क्या सद्दाम की सबसे प्रिय बेटी रगद को भी फांसी चढ़ाएगा अमेरिका? : विश्रान्त चंद्र/दुबई, समकाल हिन्दी पाक्षिक

क्या दिवंगत राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की सबसे बड़ी और प्रिय बेटी रगद को भी मौत के घाट उतार दिया जाएगा? जब से अमरीका समर्थित इराकी सरकार ने दिवंगत राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को फांसी दी है, तभी से रगद को बंदी बनाने के लिए तलाश की जा रही है। 2003 में हुए अमरीका के इराकी हमले के बाद रगद अम्मान चली गई थी, जहां जॉर्डन के नवाब अब्दुल्लाह ने न केवल उसका स्वागत किया बल्कि शाही आवास में उसकी मेहमाननवाजी की थी। पर एक महीना पहले इराकी सरकार की प्रार्थना पर इंटरपोल ने 38 वर्षीया रगद के खिलाफ 'लोगों के जीवन से खिलवाड़, विद्रोह भड़काने और आतंकवाद जैसे अपराधों' का आरोप लगाते हुए गिरफ्तारी वारंट जारी किया है।

एक अमरीकी हमले में अपने दोनों भाइयों उदय और कुसय की मृत्यु के बाद दिवंगत राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन की अकेली वारिस होने के कारण रगद को कई दल अपना निशाना बनाए हुए हैं। जॉर्डन के अधिकारी हालांकि उसे यह कहकर सौंपने से इंकार कर रहे हैं कि वह जॉर्डन में रहने की अधिकारिक शर्तों का पालन कर रही है, वह न तो राजनैतिक रूप से सक्रिय है और न ही कोई सार्वजनिक वक्तव्य दे रही है, लेकिन अब जॉर्डन शासन चौकन्ना हो गया है, क्योंकि जैसे-जैसे इराक-युध्द और अमेरिका समर्थित सरकार अलोकप्रिय हो रही है, रगद ने इराक के आक्रमण के विरुद्ध बोलना शुरू कर दिया है। फांसी पर लटकता हुआ सद्दाम का सिर का भयावह दृश्य और आये दिन इराक में होने वाली निर्मम हत्याओं ने लोगों को सद्दाम का अतीत भुलाकर उनका ध्यान गैर कानूनी युध्द पर लगा दिया है। पिता के लिए शोक मनाने वाली रगद ही मुख्य व्यक्ति थी। यमन में सुरक्षा बलों के मुखिया द्वारा आयोजित एक उत्सव में उसने कहा, ''सद्दाम हुसैन एक सच्चे हीरो और अरब नेता हैं। मुझे उनपे, उनके संघर्ष और बलिदान पर गर्व है। मुजाहिद्दीन और विरोधी इराक में काम करते रहेंगे, नि:संदेह ईराकियों को सफलता मिलेगी।'' मुकद्मे के दौरान अपने पिता को बचाने के लिए रगद ने हर संभव कोशिश की। उसने तब कहा था, ''खेद है कि वे लोग मेरे पिता से ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे वह कोई इंसान ही न हो। मेरे पिता की बेटियां हैं, उन बेटियों के बच्चे हैं, उन्हें इंसानियनत के रास्ते सोचना चाहिये। वे सोचते हैं कि मेरे पिता के पास मानवीय जीवन की कमी है लेकिन विस्तार में न जाकर अमरीकियों को उनके परिवार के साथ मानवीय रूप से व्यवहार करना चाहिए।''

सच तो यह है कि सद्दाम का परिवार खत्म हो रहा है, कुछ सदस्य मर चुके हैं तो कुछ वनवास में हैं, बाकी छिप गए हैं। सद्दाम का जीवित बेटा, अली सद्दाम की दूसरी पत्नी, अपनी मां के साथ लेबनान में रहता है और इराकी संघर्ष में शामिल भी नहीं होना चाहता। सद्दाम का सौतेला भाई वारजन को एक मुकद्मे के बाद फांसी पर लटका दिया गया और केमिकल अली के नाम से प्रसिद्ध उसका चचेरा भाई अली हुसैन अल-माजिद मुकद्मे और फांसी की सजा भुगत रहा है। समझा तो यही जा रहा है कि यदि जॉर्डन ने रगद को इराकी सरकार को सौंपने का निश्चय किया तो उसे मौत के घाट ही उतार दिया जाएगा। साभार: समकाल (ग्लोबल हिन्दी पाक्षिक )

ठेका खेती के बड़े ठेकेदार

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने कैबिनेट की मंजूरी के बाद प्रदेश की नई कृषि एवं अवस्थापना निवेश नीति लागू करने की घोषणा की। इस नीति के तहत निजी कम्पनियों और किसानों के लिए अनुबंध खेती (कांट्रैक्ट फार्मिंग) का विकल्प खोल दिया गया है जिसके तहत कम्पनियाँ सीधे किसानों को बीज, खाद और कर्ज सुविधा उपलब्ध कराकर उनके द्वारा उत्पादित गेहूँ, चावल, दाल, फल, फूल, सब्जी इत्यादि खरीद सकेंगी और रिटेल बाजार में बेच सकेंगी। बड़े निवेशकों को मंडी स्थल के बाहर खरीदने-बेचने की सुविधा होगी। सरकार इसके लिए लाइसेंस जारी करेगी तथा एकल लाइसेंस की व्यवस्था की गयी है। इसके लिए मण्डी परिषद एक्ट, 1964 में संशोधन किया गया है। न्यूनतम रु. 500 करोड़ वाले निवेशक इच्छा अभिव्यक्ति पत्र प्रस्तुत करेगें तथा उन्हें 3 वर्ष में कृषि व्यवसाय एवं सम्बंधित क्षेत्र में 5,000 करोड़ रुपये का निवेश करना होगा। (किसानों और जनसंगठनों के विरोध के कारण मायावती ने यह नीति 23 अगस्त को वापिस ले ली है।)

राष्ट्रीय कृषि नीति एंव कान्ट्रेक्ट खेती

कान्ट्रैक्ट खेती क्या है ?
भारत सरकार ने कृषि विकास हेतु व्यापक परिप्रेक्ष्य में सन् 2000 में राष्ट्रीय कृषि नीति घोषित की। राष्ट्रीय कृषि नीति में कान्ट्रेक्ट खेती का भी प्रावधान किया गया है। यह उल्लेख किया गया है कि कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को कान्ट्रेक्ट खेती और पट्टे पर भूमि देने की व्यवस्था द्वारा प्रोत्साहित किया जायेगा। कान्ट्रेक्ट खेती को प्रसंस्करण एवं विपणन फर्मों तथा कृषकों के मध्य समझौते के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है। कान्ट्रेक्ट खेती के अनुसार कृषक अपनी जोत पर कान्ट्रेक्ट करने वाली कम्पनी द्वारा बताई गई फसल बोयेगा तथा कान्ट्रेक्ट करने वाली फर्म द्वारा बीज, खाद उर्वरक एवं तकनीक की आपूर्ति की जायेगी। .........
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नेपाल में गणतंत्र की राह में कांटे बो रहा है ए.डी.बी.

एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) किस प्रकार किसी देश की राजनीति को प्रभावित करता है इसका उदाहरण है नेपाल की यह घटना नेपाल की मेलाम्ची परियोजना महत्वपूर्ण परियोजना है। काठमांडो उपत्यका को पेयजल की आपूर्ति करने वाली यह परियोजना अत्यंत महत्तवपूर्ण है जो (एडीबी) से प्राप्त आर्थिक सहायता से चलती है। यह विभाग नेकपा (माओवादी) की केंद्रीय समिति की सदस्य हिसिला यामी के मंत्रालय के अधीन है। परियोजना का कांट्रैक्ट जून में समाप्त हो रहा था, एडीबी ने इस परियोजना के लिए 55 करोड़ की राशि देने के साथ यह शर्त लगा दी कि नया कांट्रैक्ट उसके द्वारा नामजद ब्रिटिश कंपनी सेवर्न ट्रेंट को ही दिया जाए। हिसिला यामी ने देखा कि जिस कंपनी को ठेका देने की बात की जा रही है उसके खिलाफ कुछ देशों में धोखाधड़ी के मामले हैं और ऐसी कंपनी को इतना महत्तवपूर्ण ठेका देना राष्ट्रीय हित में नहीं है। मंत्री ने यह प्रस्ताव रखा कि 'पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप' के आधार पर एक नई कमेटी का गठन किया जाए और उसे यह ठेका दिया जाए। इस प्रस्ताव ने तूफान खड़ा कर दिया। कोइराला के वरिष्ठ सहयोगी और वित्तामंत्री रामशरण महत ने हिसिला यामी के खिलाफ मुहिम छेड़ दी।..........
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'वर्दी में और उसी असेंबली से चुनाव लड़ना' ही मुशर्रफ की प्राथमिकता : सफदर बलोच/इस्लामाबाद/ समकाल हिन्दी पाक्षिक

उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक बेनजीर और मुशर्रफ द्विपक्षीय समझौते का मतलब है कि जनरल मुशर्रफ को आने वाले पांच साल के लिए फिर से राष्ट्रपति चुना जाएगा और भुट्टो को कुछ रियायतें दी जाएंगी। इन रियायतों में भुट्टो के खिलाफ लगाए गए भ्रष्ट्राचार के सभी आरोपों को वापस लिया जाएगा और उन सभी मुकद्मों को भी जल्द ही खत्म कर दिया जाएगा। तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की राह में आने वाली उन सभी बाधाओं को दूर कर दिया जाएगा, जिनके कारण वे आगामी चुनाव के लिए अयोग्य घोषित की गईं थीं। जैसा कि उन पर पब्लिक आफिसिस आर्डर 2002 के तहत प्रतिबंध लगाया गया था। मुशर्रफ ने उस समय यह आदेश इसलिए लागू किया था ताकि 'कोई भी भ्रष्ट राजनेता देश को नुकसान पहुंचाने की कोशिश न करे'।

पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के एक नेता ने बताया कि उनकी पार्टी के लिए यही अच्छा होगा कि वह मुशर्रफ को सेना की वर्दी के बिना चुनाव में खड़े होने के लिए समर्थन दे। चुनाव के दिन भी अगर वह अपनी वर्दी में रहते हैं तो यह हमारी पार्टी के लिए बड़ी समस्या बन सकती है। हालांकि जनरल मुशर्रफ कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते। वह अपने इस द्विपक्षीय रिश्ते को अगले सत्र के लिए एक गारंटर की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। राष्ट्रपति सूत्रों के मुताबिक 'वर्दी में और उसी असेंबली से चुनाव लड़ना' ही मुशर्रफ की प्राथमिकता है।

वर्तमान हालात को देखते हुए लगता है कि शायद ही मुशर्रफ वर्दी छोड़ें। मुशर्रफ वादा तो कर रहे हैं कि वादा निभाउंगा, पर विश्वास कौन करे, अमेरिका मुशर्रफ को राष्ट्रपति देखना चाहता है, जो अब होने जा रहा है। अगर विपक्षी पार्टियां इस्तिफा देती हैं तो शायद एक नया नजारा मिले.................

भारतीय जीवन बीमा क्षेत्र को बेचा जा रहा है - डा. कृष्ण स्वरूप आनन्दी

यद्यपि वर्तमान में घरेलू बीमा सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 26 प्रतिशत है, फिर भी बीमा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां तेजी से भारत के बीमा क्षेत्र में प्रवेश कर रही हैं और यहां अपने कारोबार को तेज कर रही हैं। वें भारतीय साझेदारों के साथ तेजी से संयुक्त उपक्रम बना रही हैं। उन्हें उम्मीद है कि निकट भविष्य में बीमा क्षेत्र का और उदारीकरण होगा अर्थात बीमा क्षेत्र में सीधे विदेशी पूंजी निवेश की सीमा पहले 26 प्रतिशत से 49 प्रतिशत तक फिर 49 प्रतिशत से 74 प्रतिशत तक और अंत में 100 प्रतिशत तक बढ़ा दी जायेगी। पिछले 5 वर्षों के दौरान निजी बीमा कम्पनियां, जिनमें विश्व की विशाल बीमा कम्पनियों की भी हिस्सेदारी है, 90 प्रतिशत की दर से विकास कर रही है जबकि सार्वजनिक क्षेत्र की जीवन बीमा निगम केवल सालाना 40-45 प्रतिशत की विकास दर पर ही अटकी हैं, हांलाकि देश में जीवन बीमा व्यवसाय 100 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है।.......

