज्म स्क्वाड के मुखिया डीजी बंजारा की मोदी सरकार कई बार पीठ थपथपा चुकी है. इन्हीं के निर्देशन में सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी की हत्या की योजना क्रियान्वित हुई थी. तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी और अब गुजरात सरकार द्वारा गिरफ्तारी को अंजाम देनेवाले अफसर के पर कुतरने की कार्रवाई इस बात का प्रमाण है कि पुलिस यह काम सरकारी समर्थन (या शह) के बिना नहीं कर सकती थी. बात सिर्फ पुलिस तक ही सीमित नहीं हैं। गुजरात तक ही नहीं. हम देख चुके हैं कि कश्मीर और असम में कैसे सेना आतंकवादी बता कर निर्दोषों का एनकाउंटर कर चुकी है. अक्सर इस अवैध और अमानुषिक कारवाई के शिकार बेगुनाह होते हैं. गुजरात का यह मामला नवीनतम उदाहरण है. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव में भाजपा नेता वीके मल्होत्रा कह रहे हैं कि सोहराबुद्दीन जैसे व्यक्ति को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए। वह भयादोहन जैसी गतिविधियों में लिप्त था। लेकिन इस सच को कैसे नकारा जाये कि सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी न आतंकवादी थे, न लश्कर-ए-तोएबा के लिए काम करते थे और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री को मारने की साजिश कर रहे थे।

सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी की हत्या की तर्ज पर ही इशरत जहाँ और उसके साथियों को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया। क्या और लोग भी इसी तरह अतिरिक्त न्यायिक कार्यवाही के नाम पर मौत के घाट उतार दिए जाएँगे? क्यों आतंकवादी हमेशा मार दिए जाते हैं? पकड़े क्यों नहीं जाते? जिससे उनके सरपरस्तों का भंडाफोड़ कर औरों को बचाया जा सके। सिपाहियों को गम्भीर चोटें क्यों नहीं लगती, ऐसा क्यों होता है कि उनमें से ज्यादातर या तो मोदी की हत्या के लिए मिशन पर होते हैं या पाकिस्तानी इस्लामी ग्रुप से जुड़े होते हैं? एक ही तरह के मुठभेड़ में हर बार वही सिपाही क्यों शामिल होता है ? क्या ऐसी मुठभेड़ों के तरीके एकतरफा नहीं हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि मुख्यमंत्री से लेकर गृहमंत्री आदि इंटेलिजेंस, पुलिस और प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं है? क्या कभी सच बाहर आएगा? क्या न्याय की जीत होगी? या फिर वंजारा के गांव में जलाई गई कौसरबी की लाश की राख में सबूतों की तरह यह भी भारतीय लोकतंत्र के प्यासे कुंए में दफ़न हो जाएगा?

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सोहराबुद्दीन मामले से प्रकाश में आये डीआइजी डीजी बंजारा की संपत्ति तो लगभग 150 करोड़ बतायी जा रही है, जिसमें होटल, बंगला और भूमि है. फर्जी मुठभेड़ से ऐसे पुलिसवालों की कमायी का अंदाजा लगाना इतना आसान भी नहीं है. जमीन-जायदाद के मामले को सुलझान में ही कमाई लाखों में हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक फर्जी मुठभेड़ में एक पुलिसवाले की सलाना कमाई 2 से 5 करोड़ रुपये तक हो जाती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इतना सबकुछ पता है तो ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है, जवाब भी सीधा है कि ऐसे लोगों के उपर राजनेताओं का हाथ होता है, जो ऐसे पुलिसवावलों का उपयोग अपने सत्ता संचालन में करते हैं.
सवाल यह उठता है कि ऐसे में पुलिस फोर्स को अपराध से लड़ने के लिए किस प्रकार का और कैसे अधिकार दिये जाने चाहिए और उसका उपयोग किस प्रकार से करें कि इसका गलत उपयोग न हो सके. इसके लिए पुलिस प्रशासन को एक दिशा निर्देश की जरूरत है, जिसमें हर एक एनकाउंटर के बाद उसकी पुलिस विभाग द्वारा ही जांच की जानी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद इस केस की सच्चाई सामने आ रही है. ऐसे में दिल्ली और मुंबई सहित पूरे देश में हो रहे एनकाउंटर शक के दायरे में आ गये हैं. प्रकाश में आये ज्यादातर पुलिसवालों की संपत्ति लाखों में नहीं करोड़ों में देखी गयी है. एक लेखक के रूप में कैरियर की शुरुआत करने के बाद पुलिस फोर्स ज्वाइन करनेवाले दया नायक की संपत्ति का अनुमान एंटी करप्शन ब्यरो ने लगभग 9 करोड़ आंकी है. एक सब इंस्पेक्टर जिसकी सैलरी 12 हजार रुपये है, को दुबई के एक होटल का पार्टनर बना पाया गया है और कर्नाटक में 1 करोड़ की लागत से स्कूल भी है, जिसका उदघाटन सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने किया था. ऐसा नहीं है कि ऐसे केस सिर्फ मुंबई में ही हुए है. देश के अन्य शहरों में भी इस तरह की घटनाएं आम है.

जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं बनाया जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगा.
प्रशांत भूषण (वरिष्ठ अधिवक्ता)
आये दिन पुलिस द्वारा किये गये फर्जी मुठभेड़ की खबर सुनने को मिलती है, लेकिन अजीब विडंबना है कि ऐसे मामलों में दोषी पुलिसवालों को दंड कम ही मिल पाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे सिस्टम में व्याप्त खामियां हैं. फर्जी मुठभेड़ की खबर जब सामने आती है, तब कोई जांच कमेटी या साधारण जांच गठित कर दी जाती है. लेकिन इसका निष्कर्ष सही दिशा में नहीं निकल पाता. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है जांच में पुलिसवालों का शामिल होना. निश्चित रूप से एकसाथ काम कर रहे पुलिसवालों को आपस में सांठ-गांठ बनी ही रहती है. यह बात स्पष्ट रूप से जांच में सामने आता है. गुजरात, कश्मीर, उत्तर पूर्वी राज्यों आदि में फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं अक्सर सुनने में आती है. ऐसे मामलों में सभी की सामूहिक जवाबदेही तय होनी चाहिए. राजनीतिक पार्टियां भी अपने हित के लिए पुलिस का इस्तेमाल करती है और फर्जी एनकाउंटर करवाया जाता है.
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फिलिस्तीन की पीठ-लोकतंत्र का नक्शा

फिलिस्तीन जमीन से ज्यादा एक जज्बा है। आजादी की एक ऐसी जंग जो आज भी जारी है। फिलिस्तीन दुनिया के बादशाहों की बिगड़ैल फौज के आगे निहत्थे मुट्ठी तानकर खड़े हो जाने के साहस का भी नाम है। आजादी-पसंद फिलिस्तीन को फिलहाल दुनिया के बादशाहों ने अपनी शतरंजी चालों से घेर दिया है और फिलिस्तीन में लोकतंत्र रोज लहूलुहान हो रहा है। शहादत की इस धरती पर राष्ट्रवाद बनाम लोकतंत्र का कठिन सवाल एक बार फिर सामने है। एक बँटे-छँटे फिलिस्तीन का नक्शा खींचकर उस पर डिजायनर लोकतंत्र का 'मेड इन अमेरिका' स्टीकर लगाने की कवायद तेज हो गई है। इस कवायद के मकसदों पर सवाल उठाता आलेख। . . . . . . पूरा पढ़ें

बड़े उद्योगों की बड़ी विडंबना - सुनील

मध्य प्रदेश के रीवा जिले में जेपी. सीमेंट कारखाने के गेट पर 22 सितंबर की सुबह समीप के गांवों के हजार से ज्यादा स्त्री-फरुष-बच्चे वहां अपनी मांग लेकर इकट्ठे हुए। मांगे रखने से पहले ही पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। फिर फैक्टरी प्रबंधन की ओर से गोलियां चली। एक नौजवान मारा गया। सौ के लगभग स्त्री-पुरुष घायल हुए, ज्यादातर घायलों को फैक्टरी के सुरक्षाकर्मियों की बंदूकों के छर्रे लगे थे। पुलिस व प्रबंधन का कहना है कि भीड़ बेकाबू हो गई थी और पथराव कर रही थी।
ग्रामवासियों की दलील है कि उन्हें हुड़दंग ही करना होता, तो स्त्रियां-बच्चें क्यों आते? ग्रामवासियों की मांग थी कि फैक्टरी में उन्हें स्थायी रोजगार दिया जाए। फैक्टरी उनकी जमीन पर बनी है, किंतु उन्हें इसमें रोजगार नहीं मिला। कुछ लोगों को रोजगार मिला, तो वह भी दैनिक मजदूरी पर अस्थायी चौकीदारों के रूप में। चौबीस वर्ष पहले 1983 में कारखाने का शिलान्यास करते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने ग्रामवासियों से कहा था कि यह फैक्टरी आपके विकास के लिए है, आप जमीन दो, हम रोजगार देंगे। . . . . .पूरा पढ़ें

पंचायतो में महिलाओं की भागीदारी से: बदलाव की आहट सुनाई देती है - लोकेन्द्रसिंह कोट

लोकतंत्र की सबसे छोटी लेकिन महत्वपूर्ण इकाई हैं पंचायत। यहीं से प्रारम्भ होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी। प्राचीन समय से लेकर महात्मा गांधी के समय तक पंचायत की बात प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ढंग से होती रही है। वर्ष 1955 में पंचायतों की व्यवस्था की गई जो कई कारणों से असफल सिध्द हुई। इस एक बहुत बड़े अंतराल के बाद वर्ष 1993 में 73वें एवं 74वें संशोधन पर अभी तक हाशिए पर रही महिलाओं को इसमे 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इस उल्लेखनीय आरक्षण का परिणाम यह रहा कि देश भर की पंचायतों मे लगभग 1,63,000 महिलाएँ विभिन्न पदों पर नियुक्त हुई तथा सरपंच के तौर पर लगभग 10,000 महिलाएँ आगे आईं। एक पुरूष प्रधान समाज में इतना बड़ा कदम और फिर अच्छा परिणाम एक बारगी तो खुश होने के लिये पर्याप्त था लेकिन, बदलाव की इस प्रक्रिया में सिक्के का दूसरा पहलू भी विद्यमान रहा। कागजों पर ऑंकड़े और धरातल का व्यवहारिक सत्य, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर पाया गया। . . . . . . .पूरा पढ़ें

मुख्य धारा से जुड़ने के लिए संघर्ष कर रही हैं- आदिवासी महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

कक्षा 8 तक पढ़ी सुखवती ने नौ महिलाओं को पछाड़ते हुए तीन गांव की सरपंची हासिल की थी और उनकी पंचायत में चार महिला पंच भी हैं और वे भी उन्हे सहयोग देती हैं। उन्हौने पिछले ढाई-तीन साल में तीन तालाब, तीन कुएँ और लगभग साढे तीन किलोमीटर सड़क के साथ ही साथ रोजगार गारंटी योजना के तहत 473 लोगों को सौ दिनों का रोजगार मुहैया करवाया है। पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जो पिछली तीन पारियों से यहाँ के सचिव हैं कहते हैं, ''महिलाएँ अधिक संवेदनशील होती हैं और उनमें कार्य को सही ढ़ंग से करने का सलीका तथा प्रबंधन के नैसर्गिक गुण पाए जाते हैं इसलिए मैं उनके साथ कार्य करने में पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ।'' . . . . . . पूरा पढ़ें

समाज और परिवार का समायोजन सेतु है - नेतृत्व करती नारी - लोकेन्द्रसिंह कोट

जहाँ एक ओर आ रही जबरन आधुनिकता, स्वच्छंदता व गुमराह स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रही है, वहीं आज की नेतृत्व करती नारी परिवार के तारों को आधुनिकता तथा संस्कृति के मध्य समायोजन कर बाँधने का प्रयास कर रही है। सिहोर जिले की कुर्लीकलां ग्राम पंचायत की सरपंच मैनबाई घर-घर जाती हैं, सबसे बातें करती हैं और इसी के चलते उन्हौने गांव पंचायत के विभिन्न वर्ग के लोगों में अपना विशेष स्थान बना लिया है। लोगों की सामाजिक और निजी समस्याओं को धेर्यपूर्वक सुनना और फिर उनके हल की दिशा में सार्थक प्रयास करना, वहाँ के लोगों को भी लगता है कि वे एक नारी हैं इसलिए इस मुकाम पर वे पुरूषों से बेहतर सामजस्य बैठा पाती हैं। मैनबाई स्वयं बहुत ही गरीब आदिवासी परिवार से संबध्द हैं और पंचायत के चारो गांवों, कुर्लीकलां, नांजीपुर, काेंड़कपुरा और निमावड़ा के गरीबों की व्यथा समझते हुए उस दिशा में जीतोड़ प्रयास करती हैं।. . . . .पूरा पढ़ें

