रिलायंस द रीयल नटवर : अरुण अग्रवाल

वोल्कर समिति की रिपोर्ट का गहन अध्ययन उन तमाम आशकाओं से परे है, जो राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (एनडीए) उन पर लगाती रही है। ईराक में तेल के बदले अनाज कार्यक्रम के संबंध में हुए पूरे विवाद में नटवर सिंह को ही सिर्फ निशाने पर रखा गया; अर्थात कांग्रेस पार्टी या अन्यों के किसी भी स्तर का कोई भी नेता-व्यक्ति नटवर सिंह पर निशाना साधने से नहीं चूकता ताकि घोटाले से रिलायंस पेट्रोलियम के लिप्त होने की तरफ से लोगों का ध्यान भटकाया जा सके।
बड़े दुख की बात है कि इसमें नटवर सिंह कि किसी भी घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी को भी किसी भी संकोच का सामना नहीं करना पड़ा। इससे न तो पार्टी में और न ही कोषदाताओं में किसी बात की घबराहट हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। इधर रिलायंस शुरू से ही शीर्ष पदस्थ व्यक्तियों जो शक्तिसंपन्न और उदार हो उनसे मित्रता रखने के सिध्दांत पर कार्य करता रहा है।
कंपनी गर्व से कहती है कि वह निगमित शासन के क्रियान्वयन में सबसे आगे है जो बहुत से प्रशंसनीय सिध्दांतों पर आधारित है जिसमें इसके कर्मचारी, ग्राहक, अंशधारक और निवेशक सहित सभी पूंजीधारकों के साथ उचित और समान व्यवहार शामिल है। उसके पूंजीधारकों में देश के सभी शक्तिशाली अभिजात्य यहां तक कि मीडिया भी शामिल है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वित्तीय संकट और तेल की किल्लत झेल रही सरकार वर्षों से रिलायंस द्वारा राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से अर्जित लाभ पर कोई टैक्स नहीं लगा पाई। वी पी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को छोड़कर अन्य किसी भी सरकार ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कोई ऐसा कर नहीं लगाया जो रिलायंस के विशेष हित के विपरीत हो।
रिलायंस के अन्वेषी कार्य की असाधारण रूप से बढ़ती गतिविधि किसी को भी आश्चर्यचकित कर सकती है कि कंपनी को अन्वेषी कार्य मिला हो या तेल क्षेत्रों की खोज का; बात चाहे जो भी हो अंतिम परिणाम के रूप में रिलायंस को 10000 करोड़ डॉलर का मुनाफा हुआ। ये संसाधन देश के आम लोगों से संबंधित थीं और उनका उपयोग आम लोगों के लाभ के लिए होना था जैसा कि संविधान के नीति-निर्देशक तत्व में कहा गया है।
फिर रिलायंस के पीटीए प्लांट का मामला आया जिसमें रिलायंस ने स्वीकृत क्षमता से ज्यादा मात्रा मे मशीनरी का अवैध आयात किया था। इसमें 120 करोड़ रूपए के सीमा शुल्क का मामला अभी भी न्यायालय में लंबित पड़ा है।
मामले की सामान्य सच्चाई यही है कि वित्तीय अभियांत्रिकी जैसे ऋण का इक्विटी में विलय, अपने शेयर की कीमत खुद से उपर उठाना, सार्वजनिक संस्थानाें को शेयर देना, सार्वजनिक रूप से नई कंपनियों के शेयर निर्गत करना और उसके बाद कंपनियों का विलय करना, प्रोमोटर को खुद की पूंजी बढ़ाने के लिए शेयर आवंटित करना, करों को नकारना और कर व्यवस्था को कंपनी के उपयुक्त बनाना और अंतत: सरकार द्वारा तेल बोनंजा का हस्तांतरण जिसके द्वारा रिलायंस भारत की सबसे बड़ी कंपनी बन गई और इसके मालिक देश के सबसे धनी व्यक्ति। और आश्चर्यजनक रूप से मात्र तीस साल में इसका कुल व्यापार लगभग 100 करोड़ से बढ़कर 100000 करोड़ रुपये का हो गया।