भारत में कृषि संकट - डा. कृपाशंकर

किसान की सबसे बड़ी विडम्बना है कि वह स्वंय अपने द्वारा उत्पादित वस्तु का मूल्य निर्धारण नहीं करता। अकेला किसान ही ऐसा उत्पादक है। अब तक अन्य वस्तुओं के उत्पादक तो लागत से कई गुना मुनाफा कमाते हैं। परन्तु किसान के लिये लागत निकालना ही कठिन पड़ जाता है। फसल तैयार होने पर बहुत सी देनदारियों के लिये अपनी उपज तुरन्त बेचना उसकी मजबूरी रहती है। सभी किसानों द्वारा एक साथ बाजार में बेचने की विवशता के कारण मूल्य धराशायी हो जाता है। यदि किसानों की संगठित सहकारी क्रय-विक्रय समितियाँ होतीं और गाँव-गाँव में उनके अपने गोदाम होते तो किसान अपनी उपज को इन गोदामों में रख कर उनकी जमानत पर बैंकों से अग्रिम धन पा सकता था ताकि वह अपनी तुरन्त की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और व्यापारियों के हाथ सस्ते मूल्य पर अपने उत्पाद को उसे न बेचना पड़े। ऐसी सहकारी क्रय-विक्रय समितियों का गठन करना बहुत कठिन काम नहीं था। इसकी पहली शर्त थी कि व्यापक पैमाने पर ग्रामीण ..............

बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद -डॉ. बनवारी लाल शर्मा

उपनिवेशकाल में भारत के पढ़े-लिखे लोगों में यूरोप-केन्द्रित दृष्टि इतनी जम गयी कि आज भी वह वर्ग उसको दुहराने और उसका उपकार जताने में किसी प्रकार की हया-शर्म महसूस नहीं करता। सितम्बर 1996 में भी पी. चिदम्बरम आज की तरह भारत सरकार के वित्तामंत्री थे और अपनी उदारीकरण की नीतियों के कारण पश्चिम की दुनिया के दुलारे थे। वे वाशिंगटन में व्यवसायियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने अमरीकी उद्यमियों से कहा था, 'आप में से उन लोगों से, जो भारत आना चाहते हैं, मुझे यह कहना है कि आप लम्बे समय के लिए वहां आइए। पिछली बार आप भारत पर एक दृष्टि डालने के लिए आए थे। आप दो सौ साल ठहरे। इसलिए इस बार, अगर आप आएं तो और दो सौ साल रहने के लिए तैयारी करके आएं। वहीं सबसे बड़े प्रतिफल हैं।'
वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तो दो कदम आगे बढ़ गये। 8 जुलाई 2005 को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण करने पर व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, 'आज बीते समय को पीछे मुड़कर देखने से जो संतुलन और परिप्रेक्ष्य मिलता है, उससे एक भारतीय प्रधानमंत्री के लिए दावे के साथ कहना संभव है कि भारत का ब्रिटेन के साथ का अनुभव लाभकारी भी था। कानून, संवैधानिक सरकार, स्वतंत्र प्रेस, पेशेवर नागरिक सेवा, आधुनिक विश्वविद्यालय और शोध प्रयोगशालाओं के बारे में हमारी अवधारणाओं ने उस कढ़ाव में स्वरूप ग्रहण किया है, जहां एक युगों पुरानी सभ्यता उस समय के प्रबल साम्राज्य से मिली। ये वे सभी तत्व हैं जिन्हें हम अभी भी मूल्यवान समझते हैं और जिनका आनन्द लेते हैं। हमारी न्यायपालिका, हमारी कानून व्यवस्था, हमारी अफसरशाही और हमारी पुलिस, सभी महान संस्थाएं हैं जो ब्रितानी-भारतीय प्रशासन से निकली हैं और उन्होंने देश की अच्छी सेवा की है। ब्रिटिश राज की सभी धरोहरों में अंग्रेजी भाषा और आधुनिक विद्यालय व्यवस्था से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई धरोहर नहीं।'

विकास या विकास का आतंक -अमित भादुरी

चरम विकास के इस दौर में यह कोई चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि भारत के अंदर दो भारत हैं। एक वह भारत है जहां बड़ी-बड़ी इमारतें, शानो-शौकत, चमचमाते शॉपिंग माल्स और उच्च तकनीक से बने गगनचुम्बी पुल, जिन पर नजर आती हैं दूर तक, दौड़ती हुई नई-नई आधुनिक गाड़ियां। यह उस वैश्विक भारत की तस्वीर है जो प्रथम विश्व यानी विकसित विश्व के प्रवेश द्वार पर खड़ा है। दूसरा है दीन-हीन भारत, जहां नजर आते हैं निसहाय किसान, जो विवश हैं आत्महत्या करने के लिए, अवैधानिक रूप से मरते हुए दलित, अपनी ही कृषि भूमि और जीविका से बेदखल की हुई जनजातियां, चमचमाते शहरों की गलियों में भीख मांगते छोटे-छोटे बच्चे। इस दूसरे भारत के दीन-हीन व्यक्ति के विद्रोह के स्वर से आज देश के लगभग 607 में से 120-160 जिलों में उग्र नक्सलवादी ........

न्यायालय की अवमानना का आधार

अदालत की अवमानना से संबंधित कानून में बदलाव की मांग पहले भी कई बार उठी है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले के चलते इस कानून पर पुनर्विचार और अवमानना को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत एक फिर महसूस की जा रही है। न्यायालय ने अंग्रेजी दैनिक मिडडे मील के संपादक सहित चार पत्रकारों को भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश योगेश कुमार सब्बरवाल के खिलाफ एक खबर प्रकाशित करने केक आरोप में चार महीने कैद की सजा सुनाई है। अदालत ने माना कि इन पत्रकारों ने जो सामग्री प्रकाशित की, उससे सुप्रीम कोर्ट की छवि खराब हुई, इसलिए ये अवमानना के दोषी हैं। इस पर मीडिया जगत में तो तीखी प्रतिक्रिया हुई ही है, अनेक विधिवेत्ताओं ने भी असहमति जताई है। फैसले को लेकर जो सवाल उठे हैं उनमें से एक यह है कि अदालत ने खबर की सचाई जानने की कोशिश नहीं की। अवमानना कानून में संशोधन की मांग के पीछे एक प्रमुख तर्क यह रहा है कि सच को बचाव का आधार मानना चाहिए। यानी अगर सार्वजनिक की गई जानकारी सही है और जनहित में है तो यह बचाव के लिए काफी है। दोषी ठहराए गए पत्रकारों का दावा है कि उन्होंने जो कुछ प्रकाशित किया वह प्रामाणिक है। संबंधित अखबार ने इस बाबत खबर छापी थी कि पूर्व मुख्य न्यायधीश सब्बरवाल के बेटे के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की सीलिंग में उन्हें फायदा पहुंचाया गया। लेकिन हाईकोर्ट ने खबर की सच्चाई को जानने की जरूरत नहीं समझी। जबकि होना तो यह चाहिए कि आरोप सही जाए जाएं तो आगे की जांच का आदेश दिया जाए।

यहां यह भी गौरतलब है कि रपट ऐसी नहीं थी जो किसी अदालती फैसले के पीछे जजों की नीयत पर शक करती हो या न्यायिक कार्यवाही को प्रभावित करने की मंशा से प्रकाशित की गई हो। यही नहीं, खबर का ताल्लुक सेवानिवृत्त हो चुके जज से था। लेकिन अदालत ने इसे अवमानना का जुर्म माना, इसलिए कि रपट तब के बारे में थी जब वे प्रधान न्यायधीश की कुर्सी पर थे। इस तरह एक अवकाश प्राप्त जज को अवमानना कानून का लाभ देने से सवाल उठा है कि क्या यह कानून उनके लिए जीवन भर की संरक्षण की गारंटी देता है जो एक बार जज की कुर्सी पर पहुंच जाते हैं। अगर इस मामाले में सेवानिवृत्त जज महोदय को लगा कि उनकी छवि पर आंच आई है तो वे उस कानूनी विकल्पों का सहारा ले सकते थे जो सभी नागरिकों के लिए खुले हैं। पर ऐसा नहीं किया गया। यहां इस बात को दोहराना जरूरी लगता है कि न्यायपालिका के प्रति लोगों के मन में जैसा आदर और भरोसा है वैसा किसी और संस्था के प्रति नहीं। इसकी वजह यह भी है कि इसने कई बार कार्यपालिका या विधायिका को गलती करने से रोका है और उन्हें संवैधानिक तकाजों की याद दिलाई है। समय-समय पर अदालती हस्तक्षेपों से लोकतांत्रिक अधिकारों का बचाव हुआ है। क्या हम कह सकते हैं कि अवमानना के ताजा फैसले से नागरिक अधिकारों की रक्षा करने से उसकी परंपरा और पुष्ट हुई है? सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार यह व्यवस्था दी है कि ऐसा कोई भी कानून स्वीकार्य नहीं हो सकता जो हमारे संविधान के मूल ढांचे से मेल न खाता हो। कई विधिवेत्ताओं ने रेखांकित किया है कि जब हम संविधान के मूल ढांचे की बात करते हैं तो इसका आशय सबसे पहले हमारे लोकतांत्रिक या नागरिक अधिकारों से होता है। क्या इस संदर्भ में भी अवमानना संबंधी कानून पर पुनर्विचार नहीं होना चाहिए।

जज कानून से ऊपर तो नहीं: प्रशांत भूषण

हाल में टीवी पत्रकार विजय शेखर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी भरी टिप्पणी की थी। उससे लोगों की यह धारणा मजबूत ही हुई है कि न्यायपालिका अपने भीतर की सड़ांध को छिपाने के लिए अपने अवमानना अधिकारों का प्रयोग करने की कोशिश करती है। शेखर ने यह दिखाने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया था कि किस तरह भ्रष्ट तरीके से गुजरात की अदालतों से गिरफ्तारी वारंट हासिल किया जा सकता है। मीडिया और सभ्य समाज को न्यायपालिका के अपने अवमानना अधिकारों के प्रयोग की कोशिश का पुरजोर विरोध करना चाहिए। अगर हम अवमानना की कार्रवाई की धमकियों से डरते रहेंगे तो अपने गणतंत्र के भीतर एक गैरजवाबदेह न्यायिक तानाशाही को पनपने देने के दोषी होंगे।यही सोच कर इस साल मार्च में दिल्ली में आयोजित नेशनल पीपुल्स कॅन्वेंशन में न्यायिक जिम्मेदारी एवं सुधार अभियान का गठन किया गया।

देश के गद्दारों को पहिचान लो -डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा

दो-तीन साल पहले एक खबर निकली थी कि पंजाब के एक गांव ने गांव की सीमा पर इश्तहार लगा दिया है कि 'यह गांव बिकाऊ है।' गांव के हर किसान पर इतना कर्ज हो गया था कि उसे चुकाना नामुमकिन हो गया था। इसीलिए इश्तहार लगाने की मजबूरी हो गई थी। पिछले दो साल में हवा इतनी बदली कि हरित क्रांति के महानायक पंजाब के पटियाला में संपन्न किसान पंचायत में दबे या मुखर स्वर में एक ही मन-मन की आवाज थी कि जमीन के पैसे किस तरकीब से ज्यादा से ज्यादा मिल सकते हैं? अपनी हेकड़ी के लिए मशहूर हरियाणा से भी वही 'मन की आवाज' सुनाई दे रही थी। 'काश, मेरे पास भी दो बीघा जमीन पैर रखने के लिए होती' की कोशिश न जाने कहां विलीन हो गई, किसी को पता भी नहीं चला। सरकारी सर्वे बताते हैं कि सौ में चालीस किसान कोई दूसरा धंधा करने के इच्छुक हैं।

राष्ट्रीय नीतियों पर विश्वबैंक का दुष्प्रभाव : स्वतंत्र न्यायाधिकरण का फैसला

न्यायाधिकरण में नहीं पहुंचे विश्व बैंक के अधिकारी
नई दिल्ली।(पीएनएन) विश्व बैंक के कार्यों पर हो रहे चार दिवसीय 'स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण में चौथे दिन न्यायाधीशों ने अपना फैसला सुनाया। न्यायाधिकरण में भारत में बैंक की नीतियों और बढ़ते हस्तक्षेप को लेकर कई आरोप लगाए गए। हालांकि विश्व बैंक के भारतीय कार्यालय ने स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण में शामिल होने का दावा किया था और यह भी कहा था कि वे बैंक के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करेंगे, लेकिन पर्याप्त समय और स्थान दिए जाने के बावजूद भी वे अपने दावे को सिध्द करने के लिए नहीं पहुंचे।

अमर सिंह की सीडी प्रसारण को सब्बरवाल ने रोकी थी - एक पुरानी खबर को नए नजर से पढ़ें