गोपनीयकारक – जयसिंह

इतिहास हमें इस बात का ज्ञान कराता है कि अनेक राष्ट्रों का विनाश का कारण बाहरी आक्रमण से ज्यादा अक्सर आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार ही होता है। आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार; कठोर और अपारदर्शी कानूनों से और मजबूत होता है तथा जनता को उनके अधिकारों से वंचित करता है। यह समाज के जानने की स्वतंत्रता से समझौता कर जनता के विकल्प को सीमित तथा उनके अधिकारों को कमजोर बनाता है। जबकि दूसरी तरफ पारदर्शिता विकास के दरवाजे खोलता है तथा ठीक आधारों पर लोगों को समर्थ बनाता है। सरकारी कार्यों में पारदर्शिता की आवश्यकता लोकतांत्रिक सरकार के लिए बुनियादी सिध्दांत है। सूचनाओं का महत्व सिर्फ राज्य, सरकार या सरकारी कर्मचारियों के लिए ही नहीं होती बल्कि आम लोगों के लिए भी होती है। . . . . . .पूरा पढ़ें

गोद लेने की आड़ में बच्चों का व्यापार - गीता वरदराजन चेन्नई से

हाल ही में चेन्नई उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक फैसले में गोद लेने (इंटर-कंट्री एडॉप्शन- आईसीए) के एक घटनाक्रम में तीन बच्चों के अपहरण की जांच के आदेश सीबीआई को देने के मामले ने एक बार फिर कानूनी विधायी तंत्र की असफलता को उजागर कर दिया है। एक दम्पत्ति को गिरफ्तार किया गया है जो गोद लेने (एडॉप्शन) के आड़ में सरकार तथा उसकी एजेंसीयों के आंखों में धूल झोंककर बच्चों का व्यापार करता था।कुछ समय पहले तमिलनाडु पुलिस ने बच्चों का व्यापार करने वाले एक रैकेट, जिसमें कई व्यक्तिगत तथा सरकारी एजेंसियां शामिल थीं; का भांडाफोड़ किया था। ये व्यापारी सड़क छाप बच्चों या गरीब परिवार के बच्चों और सरकारी अस्पतालों के मातृत्व कक्ष में भर्ती महिलाओं के बच्चों को अपहृत करते और तथाकथित गोद ग्रहण करनेवाली एजेंसियों को 5000 रू से 25000 रू प्रति बच्चे की दर से बेच देते थे। . . . . . . .पूरा पढ़ें

लोक अदालतें : खट्टे-मीठे अनुभव

लोक अदालतों का मुख्य लक्ष्य विवाद के त्वरित निर्णय और दोस्ताना समझौते के साथ-साथ विवादित पक्ष तथा न्यायालय के समय और पैसे की बचत भी है। लेकिन राज्य के उद्देष्यों को पूरा करने में लोक अदालतों के लक्ष्यों की सफलता अभी भी विवादित ही है। फैजल ने लोक अदालतों के सार्थकता और प्रभाव की जानकारी के लिए कष्मीर के कानूनी मामलों से जुड़े कुछ लोगों से बात की। उनकी राय-विचारों का सारांष यहां प्रस्तुत है :

मीर सैयद लतीफ (कश्मीर बार एसोसिएशन के सदस्य)
जन अदालतों की स्थापना का उद्देष्य मुकदमों में लगनेवाले समय को कम करना तथा सुविधा में वृध्दि करना और जल्दी निपटारा करना था। लेकिन लोक अदालतों को लेकर आम लोगों में जागरूकता की कमी है जो इस उद्देष्य को हासिल करने में एक रूकावट है। इसके अलावा वकील अपने मुवक्किल से मामले को लोक अदालतों में ले जाने से पहले सलाह नहीं करते जिसके कारण मुकदमों के निपटारे की गति काफी धीमी है। वकीलों को चाहिए कि वे संबंधित पक्षों को एक सद्भावपूर्ण समझौते के लिए प्रेरित करें और मुकदमों के निपटारे को आसान बनाएं। . . . . पूरा पढ़ें

शिक्षा में छिपा है महिला सशक्तिकरण का रहस्य - राजु कुमार

महिला सशक्तिकरण की जब भी बात की जाती है, तब सिर्फ राजनीतिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण पर चर्चा होती है पर सामाजिक सशक्तिकरण की चर्चा नहीं होती.
ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है. उन्हें सिर्फ पुरुषों से ही नहीं बल्कि जातीय संरचना में भी सबसे पीछे रखा गया है. इन परिस्थितियों में उन्हें राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त करने की बात बेमानी लगती है, भले ही उन्हें कई कानूनी अधिकार मिल चुके हैं. महिलाओं का जब तक सामाजिक सशक्तिकरण नहीं होगा, तब तक वह अपने कानूनी अधिकारों का समुचित उपयोग नहीं कर सकेंगी. सामाजिक अधिकार या समानता एक जटिल प्रक्रिया है, कई प्रतिगामी ताकतें सामाजिक यथास्थितिवाद को बढ़ावा देती हैं और कभी-कभी तो वह सामाजिक विकास को पीछे धकेलती हैं.
प्रश्न यह है कि सामाजिक सशक्तिकरण का जरिया क्या हो सकती हैं? इसका जवाब बहुत ही सरल, पर लक्ष्य कठिन है. शिक्षा एक ऐसा कारगर हथियार है, जो सामाजिक विकास की गति को तेज करता है. समानता, स्वतंत्रता के साथ-साथ शिक्षित व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों का बेहतर उपयोग भी करता है और राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त भी होता है. महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से शिक्षा से वंचित रखने का षडयंत्र भी इसलिए किया गया कि न वह शिक्षित होंगी और न ही वह अपने अधिकारों की मांग करेंगी. यानी, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाये रखने में सहुलियत होगी. इसी वजह से महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत बहुत ही कम है. हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं स्वाभाविक सामाजिक विकास के कारण शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, जिस कारण बालिका शिक्षा को परे रखना संभव नहीं रहा है. इसके बावजूद सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से शिक्षा को किसी ने प्राथमिकता सूची में पहले पायदान पर रखकर इसके लिए विशेष प्रयास नहीं किया. कई सरकारी एवं गैर सरकारी आंकड़ें यह दर्शाते हैं कि महिला साक्षरता दर बहुत ही कम है और उनके लिए प्राथमिक स्तर पर अभी भी विषम परिस्थितियाँ हैं. यानी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए जो भी प्रयास हो रहे हैं, उसमें बालिकाओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित करने की सोच नहीं दिखती. महिला शिक्षकों की कमी एवं बालिकाओं के लिए अलग शौचालय नहीं होने से बालिका शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और प्राथमिक एवं मिडिल स्तर पर बालकों की तुलना में बालिकाओं की शाला त्यागने की दर ज्यादा है. यद्यपि प्राथमिक स्तर की पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही कई कमियां हैं. . . . .पूरा पढ़ें

नोवार्टिस का चीनी दवा कंपनियों और भारतीय जयचंदों से गठजोड़ -मीनाक्षी अरोड़ा

नोवार्टिस की चाल
पर दवा में अकूत मुनाफे के लालच में पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने एक नई चाल चली; रक्त कैंसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर कर दिया कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी अदला-बदली करके किया गया है। इस पर नोवार्टिस ने भारत सरकार पर मुकदमा कर दिया है कि 'भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुध्द है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये।' पर काफी लड़ाइयों के बाद चेन्नई हाईकोर्र्ट में नोवार्टिस की याचिका खारिज कर दी। . . .

चेन्नई हाईकोर्र्ट में याचिका खारिज होने के बाद नोवार्टिस एक बार फिर भारतीय पेटेंट कानून को कुछ और दांव-पेंच के साथ चुनौती देने की तैयारी कर रही है :-

इस बार नोवार्टिस अकेली नहीं है बल्कि माशेल्कर और शमनाद बशीर जैसे जयचंदों और चीन की 'ओपीटीआर' के दबाव से मुकदमा जीतने की तैयारी की जा रही है।
रोचक मोड़ तो यह है कि चेन्नई हाईकोर्ट में खाए हुए तमाचे के बाद बौखलायी नोवार्टिस ने तुरन्त यह घोषणा कर दी कि भारत में पेटेन्ट कानूनों पर कठोर प्रतिबन्धों के चलते यह चीन में निवेश करेगी।

नोवार्टिस को जब पेटेंट की मंजूरी नहीं मिली तो उसने भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों सिपला आदि की दवा कीमतों को ही चुनौती देना शुरू कर दिया। हाल ही में 'द हिंदू' में सिपला को चुनौती देने वाले विज्ञापन ने इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नीच हथकण्डों की साजिश का पर्दाफाश कर दिया है। . . . . . पूरा पढ़ें

घटता लिंगानुपात और महिला नेत्रियाँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

कितना विचित्र लगता है कि जो सुख-सुविधाएँ हमे आसानी से मिल जाना थी उसके लिए हमे भारी जद्दोजहद करना पड़ती है और आज तीव्र विकास के चलते हमे जहाँ होना चाहिये वहाँ नहीं पहुँच पाने का अवसाद झेलना पड़ता है। इन सब के पीछे सबसे महत्वपूर्ण एवं विकराल समस्या हमारी जनसंख्या में अंधाधुंध बढ़ोतरी है। हमारे देश की उतरोत्तर प्रगति में हमेशा से बाधक बनी रही जनसंख्या विस्फोट की समस्या इन दिनों अपने नए-नए जाल फैलाती जा रही है। विशेषकर अशिक्षा, जागरूकता के अभाव और समस्या की भयावहता से अपरिचित होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या में भारी बढ़ोतरी हमारे सारे विकास कार्यक्रमों को पीछे धकेल रही है। पंचायती राज के तहत विकेन्द्रीकृत जमीनी स्तर की प्रशासन व्यवस्था तो लागू भी कर दी गई है और जनसंख्या में कमी लाने के प्रावधान भी विभिन्न तरीकों से किए जा रहे हैं। घर में अधिक जनसंख्या और उससे होने वाले प्रतिप्रभावों से महिलाएँ अधिक परिचित होती हैं इसलिए शासन द्वारा किए गए 33 प्रतिशत आरक्षण के द्वारा महिलाएँ भी जमीनी स्तर के प्रशासन से जुड़कर राज-काज में हिस्सा ले रही हैं, और देखा जाय तो स्थितियाँ निराशाजनक भी नहीं है। . . . . . पूरा पढ़ें

प्रबुध्द नागरिकता और जमीनी प्रजातंत्र में महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

राज दरबार खचाखच भरा था। कारण था एक अपराधी को राजा सजा सुनाएँगे। सभी के मन में कौतुहल मिश्रित उत्सुकता थी। राजा आए, अपराधी को लाया गया। राजा ने सिंह की सी आवाज में अपराधी से कहा, हम तुम पर रहम बरतते हैं क्योंकि आज हमारी बेटी का जन्मोत्सव है.....तुम्हे हम अपनी सजा स्वयं चुनने का मौका देते हैं। ये जो तीन तख्ते तुम्हारे सामने रखे हैं उनमें तुम्हारे लिए तीन सजाएँ लिखी हुई हैं......जो चाहो वो तुम चुन सकते हो। अपराधी खुश हुआ.... राजा ने भी एक लम्बा ठहाका लगाया। अपराधी ने एक तख्ता उठाया उस पर लिखा था मौत....। गुस्से में उसने दूसरा भी उठा लिया उस पर भी लिखा था मौत.... और तीसरा उठाया तो उस पर भी लिखा था मौत....। . . . . . पूरा पढ़ें

गाँवों में जबरन घुसता बाजार और महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

मैं मिट्टी में खेला, मिट्टी में ही बना हूँ। गाँव में जन्मा, बचपन का बड़ा हिस्सा वहीं बीता, किशोरावस्था की भी बड़ी कशिश की दुपहरी और ऍंधेरी-उजाली रात गाँव में ही बीती। अब फिर गाँव में हूँ, फेलोशिप की वजह से। इस थोडे से अंतराल में गाँव में बडे-बडे क़्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, शक्ति के नए समीकरण बने हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज आ गया है। महिलाएँ भी नेतृत्व करने लगी हैं। होले-होले शहर की सभी न्यामतें यहाँ पहुंच गयीं हैं। शहरी आदतें धीरे से अपनी पैठ जमा रहीं हैं। देर तक जगना, देर से सोना, शोर-शराबे में एकान्त क्षण पाना। अब देखता हँ बच्चे रेड़ियों, टीवी, टेपरिकॉर्डर के मतवाले हैं और उन्हे पूरे वाल्यूम पर चला देते हैं, तभी उनके पढ़ने में एकाग्रता बनती है। . . . . . . पूरा पढ़ें

नेतृत्व ने बदले नारी के तेवर - लोकेन्द्रसिंह कोट

विभिन्न स्तरों पर नारी
आज नारी समाज का अभिन्न अंग है भी, और नहीं भी। उपभोग करते समय नारी समाज का अभिन्न अंग है, वहीं शेष कार्यों में समाज का अभिन्न अंग नहीं है। यूँ तो आज के इस उपभोक्तावादी समाज में लगभग हर रिश्ते में एक अजीब प्रकार का शून्य उभर रहा है, फिर भी नारी के साथ जितने भी रिश्ते जुड़े हैं उनमें इस शून्य के साथ-साथ दोयम दर्जे का व्यवहार भी नारी के ही पल्ले बँधता है।हमारा समाज वास्तव में अब स्पष्ट तौर पर तीन हिस्सों में विभक्त हो चुका है।
पहला शहरी समाज दूसरा, कस्बाई समाज तथा तीसरा, ग्रामीण समाज। इन तीनों में अनेक समानताएं हैं, परन्तु महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशाल अंतर है। शहरी समाज अपनी अधकचरी उन्नति के दंभ से फटा हुआ है और यहाँ की स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता मिली है, किन्तु नारी को एक विशेष संघर्ष करना होता है, क्योंकि नारी को दोयम दर्जे का रखने का खेल यहां सलीके से खेला जाता है। दूसरे पक्ष अर्थात् खुद नारी के पक्ष में देखें, तो नारी भी अपने आपको नारा बनाए जाने में योगदान ही करती है। नारियों में पुरूषों के पदचिन्हों पर चलने की, पुरूषों की तरह समस्याएँ सुलझाने की प्रवृति बहुत ज्यादा है। जबकि नारी को पुरूष का कार्य करने की जरूरत ही नहीं है। उसे तो पुरूषों के विचारों पर भी सोचने की आवश्यकता नहीं है, उसका लक्ष्य तो नारीत्व को अभिव्यक्ति देना है। उसका कार्य अपनी सभी गतिविधियों में नारीत्व के तत्व को जोड़ कर एक नई मानवीय दुनिया का निर्माण करना है। . . . . . . . पूरा पढ़ें