आज रिलायंस ऐसी कंपनी मानी जाती है जिसे किसी बात का कोई भय न हो। कोई भी आज इससे उसी तरह नहीं उलझना चाहता जैसे भारत के किसी अंडरवर्ल्ड के डॉन से।
संक्षेप में तथ्य यह स्थापित करता है कि सरकारी तेल नीति का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस बना जो इसकी संपत्ति का बड़ा हिस्सा है। इसलिए 1999 में रिफाइनरी के खोज कार्य में जाने से छ: महीने पूर्व ही कंपनी ने खुद को यूएन में राष्ट्रीय तेल खरीदार के रूप में पंजीकृत करवा लिया। बीपीसीएल , एचपीसीएल, और एचपी जैसे पीएसयू की शिकायतों को अनदेखा किया गया। इराक तेल के बदले अनाज कार्यक्रम के तहत रिलायंस द्वारा आयातित पहली खेप में ही भारी रिश्वत दी गई।
लेकिन केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री द्वारा जबाब में सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत संबंधित फाइल की मांग इस बात पर जोर देता है कि उनको इस बात का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था कि रिलायंस पेट्रोलियम ने खुद के राष्ट्रीय तेल खरीदार होने का दावा अपनी वेबसाइट के उसी खंड में किया है जिसमें तेल के बदले अनाज कार्यक्रम घोटाले में किसी भी अनियमितता या अवैधानिकता से खुद को दोषमुक्त कहा है। कंपनी और सरकार द्वारा किए गए दावे में किसी अंतर्विरोध की स्थिति में वर्तमान तथ्य सत्य प्रतीत होते हैं। आखिरकार वह कहनेवाला कौन है जो अंतर्विरोध की स्थिति में सरकार से कुछ कहता है ? और इसीलिए सरकार तेल के बदले अनाज कार्यक्रम में भारत का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस पेट्रोलियम लिमिटेड द्वारा क्रियान्वित सौदे की वैधानिकता की जांच की मांग को दृढ़ अस्वीकृति से अनसुना कर देती है।
यद्यपि वोल्कर घोटाले में शामिल रकम जिसमें रिलायंस पेट्रोलियम का नाम एक गैर अनुबंधित लाभभोगी के रूप में आया है, रिलायंस और अंतरराष्ट्रीय दोनों पैमानों पर बहुत छोटी है। लेकिन इससे राज्य के किसी भी अंग पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
नटवर सिंह मामले में शामिल रकम 70लाख रूपए भी भारत के आज के राजनीतिक भ्रष्टाचार के हिसाब से बहुत कम है लेकिन व्यवस्था ने जिस तरह पूरे मामले में अपनी प्रतिक्रिया दर्शायी वह शामिल रकम की तुलना में असमानुपाती है। वैसे शामिल रकम कोई मुद्दा नहीं है।
अगर व्यवस्था की असफलता की बात हो तो रिलायंस मामले में सामूहिक माफी सोची जा सकती है लेकिन यहां व्यवस्था असफल नहीं हुआ बल्कि रिलायंस का साझीदार बन गया।
अब यह पता नहीं है कि चीजें कैसे खत्म होनी चाहिए और कैसे खत्म होगी । लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है। जो घटनाएं घटीं वे उतना दुखद नहीं कही जा सकतीं, लेकिन जिस तरह उसको हल किया गया वो निश्चित रूप से दुखद है।
अपराध के ज्यादातर मामलों में संबंधित तथ्य खुद ही सारी कहानी बयां करते हैं। सरकार और उसकी संस्था अभी भी मूक बनी हुई है कि क्या कहे। लेकिन देश के लोग उन आवाजों को ज्यादा जोर और स्पष्टता से सुन रहे हैं। यही सबसे बड़ी बात है।
पुस्तक ''रिलायंस द रीयल नटवर'' मानस प्रकाशन ने छापी है।