केंद्रीय मंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने नोएडा में भूखंडों के आवंटन से संबंधित विवादास्पद मामले में ड्रा निकालने के सिद्धांत को बकवास करार दिया। उन्होंने कहा कि उनका निशाना कोई खास व्यक्ति नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश की सरकार थी।
सिब्बल ने यादव पर भूखंडों के आवंटन में विशेषाधिकारों के दुरुपयोग का आरोप लगाकर सनसनी मचा दी थी। उन्होंने कहा कि उनकी मंशा किसी की छवि को नुकसान पहुँचाने की नहीं थी। वह सिर्फ जनता तक तथ्यों को पहुँचाना चाहते थे। आवंटियों में अपनी पुत्री का नाम होने पर पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल की कड़ी प्रतिक्रिया के संबंध उन्होंने कहा मैंने कभी पक्षपात का आरोप नहीं लगाया। मैंने किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं बल्कि मुलायम सिंह और नोएडा प्राधिकरण के खिलाफ आरोप लगाए थे। उन्होंने कहा कि अगर ड्रा निकालने के सिद्धांत पर विश्वास किया जाए तो यह कैसे संभव है कि एक ही पता देने वाले फ्लेक्स इंडस्ट्रीज के सात सदस्यों उत्तर प्रदेश के चार महाधिवक्ताओं और सिर्फ समाजवादी पार्टी के सांसदों और विधायकों को भूखंड मिलें। उन्होंने कहा आप मुझे बताएँ कि यह कैसे संभव है कि फ्लेक्स इंडस्ट्रीज के सात सदस्य जिन्होंने समान पता दिया तथा 13 अन्य लोग जिनके पते एक ही थे उन्हें भूखंड कैसे मिले। क्या ड्रा सिर्फ सपा सांसदों और विधायकों के लिए थे। मैं किसी को जवाब नहीं दे रहा। अगर यह ड्रा के जरिए किया गया तो यह महासंयोग है। अपनी दलीलों के समर्थन में सिब्बल ने कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ड्रा को रद्द कर दिया। न्यायालय का कहना था कि पूरी प्रक्रिया गलत और दिखावा थी। सार्वजनिक कार्यालय के पदाधिकारियों ने व्यवस्थित तरीके से धोखेबाजी की।
न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा भूखंड के लिए किसी परिवार के सात या 700 सदस्यों के आवेदन करने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। बहस किसी व्यक्ति पर नहीं बल्कि सिद्धांत पर होनी चाहिए। उन्होंने कहा आदर्श आचार संहिता होनी चाहिए। साथ ही इस मामले को बंद कर देना चाहिए क्योंकि हमारी मंशा तथ्यों को जनता के सामने लाने की थी और अब संबद्ध एजेंसियों को कार्रवाई करनी है। प्रश्न यह है कि इस तरह की बातें होनी चाहिए अथवा नहीं। केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने कहा कि उन्होंने कभी किसी व्यक्ति के राजनैतिक कॅरियर को नुकसान पहुँचाने के लिए एक भी शब्द नहीं कहा। (स्रोत - वेबदुनिया)
अमर सिंह की सीडी - वाह क्या सीडी है- फोन पर ही सैकड़ों करोड़ का काम- खैर खोजिए अमर सिंह की सीडी ........................ क्योंकि कई न्यायाधीशों के नाम उसमें आए हैं.....

पांव पसारता भ्रष्टाचार: संजय कपूर

केरल व कर्नाटक के महिला सरपंचों के एक संगठन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में कुछ रोचक तथ्य सामने आए हैं. कुछ लोगों का यह विचार था कि महिला सरपंचों का नजरिया भ्रष्टाचार के विरुद्ध है तथा वे सरकार के कार्यक्रमों को पूरी तरह से लागू करती हैं. सर्वेक्षण में यह बात गलत साबित हुई तथा यह तथ्य सामने आया है कि महिलाएं भी धनलोलुप हैं. यदि हम इन सर्वेक्षणों को किनारे रख दें तो भी हम पाएंगे कि महिला और पुरुष सरपंचों में कोई खास अंतर नहीं है.
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मिडडे पत्रकारों को 4 माह की सजा: देखिए उन्होंने लिखा क्या था?

भ्रष्टाचार में फंसे पूर्व मुख्य न्यायधीश वाई. के. सब्बरवाल के खिलाफ खबर छापने वाले मिडडे ( देखिए उन्होंने लिखा क्या था? ) के वरिष्ठ पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है। न्यायमूर्ति आर. एस. सोढ़ी व न्यायमूर्ति बी. एन. चतुर्वेदी की खंडपीठ ने इस अखबार के संपादक (सिटी), तत्कालीन प्रकाशक, स्थानीय संपादक व कार्टूनिस्ट इरफान को दोषी ठहराते दिल्ली हाई कोर्ट ने 4 माह की सजा सुनाई है। विभिन्न संगठनों द्वारा 28 सितम्बर को न्यायपालिका को अपने भ्रष्टाचार की जवाबदेही तय करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पर प्रदर्शन का कार्यक्रम है।
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नई दिल्ली। भारत के पूर्व मुख्य भ्रष्टाचार में फंसे न्यायधीश वाई. के. सब्बरवाल के खिलाफ खबर छापने वाले एक अखबार के वरिष्ठ पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है। न्यायमूर्ति आर. एस. सोढ़ी व न्यायमूर्ति बी. एन. चतुर्वेदी की खंडपीठ ने इस अखबार के संपादक (सिटी), तत्कालीन प्रकाशक, स्थानीय संपादक व कार्टूनिस्ट इरफान को दोषी ठहराते हुए कहा कि इन लोगों ने लक्ष्मण रेखा पार कर लिया था। इन सभी को 21 सितम्बर को कोर्ट में हाजिर होने के लिए कहा गया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि 'सुप्रीम कोर्ट के फैसले में साफ तौर पर लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है और हमें लगता है कि प्रकाशक ने इस रेखा को लांघ दिया है। और आज 21 सितम्बर को दिल्ली हाई कोर्ट ने 4 माह की सजा सुनाई है। विभिन्न संगठनों द्वारा 28 सितम्बर को न्यायपालिका को अपने भ्रष्टाचार की जवाबदेही तय करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पर प्रदर्शन का कार्यक्रम है।
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पत्रकारों को ठहराया अवमानना का दोषी, 4 माह की सजा

नई दिल्ली। भारत के पूर्व मुख्य भ्रष्टाचार में फंसे न्यायधीश वाई. के. सब्बरवाल के खिलाफ खबर छापने वाले एक अखबार के वरिष्ठ पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है। न्यायमूर्ति आर. एस. सोढ़ी व न्यायमूर्ति बी. एन. चतुर्वेदी की खंडपीठ ने इस अखबार के संपादक (सिटी), तत्कालीन प्रकाशक, स्थानीय संपादक व कार्टूनिस्ट इरफान को दोषी ठहराते हुए कहा कि इन लोगों ने लक्ष्मण रेखा पार कर लिया था। इन सभी को 21 सितम्बर को कोर्ट में हाजिर होने के लिए कहा गया। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि 'सुप्रीम कोर्ट" के एक फैसले में साफ तौर पर लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है और हमें लगता है कि प्रकाशक ने इस रेखा को लांघ दिया है। और आज 21 सितम्बर को दिल्ली हाई कोर्ट ने 4 माह की सजा सुनाई है। विभिन्न संगठनों द्वारा 28 सितम्बर को न्यायपालिका को अपने भ्रष्टाचार की जवाबदेही तय करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पर प्रदर्शन का कार्यक्रम है।
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विश्व एजेंडे में तिब्बत भी हो शामिल - हर्ष डोभाल

आज सैनिक और कूटनीतिक कार्यवाहियां विश्व के सामने एक अहम चुनौती बनी हुई हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों ने तिब्बत के मुद्दे को बड़ी समस्या की सूची से निकाल दिया है, जहां अफगानिस्तान, फिलीस्तीन, ईराक, लेबनान और अन्य संघर्षरत क्षेत्रों पर ध्यान लगाया गया है, वहीं तिब्बत की समस्या को हल करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं, जबकि चीन स्थानीय लोगों को चूहों की तरह मसल रहा है, फिर भी दुनिया के किसी कोने से विरोध के स्वर या समर्थन के स्वर उठते सुनाई नहीं दे रहे हैं। यहां तक कि भारत भी अपने द्वार पर खड़े उपनिवेश को देखकर भी आंखें मूंद रहा है और भारत और चीन के बीच खड़े तिब्बत के स्ट्रेटेजिक महत्व तक को भूल गया है कि तिब्बत दो एशियाई शक्तियों के बीच सुरक्षा क्षेत्र (बफर स्टेट) की भूमिका निभा रहा है।...................

विश्वबैंक के चाकरी कर रहे सरकारी भारतीय अफसरों के सपनों का भारत- आलोक मेहता

भारी होती जेब के साथ फटती कमीज
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्स के अनुसार वैश्वीकरण से अमेरिका सहित कई राष्ट्र अधिक संपन्न हो रहे हैं लेकिन उनकी जनता गरीब हो रही है। उनका मानना है कि वैश्वीकरण की प्रतियोगिता श्रमिकों और कर्मचारियों के लिए नुकसानदेह साबित हुई है। उनके वेतन और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए दशकों से चल रही योजनाओं में कटौती हो रही है। अर्थशास्त्री स्टिगलिट्स किसी एशियाई अथवा लातीनी अमेरिकी देश के नहीं हैं। वह अमेरिकी हैं और अमेरिका में श्रमजीवी वर्ग की बिगड़ती हालत से चिंतित हैं। इसलिए उनकी बात पर गंभीरता के साथ ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत की नीति-निर्धारक और आला अफसर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रतियोगिता, विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का हवाला देकर भारतीय समाज का .........
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विश्वबैंक पर काबिज बहुराष्ट्रीय शक्तियां -शाल्मली गुत्तल

गरीबी हटाने और आर्थिक विकास के लिए विश्वबैंक विकासशील देशों को प्रतिवर्ष 18-20 बिलियन अमरीकी डॉलर कर्ज और सहायता के रूप में देता है। बैंक अपनी एजेंसी अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के साथ मिलकर उन देशों में भी काम कर रहा है जो अब कोष के कर्जदार नहीं हैं। बैंक की सारी आर्थिक सहायता सरकारों को नहीं मिलती, बल्कि ज्यादातर हिस्सा प्राइवेट सेक्टर खासतौर पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जाता है, जो कर्ज, तकनीकी सहायता और निवेश के खतरों को कम करने के रूप में होती हैं। अमीरों का समर्थन- पिछले 60 सालों में बैंक 'इंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट' (आईबीआरडी) नाम की एक संस्था के स्वरूप से उठकर पांच संस्थाओं में विस्तृत हो गया है, ये पांचों संस्थाएं विशिष्ट कार्यक्षेत्र से संबंधित हैं। इनमें आर्थिक सहायता के........................
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खयालों की खुश्बू को आज़ादी का इंतज़ार -विनीत तिवारी

सन् 1925 में हुए काकोरी बम काण्ड के बाद क्रांतिकारियों का दल हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ बिखरा हुआ था। भगतसिंह ने उस संगठन के बिखरे टुकड़ों को इकट्ठा कर संगठन का नया नाम रखा - हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ। एक शब्द का यह जोड़ भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की वैचारिक परिपक्वता का एक अहम संकेत हैं फिर, अंग्रेजों के काले, दमनकारी, जनविरोधी कानूनों के खिलाफ असेम्बली में बम फेंक कर भागने के बजाय गिरफ्तार होने का फैसला, और फिर जेल में किये गये आंदोलन, हड़तालें और लिखे गये तमाम गंभीर लेखादि भगतसिंह के उसी वैचारिक विकास और रणनीतिक सूझबूझ का उत्स हैं। आजादी के पहले के उस दौर में अंग्रेजों व अंग्रेजों के देशी दलालों ने भगतसिंह और उनके साथियों के पक्ष में जनसमर्थन न जुटने की काफी कोशिशें कीं। उन्हें आतंकवादी और खतरनाक अपराधी साबित करने की कोशिशें की गयीं, लेकिन विचारों की सान पर तेज हुई तलवार की चमक को कालकोठरियों का ऍंधेरा रोक नहीं सका। खुद गाँधीजी और काँग्रेस के तत्कालीन नेतागण भगतसिंह के विचारों से सहमत नहीं थे, लेकिन इन नौजवानों के लिए देश की आम अवाम अपना दिल खोलकर सड़कों पर निकल आये थे। असहमतियों के बावजूद इस तथ्य का उल्लेख काँग्रेस के इतिहासकार बी.पट्टाभिसीतारमैया को ''दि हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल काँग्रेस''(1885-1935) में लिखना पड़ा कि, ''यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उस क्षण भगतसिंह का नाम पूरे भारत में उतने ही व्यापक तौर पर जाना जाता था और उतना ही लोकप्रिय था, जितना गाँधी का।'' ...............
भगतसिंह की शहादत को भले ही इस देश की जनता ने याद रखा हो, लेकिन भगतसिंह की एक और पहचान को सत्ता की चालाक ताकतों ने 75 वर्षों से छिपाने की ही कोशिश की। वो पहचान भगतसिंह के विचारों की पहचान है, जिसका ज़िक्र शुरु में किया गया। उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व की समाप्ति से लेकर, लाला लाजपतराय जैसे वरिष्ठ नेता को भी गलतियों पर दो टूक कह देने जितनी साफगोई और धर्म को मनुष्य की अज्ञानता व ईश्वर के अनस्तित्व संबंधी भगतसिंह के विचार आजादी के बाद से देश की बागडोर संभालने संसदीय ...........................