जमीने बंदूक की जोर से छीनी जा रही हैं - सुमित सरकार

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ नंदीग्राम में औरतों और पुरूषों से लेकर छोटे बच्चों में भी भयानक रोष काफी पहले से है। गांव में पिछले डेढ़ साल से ही भूमि कब्जाने की अफवाह फैली हुई थी, जिसके चलते लोगों ने इसकी खिलाफ़त के लिए खुद को संगठित कर लिया था। पंचायतों और ग्रामसंसदों ने उनसे इस मुद्दे पर कोई बातचीत नहीं की। जब 'हल्दिया डेवलपमेंट अथारिटी' ने सलेम ग्रुप के सेज बनाने के लिए भूमि कब्जाने का नोटिस जारी किया, तब स्थानीय लोग 3 जनवरी को कालीचरणपुर पंचायत कार्यालय पर सूचना मांगने पहुंचे; तो प्रधान ने कहा कि उनके पास कोई भी सूचना नहीं है। लोग शान्तिपूर्वक वहाँ से लौट गए। इसके कुछ समय बाद ही पुलिस ने बैटन, आंसू गैस और गोलियों से स्थानीय लोगों पर आक्रमण किया जिसमें चार लोग घायल हुए। एक बड़ा जमावड़ा सड़कों पर उतर आया। महिलाएं हाथ में ञ्रेलू उपकरण जैसे चाकू आदि ही लेकर निकल पड़ीं, करीब एक घंटे तक पुलिस के साथ आमने-सामने की मुठभेंड़ हुई। भूटामोर गांव के मौके पर मौजूद स्थानीय लोगों के अनुसार बचकर भागने की कोशिश में पुलिस कीे जीप एक लैम्प पोस्ट से जा टकराई, जिससे शार्ट सर्किट होने की वजह से जीप बुरी तरह जल गई और एक पुलिसकर्मी तालाब में जा गिरा तो दूसरा सड़क पर। लोगों ने पुलिसवालों को मार-मारकर उल्टे पाँव भगा दिया। भगदड़ में वे अपनी एक राईफल भी गाँव में छोड़ गए, जो बाद में स्थानीय पुलिस थाने में जमा कर दी गई। पुलिस और माकपा कैडर दोबारा गाँव में न आ सकें इसके लिए लोगों ने नाकाबन्दी कर दी, पुल गिरा दिया और सड़कों को भी खोद दिया। . . . . . . . पूरा पढ़ें

संकट में हमारी जमीन - शिराज केसर

तथाकथित अर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत के लिए चमकता भारत (इंडिया शाइनिंग) समर्थ भारत (पॉइज्ड इंडिया) आदि के नारे लगाग जा रहे है। 8 फीसदी वृध्दि, कुछ अरबपतियों का जन्म और सूचना तकनीकी धूम का गीत गाया जा रहा है पर इन सबके पीछे की सच्चाई कुछ और ही दास्तां बयान कर रही है। यह दास्तां है 8 फीसदी वृध्दि व अमीरों के नाम पर गरीब किसानों की जमीनें जबरन छीनने की, किसानों के लिए चमकता भारत, समर्थ भारत की बजाय साधनहीन भारत उजड़ा भारत बन जाने की। रोजी-रोटी छिन जाने से उजड़े किसानों के सिर पर न छत है न पेट में रोट। कहां जाएं? किधर जाएं? आखिर मजबूर होकर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लोग आंदोलन करने को उठ खडे हुए है। और धीरे-धीरे लड़ाई 'जान देंगे, जमींन नहीं देंगे' तक पहुंच रही है।
वित्तमंत्री पी चिदंबरम कहते है, जमीन और किसान के बीच पवित्र और गहरा रिश्ता है, इस रिश्ते को जो भी तोड़ने की कोशिश करेगा, उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा।' पर चिदंबरम न तो किसानां के हितैषी हैं न खेतों के। बल्कि भूमंडलीकरण के समर्थक है। बात यह है कि जहां जहां भी बहुराष्ट्रीय चारागाह बनाने के लिए जमीनों पर कब्जा किया जा रहा है, वहीं कब्जे से जमीनों को छुड़ाने के लिए जंग छिड़ गई है। जंग में हद तो यह हो गई कि कलिंगनगर से दादरी, सिंगूर से नदींग्राम तक हर जगह गरीब किसानों से जमीनें लेने के लिए पुलिस हथियार और गोला बारूद का इस्तेमाल कर रही है। पुलिस किसानों के साथ आंतकवादियों जैसा व्यवहार कर रही है, डंडे की ताकत पर लोगाें को चुप कराने की कोशिश हो रही है। . . . . . . .पूरा पढ़ें

एस.इ.जेड (सेज) का सच -प्र्भात कुमार

ग्लोबल कंपीटिशन, विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और कुछ चुनिंदा वस्तुओं को निर्यातोन्मुखी बनाने आदि के लिए सरकार सेज बना रही है। इसके लिए निवेश करने वाले देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों को आमंत्रित किया जा रहा है। इसमें व्यापारियों को सस्ती जमीनें, बिजली, पानी के साथ-साथ निर्यात शुल्क, उत्पाद कर आदि की विशेष रियायत दी जा रही है। कहा तो यह जा रहा है कि सेज में कानून व्यवस्था पर स्थानीय प्रशासन का प्रभाव नहीं रहेगा। साथ ही श्रम कानून भी लागू नहीं होंगे।कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 1999 के बाद से पिछले 7 वर्षों में लगभग 13 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि कार्य से हटाकर दूसरे काम में लगा दी गयी है। जाहिर है, इसका इस्तेमाल उद्योग आदि के लिए किया गया। सबसे चिन्ता का विषय यह है कि सेज भी कृषिभूमि को ही निगल रहे हैं। कारपोरेट जगत ने सरकार की साठगांठ से पूरे देश में जमीन की लूट का संगठित प्रयास चला रखा है। अब तक 30,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहीत हो चुकी है, जबकि 95,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहण करने की योजना पर काम जारी है। . . . . . . . पूरा पढ़ें

संशोधन नहीं, सेज रद्द करना ही हल है -मीनाक्षी अरोरा

नंदीग्राम और अन्य स्थानों पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ़ हो रहे जन विरोधो के दबाव में केंद्र सरकार के मंत्रीसमूह ने पाँच अप्रैल 07 को हुई बैठक में सेज एक्ट में सुधार के जो सुझाव दिए हैं, वह लोगों का ध्यान समस्या से हटाने की एक चाल भर है। ताकि लोग इन छोटे-मोटे सुधारों के चक्कर में सरकार पर भरोसा रखें, दूसरी ओर सरकार अपने विदेशी मित्रों के स्वागत के लिए दरवाजे खोल सके- बिना किसी जन विरोध के। मंत्रीसमूह के द्वारा दिए गये सुझावों को देखकर यह तो अब स्पष्ट है कि सेज के खिलाफ़ जन विरोध, मासूम लोगों की हत्याओं और हजारों-लाखों किसानों के उजाड़े जाने के बावजूद भी केंद्र सरकार सेज बनाने की अपनी नीति पर आमादा है। बस उसने किसानों से भूमि अधिग्रहण करने में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया है। अब सीधे कम्पनियाँ यह तय करेंगी कि किसानों से कैसे और कौन सी जमीन लेनी है? पहले सेज के लिए न्यूनतम सीमा तो निर्धारित थी, अधिकतम सीमा तय नहीं थी; कितना भी बड़ा सेज बनाया जा सकता था। लेकिन अब सेज की अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेअर तय कर दी गई है और इन क्षेत्रों के रियल एस्टेट में परिवर्तित होने के खतरों को देखते हुए सेज के अंदर उद्योग के लिए 35 फ़ीसदी जमीन के प्रयोग को बढ़ाकर 50 फ़ीसदी कर दिया गया है। 83 नये सेजों को मंजूरी दी जा रही है। इसके अलावा केन्द्र का यह भी सुझाव है कि इन सेजों के लिए जो किसान स्वेच्छा से जमीन दे देंगे, उनके परिवार में से कम से कम एक आदमी को संबध्द प्रोजेक्ट में रोजगार मिलेगा। . . . . . . . . .पूरा पढ़ें

आप्रवासियों के लिए निजी जेल - दीपा फर्नाण्डीज, प्रस्तुति-अफलातून

जेलों का निजीकरण? जी हाँ। कम्पनियों द्वारा संचालित जेलें, यह एक सच्चाई है। अमेरिकी पत्रकार दीपा फर्नाण्डीज़ की ताजा किताब टार्गेटेड में अमेरिका की निजी जेलों और जेल-उद्योग का तफ़सील से विवरण है, जो आजकल आप्रवासियों से भरी हुई हैं। -संपादक
दक्षिण -पश्चिम अमेरिका में मेक्सिको से सटा एक राज्य है, एरिज़ोना। एरिज़ोना में एक छोटा कस्बा है 'फ्लोरेन्स'। अमेरिका में निजी जेलों की हुई वृध्दि का एक केन्द्र यह कस्बा भी है। नागफनी, लाल चट्टानें और पहाड़ों के करीब से गुजरने वाले एक-लेन के राजमार्ग से पहुँचा जाता है, इस रेगिस्तानी जेल-कस्बे में।फ्लोरेन्स में एरिज़ोना राज्य का शासकीय कारागार, निजी सुरक्षा कम्पनियों द्वारा संचालित दो कारागार और स्वदेश सुरक्षा विभाग (होमलैण्ड सिक्यूरिटि डिपार्टमेंट) द्वारा संचालित आप्रवासियों के लिए बना एक कारागार है। इस कस्बे में चलने वाले एकमात्र जनहित कानूनी सहायता केन्द्र की संचालिका अधिवक्ता विक्टोरिया लोपेज़ कहती हैं, ''यहाँ की अर्थव्यवस्था जेल-केन्द्रित है और जनसाधारण की सोच और चिन्तन भी जेल-केन्द्रित है।'' ज्यादातर स्थानीय बाशिन्दे पुश्तों से जेल-धंधा से जुड़े रहे हैं। . . . . . . . . . . पूरा पढ़ें

टिटनेस वैक्सीन बनाम प्रजनन-रोधी वैक्सीन - मीनाक्षी अरोड़ा

90 के दशक में टिटनेस वैक्सीन के खिलाफ बहुत से आन्दोलन हुए। निकारागुआ, मैक्सिकों ओर फिलीपींस में मुख्य रूप् से वैक्सीन के खिलाफ आवाज उठाई गई। मैक्सिको की एक समिति ''कमिटि' प्रो विडा द मैक्सिको' ने आन्दोलनों से प्रभावित होकर ही वैक्सीन के कुछ सैम्पल लिए और केमिस्ट से उनका परीक्षण कराया। उनमें से कुछ वैक्सीन में (एच सी जी) हयूमैन कोरिओनिक गोनाडोट्रफिन पाया गया, यह गर्भधारण के लिये आवश्यक प्राकृतिक हारमोन है।
एचसीजी और एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी- एचसीजी हारमोन प्राकृतिक रूप् से यह बताता है कि कोई स्त्री गर्भवती है या नहीं, इसके अतिरिक्त यह गर्भनाल में प्रसव के लिए आवश्यक हारमोंस को छोड़कर अन्य सभी को हटा देता है। एचसीजी का बढ़ता हुआ स्तर गर्भावस्था को निश्चित करता है। आमतौर पर जब महिलाएं गर्भधारण का परीक्षण कराती हैं तो वह परीक्षण एचसीजी की उपस्थिति जानने के लिए ही किया जाता है। लेकिन जब एचसीजी को टिटनेस टॉक्सोइड के साथ शरीर में पहुंचाया जाता है तब न केवल टिटनेस प्रतिरोधी पैदा होने लगते हैं बल्कि एचसीजी के प्रतिरोधी भी पैदा होने लगते हैं .. . .. . . .पूरा पढ़ें