अदम्य बॉबी, न कि तितली

फिल्म समीक्षा :
फ्रांसीसी क्रान्ति को आत्मसात करता हुआ (Embodying French Revolution)
अग्र मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने के परिणामस्वरूप अपने स्वयं के ही शरीर में वस्तुत: फंसे एक फ्रांसीसी लेखक पलक झपकने के रास्ते ही अपने सर्वोत्तम को प्रकट करते हैं। परिणाम में आयी है एक आश्चर्यजनक किताब जिस पर बाद में पुरष्कृत फिल्म भी बनी : एक समीक्षा।
-ऑंचल खुराना

द डाइविंग बैल एण्ड द बटरफ्लाई एक फ्रांसीसी पत्रकार, लेखक और इली मैगजीन के सम्पादक-जीन डॉमीनीक बॉबी के जीवन पर आधारित सत्य कहानी है, जिसमें उसका जीवन पलक झपकने जितने समय में ही बदल जाता है। वह अपने शरीर में ही कैद रहता है जब तक उसकी स्वयं की कल्पना उसे मुक्त नहीं करती। शीर्षक द डाइविंग बैल उसके शरीर को व्यक्त करता है जिसमें वह कैद है और तितली, विचारों की उसकी स्वतंत्रता को। बॉबी को मस्तिष्कीय आघात हुआ और उसके अग्र मस्तिष्क की सारी गतिविधियां रूक गयी, एक तरह से निष्क्रिय हो गयी। इस स्थिति को लोकप्रिय भाषा में ताले में

विकलांगता : अधिकारों को लंगड़ा बनाती

(राजीव रतूड़ी लिखते हैं कि मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा से शुरू होने वाली विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की छ: दशक पुरानी लड़ाई इस घोषणा और बाद में हुए तमाम अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों के फलस्वरूप देश में बने कानूनों के लागू न हो पाने के कारण अभी खत्म नहीं हुई है।) भारत में फैले 700 लाख विकलांग व्यक्तियों के साथ आज भी दूसरे दर्जे के नागरिक का बर्ताव किया जाता है। उनके लिये अलगाव, सीमांतीकरण और भेदभाव आज भी अपवाद नहीं बल्कि आम है। प्रचलित रुख के कारण खड़ी हुई रूकावटों से रूबरू विकलांग आज भी दया और कल्याण के पात्र समझे जाते हैं और विश्व उनके सबसे बुनियादी अधिकारों को कुचलता हुआ आगे बढ़ जाता है। 1948 में मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा, जो न्याय, स्वतंत्रता और शांति सुनिश्चित करने के लिये मानव अधिकारों के पालन को जरूरी पूर्व शर्त मानती है, हो जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है।

अधिकारों के लिए उठे कदम - राकेश मालवीय, भोपाल

बड़वानी, गर्मियों में यह जिला सबसे ज्यादा तापमान के कारण चर्चा में रहता है और बाकी समय गरीबी, भूख, कुपोषण से हो रही मौतों के कारण। इसकी थाती पर नर्मदा का पानी है और सिर के चारों ओर उंचे पहाड़ भी। लेकिन विकास की अवधारणाएं यहां के वांषिदों के लिए ठीक उल्टी ही साबित हो रही हैं। इसलिए अपने अधिकारों के लिए सबसे ज्यादा आवाज और संघर्ष के नारे भी यहां से सुनाई देते हैं। चाहे नर्मदा की लड़ाई हो अथवा रोजगार गारंटी स्कीम में काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता देने की मांग। इसी बीच लोगों की अपनी छोटी-छोटी कोषिषें भी हैं जो उन्हें अखबार की सुर्खियों में ला देती हैं। मामला चाहे पर्यावरण के लिए अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन का हो अथवा स्वास्थ्य के लिए आदिवासी महिलाओं की जागरूकता का। झमाझम बारि में भी इस जिले के लोग उटकर मोर्चा संभालते हैं और तहसीलदार से सवाल-जवाब करते नजर आते हैं।
आदिवासी मुक्ति संगठन सेंधवा के विजय भाई से बस के सफर के दौरान ही इस क्षेत्र के हालात पर थोड़ी बहुत चर्चा हुई। कयास यह भी लगाए गए कि बारिश के चलते शायद बहुत लोग मोर्चे में न आ पाएं। सोचा भी यही था ब्लॉक के सबसे बड़े अधिकारी को ज्ञापन सौंपने के बाद घंटे दो घंटे में कार्यक्रम तय हो जाएगा। . . . . Read More