विश्वबैंक और मानवाधिकार -एरिक टुसेन्ट

जब मैं बैंक में आया तब हमें corruption शब्द का उल्लेख करने की अनुमति नहीं थी, इसे ‘c’ शब्द कहा जाता था, लेकिन हमें ‘r’ यानी ‘right’ शब्द का उल्लेख करने की जरूरत है।- जेम्स बोल्फेन्सोह्न (1 मार्च, 2004)
मानव अधिकारों का सवाल कभी विश्वबैंक की प्राथमिक चिन्ता नहीं रहे हैं। बैंक द्वारा लगाई गई शर्तों में 'निजी संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार' का एक अधिकार अकेला ही सभी पर भारी पड़ रहा है जो व्यवहारिक रूप धन्ना-सेठों को मुनाफा पहुंचाने के लिए काम करता है, ये धन्ना सेठ कोई धनी व्यक्ति या राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियां हो सकती हैं।
विश्वबैंक की शर्तों में जनता के सामूहिक अधिकारों का कोई जिक्र तक नहीं है। अगर विश्व बैंक में कहीं मानव अधिकारों पर जरा भी ध्यान दिया जाता है तो वह संयुक्त राष्ट्र के नीतिगत दस्तावेजों की तरह ही प्रगतिशील नहीं होता। अधिकार जैसी संकल्पनाओं की वह अपने ही तरीके से व्याख्या करता है।
जेन-फिलिप्पी पीमन्स ने बिल्कुल सही कहा है ''वर्तमान पश्चिमी परिप्रेक्ष्य में मानव अधिकारों का संबंध हर हाल में निश्चित तौर पर कार्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजी कार्यों में अहस्तक्षेप, अपनी संपत्ति की देखरेख के अधिकार से है और इन सबसे ऊपर है, किसी भी ऐसे कार्य को रोकने की राज्य की जिम्मेदारी; जो उत्पादन और विनिमय में समय, पूंजी और संसाधनों के निवेश की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है... नव उदारवारी सामाजिक और आर्थिक मांगे वैधानिक इच्छाएं तो कही जा सकती हैं, लेकिन अधिकार नहीं... नव उदारीकरण का विचार अधिकारों के किसी भी सवाल के सामूहिक सिध्दांत को नकारता है। केवल मात्र व्यक्ति ही अधिकारों की मांग कर सकता है और जो अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, वह भी अनिवार्य रूप से व्यक्ति ही हैं, अपने कार्यों के प्रति उनकी जवाबदेही भी होनी चाहिए। अधिकारों के उल्लंघन का संबंध किसी भी संगठन या निकाय से नहीं जोड़ा जा सकता है।''

आईएमएफ और विश्वबैंक क्या हैं?

आईएमएफ और विश्वबैंक दुनिया के सबसे अमीर जी-7 के देशों -अमरीका, ब्रिटेन,जापान,जर्मनी, फ्रांस, कनाडा और इटली की सरकारों द्वारों नियंत्रित होते हैं, इन संस्थाओं के बोर्ड पर 40 फीसदी से भी ज्यादा नियंत्रण धनी देशों का ही रहता है। इनका काम तथाकथित 'तीसरी दुनिया' या ग्लोबल साऊथ के देशों और पूर्व सोवियत ब्लॉक की 'संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्था' पर अपनी आर्थिक नीतियों को थोपना है।
एक बार देश इन बाहरी कंर्जो के चुंगल में फंस जाते हैं तो उन्हें फिर कहीं कोई क्रेडिट या कैश नहीं मिलता, जैसे अधिकांश अफ्रीका, एशिया, लातिन अमरीका और कैरेबियाई देश कर्जे में फंसे हैं तो वे इन्हीं अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के पास जाने के लिये मजबूर हो गए हैं नतीजतन उन्हें वे सब शर्तें माननी पड़ती है, जो बैंक करने के लिये कहता है कोई भी देश कर्जे की समस्याओं से उबर नहीं पाया है, बल्कि बहुत से देशों की हालत तो पहले से भी बदतर हो गई है, विश्वबैंक-आईएमएफ से सहायता लेने के बाद तो कर्ज और भी बढ़ गया है।

विश्वबैंक का 'रिवॉल्विंग डोर' -प्रशांत भूषण

विश्वबैंक के पूर्व चीफ इकॉनोमिस्ट और नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज ने 'ग्लोबलाइजेशन एंड इट्स डिसकंटेन्ट्स' में बैंक और आईएमएफ की खुली आलोचना करते हुए कहा है कि इन संस्थाओं पर केवल साहूकार औद्योगिक देश ही हावी नहीं हैं बल्कि उन देशों में निहित व्यापारिक और आर्थिक हित भी इन संस्थाओं पर हावी हैं; इनकी नीतियों से भी यही बात सामने आती है। उनका कहना है कि ऐसा इसीलिये होता है क्योंकि विश्वबैंक और उस जैसी अन्य बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाएं अमीर देशों द्वारा नियंत्रित की जा रही हैं और इन अमीर देशों के वित्तमंत्री और केन्द्रीय बैंक के गवर्नर ही अपने देशों का विश्वबैंक और आईएमएफ में प्रतिनिधित्व करते हैं। स्टिग्लिट्ज आगे कहते है, ''वित्तमंत्री और केन्द्रीय बैंक के गवर्नरों की वित्तीय समुदाय के साथ आमतौर पर साठगांठ होती है, वे इन्हीं वित्तीय फर्मों से ही आते हैं और सरकारी नौकरी का अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद इन्हीं फर्मों में दोबारा लौट जाते हैं। यही वजह है कि ये व्यक्ति दुनिया को पूंजीवादी समुदाय की नजर से ही देखते हैं। इसलिये किसी भी संस्था के फैसलों में फैसले बनाने वालों के हितों और नजरिये की झलक स्वाभाविक रूप से दिखाई पड़ती है। हैरानी की बात नहीं है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं ही विकसित औद्योगिक देशों के व्यवसायिक और पूंजीवादी हितों से गहरे रूप से जुड़ी हुई हैं।''
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कॉमनवेल्थ खेलों का कहर जारी- कट रहे हजारों पेंड़- सैकड़ों छात्र सड़क पर उतरे

कॉमनवेल्थ खेलों के लिए लगातार विभिन्न जगहों पर होटल, खेलगांव इत्यादि के लिए हो रहे निर्माणों के लिए दिल्ली में जगह-जगह जंगल साफ किए जा रहे हैं। दिल्ली कॉलेज ऑव आर्ट एंड कॉमर्स, नेताजीनगर के पास सैकड़ों पेड़ काटने का विरोध करने के लिए छात्रों का समूह सड़क पर उतर आया। छात्रों ने चेताया कि कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर चल रही विनाशलीला को वे हर्गिज बर्दास्त नहीं करेंगे। शहरी विकास मंत्रालय द्वारा 123 एकड़ जमीन सांसदों के लिए आवासीय निर्माण तथा कॉमनवेल्थ खेलों की जरूरतों के नाम पर मुम्बई के होटल समूह-लीला वेंचर को जमीन दी गयी है। विरोध में छात्रों ने कंस्ट्रक्सन साइट पर पेंड़ भी लगाए। विरोध प्रदर्शन में दिल्ली कॉलेज ऑव आर्ट एंड कॉमर्स के अलावा कमला नेहरु कॉलेज के 'ग्रीन-बीन' की इकाई ने भी भाग लिया। विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व अनुकम्पा गुप्ता ने किया। विरोध को कई गैर सरकारी संगठनों ने भी समर्थन दिया, कल्पवृक्ष के प्रभाकर रॉव, पीएनएन के शिराज केसर ने कार्यक्रम को संबोधित किया। कार्यक्रम में मुख्य रूप से अभिषेक कौल, कुसाग्रदीप, सैयद नबील, जाग्रिति सेठ, सालोनी भाटिया आदि संयोजन की जिम्मेवारी निभाई।

मुम्बई के पानी का निजीकरण करने का विश्वबैंक का प्रयास हुआ पानी-पानी - अफसर जाफरी

3 जून 2007 को ग्रेटर मुम्बई म्यूनिसिपल कार्पोरेशन ने सभी भागीदारों की एक बैठक बुलाई, जिसमें (विश्वबैंक और पब्लिक प्राइवेट इन्फ्रास्ट्रक्वर एडवाइजरी फेसिलिटी) द्वारा मुम्बई के 'के-ईस्ट' वार्ड का अध्ययन करने के लिए नियुक्त न्यूजीलैण्ड के सलाहकार ग्रुप 'कास्टेलिया' ने एक साल के अध्ययन के बाद 'वाटर डिस्ट्रीब्यूशन इम्प्रूवमेंट प्रोग्राम' पर निष्कर्ष और सुझाव प्रस्तुत किए। बैठक में एमसीजीएम की लेबर यूनियन, के-ईस्ट वार्ड के स्थानीय निवासियों, आन्दोलनकारियों, जल-प्रबन्धन के विशेषज्ञ और कुछ चुने हुए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। विश्वबैंक के श्यामल सरकार और पीपीआईएएफ की भावना भाटिया को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। स्थानीय नागरिकों, श्रमिक संघों और आन्दोलनकारियों की उपस्थिति कास्टेलिया और विश्वबैंक के लिए खतरनाक साबित हुई, क्योंकि इनकी उपस्थिति से दोनों संस्थाओं की पानी के निजीकरण के लिए प्रस्तुत की गई रिपोर्ट की सच्चाई सबके सामने आ गई। 2004 के मध्य में पीपीआईएएफ (एक समूह जिसमें विश्वबैंक शामिल है) ने 6,92.500 अमरीकी डालर की सहायता देना स्वीकार किया, यह धन जलापूर्ति सेवाओं में भागीदारी के लिए निजी क्षेत्र में अन्तरराष्ट्रीय अनुभव वाले सलाहकार ............

आईएमएफ-विश्वबैंक और दुनिया में गरीबी - माइकल परेंटी

हमें इस रहस्य को अवश्य जानना चाहिए कि लगभग पिछली आधी शताब्दी से दुनिया में गरीब देशों को अन्तरराष्ट्रीय कर्जे, विदेशी सहायता और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का निवेश, जितना बढ़ा है, उतनी ही गरीबी बढ़ी है। ऐसा कैसे हो सकता है? दुनिया की जनसंख्या से ज्यादा तेज गति से गरीबों की संख्या बढ़ी है।
पिछली अर्ध्दशती के दौरान अमरीकी उद्योगों, बैंकों और पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने 'तीसरी दुनिया' के गरीब देशों- एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमरीका में ही निवेश किया है। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां विशाल प्राकृतिक संसाधनों और ऊंचे मुनाफे से आकर्षित हुई हैं क्योंकि वहां न केवल सस्ता श्रम मिलता है बल्कि करों, पर्यावरणीय नियमों, कामगारों के लाभ और कार्य-सुरक्षा लागतों आदि में पूरी तरह से रियायत मिलती है। अमरीकी सरकार ने कंपनियों को समुद्रपारीय पूंजी निवेश के लिए न केवल करों में रियायतें दे रखी हैं बल्कि उन्हें नए स्थान पर बसने के लिए, खर्चे भी उठा रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां घरेलू व्यापार को तीसरी दुनिया में बढ़ाती हैं और उनके बाजारों पर कब्जा कर लेती हैं।

हच ने खेला धोखा-धड़ी का खेल : संजय तिवारी

बहुप्रचारित हच-वोदाफोन की खरीदारी का मामला शक के घेरे में है। हालांकि फारेन इन्वेस्टमेन्ट प्रमोशन बोर्ड (एफआईपीबी) और वित्त मंत्रालय ने इस सौदे को मंजूरी दे दी है। विवाद इस बात पर था कि 15.03 प्रतिशत शेयर जो तीन भारतीय लोगों के नाम पर हैं उसका पैसा सीधो हच को क्यों दिया जा रहा है। वोदाफोन द्वारा मूल्यनिर्धारण के लिहाज से यह रकम 12,343 करोड़ रूपये है। हच का तर्क है कि उसने इन तीनों कंपनियों को कर्ज मुहैया कराया था जिसे अब वह वापस ले रहा है। अगर यह बात है तो हच वह पैसा सीधे वोदाफोन से क्यों ले रहा है? होना यह चाहिए कि पैसा पहले इन भारतीय कंपनियों के खातों में आना चाहिए उसके बाद वह पैसा ये तीनों निवेशक हच को वापस कर सकते हैं। ऐसा नहीं हो रहा है। इस तरह के लेन-देन सीधे तौर पर फेरा और बेनामी कानूनों के दायरे में आते हैं। असल में हच-एस्सार ने देश के कानून के साथ बड़ी धोखा-धड़ी की है। उसने टेलीफोन क्षेत्रा में विदेशी निवेश की 74 प्रतिशत सीमा से अधिक 89 प्रतिशत विदेशी निवेश किया और देश की दो सरकारी एजंसियों फॉरेन इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड और डिपार्टमेन्ट ऑफ टेलिकम्युनिकेशन से झूठ बोला कि पूरे उद्यम में 68.98 प्रतिशत विदेशी हिस्सेदारी है।

सबसे पहले तो इसे जान लेना चाहिए कि हच के इस झूठ से देश को कैसे 12,343 करोड़ रूपये का नुकसान होगा। 22 फरवरी 2007 को हच ने स्टॉक एक्सचेंज में जानकारी दी कि हच-एस्सार के संयुक्त टेलीफोन उद्यम की वोदाफोन ने 18,800 मिलियन डॉलर (88,360) करोड़ रूपये कीमत लगाई है। ...................