पुलिस संस्था और संस्थागत साम्प्रदायिकता - कोलिन गोंजाल्विस

2002 के गुजरात दंगों में हुई घटनाओं में पुलिस की शर्मनाक भूमिका ने एक बार फिर यह साबित किया था कि संस्थागत साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों से देश को निपटना होगा। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा जांच के लिए गठित किये गए विभिन्न न्यायिक आयोगों के अध्ययन और अनुशंसा में तथा राष्ट्रीय एकता परिषद और राष्ट्रीय पुलिस आयोग की छठीं रिपोर्ट में पुलिस की संदिग्ध भूमिका सामने आई है। जब-जब साम्प्रदायिकता की आग भड़कती है तब-तब पुलिस की संदिग्ध भूमिका सामने आई लेकिन किसी भी सरकार ने पुलिस के दुराचार के खिलाफ शिकायतें सुनने के लिए कोई संस्थागत व्यवस्था नहीं की।
आयोग- 1961 से एक के बाद एक आयोग बना, सभी ने पुलिस को दोषी करार दिया। 1961 में जबलपुर, सागर, दामोह और नरसिंहपुर में हुए दंगों पर जस्टिस श्रीवास्तव जांच आयोग ने अपने अध्ययन में पाया कि इंटलिजेंस डिपार्टमेंट पूरी तरह अयोग्य है और लॉ एण्ड ऑर्डर अधिकारियों की जांच प्रक्रिया में लापरवाही की वजह से ही अपराधी अभियोग से छूट जाता था। . . . . . . . . .पूरा पढ़ें

नेतृत्व के श्रेष्ठ विकल्प के रूप में उभर रही हैं महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक यथार्थ संचार के लिए बोलना और सुनना ही एक मात्र सहज उपाय है। साथ ही यह भी सही है कि बोलने व सुनने का महत्व मूक-बधिर मानव या अन्य मूक-बधिर जीवों को अधिक होता है। किसी भी बात की कमी ही उसके वास्तविक मूल्य व महत्व का भान कराती है।
एक दूसरे से परस्पर संबंध बनाने के इस सहज उपाय में प्रत्येक पक्ष की बोलने व सुनने की अपनी-अपनी सीमाएं होती हैं, (उसी तरह, जिस तरह प्रकृति में प्रत्येक कण-कण की अपनी-अपनी सीमाएं हैं), उसी सीमा के तहत ये दोनों बातें अच्छी लगती हैं, समायोजित अस्तित्व का आभास कराती हैं। हमारे यहाँ तो हमेशा से सामंती शासन रहा और एक बड़ा वर्ग सुनने-सहने के लिए ही बना रहा। महिलाएँ सदैव से पुरूषों का खिलौना बनी रही और उन्हे सिर्फ गुलाम के तौर पर रखा जाता था। उन्हे ज्यादा बोलने या सुनने की मनाही थी। किंतु जैसे ही बोलने या सुनने की अपनी वर्जनाएं टूटती हैं तो कोई भूचाल नहीं आता है, कोई दृश्यगत हानि नहीं होती है, परंतु उसके द्वारा संपूर्ण परिदृश्य में मनोवैज्ञानिक बदलाव जरूर होते हैं, जो एक नए प्रकार की कुण्ठा, अवसाद को जन्म देते हैं व विद्रोह का आधार बनते हैं। एक हद तक खामोशी या सुनना भी ठीक है तथा आवाज या बोलना भी ठीक है परन्तु इनकी अति होने पर दोनों ही अन्याय व तत्पश्चात विद्रोह के हेतु बन जाती है। . . . . . पूरा पढ़ें

लोकतंत्र का विकेन्द्रीकरण और महिला - लोकेन्द्रसिंह कोट

भारत की अधिकांश महिलाऐं तो अनपढ़ है, उनमें तो अधिकांश घर की चारदीवारी से कभी बाहर नहीं निकलती है। यदि ऐसी महिलाएं चुनाव में जीत भी गई तो क्या वे पंचायत का कार्यभार सुचारू रूप से चला पाएंगी? इस प्रकार के अनेक प्रश्न लोगों के मन में उठ रहे थे, किंतु चुनाव के बाद जब बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं चयनित होकर पंचायतों के नेतृत्व हेतु आ गई तो ये शंकाएं स्वत: समाप्त हो गई। वर्तमान संदर्भों में देखा जाय तो बिहार के बाद मध्यप्रदेश में आने वाले पंचायती चुनावों में यह प्रतिशत बढ़ाकर 50 कर दिया है और यह सब इसलिए भी हुआ है कि महिलाओं की शक्ति को अब पहचान मिल चुकी है और उन्हौने कहीं अधिक संवेदनशीलता के साथ अपने पदों पर रहकर न्याय किया है। आज भले ही पंचायतों में महिलाओं की स्थिति को लेकर प्रश्न उठाया जा रहा है, परंतु यह धारणा बिल्कुल गलत है कि महिलाएं कोई ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं है या उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। वास्तविकता यह है कि अब तक महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया था और सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ते मार्ग में अड़चने पैदा करने का ही प्रयास किया गया। . . . . . . .पूरा पढ़ें

भारत में पहली “विश्व बैंक समूह पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण”का फैसला

ज्यूरी द्वारा प्राथमिक जांच

हम 12 ज्यूरी सदस्यों ने पूरे भारत के प्रभावित लोगों, 60 जमीनी विशेषज्ञों और अकादमिकों, समाजसेवी समूहों और समुदायों के साक्ष्यों और बयानों को चार दिनों से सुना है। 26 भिन्न-भिन्न आर्थिक और सामाजिक विकास के क्षेत्रों से, जिसका फैलाव मैक्रो अर्थशास्त्र से आर्थिक नीतियों तक है; के समुदायों के प्रतिनिधियों ने बयान दिया कि विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाएं उन्हें नुकसान पहुंचाती हैं और निर्धन बनाती हैं। हमारे सदस्यों में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश, वकील, लेखक वैज्ञानिक, धार्मिक नेता, भारत सरकार के पूर्व अधिकारी शामिल हैं। हमने नोट किया कि विश्व बैंक के दिल्ली कार्यालय ने दो सप्ताह पहले न्यायाधिकरण में शामिल होने का आमंत्रण प्राप्त कर लिया था, लेकिन उन्होंने प्रक्रिया में शामिल होने में रुचि नहीं दिखाई। . . . . . . पूरा पढ़ें

ऐसे कैसे चलेगा मी लॉर्ड ! - भंवर मेघवंशी

न्यायपालिका और कार्यपालिका तथा विधायिका में टकराव होता रहता है, एक-दूसरे पर हावी होने की प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती है। आजकल एक नया रूझान और भी उभरकर सामने आया है कि न्यायपालिका और प्रेस के मध्य भी टकराव होने लगा है। हाल ही में भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल साहब के आचरण को लेकर उठी आवाजों के मद्देनजर पूरे दस्तावेजी सबूतों को आधार बनाकर मिड डे नामक अखबार ने लेख छाप दिए, न्यायपालिका इस स्वस्थ आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाई, फलत: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक स्वत: स्फूर्त प्रसंज्ञान के जरिए मिड डे के चार पत्रकारों को कोर्ट की अवमानना करने के अपराध में चार-चार महीने की सजा सुना दी। कोर्ट की इस कार्यवाही को लेकर मीडिया की ओर से देशभर में जबरदस्त हल्ला मचा हुआ है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी है मगर यह बहस तो छिड़ ही गई है कि- क्या न्यायपालिका निर्विवाद है, उस पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती है, क्या वह ईश्वरीय शक्ति संपन्न है! उसकी आलोचना करना क्या 'ईशनिंदा' है? क्या माननीय न्यायाधीशगण दैवीय ऊर्जा वाले विशिष्ट महामानव होते है कि उनके काम और आचरण पर प्रश्न ही नहीं खड़े किए जा सके? . . . . . पूरा पढ़ें

जायजा राज्यों का - सूचना के अधिकार कानून लागू करने में भी मनमर्जी

राज्य सरकारें सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय कानून को मनमर्जी से लागू कर रही हैं। अभी तक राज्य सरकारों को दी कई जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई हैं। इस कानून के बारे में लोगों को जानकारी तक नहीं है। अनेक राज्यों में जनता, कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए न तो प्रशिक्षण मॉडयूल बने हैं। न ही प्रशिक्षण आयोजित किए गए हैं। राज्य सरकारें सूचना आयुक्तों को पूरी सुविधाएं नहीं दे रही हैं। कई राज्यों में सूचना मांगने व निरीक्षण करने की मनमानी फीस वसूली जा रही है। समय पर अपीलों की सुनवाई नहीं होती। अपनी पहल से धारा 4 के तहत सूचना नहीं दी जा रही। सूचना मांगने वालों को धमकाया जाता है। आमजन सरकारी दफ्तरों में जाने से डरते हैं। देशभर में सूचना के अधिकार को लेकर बहुत कम संस्था संगठन काम कर रहे हैं। ये जानाकारियां सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान के एक आंकलन से पता चली हैं। इस अभियान ने 17 राज्यों के सूचना के अधिकार के सहयोगी समूहों को एक प्रश्नावली भेजी थी। उनसे इसे भर कर भेजने को कहा गया था। इसी प्रश्नावली से यह जानकारी मिली है। . . . . . पूरा पढ़ें

अन्याय के खिलाफ जनता का हथियार -- गोपालकृष्ण गांधी

सूचना का अधिकार कानून बन चुका है। बढ़िया कानून है। बहादुर कानून है। हर प्रदेश में लागू हो गया है। एक बड़े आंदोलन की इस कानून में फतह हुई है। इस कानून ने कइयों को इंसाफ दिलाया है, कई गफलतों, गलतियों, घूस और घोर अन्यायों का मुकाबला किया है। इस सबके बावजूद भी इस सूचना के अधिकार अभियान की जरूरत महसूस हुई है। वजह यह है- यह कानून जो कि भारतवासियों के कानों तक पहुंचने को था, कइयों के कानों तक पहुंचा जरूर है, पर कई औरों-करोड़ों- के कानों के ऊपर-ऊपर से सरसराता हुआ प्रवेश कर गया है दफ्तरों में। इस बात में वैसे कोई खराबी नहीं। दफ्तरों के बिना कोई कानून नहीं चलता। लेकिन दफ्तरों का एक अजीब तरीका होता है। वे कानूनों को अपने कूचे में मेहमान बना देते है। दफ्तरों की कोशिश होती है कि कानून को इज्जत मिले। लेकिन इस इज्जत के बारे में गलतफहमी रहती है। कुछ दफ्तर समझते हैं कि कानून को इज्जत देने का मतलब है, कानून को कम से कम तकलीफ हो, ज्यादा से ज्यादा आराम। लेकिन सूचना के अधिकार का यह कानून आराम के लिए नहीं बना है। काम के लिए बना है। उसे मेहनत चाहिए, राहत नहीं। दफ्तरों को कानून में घर बनाना चाहिए, न कि कानून को दफ्तरों में। कानून को दफ्तरों में सिर्फ उतनी ही देर के लिए रहना पसंद है जितना कि तीर को तरकश में। . . . . . . . पूरा पढ़ें

इराकी शासन में फैला भ्रष्टाचार: अमरीका उलझा

इराकी शासन में फैला भ्रष्टाचार, इराक में अमेरिका की कारगुजारियों पर पानी फेर रहा है, जब से ही अमेरिकी कांग्रेस ने जनरल डेविड पेट्रायस और अमरीकी राजदूत रेयान क्रोकर से इराक के बारे में रिपोर्ट लाने और इराकी युध्द के लिए जार्ज डब्ल्यू बुश की 50 बिलियन डालर की मांग पर संसदीय बहस की तैयारी की, तभी से इराकी प्रधानमंत्री नूरी अल- मालिकी के नेतृत्व वाली सरकार के कामकाज विवादों के केन्द्र में आ गए हैं। बगदाद के अमरीकी दूतावास द्वारा तैयार किए गए एक गुप्त-मसौदे के अनुसार मालिकी सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बुरी तरह फेल हुई है। रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि मालिकी शासन ''भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों को आंशिक रूप से भी लागू कर पाने में असमर्थ'' रहा है और रिपोर्ट में जो सबसे बुरी बात है कि 'मालिकी कार्यालय स्वयं ही शासन में भ्रष्टाचार, जालसाजी और अपराधों की जांच में अड़चनें पैदा कर रहा है।' . . . . . . . . . पूरा पढें

नंदीग्राम में जारी माकपा के हिंसक हमले का समाचार कवरेज से मीडिया को सीपीएम के कैडरों द्वारा प्रतिबंधित करने के संबंध में