माया महाठगिनी - शाहनवाज़ आलम

20 मार्च 1927 को डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने हजारों 'अघूतों' के साथ महार के एक 'प्रतिबन्धित' तालाब से पानी पीकर इतिहास को एक नयी दिशा दी थी। लेकिन जब वो ऐसा कर रहे थे तब शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि 40 साल बाद उन्हीं के नाम पर वोटों की ठगी करके सत्ता में आने वालों के शासनकाल में भी दलितों के लिए सार्वजनिक तालाब 'प्रतिबन्धित' रहेंगे। हम बात कर रहे हैं मिर्जापुर मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर स्थित भुड़कुड़ा गाँव की। जहाँ संविधान और उसके न्यायालयों के फैसलों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है। जहाँ आजादी के 60 साल बाद भी मनुवादी ढाँचा जस का तस बना हुआ है। जहाँ आज भी दबंगो द्वारा दलितों को सार्वजनिक तालाबों के इस्तेमाल पर 'प्रतिबन्ध' लगाया जाता है, जिसके कारण दलितों को बूँद-बूँद के लिए भी दूर तक भटकना पड़ता है। तालाब के किनारे स्थित इस दलित बस्ती में सामन्ती फरमानों के आगे जिन्दगी कैसे रेंगती है इसका अनुमान आप बस्ती के ही राम सहाय कें इस बात से लगा सकते है, 'साहब! हम पानी के पास रहकर भी प्यासे रहते हैं। हम पानी को देख तो सकते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं कर सकते'। . . . . . . पूरा पढ़ें

गुजरात का नरेन्द्र मोदी शासन: जहाँ आम आदमी की जिंदगी मोदी- रहमोकरम पर.......

-मीनाक्षी अरोड़ा
सोहराबुद्दीन शेख की हत्या का मामला फिर गरमा गया है। आखिर बौखलाहट में सच्चाई मोदी की जुबान पर आ ही गयी। मोदी ने सोहराबुद्दीन शेख की हत्या को सही ठहराया और कहा कि ऐसे लोगों का यही हस्र होना चाहिए। बौखलाहट की वजह साफ है हिन्दूकार्ड का नहीं चलना। भाजपा बागियों के कारण घिर गये मोदी हिन्दू वोटों को बंटने से रोकने के लिए यह साम्प्रदायिक कार्ड खेला है। वैसे सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ के आरोपपत्र में सीआईडी ने स्पष्ट कहा है कि इन सबने सोहराबुद्दीन का एनकाउंटर पब्लिसिटी और प्रमोशन पाने के लिए किया था।
क्या है मामला-
सोहराबुद्दीन शेख नामक शख्स को पुलिस अधिकारियों ने लश्कर का आतंकवादी बता फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा. उज्जैन के पास स्थित गांव झिरनया निवासी सोहराबुद्दीन की मां गांव की सरपंच है. पुलिस पर सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति की हत्या का भी आरोप है.कटघरे में कौन - गुजरात के डीआइजी डीजी बंजाराए एसपी राजकुमार पांडयन और राजस्थान में अलवर के एसपी एमएन दिनेश. तीनों गिरफ्तार. पुलिस के कुछ और अधिकारियों के नाम सामने आने की संभावना.
फूलप्रूफ प्लानिंग
22 नवंबर 2005 - बस से हैदराबाद से सांगली जा रहे पति-पत्नी सोहराबुद्दीन शेख व कौसर बी और दोस्त तुलसीराम प्रजापति को पुलिस ने बिना अरेस्ट वारेंट के उतार लिया. कौसर बी को उतारने के लिए कोई महिला पुलिसकर्मी नहीं.
24 नवंबर 2005 - गोपनीय पूछताछ के नाम पर एंटी टेररिस्ट स्क्वॉड इन्हें व्यापारी गिरीश पटेल के गांधीनगर के पास जमियतपुरा स्थित फार्म हाऊस में ले गये.
26 नवंबर 2005 - 25.26 की रात पुलिस सोहराबुद्दीन को अहमदाबाद के पास ले गयी. तीनों अधिकारी पहले से मौजूद. एक कांस्टेबल को एटीएस में रखी हीरो होंडा बाइक लाने को कहा गया. तड़के करीब 4 बजे राजस्थान पुलिस के एक सब इंस्पेक्टर ने थोड़ी दूर तक बाइक चलायी और चलती बाइक को सड़क पर रपट कर कूद गया. सोहराबुद्दीन को भी कार से निकालकर बाइक के पास फेंका गया. 4 इंस्पेक्टरों ने उसे गोलियों से भून डाला.
28 नवंबर 2005 - कौसर बी की हत्या कर शव को जला दिया गया. सीआइडी के मुताबिक हत्या बंजारा के गांव के पास की गयी.