तार-तार हुआ सोशल (ब्राह्मण+ दलित) इंजीनियरिंग: शाहनवाज़ आलम

प्रतापगढ़ के भदेवरा गाँव की दलित बस्ती में पहँच कर आपको चक्रसेन का घर नहीं पूछना नहीं पड़ेगा। एक फूस की झोपड़ी की आड़ से उसकी हत्या के हफ्तों बाद भी आती एक महिला के विलाप की आवाज आपको उसके घर पहँचा देगी। जहाँ आप उस महिला से बात करने से पहले कई बार साहस जुटाएंगे और बसपा के सोशल इन्जीनियरिंग पर सोचने को मजबूर होंगे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र चक्रसेन गौतम को 1 अगस्त की सुबह गाँव के ही दबंग ब्राह्मणों ने सिर्फ इसलिए पीट-पीट कर मार डाला कि उनसे एक दलित छात्र के बी0टेक की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हाने की खबर बर्दाश्त नहीं हो पायी। इस पूरे घटनाक्रम की सबसे दिलचस्प बात यह रही कि हत्या करने वाले सभी दबंग बसपा से सम्बध्द थे और उन्होने तीन महीने पहले ही बसपा के ब्राह्मण-दलित गठजोड़ के सोशल इन्जीनियरिंग के तहत मायावती को चुनावी वैतरणी पार करायी थी।

'हैभ्स' और चोरों में बंटी दुनिया -शाहनवाज़ आलम

पिछले दिनों दिल्ली से निकलने वाले तमाम अख़बारों में दिल्ली की कांग्रेसी सरकार द्वारा बिजली चोरी रोकने के सन्दर्भ में एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया गया, जिसमें लुंगी-कुर्ता और सर पर गमछा बाँधे हुए एक गरीब-मज़दूर किस्म के आदमी को साइकिल पर बिजली के खम्भों को गठरी में बाँधकर भागते हुए दर्शाया गया है। विज्ञापन के ऊपर बड़े अक्षरों में लिखा है, 'ये आपके हिस्से की बिजली चुराता है।'

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यमुना की मौत और कॉमनवेल्थ खेल -शिराज केसर और मंजू जैन

दिल्ली के भूभाग पर हृदय धमनियों की तरह बहने वाली यमुना के तटों पर कॉमनवेल्थ खेल- 2010 के आयोजन की तैयारियाँ जोर-शोर पर हैं। पूरी दिल्ली तथा नोएडा में कॉमनवेल्थ खेल पर 8,000 करोड़ रुपया खर्च का अनुमान है। यमुना तट तथा नोएडा में होटल, मॉल, मेट्रो रेलवे का रास्ता और स्टेशन आदि के लिए निर्माण जोर-शोर से चालू हैं। कॉमनवेल्थ खेल के आयोजन के काफी हिस्से का निर्माण पूर्वी यमुना तट पर होना है। कायदे-कानूनों सहित यमुना तट की भूभौगोलिक परिस्थितियों की अनदेखी भी भयानक रूप से की जा रही है। मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग दोनों मात्र इस बात से खुश है कि यमुना तट पर 5000 से ज्यादा आवासीय फ्लैटों का निर्माण हो रहा है। इससे रीयल एस्टेट के दाम घटेंगे, पर कॉमनवेल्थ खेल के शोर में यमुना के दर्द को जानने-समझने का शायद किसी के पास वक्त है।

एक जीती-जागती नदी की धीरे-धीरे मौत के गवाह हैं हम। सीएसई के सुरेश बाबू कहते हैं कि ''हमेशा से यमुना दिल्लीवासियों की पानी की जरूरत को पूरा करती रही है, वही आज दिल्ली के लिए कलंक बन गई है।'' दिल्ली में यमुना की लम्बाई 22 किलोमीटर है जो यमुना की कुल लम्बाई का दो फ़ीसदी है। पर यमुना के कुल प्रदूषण का 70 फीसदी अकेले दिल्ली के लोग करते हैं।

नदियों की आवाज - राजेन्द्र सिंह

संदर्भ- पानी का संकट
1857 के शहीदों को याद करते हुए आजादी की जंग का जश्न मना रहे हैं लेकिन नये प्रकार की आ रही गुलामी से हम बेखबर हैं। जीवन के आधार जल, जंगल, जमीन, अन्न व खुदरा व्यापार और नदियों पर कंपनियों का अधिकार हो रहा है। हमारा जल दूसरों के नियंत्रण में जा रहा है। बोतलबंद पानी दूध से भी महंगा बिक रहा हैं।
सन् 2002 की बनी जलनीति में सरकार ने प्रकृति प्रदत्त पानी का मालिकाना हक कम्पनियों को दे दिया है- जो पानी के साझे हक को खत्म करके किसी एक व्यक्ति या कंपनी को मालिक बनाती है। हमारा मानना है कि नई जलनीति ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी से और अधिक भयानक गुलामी के रास्ते खोलती है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमारी जमीन पर नियंत्रण करके अंग्रेजी राज चलाया था, आज बहुराष्ट्रीय कंपनियां पानी को अपने कब्जे में करने में जुटी हैं और सरकारें पानी का मालिकाना हक कंपनियों को देकर नई गुलामी को पुख्ता करने में लगी हैं।

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कस्तूरी कुण्डलि बसै, मृग ढूँढ़त वन माँहि -डॉ. बनवारी लाल शर्मा

भारत की बढ़ती ऊर्जा की मांग को देखकर यह पुरानी ज्ञानोक्ति याद आ गयी। कस्तूरी हिरन को सुगन्ध से पता चल जाता है कि कस्तूरी कहीं है, पर वह उसे सारे जंगल में खोजता हुआ भागता रहता है, उसके संज्ञान में यह बात नहीं आती कि कस्तूरी उसकी नाभि के अन्दर रखी हुई है। भारत सरकार ऊर्जा के लिए अमरीका के दरवाजे पर खड़ी है इस उम्मीद में कि वहाँ से न्यूक्लियर ईधन और तकनीकी मिल जाय, जिससे देश में 30 न्यूक्लियर बिजली के कारखाने खड़े किये जा सकें। ऊर्जा के लिए उसे ईरान से वार्ता करनी पड़ रही है, पाकिस्तान को भी मनाना पड़ रहा है इसलिए कि ईरान की गैस पाकितान में होती हुई पाइप लाइन से भारत पहुँच सके। इस सारे भटकाव में भारत भूल गया है कि उसके पास खुद ऊर्जा के भण्डार भरे हैं।
मामला अमरीका से न्यूक्लियर समझौते का भारत ऊर्जा इकट्ठा करने के लिए कैसे भटक रहा है, पहले इसकी चर्चा कर लें। 18 जुलाई 2005 को अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश और भारत के नागरिक ऊर्जा सहयोग और व्यापार का प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बीच वार्ता में सौदा हुआ कि जिसके तहत भारत अमरीका से परमाणु बिजली बनाने के लिए यूरेनियम न्यूक्लियर टैक्नौलोजी और मशीनरी खरीद सकेगा जिससे वह देश की बिजली की बढ़ती जरूरत को पूरा करने के लिए 30 पावर प्लांट लगायेगा।

एक जमाने में गाय काटने वाले और पूजा करने वाले दोस्त हुआ करते थे -जावेद नकवी

1857 के भारतीय विद्रोह के प्रारम्भिक दिनों में जिस तरह से गोरे पिटे उस स्थिति में अंग्रेज इतिहासकारों ने कहा था ''बच्चों की हत्या करने वाले राजपूत, ब्राम्हण, कट्टरपंथी मुस्लिम सभी विद्रोह में एकजुट हो गए, गाय काटने वाले हो या गौपूजा करने वाले या सुअरों से नफरत करने वाले हों, सभी ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।''
पिछले माह भारतीय सरकार ने विद्रोह की घटनाओं का जो प्रदर्शन कराया, वह इतना घटिया था कि लगा कि जैसे कोठे की औरतें मंच पर ठुमके लगा रही हों। माफ करना ऐसे नाटकबाजी से।

एक बार तो हमने अग्रेजों के मन में इतना आतंक बैठा दिया था लेकिन वो खौफ उनके चेहरों से जल्दी ही नदारद हो गया और 1947 तक आते-आते उन्होने कट्टरपंथी मुस्लिमों और संकीर्ण मानसिकता वाले ब्राह्मणों को दो हिस्सों में बांट दिया, दोस्ती के वो दिन हवा हो गए जब आजादी की लड़ाई में वें एक साथ लड़े थे अब दोनों अलग अलग अपने-अपने रास्ते चले गए।आज 1857 की विचारधारा को ध्रुवीकृत करके देखा जा रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी ने इस बात की ओर अपना ध्यान दिया कि आरएसएस और बीजेपी इस दिन को उत्सव की तरह मनाने में कोई रुचि नहीं ले रही है। बस इसका महत्व केवल राष्ट्रीय स्तर तक ही सिमट कर रह गया है।

संदर्भ- ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का सच: संभावनाएं अपार मगर समस्याओं का भी अंबार - भंवर मेघवंशी

रोजगार गारंटी कानून के क्रियान्वयन की स्थितियों का जायजा लेने के लिए राजस्थान के बांसवाडा जिले की बागीदौरा पंचायत समिति की 18 ग्राम पंचायतों का प्रसिध्द सामाजिक कार्यकर्ता एवं राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कौंसिल की सदस्या श्रीमती अरुणा रॉय के नेतृत्व में सामाजिक अंकेक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि योजना तो अच्छी है, मगर अभी भी इसकी जमीनी सच्चाई काफी फरक है। हालांकि इस बार यह भी देखा गया कि रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत 2006 में हुए कार्यों ने क्षेत्र के ग्रामीणों में खुशहाली की नई उम्मीद जगा दी है। बागीदौरा का ही उदाहरण लें तो यह ब्लॉक जिला मुख्यालय बांसवाड़ा से 30 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहां 41 ग्राम पंचायतें है, जिनमें 85 गांव है तथा यहां की आबादी 1,77,792 है, पूरा क्षेत्र आदिवासी बहुल है। यहां पर 40325 परिवारों ने अपने जॉब कार्ड बनवाए जिनमें से 30 हजार परिवारों ने काम मांगा है। रोजगार गारंटी योजना के कार्यक्रम अधिकारी छोटूराम गुर्जर बताते है कि -''हमने हर काम मांगने वाले को कार्य उपलब्ध करवाया है। क्षेत्र में जाने पर जल संरक्षण के काम खूब दिखाई पड़ते है, नदी, नालों पर बनाए गए कई एनीकट अभी तक पानी से भरे हुए है। बागीदौरा क्षेत्र में वर्ष 2006-07 में स्वीकृत हुए कुल 878 कामों में से 532 काम तो जल संरक्षण के ही है जिनमें 135 एनीकट, 284 चैकडेम तथा 112 तालाब बनाए गए है।

पोस्को संघर्ष -अगला नंदीग्राम कहीं उड़ीसा में तो नहीं - शिराज केसर, सुनील

जिस तरह से नंदीग्राम के नरसंहार के बाद भी उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार विवादित बहुराष्ट्रीय स्टील कम्पनी 'पोस्को' के लिए जमीन अधिग्रहण तथा पाराद्वीप में नया बन्दरगाह बनाने देने के लिए कटिबध्द दिख रही है, उससे तो यही लग रहा है कि देश की लोकतान्त्रिक सरकारें ही लोकतंत्र का गला ञेटने में सबसे आगे हैं। उड़ीसा में जबर्दस्त जनविरोध के बावजूद सरकार जगतसिंहपुर जिले में बीस हजार एकड़ अधिग्रहीत जमीन दक्षिण कोरियाई कम्पनी पास्को (पुआंग स्टील कम्पनी) को देने पर आमादा है। बुध्ददेव की ही तरह नवीन पटनायक के आदेश पर वहां 5000 से ज्यादा पुलिस ने गांवों को घेर रखा था। लेकिन केन्द्र सरकार के इस निर्णय के बाद की राज्य अब जमीन अधिग्रहण का काम नहीं करेगा। पास्को के दलालों की फौज निजी सेनाओं के साथ एरासमा के इलाके में घूम रही है। जो अलग- अलग गावों में लोगों के बीच जाकर जमीन खरीदने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के माध्यम से जमीन खरीदने की ताक में है। जिससे छिटपुट झगड़े हो रहे हैं। बड़ी संख्या में वहाँ के आदिवासियों द्वारा लगातार विरोध किया जा रहा है। भारत जन आंदोलन के नेता डॉ ब्रह्मदेव शर्मा का कहना है कि अब दलालों की भी नाकेबंदी शुरु हो चुकी है। भारत सरकार किसानों के रक्षा के बुनियादी दायित्व से अपने को अलग कर रही है। वह कंपनियों को खुद जाकर जमीन खरीदने के लिए कह रही है। आम आदमी के जिंदगी के आधार को बाजार की चीज बनाकर पेश किया जा रहा है। ऐसे में दानवाकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे किसान क्या टिक पाएगा।
उड़ीसा सरकार तथा पास्को के बीच जिस सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुए हैं, उसके अनुसार दक्षिण कोरियाई स्टील कम्पनी भारत में अब तक का सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने जा रही है जो कि 12 अरब डालर अर्थात 51 हजार करोड़ रुपए के बराबर बैठता है। यह रकम 1991 से अब तक किए गए कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के बराबर है। यही कारण है कि उड़ीसा सरकार किसी भी कीमत पर इस सौदे को हाथ से नहीं जाने देना चाहती है। उड़ीसा में जिस एमओयू पर नवीन पटनायक सरकार द्वारा 22 जून 2005 को हस्ताक्षर किया गया वह एक स्टील संयंत्र और एक बन्दरगाह के लिए था।
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भारतीय खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश - अर्जुन प्रसाद सिंह