माननीय चेयरमैन प्रेस कौंसिल, नई दिल्ली
विषय - नंदीग्राम में जारी माकपा के हिंसक हमले का समाचार कवरेज से मीडिया को सीपीएम के कैडरों द्वारा प्रतिबंधित करने के संबंध में
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महाशय,
हम सब पत्रकार हैं और 14 मार्च के नंदीग्राम के जनसंहार के बाद हमने नंदी ग्राम पर केंद्री त शोधपरक लेखन /रिपोर्ट लेखन किया है । यह पत्र हम नंदीग्राम में जारी हिंसक कार्रवाई के कवरेज के अधिकार के लिए लिख रहे हैं । नंदीग्राम के गांव से आ रही फोन सूचनाओं के अनुसार 2 नवंबर से नंदीग्राम दो और नंदीग्राम एक को घेर कर सीपीएम के सशस्त्र दस्ते हमला कर रहे हैं। यह जानकारी कितनी सही है यह जानने के लिए 8 नवम्बर को जब कुछ पत्रकार समाज सेविका मेधा पाटकर के साथ नंदीग्राम जा रहे थे तो कापसऐटिया (मेहिशादल) के पास मेधा पाटकर और मीडियाकर्मियों पर भी हमले हुए। आलोक बनर्जी (इंडिया टुडे अंग्रेजी) और वापन साहू ( 24 घंटे बंगाल चैनल) को पीटा गया।
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नंदीग्राम में मीडिया के प्रवेश को सीपीएम ने घोषित तरीके प्रतिबंधित कर दिया है और नंदीग्राम में हिंसक हमले जारी हैं। देश की मीडिया इस समय नंदीग्राम के भीतर नहीं है और कोलकाता से नंदीग्राम की राह में र ेवापा डा और चंडीपुर में सीपीएम के कैडर लाल झंडे के साथ सड़क पर बेरीकेट कर रोक रहे हैं। हमें फोन से सूचना आ रही है कि 10 और 11 नवंबर के बीच नंदीग्राम में निहत्थे लोगों पर सीपीएम कैडरों ने हमला किया और हमले में 40 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। हम इस सूचना की पुष्टि के लिए देश की मीडिया को नंदीग्राम में प्रवेश की अनुमति चाहते हैं। हम चाहते हैं कि राष्ट्रीय मीडिया को नंदीग्राम प्रवेश की छूट दी जाए और मीडिया को सुरक्षा की गारंटी दी जाए। 10 नवम्बर को तैसाली बाजार के पास 20 हजार से ज्यादा निहत्थे लोगों के जुलूस पर सीपीएम कैडरों के हमले में कितने लोग मारे गए हैं यह जांच-परख का सवाल है।
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लेकिन नंदीग्राम कॉलेज में विस्थापित होकर 25000 से ज्यादा लोग शरणागत हैं , यह खबर सही है क्योंकि सोनाचूड़ा से भागकर आए लोगों से कोलकाता में हमारी बात हुई है। सोनाचूड़ा के थंकर खटुवा के अनुसार उसने 10 नवंबर को अपनी आंखों से बीस के करीब लाशों को रिक्शा ठेला से सीपीएम कैंडरों को ले जाते हुए देखा है। नंदीग्राम में जनसंहार हुआ है , लेकिन देश को यह खबर इसलिए मालूम नहीं है कि मीडिया का प्रवेश नंदीग्राम में प्रतिबंधित है।
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हम नंदीग्राम की स्थिति का कवरेज करने का एक सिर्फ अपने लिए नहीं संपूर्ण मीडिया समूह के लिए चहाते हैं और कुछ पत्रकारों का नाम सूचीबध्द कर रहे हैं , जिन्हें रोका गया और पीटा गया है। ज्ञात हो कि एक दर्जन से ज्यादा पत्रकार नंदीग्राम प्रवेश की राह सीपीएम कैडरों के द्वारा पीटे गए हैं।
1- गोरंगो हाजरा (तारा टी. वी. बांग्ला चैनल) हाथ तोड़ दिया।
2-महुआ साजा (तारा टी. वी. की चीफ रिपोर्टर) को पीटा गया।
3-चप्पन बसु ( 24 घंटे बांग्ला)
4-आलोक बनर्जी (इंडिया टुडे अंग्रेजी)
5-अकबर हुसैन मलिक ( 24 घंटे बांग्ला)
6-पवन साहू (आकाश गंगा बांग्ला)
7-दयाल साहू (कोलकाता टीवी)
8-असरफुल हुसैन (स्टार आनंद)
हमारी जानकारी के अनुसार सीपीएम कैडरों के शिकार पत्रकारों ने अगर पुलिस के प्राथमिकी दर्ज करवाने की कोशिश की तो प्रथमिक नहीं ली गई या जान के भय से किसी ने प्राथमिकी की हिम्मत नहीं जुटाई। प्रेस काउंसिल को मीडिया के समाचार संकलन के हक पर प्रतिबंध को गंभीरता से लेना चाहिए और दोषी सीपीएम के खिलाफ कार्रवाई की अनुशंसा करनी चाहिए। आपकी कार्रवाई के लिए हम प्रेस कौंसिल के प्रति आभारी होंगे।
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सादर,
अपेक्षित
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रामबहादुर राय (प्रथम प्रवक्ता )
पुष्पराज (स्वतंत्र पत्रकार) मोबाइल नंबर 09431862080 (कोलकाता )
शिराज केसर ( पीएनएन) मोबाइल नंबर 9211530510 ( दिल्ली)
संजय तिवारी ( युगवार्ता) मोबाइल नंबर 9312440606 ( दिल्ली)

सोयाबीन नहीं किसान का जीवन चट किया इल्लियों ने - सचिन कुमार जैन

सोयाबीन पर इल्लियों के आक्रमण से मिले संकेतों को समझने की जरूरत है। यह तथ्य हमारे किसानों के लिए आने वाले विनाश का एक संकेत है कि इस वर्ष मध्यप्रदेश 9.78 लाख हेक्टेयर में बोई गई सोयाबीन की खड़ी फसल को स्पाट ऑप टेरा लिटयूरा इल्ली देखते ही देखते चट कर गई। ऐसा लगता है कि ये इल्लियाँ किसी मुहिम के तहत मध्यप्रदेश के किसानों पर कहर बनके बरपी हैं क्योंकि फसल का विनाश करने के बाद वे खेतों से निकलकर किसान के खलिहान, घर के आंगन और खाट के पायों तक जा पहुंची। वास्तव में ये साफ संकेत है कि सोयाबीन की खेती ने फसल चक्र और पर्यावरणीय अर्थ व्यवस्था को जो नुकसान पहुंचाया है उसे अब रोकने के लिए ये इल्लियां चुनौती देने किसानों के घरों तक पहुंची। अकेले हरदा जिले में डेढ़ लाख हेक्टेयर में से 1.10 लाख हैक्टेयर फसल इल्लियों के पेट में जा चुकी है और वहां अब स्कूल में बच्चे पढ़ाई नहीं बल्कि इल्लियां भोजन के बाद आराम कर रही हैं। यह जानकर और अधिक आश्चर्य होगा कि इन इल्लियों पर किसी भी तरह के कीटनाशकों का असर नहीं हुआ और किसानों को खुद अपने ट्रेक्टरों से खड़ी फसल को नष्ट कर देना पड़ा। इन इल्लियों की उम्र भले ही 30 से 40 दिन की होती है पर ये स्वप्रजनन पध्दति से तीसरे दिन अण्डे देना शुरू कर देती हैं और एक इल्ली से डेढ़ से ढाई हजार इल्लियों का जन्म होता है। इस प्रकोप के कारण 1.07 लाख किसानों के जीवन के लिए संकट काल शुरू हो गया है क्योंकि तीन वर्ष के लगातार सूखे के कारण वैसे ही उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो चुकी थी और 80 फीसदी किसान साहूकारों या बैंक के कर्जों तले दबे हुये थे। . . . . . पूरा पढ़ें

भूमण्डलीकरण और बैगा महिला - सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)

पारम्परिक व्यवस्था के अनुसार बैगा आदिवासी धरती को मां के रूप में स्वीकार करता है जिसके सीने पर हल नहीं चलाया जा सकता है। ऐसे में उसकी खेती की व्यवस्था ही ऐसी बनी जिसमें बिना हल वाली कोदो-कुटकी जैसी पारम्परिक फसल को अपनाया। इस फसल के बीज सामान्य रूप से खेत में छिड़क दिये जाते हैं और बिना हल-बिना पानी के कोदो-कुटकी की फसल लहलहाने लगती है। इसी उत्पादन में से कुछ बीज बनाकर वे अगली फसल के लिए सुरक्षित रख लेते थे परन्तु बाजार के लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार नहीं हुई और सुनियोजित ढंग से नकद फसलों को इन इलाको में भी प्रोत्साहित किया जाने लगया। सरकार ने भी पारम्परिक कृषि और सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने में बाजार का हर संभव-असंभव सहयोग दिया है। परिणाम यह हुआ कि 20 हजार बैगा परिवार में से एक भी कर्ज मुक्त परिवार खोज पाना नामुमकिन हो गया। . . . . . पूरा पढ़ें

क्यों है बीटी बैंगन एक खतरा? -सचिन जैन

हम सबने सुना कि अब बाजार में बीटी बैंगन के बीज आ रहे हैं। बहुत से शहरी लोग नहीं समझ पायेंगे कि ये बीटी बीज क्या होते हैं? तो इसका अर्थ यह है कि बैंगन के जहर बुझे बीज। बीटी बीज बनाने वाली कम्पनी का कहना है कि बैंगन या आलू की फसल को कीटों से बचाने के लिये ऊपर से कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है इसलिये समस्याओं से बचने के लिये कम्पनी ने बीज में ही कीटनाशक (यानी जहर) प्रवेश करा दिये हैं यह तकनीक कुछ और नहीं, केवल बीजों, कीटनाशकों और नई समस्याओं के समाधान का बाजार खोजने की रणनीति है। और भूमण्डलीकरण में आम लोगों के लिये इसी बाजार से निपटना सबसे बड़ी चुनौती है। . . . . . . पूरा पढ़ें

भारत के लिए गहरे ढांचे की एक परिभाषा - प्रो. अमित भादुरी

सरकारी तंत्र पर निगाह डालें तो लगता है कि मानों सरकार देश के गरीब और कमजोर तबके को सशक्त बनाने वाले दो अहम अधिनियमों का अनमने मन से बोझा ढ़ो रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी अधिनियम (नरेगा) और सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) को जिस तरह की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है, उसे देखने पर यह साफ जाहिर हो गया था कि न तो सरकार और न ही नौकरशाही इन अधिनियमों को पारित कराने में उत्साहित थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाले 'राष्ट्रीय सलाहकार परिषद' के समर्थन के बिना तो शायद दोनों अधिनियिम पारित होने संभव ही नहीं थे। लेकिन यह सच है कि इनसे कई और मुद्दे खड़े हो गये हैं। . . . . . . पूरा पढ़ें

सहरिया आदिवासियों की व्यथा कथा - दो

सरकारी व्यवस्था के ध्वस्त होने का मतलब
मध्यप्रदेश के सहरिया आदिवासियों के लिये जीवन का सबसे बड़ा अर्थ है उपेक्षा। राज्य की सबसे पिछड़ी हुई जनजाति के लोगों की जीवन में भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों का चक्रवात ठीक उसी तरह निरन्तरता से आता है, जिस निरन्तरता से व्यापक समाज में अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी आती है। यूं तो सहरिया आदिवासी स्वतंत्रता के बाद से ही सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं किन्तु वर्ष 2001 से यह समुदाय लाल सुर्खियों में रहा है और सुर्खियों में आने का कारण रहा है भुखमरी और बीमारी के कारण इनका सिमटता अस्तित्व। . . . . . . . पूरा पढ़ें

सहरिया आदिवासियों की व्यथा कथा - एक दर्दनाक हकीकत - एक

मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही में भोपाल की एक आलीशान होटल में जश्न मनाया। यह जश्न इसलिये मनाया गया क्योंकि सुरक्षित मातृत्व के संदर्भ में किये गये प्रयासों के लिये दस में से दस अंक मिले हैं परन्तु इस जश्न की रौशनी के बाहर सहरिया आदिवासियों के जीवन में गहरी कालिमा छाई हुई है। राज्य के श्योपुर जिले के सहरिया आदिवासी बहुल गांवों में सरकार के सुरक्षित मातृत्व के मकसद और योजना का चेहरा बदरंग ही नजर आ रहा है। जिला मुख्यालय से साठ किलोमीटर दूर रानीपुरा गांव के शिवलाल की पत्नी भभूति जब गर्भवती हुई तो उसे प्रसव की पीड़ा के साथ-साथ सरकारी व्यवस्था के अमानवीय व्यवहार के कारण होने वाली पीड़ा का अंदाजा नहीं था। भभूति ने अपने सामने ही गांव की छह महिलाओं . . . . . . . . ..पूरा पढ़ें

प्रसव पीड़ा के व्यवसायीकरण की अमानवीय कोशिश

5.60 लाख की जनसंख्या वाले श्योपुर जिले में 533 गांव हैं। यहां के एक जिला एवं चार अन्य अस्पतालों में मरीजों के लिये कुल 166 पलंग ही उपलब्ध हैं जिनमें से 148 बिस्तर पिछले 13 वर्षों से बदले नहीं गये हैं। विगत दो वर्षों से सुरक्षित मातृत्व को बढ़ावा देने के लिये जमकर बातें की जा रही हैं किन्तु पिछले छह वर्षों की तरह अब भी जिले के कराहल विकासखण्ड में चार में से तीन चिकित्सकों के पद खाली पड़े हुये हैं। इस दौरान न तो चिकित्सा व्यवस्था में सुधार हुआ न ही एक भी प्रसूति रोग विशेषज्ञ की नियुक्ति ही यहां हो र्पाई। इसी जिले के गोठरा कपूरा गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बिलासी देवी अपने अनुभवों के आधार पर कहती हैं कि अस्पताल में क्यों जायें, वहां एक तो कोई भी अच्छे से बात नहीं करता है ऊपर से नर्स, डॉक्टर और सफाई करने वाली बाई हर कोई पैसे मांगता है परन्तु सरकार कहती है कि संस्थागत प्रसव कराने पर सत्रह सौ रूपये मिलेंगे, वाहन का भाड़ा मिलेगा और दवाई मिलेगी; भभूति के प्रसव के दौरान गये थे और वह जमीन गिरवी रखकर ही मां बन पाई। . . . . . पूरा पढ़ें

महिला स्वास्थ्य : हर क्षण चरित्र पर सवाल - सचिन कुमार जैन

औरत के नजरिये से समाज एक अलग ही रूप में नजर आता है। वह वैसा रचनात्मक और स्वस्थ्य नहीं होता जिस तरह यह पुरूषों के लिये होता है। यहां महिलाओं के लिये गरीबी शायद एक बड़ा बोझ नहीं है परन्तु हर माह, माहवारी के दौर से गुजरना और उनके गुप्तांगों से होने वाले श्वेत द्रव के बहाव के बोझ से वे दोहरी हुई जाती हैं। विज्ञान के नजरिये से तो यह बहुत गंभीर समस्या नहीं है परन्तु समाज इसे स्त्री के चरित्र, उसके भाग्य और जीवन की स्वच्छता से जोड़कर परिभाषित करता है। . . . . . . .पूरा पढ़ें

जागीर में मिलता है मैला ढोने का काम - सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)

सुमित्रा बाई ने खुद को इस पेशे के चक्रव्यूह में से बाहर निकालने की जध्दोजहद की। अब से दो साल पहले उन्होंने मैला ढोने का काम बंद कर दिया था। उन्हें अन्त्यावसायी योजना के अन्तर्गत राष्ट्रीयकृत बैंक से वैकल्पिक रोजगार के लिये 20 हजार रूपये का ऋण भी मिला। वह खुश थीं कि अब उनके बच्चों को समाज में सम्मान मिलेगा और वह बेहतर जीवन जी पायेंगी। सुमित्रा बाई ने ऋण राशि से गांव में कपड़े की दुकान खोली; परन्तु मुक्ति का वह रास्ता किसी अंधेरी गुफा में जा पहुंचा। तीन माह तक हर रोज सुमित्रा बाई बड़ी उम्मीद के साथ दुकान खोलती, पर इस दौरान गांव के किसी व्यक्ति ने उनके यहां से कपड़े का एक टुकड़ा तक नहीं खरीदा। गांव में यह बात प्रचलित हो गई कि सुमित्रा बाई मसान के कपड़े बेच रही है। आखिरकार उन्हें अपनी दुकान बंद कर देना पड़ी और एक सुखद सपने का शुरूआत से पहले ही अंत हो गया। डेढ़ साल तक फिर भी वह अन्य विकल्पों की तलाश करती रही पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी और सुमित्रा बाई को एक बार फिर कच्चे शौचालयों की सफाई के काम की ओर कदम बढ़ाने पड़े। . . . . . . .पूरा पढ़ें

दलितों पर बढ़ता उत्पीड़न - राजु कुमार

कुछ दिन पूर्व ही सागर जिले के रहली थाना क्षेत्र के भैसा गांव मे एक दलित परिवार के घर कन्याभोज आयोजित किया गया था। गांव के हनुमान मंदिर में भोज का भोग लगाने गए दलित समुदाय के साथ ऊंची जाति के दबंगो ने मारपीट की और उन्हे धमकी देकर गांव से भगा दिया। इस घटना में गांव से 15 महिलाओं सहित 43 दलित बहिष्कृत हो गए। गांव के हैण्डपंप से उन्हें पानी भरने से भी रोक दिया गया। इसी तरह की घटनाक्रम में उज्जैन जिले के झरनावदा गांव में सवर्णों ने एक दलित युवक को खम्बे से बांधकर पिटाई की। उज्जैन के ही चापानेरा गांव में सवर्णों ने एक दलित महिला को अर्ध्दनग्न कर गदहे पर बैठाकर घुमाया। गुना जिले के उमरियाखुर्द गांव के एक दलित परिवार को गांव के दबंगों ने गांव से खदेड़कर उनके घर मे आग लगा दी। इस घटना में दलित परिवार को पट्टे में मिली जमीन पर दबंगों ने कब्जा . . . . . . पूरा पढ़ें

औरत के डाकिन होने के मायने

सीधी जिले के सेंदुरा गांव के प्रभावशाली लोगों ने बूटनदेवी नामक एक महिला को ऊपरी बाधा यानी डाकिन के रूप में प्रचारित किया। बूटनदेवी को गांव के पंडा के पास ले जाया गया जहां भूत भगाने के नाम पर पूजा-पाठ करके उसके माथे पर कील ठोक दी गई। लोग कहते हैं कि यह पुलिस या कानून का नहीं समाज का मामला है। समाज किस रूप में पितृसत्ताात्मक है इसका प्रमाण डाकिन या चुड़ैल जैसी व्यवस्थाओं से मिल जाता है। यह माना जाता है कि गर्भावस्था के दौरान जिन महिलाओं की मृत्यु हो जाती है या फिर बुरे कर्म करने वाली और बुरी नजर वाली महिलायें डाकिन या चुड़ैल बनती हैं। . . . . . . पूरा पढ़ें

अगर इतिहास को रचनात्मक होना है - हावर्ड ज़िन

चुनौती अब भी बाकी है। विरोधी पक्ष के पास बहुत सी ताकतें हैं: पैसा, राजनैतिक शक्ति, अधिकतर मीडिया। हमारी तरफ है दुनिया की जनता और पैसे व हथियारों से बड़ी एक ताकत: सच। सच की अपनी ताकत होती है। कला की अपनी ताकत होती है। संयुक्त राज्य तथा सभी जगहों में जन संघर्षों का असली मतलब है वही युगों पुराना पाठ - कि हम जो भी करते हैं उससे फ़र्क पड़ता है। एक कविता एक आंदोलन की प्रेरणा बन सकती है। एक पर्चा क्रांति के लिए चिनगारी बन सकता है। नागरिक असहयोग लोगों को जगा सकता है और हमें सोचने के लिए उकसा सकता है। जब हम एक-दूसरे के साथ संगठित हो जाते हैं, जब हम शामिल हो जाते हैं, जब हम खड़े होकर साथ बोलने के लिए तैयार हो जाते हैं, तब हम ऐसी ताकत पैदा कर सकते हैं जिसे कोई सरकार दबा नहीं सकती।
हम रहते तो एक खूबसूरत देश में हैं। लेकिन ऐसे लोगों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है जो मानव जीवन, आज़ादी .................पूरा पढ़ें

ब्रिटेन के भुला दिए गए हत्याकांड - जॉर्ज मॉन्बिऑट

ज़ुल्म? कौनसे ज़ुल्म? जब तुर्की में कोई लेखक इस शब्द का प्रयोग करता हैं, तुर्की में हर कोई जानता है कि वह क्या कह रहा है, चाहे वे कितने ही ज़ोर-शोर से कहें कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। लेकिन ब्रिटेन में अधिकतर लोग आपको खाली निगाहों से देखेंगे, बिना समझे। तो मैं आपके दो ऐसे उदाहरण देता हूँ, जिनके बारे में उतने ही सारे दस्तावेज़ हैं जितने आर्मेनियाई क़त्ले-आम के बारे में।
2001 में प्रकाशित अपनी किताब लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट्स (उत्तर विक्टोरियाई हत्याकांड) में माइक डेविस हमें उन अकालों की कहानी सुनाते हैं जिनमें 1.2 से 2.9 करोड़ भारतीय मारे गए (1)। वे दिखाते हैं कि इन लोगों की ब्रिटेन की सरकारी नीति द्वारा हत्या की गई थी।जब एक एल नीनो अकाल ने 1876 में दक्खन के पठार के किसानों को दरिद्र बना दिया, तब भारत में चावल और गेहूँ की पैदावार ज़रूरी मात्रा से ऊपर हुई थी। लेकिन वाइसरॉय, लॉर्ड लिटन, ने ज़ोर दिया कि इसके इंग्लैंड को निर्यात में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए। 1877 और 1878 में, अकाल के चरम पर, अनाज व्यापारियों ने रिकॉर्ड 64 लाख सेर गेहूँ का निर्यात किया। जब किसान भूख से मरने लग गए, ..................पूरा पढ़ें

प्रॉपेगंडा और मतारोपण : नोम चोम्स्की

विशेष रूप से बुद्धिमान होना तो ज़रूरी नहीं है, पर विशेष सुविधाएँ ज़रूर चाहिए होती हैं। ये लोग सही हैं। आपके पास विशेष सुविधाएँ तो होनी ही चाहिएँ, जो कि हम लोगों के पास हैं। यह जायज़ नहीं है, पर सुविधाएँ तो हमें मिली ही हैं। साधन, प्रशिक्षण, समय, और अपने जीवन पर नियंत्रण। मैं चाहे सौ घंटे प्रति सप्ताह काम करूँ, पर ये सौ वही हैं जो मैं चुनता हूँ। यह दुर्लभ सुविधा है। जनसंख्या का एक छोटा सा हिस्सा ही इसे पा सकता है, साधनों और प्रशिक्षण की तो बात ही छोड़ दें। ऐसा अपने बल पर करना बहुत ही मुश्किल है। लेकिन हमें इसे बढ़ा-चढ़ा के नहीं देखना चाहिए। ऐसा सर्वश्रेष्ठ ढंग से करने वाले बहुत से लोग सुविधासंपन्न नहीं हैं, जिसका एक कारण यह है कि उनके पक्ष में भी कई बातें हैं। अच्छी शिक्षा से होकर न गुज़रे होना, मतारोपण की बाढ़ से बचे होना, जो कि शिक्षा ज़्यादातर होती है, और मतारोपण तथा नियंत्रण के इस तंत्र का हिस्सा बनने यानि इसे अपने सोचने का तरीका बना लेने से बचे रहना। मतारोपण से मेरा मतलब है नर्सरी स्कूल से लेकर व्यावसायिक जीवन तक। इस सब का हिस्सा न होने का मतलब है कि आप कुछ स्वतंत्र हैं। तो सुविधा और प्रभुत्व की इस व्यवस्था से बाहर रहने के फ़ायदे भी हैं। लेकिन यह सच है कि जो दो वक्त का खाना जुटाने के लिए पचास घंटे प्रति सप्ताह काम करता है उसके पास वह सुविधा और अवसर नहीं है जो हमारे पास है। इसीलिए तो लोग साथ मिल कर काम करते हैं। कामगारों की शिक्षा के लिए संघ बनाने का उद्देश्य यही होता था, जो कि अक्सर मज़दूर आंदोलनों का एक पक्ष होता था। लोगों के लिए मिल कर एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने के तरीके होते थे। ...............पूरा पढ़ें

बेटियों की जिस्मफरोशी से जिंदा समाज

जिस तरह देश में मंदसौर अफीम उत्पादन, तस्करी के लिए मशहूर है, उसी तरह नीमच, मंदसौर, रतलाम के कुछ खास इलाके भी बाछड़ा समाज की देह मंडी के रुप में कुख्यात है। जो वेश्यावृत्ति के दूसरे ठिकानों की तुलना में इस मायनें में अनूठे हैं, कि यहां सदियों से लोग अपनी ही बेटियों को इस काम में लगाए हुए हैं। इनके लिए ज्यादा बेटियों का मतलब है, ज्यादा ग्राहक! ऐसे में जब आप किसी टैक्सी वाले से नीमच चलने के लिए कहते हैं, तो उसके चेहरे में एक प्रश्नवाचक मुस्कुराहट स्वत: तैर आती है। इस यात्रा में अनायास ही ऐसे दृश्य सामने आने लगते हैं, जो आमतौर पर सरेराह दिनदहाड़े कम से कम मप्र में तो कहीं नहीं देखने को मिलते। हां, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जरूर कभी- कभार दिख रहते हैं। पलक झपकते ही मौसम की शर्मिला टैगोर , चांदनी बार की तब्बू , चमेली की करीना आंखों के सामने तैरने लगती हैं। (दिन-दहाड़े सरे-राह बाछड़ा जाति करवाती है, अपनी ही बेटियों से वेश्यावृत्ति)यह आलेख अभी डिस्पैच में है।