विदित है कि शासक वर्गों से जुड़े हुए सभी दल व संगठन देश के खुदरा बाजार में देशी/विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश का प्रत्यक्ष या प्ररोक्ष रूप से समर्थन करते हैं। यू.पी.ए. सरकार के मंत्रीगण संसद में खुदरा व्यापार के बारे में गलत तथ्यों को पेश कर आम जनता को गुमराह कर रहे हैं। दूसरी ओर केन्द्र सरकार को समर्थन देने वाले वामपंथी दल इस क्षेत्र में विदेशी निवेश की छूट देने का केवल अनुष्ठानिक विरोध कर संघर्ष की धार को कुंठित कर रहे हैं। सबसे बड़े विपक्षी दल भाजपा की स्थिति सांप-छुछुंदर की बनी हुई है। अपने को व्यापारियों का हितैषी होने का दावा करने वाली यह पार्टी फिलहाल अंदरूनी कलह में बुरी तरह फंसी हुई है। एक ओर यह कांग्रेस की तरह वैश्वीकरण व उदारीकरण की नीतियों की पुरजोर वकालत करती है, दूसरी ओर इसका स्वदेशी जागरण मंच खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की अनुमति देने के खिलाफ अखिल भारतीय खुदरा व्यापार सम्मेलन आयोजित कर आम जनता व व्यापारी समूह को दिगभ्रमित करता है।

21-24 सितम्बर 2007 को ''विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' पहली बार भारत में

देश के हितों को गिरवी रख, विश्वबैंक की चाकरी कर रहे हैं सरकारी अधिकारी- प्रशांत भूषण
विश्वबैंक के कर्मचारी ही परोक्ष रूप से भारत सरकार की नीतियां बना रहे हैं : प्रो. अरुण कुमार


नई दिल्ली (पीएनएन)। 21-24 सितम्बर 2007 को देश-विदेश के 150 से ज्यादा संगठनों के लोग ''विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के लिए इकट्ठा होंगे। दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्थाओं में से एक -विश्वबैंक की नीतियों से दशकों से जीवन के हर क्षेत्र में प्रभावित लोग अपनी शिकायतें दर्जनों ज्यूरी-सदस्यों के सामने रखेंगे। ज्यूरी-सदस्यों में आबिद हसन मिंटो, एलेजेंड्रो नेडल, ब्रुस रिच, सुलक सिवरक्शा, जस्टिस पी वी सावंत, अरुणा राय, अरुंधति राय, प्रभाष जोशी, महाश्वेता देवी, प्रो अमित भादुरी आदि प्रमुख हैं। विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के उद्देश्य पर प्रेस को संबोधित करते हुए ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क की निदेशक दीपिका डिसूजा ने कहा कि जन न्यायाधिकरण का उद्देश्य 'उदारीकरण और नव-आर्थिक नीति' के मुद्दे पर बहस को जगाना है। मुख्य रूप से यह विश्वबैंक और एलीट वर्ग की 'ज्ञान पर तानाशाही' के खिलाफ सीधा प्रहार है। गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं और अन्य वंचित लोगों के अनुभवों और साक्ष्यों को उजागर करने के लिए हो रहा यह न्यायाधिकरण; विश्वबैंक के आर्थिक और सामाजिक नीतियों की प्रभुता के खिलाफ सीधा संघर्ष है।

प्रेस को संबोधित करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने विश्वबैंक, अमेरिका और अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के बीच का गंठजोड़ भारत के नीति-निर्धारकों के लिए लाल-कालीन बिछाकर बैठा हुआ है। नीति-निर्धारण की प्रक्रिया के वरिष्ठ भारतीय अधिकारियों को विश्वबैंक ऊंचे पद-वेतनों का लालच देकर अपनी नीतियों को लागू करवा रहा है और ये सरकारी अधिकारी देश के हितों को गिरवी रख, विश्वबैंक की चाकरी कर रहे हैं। ऐसे लोगों को नीति-निर्धारण प्रक्रिया में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।

प्रसिध्द अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार ने कहा सार्वजनिक वित्त के लिए हम पूरी तरह से विश्वबैंक के उपर निर्भर हो गये हैं। वही हमें निर्देशित कर रहा है कि हमें क्या करना है? हम स्वीकार भी कर लेते हैं, जैसे कि हमारे सामने कोई रास्ता ही नहीं बचा हो। विश्वबैंक, आईएमएफ और डब्लूटीओ की नीतियां एकतरफा लादी जा रही हैं, यह वैश्वीकरण का दूसरा चेहरा हमें देखने को मिल रहा है। आय में असामनता, बेरोजगारी तथा उत्पादन में कमी आई है।

अपने प्रेस संबोधन में खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा ने कहा कि विश्वबैंक ने अनेक तरीके से भारतीय खेती को प्रभावित किया है। हरित-क्रांति से लेकर अब तक लगातार कर्ज के बल पर खेती की पूरी दिशा को कॉरपोरेट-खेती बनाने में लगा हुआ है। प्रेस से ग्रामीण मजदूर यूनियन उत्तर प्रदेश के सचिव अशोक चौधरी ने कहा कि विश्वबैंक और उसकी संस्थाएं मिलकर परम्परागत आदिवासियों और वनवासियों की जीविका को नष्ट कर रहे हैं। परिवर्तन के अरविंद केजरीवाल ने इस बात पर जोर दिया कि विश्वबैंक के कर्ज में फंसने के बजाए भारत को दूसरे विकल्पों की खोज करनी चाहिए।

वोल्फोविट्ज के बाद विश्वबैंक : उम्मीद क्या करें -प्रोफेसर माइकल गोल्डमैन (मिनिसोटा विश्वविद्यालय)

वोल्फोविट्ज के बाद विश्वबैंक के ग्यारहवें अध्यक्ष बने अमरीका के पूर्व व्यापार-वाणिज्य प्रतिनिधि राबर्ट जोएलिक विश्बबैंक को उस शर्मिंदगी से उबारने की कोशिश कर रहे हैं जो वोल्फोविट्ज के कारण बैंक के चेहरे पर छा गई थी। ऐसे में एक सवाल तो जोएलिक से पूछा ही जा सकता है कि वोल्फोविट्ज की गललियों से क्या कुछ उन्होंने सीखा-समझा है? और क्या कुछ बदलने की तमन्ना वे अपने दिल में रखते हैं? वाशिंगटन डीसी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि बैंक की समस्या है कि वह मूल लक्ष्य के अलावा बहुत सारे कामों को अंजाम देता रहता है और वह भी केंचुआ चाल से जमीन पर घिसटते हुए। आलोचकों का कहना है कि विश्व बैंक को अपने मूल एजेंडे पर वापस लौट जाना चाहिए और उन्हीं लक्ष्यों को हासिल करना चाहिए जिसके लिए इसकी स्थापना हुई थी। उसे उन सरकारों के ढांचागत विकास में मदद करनी चाहिए जिनके पास ढांचागत विकास के लिए पैसे नहीं हैं। तो क्या इतना भर कर देने से विश्व बैंक अपने हित साधन कर लेता है? उसका ऐतिहासिक दायित्व पूरा हो जाता है?
विश्वबैंक का इतिहास
आइये सबसे पहले विश्वबैंक का इतिहास देखते हैं। विश्वबैंक का इतिहास ........... हालांकि आज बैंक को एक ऐसी विकासात्मक संस्था के रूप में जाना जाता है जो आत्म-निर्भरता के सिध्दांत पर काम करती है और ''गरीबों को सिखाती है कि उन्हें ऊपर कैसे उठना है'' अपने शुरुआती 22 वर्षों तक भी विश्व बैंक का 'गरीबी हटाने' जैसे कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं था। ................

जरूरी हो गया है भारत की न्यायिक व्यवस्था का पुनर्गठन- - प्रशांत भूषण

ऐसी धारणा बनती जा रही है कि अब न्यायपालिका ही देश की एकमात्र अमलदार और जिम्मेदार संस्था रह गयी है, और यही अपराधियों द्वारा नियंत्रित सरकार के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन देश का बहुत बड़ा तबका थोडे से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से नहीं करता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद ही नहीं होती कि एक निश्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेशानी और सजा से ज्यादा खर्चे और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है।
न्यायालय द्वारा अगर किसी मुकदमे का निर्णय हो भी जाता है तो वह भी विकृतिपूर्ण ही होता है। वास्तव में पूरी न्यायिक प्रक्रिया ही भ्रष्टाचार की शिकार हो गयी है। जो लोग न्यायिक प्रक्रिया से जुडे हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायपालिका में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना कि राज्य की अन्य संस्थाओं में। न्यायपालिका में जवाबदेही के लिए कोई तंत्र न होने की .....

माटी का मोलभाव : संजय तिवारी

एसईजेड के मोहपाश से कोई सरकार मुक्त नहीं है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से औद्योगीकरण के खिलाफ देश के किसान और मजदूर ही लामबंद हो रहे हैं। महाराष्ट्र का कोंकण, पश्चिम बंगाल का सिंगूर और नंदीग्राम, पंजाब का बरनाला और अमृतसर, हरियाणा का झज्जर और गुड़गांव, छत्तीसगढ़ का धुरली और बांसी, उत्तर प्रदेश का दादरी, उड़ीसा का कलिंग क्षेत्रा इसके प्रमाण बन गये हैं कि एसईजेड के नाम पर किसानों की जमीन को अनाप-शनाप तरीके ये कब्जा किया जा रहा है।
पश्चिम बंगाल में एक तरह से सरकार, पार्टी कॉडर और आम आदमी के बीच खुला युध्द चल रहा है। नंदीग्राम में कॉडर से लोहा ले रही कृषि जमीन रक्षा कमेटी ने तय किया है कि वहां एक इंच जमीन सरकार को अधिगृहित नहीं करने देंगे। इससे 30 गांव और 40 हजार परिवार विस्थापित होंगे। पश्चिम बंगाल में किसानों का नेतृत्व कर रहे स्पप्न गांगुली कहते हैं ''पश्चिम बंगाल सरकार टाटा, सलेम ग्रुप और अंबानी चला रहे हैं। वहां सरकार नाम की कोई चीज नहीं है। सीपीआई का मतलब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की जगह कैपिटलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया हो गया है।'' इसी तरह के हालात उड़ीसा में हैं। उड़ीसा के कलिंग नगर में एसईजेड का विरोध कर रहे प्रफुल्ल सुमंत्रा लोकशक्ति अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं। वे बताते हैं ''कलिंग नगर में 50 हजार एकड़ जमीन पर एसईजेड बनाया जा रहा है। लेकिन जनवरी 2006 में किसान .......

''विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' : नील टैंग्री

21-24 सितम्बर 2007 को सैकड़ों लोग ''विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के लिए इकट्ठा होंगे। 4 दिन के इस सत्र में दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्थाओं में से एक विश्वबैंक के खिलाफ अपने जीवन के हर क्षेत्र की शिकायतें दर्जनों न्यायधीशों के सामने रखेंगे। भारत में विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण का आयोजन करने का प्रयास, अन्याय के खिलाफ विद्रोह मात्र नहीं है बल्कि उससे कहीं बढ़कर कुछ करने का प्रयास है। जन न्यायाधिकरण एक सुविचारित राजनीतिक विचारधारा है, जिसका उद्देश्य 'नव-उदारवाद और आर्थिक नीति' के मुद्दे पर बहस को जगाना है।
लेकिन मुख्य रूप से यह विश्वबैंक और एलीट वर्ग की 'ज्ञान पर तानाशाही' के खिलाफ सीधा प्रहार है। गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं और अन्य वंचित लोगों के अनुभवों और साक्ष्यों को उजागर करता हुआ यह न्यायाधिकरण विश्वबैंक के अपने ही (आर्थिक और सामाजिक नीति के ज्ञान के) साधनों के खिलाफ सीधा संघर्ष है।
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छोटे किसानों और भारतीय जैवविविधता को नष्ट करना ही विश्वबैंक की नीति है - डॉ वंदना शिवा