ब्लॉग के बक्से में हिंदी

ब्लॉग को हम कंप्यूटर पर लिखी जाने वाली निजी डायरी कह सकते हैं - ऐसी डायरी, जिसे हम सार्वजनिक करना चाहते हैं। हिन्दी में ब्लॉग की संख्या एक हजार से ज्यादा हो गई है। इस कंप्यूटरी डायरी को चलाने में कंप्यूटर और इंटरनेट के इस्तेमाल के अलावा कोई खर्च नहीं होता। आज हजार से ज्यादा लोग हिन्दी पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं और उससे कहीं ज्यादा लोग उसे पढ़ रहे हैं। हिन्दी को मिली इस तकनीकी शक्ति की सीमाएं क्या हैं और इससे पूरी होने वाली उम्मीदें कौन सी हैं? जब हिन्दी ब्लॉग पर चर्चा हो तो यह सवाल उठना वाजिब ही है कि कितने हिन्दी भाषी कंप्यूटर साक्षर हैं और निजी या कैफे के कंप्यूटर तक कितनों की पहुंच है। लेकिन यह सवाल अपने सीमित दायरे में पढ़ने-लिखने के शेष माध्यमों के लिए भी लागू होती है। हिन्दी ब्लॉग की दूसरी सीमा है इंटरनेटी हिन्दी के मानकीकरण की। हालांकि इससे जुड़ी समस्याओं के बारे में न तो हर साल हिन्दी पखवाड़ा के रूप में हिन्दी का मर्सिया पढ़ने वाले सरकारी संस्थानों ने और न ही हिन्दी के लिए जान-प्राण देने का दावा करने वाले हिन्दी मठाधीशों ने कोई कोशिश की। लेकिन यूनीकोड ने हिन्दी ब्लॉग की इस तकनीकी सीमा को लगभग दूर कर दिया है। अब बहुत तेजी से हिन्दी में ब्लॉग की संख्या बढ़ने वाली है। सीमित लोगों तक पहुंच के कारण हिन्दी ब्लॉग की अनदेखी नहीं की जा सकती। ब्लॉग-लेखन का चलन हिन्दी दुनिया के लिए भले नई चीज है, मगर इसका समाज पर कुछ तो प्रभाव पड़ेगा। कम से कम इतना कि खाता-पीता हिन्दी मध्यमवर्ग जिसके लिए सोचना-विचारना धीरे-धीरे गैरजरूरी होता जा रहा वह भूल-भटके ही सही - इंटरनेट की दुनिया में विचरते-विचरते हिन्दी के किसी उद्वेलित करने वाले ब्लॉग तक पहुंच जाए और उसे भी देश, दुनिया और समाज के बारे में सोचने की आदत लग जाए। कई तरह के असंतोष और हाशिए के लोगों की आवाज दूसरे माधयमों की तुलना में ब्लॉग पर आसानी से पहुंच सकती है। कई तरह की बहस के लिए मुख्यधारा में जगह नहीं होती। मिसाल के तौर पर न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में बात करना हो तो, ब्लॉग एक आसान माध्यम है, क्योंकि परंपरागत माध्यम में इस तरह की चर्चा नहीं हो सकती। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि हिन्दी-जगत को ब्लॉग का यह तोहफा हिन्दी को संप्रेषण का सशक्त माध्यम बनाने को कटिबद्ध दिखने वाली सरकार का दिया हुआ नहीं है। यह कमाल है बहुत से शौकिया लोगों और अर्धव्यवसायी संस्थाओं का। साभार -सामयिक वार्ता

बाजार और मीडिया का दुलारा क्रिकेट

दक्षिणी अफ्रीका में हुए क्रिकेट के बीस-बीस ओवरों के दंगल में 'टीम इंडिया' की जीत के बाद 'टीम इंडिया' के खिलाड़ियों को 'राजकुमार' और 'विश्व विजेताओं' का दर्जा दिया गया। उन पर फूला ही नहीं धन की भी अभूतपूर्व वर्षा हुई। क्रिकेट पर हुई इस प्रेम-वर्षा से कुछ सवाल नए सिरे से उठे हैं। सबसे पहला सवाल हाल में एशिया कप जीते हॉकी खिलाड़ियों की ओर से आया। उन्होंने हॉकी के प्रति सौतेलेपन की शिकायत की और मांग रखी कि यदि 'राष्ट्रीय खेल' पर भी यूं ही धन और फूल न बरसाए गए तो वे लोग भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। हॉकी की शिकायत में थोड़ा बौनापन और अकेला होने का अहसास था। हॉकी ने अपने प्रति सौतेलापन तो महसूस किया लेकिन बाकी कई सारे खेलों के अनाथ जैसा होने के सच से अपने को अलग रखा। हॉकी ने अपने हक की मांग की भी तो सबको साथ लेकर नहीं बल्कि राष्ट्रीय खेल होने की दावेदारी के साथ। क्रिकेट की राजनीति में कुछ सवाल और भी छुपे हैं। सबसे पहले यह सोचने की जरूरत है कि क्रिकेट के इतने लोकप्रिय दिखने के पीछे असली कारण क्या हैं। चलिए हम इस सच्चाई को अनदेखा कर देते हैं कि कुछेक अपवादों को छोड़कर क्रिकेट उन्हीं देशों में लोकप्रिय हुआ जहां किसी-न-किसी रूप में कभी न कभी अंग्रेजों का उपनिवेशवाद रहा। लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि असल में यह बाजार और मीडिया की अपनी जरूरत है कि क्रिकेट को लोकप्रिय बनाया जाए। यह क्रिकेट ही है जो भारत के मध्यम वर्ग को टी.वी. के सामने ला बिठाता है। बाजार जिस ग्राहक तक पहुंचने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए रखता है, वह एकमुश्त उसके तमाशे को देखने वाला बंधुआ दर्शक बन जाता है। इस तरह देखा जा सकता है कि क्रिकेट के विश्व विजेताओं पर बरसने वाले लाख-करोड़ इसके दर्शकों की जेब से गए पैसे ही हैं। क्या हमारे पास बाजार के बंधुआ दर्शक बनने के अलावा कोई विकल्प है? क्रिकेट बाकी खेलों के हिस्से की रोटी मार कर मक्खन तो खा ही रहा है खेलों की एक ठस्स-इकहरी दुनिया भी बना रहा है। बाजार का एजेंट बन अपने ही चाहने और पालने वालों की जेब भी साफ कर रहा है। सवाल पूछा जा सकता है कि क्रिकेट के जिन राजकुमारों को भारतवासियों ने हमेशा सर-आंखों पर लिया उन्होंने अपनी जिंदगी बाजार के इशारों पर ही तय की या कभी उस समाज की जरूरतों की ओर भी देखा जिसने उन्हें करोड़पति बनाया।

शिक्षा का अधिकार, राज्य और नवउदारवादी हमला

शिक्षा का अधिकार गहरे अर्थों में एक मूल अधिकार है। यह आलेख शिक्षा के अधिकार वेफ खिलाफ खड़ी व्यवस्था की जांच-पड़ताल करता है। शिक्षा से जुड़े सवालों को राजनीति के केंद्र में लाने की जरूरत पर बल देता है। इस आलेख में उठाए गए मुद्दे राजनीतिक चर्चा और पहल-कदमी की मांग करते हैं और एक सचेत नागरिक को अपनी भूमिका तय करने में मदद करते हैं।

आज से सवा सौ साल पहले महात्मा ज्योतिराव फुले ने ब्रिटिश राज द्वारा गठित भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को प्रस्तुत अपने ज्ञापन में एक विडंबना का जिक्र करते हुए कहा था कि सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनतकश किसान-मजदूरों से आता है लेकिन इसके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का प्रमुख लाभ उच्च वर्ग और उच्च वर्ण उठा लेता है। महात्मा फुले की यह टिप्पणी भारत की आज की शिक्षा पर भी सटीक बैठेगी। सन् 1911 में इम्पीरियल असेम्बली में गोपाल कृष्ण गोखले ने मुफ्रत और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का विधेयक पेश किया। लेकिन यह विधेयक सामंती और नव-ध्नाढय ताकतों के विरोध ..... .. पूरा पढ़ें
साभार- सामयिक वार्ता

भाषाओं की सिकुड़ती दुनिया - चंदन श्रीवास्तव

जानकार कहते हैं कि भाषाओं का भूगोल सिकुड़ता जा रहा है। भाषाएं मिट रही हैं और उनके मिटने की रफ्तार हैरतअंगेज है। इस सदी के अंत तक आज के मुकाबले दुनिया में भाषाओं की तादाद आधी रह जाएगी। भाषाओं का मिटना उनके भीतर समाए ज्ञान का मिटना तो है ही कहीं न कहीं मानवता के भविष्य पर मंडराती एक बड़ी विनाशलीला की भी पूर्व-सूचना है।
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साभार- सामयिक वार्ता

मध्य प्रदेश में लोकतंत्र को जिला-बदर - रपट - सुनील

भारत एक लोकतंत्र है। कई बार हम गर्व करते हैं कि जनसंख्या के हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। अपने पड़ोसियों की तुलना में भी हमने लोकतंत्र को बचाकर रखा है। लेकिन इस लोकतंत्र में आम लोगों की इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा चेतना को बाधिात करने व कुचलने की काफी गुंजाइश रखी गई है। ऐसा ही एक मामला मध्य प्रदेश के हरदा जिले में सामने आया है। हरदा जिले के कलेक्टर ने इस जिले में आदिवासियों, दलितों और गरीब तबकों को संगठित करने का काम कर रहे एक दंपति को जिला बदर करने का नोटिस दिया है। समाजवादी जन परिषद् से जुड़े शमीम मोदी और अनुराग मोदी पर आरोप लगाया गया है कि वे बार-बार बिना सरकारी अनुमति के बैठकों, रैली, धरना आदि का आयोजन करते हैं तथा आदिवासियों को जंगल काटने और वनभूमि पर अतिक्रमण करने के लिए भड़काते हैं। वे परचे छपवाते हैं और जबरन चंदा करते हैं। मध्य प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम 1990 की धारा 5(ख) .......पूरा पढ़ें
साभार- सामयिक वार्ता

परमाणु ऊर्जा कुछ अनबुझे प्रश्न - गोपा जोशी

हाल ही में हरियाणा के झज्जर जिले के झाड़ली गांव में इन्दिरा गांधी बिजली परियोजना की आधारशिला रखने के बाद रैली को सम्बोधित करते हुए सोनिया गांधी ने एटमी करार का विरोध करने वालों को विकास और अमन का दुश्मन बताया। सोनिया गांधी ने आगे जोड़ा कि अमेरिका के साथ एटमी करार का मकसद गांव गांव बिजली पहुचाना है। यह हताशा में की गई टिप्पणी थी। सोनिया गांधी समझ गई थी कि अमेरिका के साथ परमाणु समझौता की कीमत संयुक्त प्रगतिशील सरकार की स्थिरता थी।लेकिन सोनिया गांधी ने हताशा में ही सही एक बड़ा अहम मुद्दा उठा दिया। इस लेख में परमाणु कार्यक्रम सम्बन्धी उपलब्ध तथ्यों की सहायता से यह समझने की कोशिश की जाएगी कि परमाणु ऊर्जा से आम आदमी की खुशहाली में कितना इजाफा होता है
परमाणु कार्यक्रम से होने वाले तथाकथित विकास की एक झलक डा. रोजेली बर्टेल,(अध्यक्ष इन्टरनेशनल इन्स्टिट्यूट आफ कनसर्न फार पब्लिक हेंल्थ तथा इन्टरनेशनल परस्पैक्टिव इन पब्लिक हेंल्थ के प्रधान संपादक) द्वारा दिये गए आकड़ों से मिल जाती है।डा. रोजेली बर्टेल का कहना है कि परमाणु हथियारों के परीक्षण से लगभग 1,200 मिलियन लोग ..............
यह आलेख अभी डिस्पैच में है।

"विश्व बैंक बदल रहा है" - ईसाबेल ग्वेरेरो

भारत में विश्व बैंक की नई अध्यक्ष ईसाबेल ग्वेरेरो ने निजीकरण, उदारीकरण और इस अंतरराष्ट्रीय संस्था में अमेरिका का प्रभुत्व जैसे मसलों पर संकर्षण ठाकुर से बातचीत की. उन्होंने माना कि विश्व बैंक से गलतियां हुई हैं मगर पिछले कुछ समय से इसकी कार्यप्रणाली में काफी बदलाव भी आया है. देखें बातचीत के अंश
विश्व बैंक की नई अध्यक्ष ईसाबेल ग्वेरेरो ने बड़ी चतुराई से गोलमोल किया है
पीएनएन “सवाल दर सवाल है – जवाब चाहिए” कॉलम के तहत शृंखला शूरु करेगा (हिन्दी और अंग्रेजी में)
माफ करना विश्व बैंक की नई अध्यक्ष नहीं कंट्री डायरेक्टर ईसाबेल ग्वेरेरो को हम अंग्रेजी में मेल भी करेंगे।

लुधियाना का साईकिल उद्योग……..खो रहा है - डॉ. कृष्ण स्वरूप आनन्दी

सस्ते आयात के कारण देश के औद्योगिक नगरों का अवसान हो रहा है, अनौद्योगीकरण की आत्मघाती प्रक्रिया चालू हो गयी है, जिसके कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, विस्थापन और बदहाली फैल रही है।
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साईकिल उद्योग की तरह ही, लुधियाना सिलाई मशीन उद्योग का भी पिछले 100 वर्षों से केन्द्र रहा है। देश की कुल सिलाई मशीन निर्माण का 75 प्रतिशत कारोबार लुधियाना में ही होता है। यह देश का सबसे बड़ा सिलाई मशीन उत्पादन केन्द्र है। परन्तु अब यह चीनी सिलाई मशीनों और उनके कल-पुर्र्जों, जो भारतीय मशीनों और कलपुर्जों से 40 से 60 प्रतिशत तक सस्ते हैं, के मुकाबले बाजार में पिछड़ रहा है। अब बड़ी रेडीमेड वस्त्र निर्माण कम्पनियों के सिलाई केन्द्रों में भी लुधियाना की बनी मशीनों के स्थान पर जगुआर, जुलसी, पैगासस् आदि नामों की आयातित सिलाई मशीनें इस्तेमाल की जा रही हैं। कढ़ाई मशीनों का भी 60 प्रतिशत बाजार चीनी कढ़ाई मशीनों के कब्जे में आ चुका है। सियुविंग मशीन डीलर्स एण्ड एसेम्बलर्स एसोसियेशन के प्रेसीडेंट वरिन्दर रखेजा के मुताबिक ''भारतीय बाजार में चीन की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ रही है,क्योंकि सिलाई मशीनों में इस्तेमाल होने वाली सुई, सुई प्लेट, बाबिन्स और बाबिन केस जैसे जरूरी 95 प्रतिशत तक चीन से आयातित कल-पुर्जे ही इस्तेमाल हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण इनके मूल्य में भारी अन्तर होना है।'' ...........पूरा पढ़ें