वास्तव में भारत के किसान संकट से गुजर रहे हैं। व्यापारिक उदारीकरण के एक दशक में 150,000 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं और जहां किसान बचे हैं उनकी आय तेजी से गिर रही है। भारत अपने किसानों को बचाने में असमर्थ है लेकिन विश्व बैंक की किसान-विरोधी नीतियां तेजी से किसानों से न केवल उनकी आय छीन रही हैं, बल्कि कृषि संकट भी पैदा कर रही हैं। विश्वबैंक की नीतियों के तहत ही किसान के हाथ से सब कुछ छीनकर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जा रहा है। किसानों पर यह संकट दो रूपों में शुरू हुआ। एक तो 1965-90 में हरित क्रांति के नाम पर और दूसरा ढांचागत समायोजन और व्यापारिक उदारीकरण के नाम पर। विश्वबैंक ने गरीब किसानों को केमिकल इस्तेमाल करने को मजबूर किया और भारतीय खाद उद्योग पर विश्वबैंक और यूएसआईडी दोनों ने मिलकर उदारीकरण और घरेलू प्रतिबंध हटाने के लिए दबाव डाला। हरित क्रांति से समृध्दि का दिवास्वप्न 1980 में टूट गया और पंजाब के किसानों में रोष फैल गया। लेकिन फिर भी विश्व बैंक ने 1990 में नई शर्तें राज्य पर थोप दीं और हरित क्रांति में निभाई गई उसकी भूमिका से भी उसे बेदखल कर दिया।

जरूरी हो गया है विश्वबैंक की समीक्षा - शिराज केसर

भारत में विश्वबैंक के अंधाधुंध घुसने का रास्ता जब खुला, जब भारत सरकार ने वित्तीय संकट से अपने को बचाने के नाम पर ढांचागत समायोजन के बहाने 1991 से नयी आर्थिक नीतियों के जरिए नव-उदारवाद की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने विदेशी मुद्रा में ऋण देने के सरकारी अनुरोध पर इन नीतियों को तय किया था। यह महत्वपूर्ण बात है कि भारत में विश्वबैंक की परियोजना-आधारित भूमिका अब नीति आधारित हो गयी है। निश्चित रूप से हमें अब यह सवाल उठाना चाहिए कि राष्ट्रीय और सरकारी नीतियां भारत में बन रही हैं या वाशिंगटन में, जहां विश्वबैंक का मुख्यालय है।

विश्वबैंक परियोजनाओं और नीतियों से जो नुकसान हो रहा है उससे समाज का सबसे कमजोर वर्ग - वनवासी, मछुवारे, मजदूर, दलित, किसान, महिलाएं, बच्चे तथा शहरी और ग्रामीण गरीब - निरंतर प्रभावित हो रहे हैं। विश्वबैंक समूह की प्रसिध्दि बड़ी-बड़ी ढांचागत परियोजनाओं के लिए आर्थिक सहायता देने में है, जैसे बड़े बांधों के लिए (सरदार सरोवर इसका अच्छा उदाहरण है), बिजली परियोजनाओं के लिए और राजमार्गों आदि के लिए। अक्सर इसका परिणाम बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय नुकसान, बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित करने और असहाय बना देने में (उनके प्राकृतिक संसाधनों से वंचित करके) होता है।

यमुना को बचाने के लिए सत्याग्रह होगा : वन्दना शिवा

यमुना को योजनाबध्द तरीके से उजाड़ा जा रहा है, इसे नहीं रोका गया और खेलगांव को दूसरी जगह नहीं ले जाया गया तो गली-गली में सत्याग्रह किया जाएगा। जल स्वराज अभियान की संयोजक डॉ. वंदना शिवा, सिटीजंस फ्रंट फार वाटर डेमोक्रेसी के एसएस नकवी और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने यह बात कही। पूर्व केंद्रीय मंत्री जार्ज फर्नांडीज के निवास पर हुई प्रेस कांफ्रेंस में इन नेताओं ने आठ सूत्री मांग पत्र भी जारी किया।
यमुना सत्याग्रह के नेताओं ने मांग की कि यमुना तट पर बनाए जा रहे खेल गांव और सभी प्रकार के निर्माण कार्यों पर तुरंत प्रभाव से रोक लगाएं। यमुना के मैदानी तटों पर निर्माण से भूजल रिचार्ज, पर्यावरण और कृषि उपज पर बुरा असर पड़ेगा। पर्यावरण के लिए जंगल और पेड़ चाहिए। सब्जियों की उपज और प्यास बुझाने के लिए यमुना के तटीय क्षेत्र चाहिए।
डॉ. वंदना शिवा ने बताया कि यमुना के मैदानी तट को नष्ट करने का पहला कदम अक्षरधाम बनाने के रूप में उठाया गया। वह कोई मंदिर नहीं है। वहां जाने के लिए टिकट खरीदना पड़ता है। पूरा संस्थान व्यावसायिक ढंग से चल रहा है। इस संस्थान के लिए तटीय क्षेत्र में 58 एकड़ जमीन से किसानों को हटाया गया।
उन्होंने कहा कि यमुना को प्रदूषण से मुक्ति और सुरक्षा के बहाने, यमुना के पास बसी स्लम बस्तियों और झुग्गी वालों को उजाड़कर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ किया गया। दूसरी ओर उसी यमुना के पास खेल गांव बनाया जा रहा है, जिसमें 8500 खिलाड़ियों के लिए 4500 कमरों की बहुमंजिली इमारत, होटल, मनोरंजन केंद्र, हेलिपैड, मेट्रो डिपो और मॉल आदि कई निर्माण कार्य चल रहे हैं। इससे यमुना के पानी में प्रदूषण की दर पहले से ज्यादा बढ़ जाएगी। साभार जनसत्ता

विकासशील देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां -कंवलजीत सिंह

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी नब्बे के दशक में अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में काफ़ी बदलाव आया। मध्य 90 में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां विकासशील देशों से उभर कर आई हैं । जहाँ एक तरफ ये कंपनियां विकासशील देशों में तो निवेश कर रही हैं, वहीं उलटे ये विकसित देशों में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर रही हैं। इनका प्रत्यक्ष विदेशी निवेश विकासशील और विकसित देशों में तेजी के साथ बढ़ा है। इसका परिणाम हुआ है कि विकसित देशों के द्वारा विकासशील देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से ज्यादा आज विकासशील देश विकसित देशों में निवेश कर रहे हैं।

सबेरे बच्चा जन्मा, लगाया इंजेक्शन और कल लगेगा दौड़ने -प्रो. बनवारी लाल शर्मा

चौंकिए नहीं, यह कोई शेखचिल्ली की बातें नहीं हैं। यह आज की नयी टेक्नोलोजी का करिश्मा है। अभी कुछ दिन पहले ही तो एक टीवी चैनल पर एक वैज्ञानिक साइंस-टेक्नोलोजी की करामात दिखा रहा था। उसने दिखाया, खेत में बोये कद्दू की एक बतिया (छोटा नया लगा बच्चा कद्दू) में सुई से इंजेक्शन लगाया और अगले दिन सबेरे वह बतिया एक खूब बड़ा बीस किलो का कद्दू बन गया। हम बहुत दिनों से कई शहरों-कस्बों में सब्जी की दुकानों पर सुन्दर, हरी एक साइज की सीधी लौकियाँ देखते थे। ऐसा लगता था कि किसी साँचे में ढालकर उन्हें बनाया गया हो। हमारे एक वैज्ञानिक मित्र ने हमारी नादानी दूर की। उन्होंने बताया अब ऐसे इंजेक्शन बन गये हैं कि शाम को लौकी के खेत में एक अंगुल बराबर लौकी की बतियों में इंजेक्शन लगा दिये जाते हैं और सबेरे एक साइज की सीधी सुन्दर लौकियां आप तोड़ लीजिए।

कारें दौड़ती रहनी चाहिए भले ही इन्सान भूखा मर जाय! इन तीन खबरों पर जरा ध्यान दें-

पहली खबर: पेरिस शहर में आवागमन के लिए 10,000 साइकिलों का बेड़ा तैयार
सबसे ज्यादा पर्यटकों (सालाना 1.5 करोड़) वाले शहर पेरिस को प्रदूषण से बचाने और पर्यटकों तथा नागरिकों को आसान और सस्ती यातायात सुविधा देने के लिए नगर प्रशासन ने दस हजार साइकिल नगर के अलग-अलग ठिकानों पर लगा दी है। थोड़ा सा पैसा देकर यात्री कहीं से भी साइकिल ले सकते हैं और कहीं भी छोड़ सकते हैं। कुछ समय बाद साइकिलों के संख्या दुगुनी कर दी जायेगी।
दूसरी खबर : कोलम्बिया में बायो-ईंधन क्रान्ति के पीछे जमीन से किसानों को खदेड़ना
कोलम्बिया (लातिनी अमरीका) में पाम तेल के प्लांटेशन करने के लिए हथियारबन्द समूह किसानों को उनकी जमीन से बाहर खदेड़ रहे हैं। पामतेल को ऊर्जा का पर्यावरण-मित्र स्रोत माना जाता है। इस 'हरे' ईधन की उफनती मांग ने दक्षिणपंथी पैरामिलिटरी समूहों को जबरदस्ती जमीन पर कब्जा करने के लिए प्रेरित किया है। मौत और खौफ के डर से हजारों परिवार अपना घर-द्वार और खेत छोड़ कर भाग गये हैं। कई कम्पनियाँ आपस में सहयोग करके झूठे दस्तावेज बना रही है और जमीन पर मालकियत का दावा ठोंक रही हैं।ये सारी बातें बतायी हैं पाम तेल उत्पादकों के राष्ट्रीय महासंघ-फेडपाल्मा के महामंत्री आन्द्रेआ कास्त्रो ने।
तीसरी खबर : बायोईंधन बनाने के लिए भारत में जैट्रोफा की खेती शुरू
ब्रिटेन आधारित बायो-डीजल की वैश्विक उत्पादक कम्पनी-डीआई आयॅल्स ब्रिटिश पैट्रोलियम (बीपी) की भारतीय शाखा के साथ एक वैश्विक संयुक्त उद्यम लगाने की योजना बना रही है। यह संयुक्त उद्यम जैविक ईंधन (बायो फ्यूअल) बनाने पर जोर दिये जाने को ध्यान में रखकर जैट्रोफा पैदा करने का केन्द्र भारत बनेगा।

नरेन्द्र मोदी: सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री बनाम : सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी की हत्या

नरेन्द्र मोदी शासन: जहाँ आम आदमी की जिंदगी अब मोदी-रहमोकरम पर....

सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी की हत्या की तर्ज पर ही इशरत जहाँ और उसके साथियों को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया। नरेन्द्र मोदी शासन सुराग तक ढूंढने में नाकाम। गुजरात में फर्जी मुठभेड़ का तो जैसे पिटारा ही खुल गया है। खाकी वर्दी में साम्प्रदायिक हिंसकों का जैसे एक नया वर्ग पनप रहा है। -अमित सेन गुप्ता

जहाँ साम्प्रदायिक नफरत इस कदर पनप रही है कि हिंसको का यह वर्ग शासन पर भी भारी पड़ रहा हो, तो उसके बारे में आप क्या कहेंगे, क्या किसी से न्याय की उम्मीद की जा सकती है? आतंकवादी तो रोज रहस्यमय परिस्थितियों में मारे जाते हैं लेकिन सोहराबुद्दीन शेख और बाद में उसकी पत्नी और एकमात्र चश्मदीद गवाह तुलसीराम प्रजापति जैसे निर्दोष लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या करने के लिये न तो राजनीति के ठेकेदारों की कोई जवाबदेही है, न ही पुलिस प्रशासन की।

मौसम, बेरहमी और मौत! कहर बरपा रहे हैं बुंदेलखंड के किसानों पर!

एक तो मौसम का चिड़चिड़ा मिजाज दूसरे जमींदारों और सूदखोरों के अत्याचार! कहर बरपा रहे हैं बुंदेलखंड के किसानों पर! गरीब किसानों को आत्महत्या करते देखकर भी राज्य प्रशासन ने आंखें मूंद ली हैं। एक्शन एड द्वारा किए गए एक अध्य़य़न के आधार पर इन्हीं तथ्यों को उजागर कर रही हैं -प्रज्ञा वत्स

बुंदेलखंड(उ.प्र.) के अविकसित कृषि भागों में रहने वाले गरीब किसानों पर मौसम और शोषण की दोहरी मार पड़ रही है। 12-14 अप्रैल 2007 के दौरान भूख और गरीबी से तंग आकर 3 किसानों ने आत्महत्या कर ली। उनकी मौत को नजरअंदाज कर दिया गया, लेकिन एक्शन एड ने अपने हंगर मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट के तहत मामले की जांच की। अध्य़य़न में जलाऊं जिला शामिल है जहां जनवरी से जुलाई 2007 के दौरान से कर्ज से तंग आकर 24 किसानों ने आत्महत्या कर ली थी।
पिछले 4-5 सालों में मौसम की भी किसानों पर ही गाज गिरी है कभी अकाल-बाढ़, तो कभी कम या ज्यादा बरसात या फिर ओलावृष्टि। भारत डोगरा द्वारा किए गए इस अध्य़य़न में बुंदेलखंड के जलाऊं जिले के 13 गांव शामिल हैं। सामाजिक परिस्तिथियां भी किसानों के दुखों को दोगुना कर रही हैं। फिर भी प्रशासन ने इन गरीब किसानों से मुंह मोड़ लिया है और उन्हें जमींदारों और सूदखोरों की दया के सहारे छोड़ दिया है।

कर्ज का शिकंजा
स्थानीय सूदखोरों और जमींदारों द्वारा अत्याचार और शोषण के बाद तो किसानों के पास आत्महत्या करने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं बचा। असुरक्षित आय और कुछ भी बचत न होने से किसान किसी भी मुश्किल से लड़ने में असमर्थ हो जाते हैं। अन्त में वें बनिया से ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं। कर्ज बढ़ता जाता है। चुकाते-चुकाते वें मर जाते हैं।
अध्ययन के आंकडे़ बताते हैं कि कुछ छोटे किसान तो बनिया और सरकारी बैंक दोनों के कर्जदार हैं। मौसम के बदलते मिजाज की वजह से वें कर्ज लौटा नहीं पाते, जिससे कर्ज के बोझ से दबे किसान, दुखों से निजात पाने के लिये आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं। कर्ज की वसूली के लिये जमींदार और बनिया किसानों का शोषण करते हैं।
स्थानीय निवासी अवधेश ने शिकायत करते हुए कहा कि पुलिस भी जमींदार और बनिया के साथ मिली हुई है, हम शिकायत करने किसके पास जाएं? सोमवती ने बताया कि जब कभी कड़ी मेहनत से हम लोग अच्छी फसल उगाते हैं तो ये धन्ना सेठ अपने मवेशियों को चरने के लिये हमारे खेतों में छोड़ देते हैं।

अधिकारों के लिए लड़ने वालों के लिए कोई आजादी नहीं- हर्ष डोभाल

प्राय: यह देखा गया है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय हितों के लिए खतरा कहकर उनके खिलाफ कानूनों को हथियार बनाकर राज्य उनका दमन कर रही है। आजादी के साठ साल के बाद भी आज आम आदमी संगठन, वकील, पत्रकार, चिकित्सक और विभिन्न स्वतंत्रता और न्यायप्रेमी लोग अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं करते।
जब दिल्ली में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, उस समय एक सामाजिक कार्यकर्ता 'रोमा', आजादी की सालगिरह पर मिर्जापुर की जेल में कैद की गयी थी। पिछले दो दशकों से रोमा कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर किसान संघर्ष समिति के बैनर तले समाज के कमजोर तबके, आदिवासी और दलितों के बीच काम कर रही हैं और नेशनल फोरम ऑव पीपुल एंड फारेस्ट वर्कर्स समिति की सदस्या भी हैं। उन्हें तीन अगस्त को उत्तर प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और बाद में उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) लगा दिया था।

रोमा का अपराध
वे अपने तीनों साथियों शांता भट्टाचार्य, ललिता देवी और श्यामलाल पासवान के साथ मिलकर झारखंड और मध्यप्रदेश की सीमा से जुड़े उत्तर प्रदेश के कैमूर क्षेत्र में वनवासियों और भूमिहीन आदिवासियों और दलितों के साथ काम कर रही हैं। उन्हें सोनभद्र जिले के राबर्टगंज से पुलिस ने उस समय गिरफ्तार किया, जब वे तीन और पांच अगस्त को हाल ही में पारित हुए 'शेडयूल्ड ट्राइव्स एंड अदर ट्रेडिशनल फारेस्ट ड्वेलर्स एक्ट 2006' को लागू करने के लिए अभियान चला रही थी।

जेल की प्राचीर से बड़ा संघर्ष- महाश्वेता देवी

छत्तीसगढ़ के विख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता और शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. विनायक सेन नाहक सौ दिन से जेल में हैं। उनका अपराध यह है कि वे मानवाधिकार हनन के विरुध्द लड़ते हैं। आम आदमी पर सरकारी दमन-उत्पीड़न के विरुध्द संग्रामरत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर आक्रमण कोई नई बात नहीं है, पर विनायक सेन पर हुआ छत्तीसगढ़ सरकार का आक्रमण अभूतपूर्व है। छत्तीसगढ़ सरकार ने डॉ. विनायक सेन के विरुध्द कुख्यात 'छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट' और 'अन लाफुल आर्गेनाइजेशंस प्रोहिबिशन एक्ट' के तहत संगीन मामले दायर कर उन पर आक्रमण बोला। संग्रामियों पर आक्रमण करने और मनुष्य का अधिकार हरण करने के मामले में वामपंथियों और दक्षिणपंथियों में कोई अंतर नहीं है। विनायक सेन लंबे समय से मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल से संबध्द हैं। वे इस संगठन की छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव हैं। पीयूसीएल के इस नेता को छत्तीसगढ़ पुलिस ने 14 मई को गिरफ्तार किया था । विनायक की गिरफ्तारी को उनके सहयोगियों ने चुनौती दी। रायपुर हाईकोर्ट ने 23 जुलाई को विनायक सेन की जमानत याचिका खारिज कर दी। जो विनायक आम अदमी के न्यूनतम अधिकारों के लिए संग्राम कर रहा था, उसे जेल में डाल दिया गया है। मेरी राय में जेल के प्राचीर से विनायक का संघर्ष बड़ा है। जेल में डालकर ऐसे बड़े व्यक्तित्वों को न छोटा किया जा सकता है और न तोड़ा जा सकता है।

छत्तीसगढ़ सरकार की नाराजगी की वजह यह है कि विनायक सेन वहां जून 2005 से ही 'सलवा जुडूम' की आड़ में चल रहे सरकारी दमन उत्पीड़न अभियान के बारे में तथ्य संग्रह कर रहे थे। उनके इस काम में राजेंद्र शैल, सुधा भारद्वाज, रश्मि त्रिवेदी और इलिना सेन (विनायक सेन की पत्नी) उनके सहयोगी थे। पीयूसीएल ने इस संबंध में जो तथ्य एकत्र किए हैं, उनसे पता चलता है कि छत्तीसगढ़ में 'सलवा जुडूम' की आड़ में व्यापक पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है और सरकारी धन से 'प्राइवेट आर्मी' बनाई गई है। अपनी गिरफ्तारी के ठीक पहले विनायक सेन ने बीजापुर तहसील के संतोषपुर व पानजेहार ग्राम में 12 नागरिकों की हत्या की घटना में शामिल पुलिस अफसरों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर अदालती दरवाजा खटखटाने की घोषणा की थी। विनायक सेन पेशे से चिकित्सक हैं। गरीबों की रक्षा के लिए लड़ते हैं और उसी के समानांतर सीधे-सीधे कई रचनात्मक काम भी उन्होंने किए हैं। विनायक ने 15 साल पहले 1992 में छत्तीसगढ़ के धमतरी जनपद के बगरुमनाला गांव में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खोला। उसके कुछ वर्ष उपरांत उन्होंने केकराखोली गांव में स्कूल खोला अब वहां सरकारी स्कूल चल रहा है। जब तक विनायक सेन ने स्कूल चलाया, तब तक वह व्यवस्थित ढंग से चल रहा था, अब वहां पढ़ाई नहीं होती।
छत्तीसगढ़ के धमतरी के ग्रामीणों की नजर में विनायक सेन मसीहा हैं। इसीलिए ग्रामीणों ने डॉक्टर की गिरफ्तारी के विरोध में प्रदर्शन किया। लगता है सरकारी आतंकवाद का चरित्र हर कहीं एक-सा लगता है। इसके विरुध्द देशव्यापी आंदोलन का प्रयोजन मैं शिद्दत से महसूस रही हूं। -साभार हिन्दुस्तान

मीडिया पर न्यायपालिका का आतंक- प्रशांत भूषण

हाल ही में गुजरात में 'वारंट्स फॉर कैश' मामले पर स्टिंग ऑपरेशन करने वाले एक टी.वी. पत्रकार पर चीफ जस्टिस के कहर ने एक बार फिर न्यायपालिका की जवाबदेही और अवमानना की न्यायिक शक्ति पर सवालिया निशान लगा दिये हैं। टी.वी. पत्रकार ने गुजरात जिला न्यायालय के कुछ अधिकारियों के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन किया, जिसमें उन्हें गुजरात न्यायालय से वारंट जारी कराने के लिये तत्कालीन राष्ट्रपति, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्यों के खिलाफ, रिश्वत देकर वारंट जारी कराए गए थे। उच्चतम न्यायालय को इसकी सूचना देने के बाद फिल्म का प्रसारण किया गया। उच्चतम न्यायालय के द्वारा इस मामले को गंभीरता से लिये जाने के बाद गुजरात उच्च न्यायालय ने वारंट जारी करने वाले न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ विभागीय जांच शुरू कर दी। फिर भी उच्च न्यायालय ने इन न्यायिक अधिकारियों को दोषी करार नहीं दिया। उसके बाद वर्तमान चीफ जस्टिस ने उस पत्रकार को बुलाकर माफी मांगने के लिए धमकाया, अन्यथा उसे न्यायालय की अवमानना के अपराध में जेल भेज दिया जाएगा।

मीडिया ने चीफ जस्टिस के गुस्से को लेकर काफी खबरें छपीं और मुख्य न्यायाधीश द्वारा अवमानना के दण्ड की धमकी को अनुचित भी बताया लेकिन; धमकी ने अपना प्रभाव दिखा दिया था। कुछ दिन पहले ही 'कैम्पेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउण्टेबिलिटि एंड रिफॉर्मस्' ने भारतीय न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर ही न्यायिक कदाचार के मामले को उजागर करने के लिये 3 अगस्त को दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया। इस कैम्पेन में जस्टिस कृष्णा अय्यर, जस्टिस सावंत, श्री शांति भूषण, एडमिरल तेहलियानी व अन्य गणमान्य व्यक्ति शामिल हैं। कांफ्रेंस में बांटे गए 'डॉकुमेंट्स' और तथ्यों के आधार पर इस बात का खुलासा हुआ कि कैसे एक पूर्व चीफ जस्टिस के बेटों ने शॉपिंग मॉल्स और कमर्शियल कॉम्प्लेक्स के बड़े डेवलपर्स के साथ साझा किया और ठीक उसी वक्त इस धंधे में हाथ डाला जब उसके पिता ने आवासीय क्षेत्र में व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की सीलिंग के आदेश दिए लेकिन आदेश के पारित होने से पहले ही उनके बेटों ने अपने आवासीय क्षेत्र से चल रहे व्यावसायिक कार्यालय को स्थानांतरित कर लिया था, उसके बाद सीलिंग के आदेश दिए गए। इन आदेशों ने शहर में कहर मचा दिया, लाखों दुकानों और दफ्तरों को बंद कर दिया गया और कितनों को मॉल्स और कमर्शियल कॉम्प्लेक्स में जगह लेने के लिए मजबूर किया गया, साथ ही जगह के दाम भी तेजी से बढ़ा दिये गए।

नक्सली बताकर जेल भेजा फिर किया सामूहिक बलात्कार

नक्सली बताकर जेल भेजी गयी बबिता से पहले सामूहिक बलात्कार हुआ फ़िर जेल में उसका गर्भपात कराया गया. बलात्कार की शिकार शिवनारायण की 19 साल की बेटी बबिता जब अदालत में आयी तो न्यायिक मजिस्ट्रेट आर. के. मिश्र के सामने अपने आँसू नहीं रोक पाई. सोनभद्र में नक्सलवाद के नाम पर पुलिस प्रशासन ने न सिर्फ़ बेगुनाहों को फंसाया बल्कि फर्जी मुकदमें भी लादे.

रोमा का उदाहरण सामने हैं जिन् राज्य सरकार की पहल के बाद बावजूद जमानत मिलने में कई दिन लग गए. रोमा ने जहां जेल के भीतर के हालात की जानकारी दी, वहीं नक्सली बताकर जेल भेजी गई बबिता ने अदालत में आपबीती बता कर लोगों को हैरान कर दिया. बबिता ने पेशी पर जेल से बाहर आने के बाद ‘जनसत्ता’ से कहा कि मेरे साथ सामूहिक बलात्कार किया गया तीन ठेकेदारों ने रायपुर थाने की पुलिस के सहयोग से सिल्थम गांव के पास बलात्कार किया था. गौरतलब है कि ‘जनसत्ता’ में नक्सली बबिता के गर्भपात की खबर प्रकाशित हुई, जिसके बाद प्रशासन लीपापोती में जुटा.

मिर्जापुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता शरद शाक्य ने कहा यह ‘गंभीर मामला है जिसकी उच्चस्तरीय रात कराई जानी चाहिए. वरना पुलिस फ़िर कोई फर्जी कहानी गढ़ देगी’ दूसरी तरफ़ स्थानीय स्तर पर आदिवासियों के लिए काम कर रहे एक कार्यकर्ता ने आशंका जताई कि बबिता का मामला उछलने के बाद उस पर दबाव डालकर पुलिस प्रशासन फ़िर कोई फर्जी बयान तैयार करा सकता है.

बबिता ने अदालत के बाहर साफ़ कहा कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. यह पूछे जाने पर कि क्या पुलिस वाले इसमें शामिल थे. बबिता ने इंकार किया और कहा कि पुलिस वालों ने गलत काम नहीं किया लेकिन थाने के एक नायाब दरोगा के संरक्षण में उसके साथ ठेकेदारों ने बलात्कार किया. मानवाधिकार कार्यकर्ता रोमा ने बताया कि बबिता के नाक और शरीर पर चोट के निशान गैंगरेप व जुर्म की दास्तान स्वयं बयान कर रहे हैं. -जनसत्ता

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