ये आंसू तो घड़ियाली हैं -बलाश

लंदन के गार्जियन अखबार से लेकर अंग्रेजी के अखबार 'द हिन्दू' ने एक खबर छापी जिसे पढ़ने में तो अच्छा लगा, लेकिन जिसने सोच में डाल दिया, पहले खबर देख लें :
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23 अगस्त को लंदन में उस शहर के मेअर केन लिविंग स्टोन ने दास प्रथा की समाप्ति की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए आयोजित सभा में भावुक और ऑंखों में ऑंसू भरकर राजधानी नगर और उसकी संस्थाओं की तरफ से माफी माँगी।
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लंदन के मेअर रो पड़े जब वे स्मारक सभा में अफ्रीका से ढोकर लाये गये दसियों लाख लोगों पर ढाये गये जुल्मों और उसकी विरासत को आज भी भोगते लोगों के हालात बयान कर रहे थे। मौजूद राजनेताओं, लेखकों और विशिष्टजनों की सभा में अमरीका के मानवाधिकार नेता रेवरेंड जैस जैक्सन ने मेअर के पास जाकर उनके कन्धे पर हाथ रखकर सांत्वना दी।..........पूरा पढ़ें

कंपनी के चंगुल में फँसता किसान

मैं सरकार से पूछना चाहता हूँ कि किसान और आम नागरिक के बीच में ये ठेला वाले, रेहड़ी वाले, थोक विक्रेता वाले बिचौलियें हैं तो ये बहुराष्ट्रीय कम्पनी वाले कौन हैं ये भी तो बिचौलियों का ही काम करने आये हैं। सरकार को सोचना चाहिए कि आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आ जाने से करोड़ों लोग बेरोजगार हो जायेंगें खासकर गरीब तबके के लोग भुखमरी के चपेट में आ जायेंगे। देशी हो या विदेशी ये सारी कम्पनियाँ केवल मुनाफा कमाना जानती हैं। ऐसा लगता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हम लोगों को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही हैं। इस नीति के बारे में सरकार को जरूर सोचना चाहिए, नहीं तो अगामी कुछ वर्षों के बाद किसान के साथ-साथ आम नागरिक भी शोषित होंगे।............पूरा पढ़ें

राजस्व का भारी नुकसान :

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये ओ.एफ.सी. मुनाफे की हेरा-फेरी करने की सर्वोत्ताम जगह बनी है। यहाँ ऐसा लेन-देन चलता है जिसमें मुनाफे और घाटे को कागजों पर गुणाभाग करके इस तरह समायोजित किया जाता है कि जिससे कम से कम या न के बराबर टैक्स देना पड़े। मुनाफे की यह हेराफेरी उन कम्पनियों द्वारा की जाती है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सम्पत्तिा की देखभाल के लिये बनायी जाती हैं।
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अपना मुनाफा छिपाने के लिये कम्पनी पेटेन्टों, कापीराइट एवं डिजाइन जैसी चीजों की मालकियत ओ.एफ.सी. स्थित कम्पनी को ट्रांसफर कर देती है और कम टैक्स वाले अधिकार क्षेत्रों में जाकर रायल्टी की रकमें वसूल कर लेती है। इसी वर्ष, दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनी मर्क ने 2.3 अरब डॉलर के टैक्स की चोरी की। इसने अपने पेटेन्टों की मालकियत को बारामुडा स्थित अपनी ही कम्पनी को ट्रांसफर कर दिया और तब टैक्स बचा कर रायल्टी अपनी ही कम्पनी द्वारा अपने आप को दे दी। माइक्रो सॉफ्ट भी इस तरह की गतिविधियों में लिप्त है। ........पूरा पढ़ें

आफशोर बैंकिंग में खेल रही हैं घातक खेल - पीटर जिलेप्सी

(जैसे-जैसे बड़ी कम्पनियाँ और अमीरजादे अपनी दौलत आफशोर बैंकों के कर स्वर्गों (टैक्स हैवन्स) में जमा कर रहे हैं वैसे-वैसे दुनिया भर के देशों को भारी राजस्व की हानि उठानी पड़ रही है। 500 अरब डॉलर की हानि प्रतिवर्ष होने का अनुमान है। यह राशि संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डेवलेपमेंट लक्ष्यों को हासिल करने के लिये जरूरी धनराशि से भी ज्यादा है। दुनिया भर के नागरिक संगठन इस आफशोर वित्ताीय तन्त्र को चुनाती दे रहे हैं। इस वित्ताीय तन्त्र पर एक छोटा सा खोजपरक लेख ओटावा (कनाडा) स्थित इण्टरनेशनल सोशल जस्टिस आर्गेनाइजेशन से जुड़े शोधकर्ता पीटर जिलेप्सी ने लिखा है जो थर्ड वर्ल्ड इकानामिक्स के अंक नं.- 407, 16-31 अगस्त 07 में प्रकाशित हुआ है। इसी लेख का कुछ हिस्सा यहाँ हम दे रहे हैं- सम्पादक)
विकासशील देशों के भ्रष्ट शासकों का भारी धान ओ.एफ.सी. में जमा रहता है। इण्डोनेशिया के तानाशाह सुहार्तो ने वर्षों इण्डोनेशिया को लूटा और उनका लगभग 35 अरब डॉलर कैमान आइलैण्ड, बाहमास, पनामा, कुक आइलैण्ड, बनाऊतु, वेस्ट समोआ स्थित ओ.एफ.सी. में रखा है। मैक्सिको के पूर्व राष्ट्रपति के भाई राडल सालिनास को सिटीबैंक ने मदद करके आफशोर ट्रस्ट खुलवाया और वहाँ गुप्त खातों में इनकी रकम पहुँचवायी। रिगी बैंक ऑफ वाशिंगटन ने चिली के पिनोशेट के लिये ओ.एफ.सी. में डमी कार्पोरेशन और गुमनाम खाते खुलवाये। अफ्रीका के कुछ गरीबतम् देशों की लूट का धन भी ओ.एफ.सी. पहुँचा। 1993 से 1998 तक नाईजीरिया के तानाशाह सानी अबाचा ने स्विट्जरलैण्ड, लक्समबर्ग, लीटेस्टीन, लंदन के ओ.एफ.सी. में अरबों डॉलर पहुंचाये। जायरे के मोबुतु से से सेको और सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक के बादशाह ने अपने देशों को भूखे मार कर अरबों डॉलर लूटा और ओ.एफ.सी. में भेज दिया तथा उनके इस कार्य में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बैंकों ने बड़ी मदद की। ........पूरा पढ़ें

मुद्रा कोष: विकसित देशों का वायसराय

(विकसित देश यूं तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था के पक्षधर नजर आते हैं। परंतु अपनी स्वार्थ सिध्दि हेतु वे किसी भी विश्व आर्थिक संस्थान को प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाना चाहते। पिछले दिनों विश्व बैंक एवं अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के उच्चतम पदों पर होने वाली संभावित नियुक्तियों ने पूरी प्रक्रिया को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। चयन की इस अलोकतंत्रीय प्रक्रिया को उजागर करता संक्षिप्त आलेख। का.स.).

पिछले कुछ हफ्तों के दौरान हम सभी दुनिया की दो सबसे शक्तिशाली संस्थाओ, विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.) के नेतुत्व परिवर्तन प्रक्रिया के साक्षी रहे हैं। परंतु इससे कोई अच्छा संदेश नहीं गया अपितु यह सिध्द हो गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप........पूरा पढ़ें

झमेला : एक-दो रुपये का

छोटे दुकानदार जिनकी दुकानदारी में खुले पैसों का बडा महत्व है, चूंकि उनकी छोटी दुकानदारी में छोटी-छोटी लेन देन के लिए छोटी मुद्रा की बडी भूमिका होती है। साथ ही छोटे खरीददार यानि जो अपनी मूलभूत आवश्यकता का सामान रोजाना खरीदते है, उनके लिए इन एक-दो रूपयों का बड़ा महत्व होता है। इन छोटे-छोटे पैसों के चक्कर में या तो दुकानदार छोटा सामान नहीं बेचे यदि उसे बेचना है तो एक-दो रूपये के खुले नोट अपने पास रखने होगें। दूसरी तरफ छोटा खरीददार या तो कम से कम 5 रूपये का सामान खरीदे या फिर अपने पास एक या दो रूपये के खुले सिक्के अपने पास रखे, जो उसके पास होते नहीं है।
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यदि इसके परिणामों पर गौर करें तो दो बातें साफ तौर पर निकलकर आती है पहली यह कि उपभोक्ता की क्रय क्षमता जो ना होते हुए भी बढेगी। क्योंकि जब एक-दो रूपये का सामान खरीदने के लिए ना तो खुले पैसे खरीददार के पास होंगे और ना ही दुकानदार के पास। तो स्वाभाविक है कि कम से कम उसे पांच रूपये का सामान खरीदना पडेगा। दूसरी छोटे दुकानदार जो गली -मौहल्लों में होते है...........पूरा पढ़ें

वो सुबह अभी तो नहीं आयेगी - प्रो. अरुण कुमार

नेहरू के ''नियती से मिलन'' नारे ने आशा जगाई की भारत नई चुनौतियों से मुकाबला करने के लिये जाग उठेगा। 60 वर्ष पूर्व उस ऐतिहासिक दिन के बाद से भारत ने काफी भौतिक उन्नति तो की है परंतु स्वतंत्रता संग्राम के कुछ अन्य लक्ष्य और भी थे। अनगिणत लोगो ने अपना 'आज' हमारे 'कल' के लिये कुर्बान कर दिया था। क्या वह सुंदर कल हमें मिला, क्या वह दृष्टि अलग नहीं थी उस दृष्टि से, जिसके लिये हमने काम किया। संदेह होता है क्योंकि भयंकर गरीबी, अक्षिक्षा और गंदगी एवं बिमारियाँ भारी कीमत वसूल रही हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि हमारे सामने पश्चिम का अनुसरण करने के अलावा और कोई भी दृष्टि नहीं रह गयी है और इस प्रक्रिया में हमने ये दोनो बदत्तार चीजें हीं हासिल की है।.........पूरा पढ़ें

कोला कम्पनियों का नया मंत्र: छीनो-झपटो और आगे बढ़ो - डा. कृष्ण स्वरूप आनन्दी

''एक काम जो मुझे कर देना चाहिये था वह यह कि मुझे भारत में तीन साल पहले आना चाहिये था और कहना चाहिये था; 'ये उत्पाद दुनिया के सबसे सुरक्षित उत्पाद है, कुछ भी हो, आपका ........' पेप्सी को की सीइओ इन्दिरा नुई ने यें बाते अमरीका की बिजिनेस बीक पत्रिका से एक इन्टरवियू के दौरान कही।
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यह उदाहरण है गुलाम मस्तिष्क की विमुखी अवस्था की मालिक भारत में पैदा हुई अब हाउस्टन की नागरिक इन्दिरा नुई का। एक अमरीकन कम्पनी के हितों की रक्षा करने का काम करने वाली, इन्दिरा नुई ने अपने वक्तव्य में न केवल विज्ञान को झिड़क दिया बल्कि भारतीय विज्ञान प्रयोगशालाओं की विश्वसनीयता, भरोसा और प्रमाणिकता पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया। 'कोला में कीटनाशक' के विवाद के पूर्व उच्चतम न्यायालय ने 2 दिसम्बर 2002 को पेप्सी कोला कम्पनी की हिमालय पर्वत की चट्टानों पर पेंट से विज्ञापन लिखने के कारण हो रहे पर्यावरणीय नुकसान के लिए खिंचाई की थी। उसके बाद, दुनिया भर में कम्पनी ....... पूरा पढ़ें

ड्रग्स से सच उगलवाने का सफेद झूठ - पी चन्द्रशेखरन

फोरेंसिक साइंस के विशेषज्ञों का कहना है कि सच उगलवाने के लिए किसी अभियुक्त के शरीर में ड्रग्स का इस्तेमाल गैर-जरूरी है। जब पुलिसकर्मी पूछताछ के दौरान नार्को-एनालिसिस जैसे बाध्यकारी तरीकों का इस्तेमाल करते हैं तो वे कानून से ऊपर नहीं हो जाते। पूछताछ की किसी भी कार्रवाई में मानवाधिकारों की हिफाजत के सवाल को ताक पर नहीं रखा जा सकता, पी चन्द्रशेखरन का विश्लेषण

किसी अपराध की तहकीकात के क्रम में अभियुक्त से पूछताछ संबंधित केस का एक अहम पहलू होता है। पूछताछ यह एक तरह की कला होती है, जिसमें पारंगत होने के लिए काफी अध्ययन और तजुर्बा जरूरी है। पूछताछ उस सूरत में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है,जब किसी मामले में जांच एजेंसी के पास साक्ष्य नहीं होते या होते भी हैं तो उन्हें पर्याप्त नहीं माना जाता। पुलिस और अन्य जांचकर्ता किसी भी मामले की गुत्थी सुलझाने के लिए पूछताछ को सबसे श्रेयष्कर साधन मानते हैं। सभ्य मुल्कों में यह सर्वस्वीकार्य मानदंड है कि नैतिक और व्यावहारिक ...........पूरा पढ़ें

मुद्दे-स्तम्भकार