गुजरात में ही सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी की हत्या की तर्ज पर ही इशरतजहाँ और उसके साथियों को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया था। नरेन्द्र मोदी शासन सुराग तक ढूंढने में नाकाम रहा था। गुजरात में फर्जी मुठभेड़ का तो जैसे पिटारा ही खुल गया है। खाकी वर्दी में साम्प्रदायिक हिंसकों का जैसे एक नया वर्ग पनप रहा है।
जहाँ साम्प्रदायिक नफरत इस कदर पनप रही है कि हिंसको का यह वर्ग शासन पर भी भारी पड़ रहा हो, तो उसके बारे में आप क्या कहेंगे, क्या किसी से न्याय की उम्मीद की जा सकती है, आतंकवादी तो रोज रहस्यमय परिस्थितियों में मारे जाते हैं लेकिन सोहराबुद्दीन शेख और बाद में उसकी पत्नी और एकमात्र चश्मदीद गवाह तुलसीराम प्रजापति जैसे निर्दोष लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या करने के लिये न तो राजनीति के ठेकेदारों की कोई जवाबदेही है, न ही पुलिस प्रशासन की।
गुजरात पुलिस के डायरेक्टर जनरल पी सी पांडे के नापाक कैरियर पर तो जरा गौर कीजिये जिनके सरपरस्त मोदी जी खुद हैं। यह जानते हुए भी कि उनका रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। उस दौरान शहर के पुलिस चीफ रहे पांडे ने अहमदाबाद को मौत की आग में झोंक दिया। गोधरा रेल हत्याकांड के बाद विश्व हिंदू परिषद् और बजरंग दल ने न केवल पुरुषों और बच्चों की निर्मम हत्याएं की बल्कि स्त्रियों के साथ बलात्कार किए, घरों और दुकानों में लूटपाट की। मिली खबरों और मीडिया ने गृहमंत्री गोरधन जडाफिया, नरेंद्र मोदी, पांडे और उसके पुलिस बल की पोल खोलकर रख दी कि यह हत्याकांड पूर्व नियोजित तरीके से राज्य और सत्ता के ठेकेदारों के संरक्षण में किया गया है। भाजपा-विहिप नेताओं की पुलिस कंट्रोल रूम से सेलफोन पर बातचीत के रिकॉर्ड मौजूद हैं, यहाँ तक कि जडाफिया भी इसमे सीधे तौर पर शामिल थे। खबरों के हिसाब से तो पांडे पूर्व कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी से मिले और उन्हें पुलिस सुरक्षा का विश्वास भी दिलाया, लेकिन दंगइयों ने अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसाइटी में बीसियों लोगों को जिंदा जला दिया। जाफरी की पत्नी ने अपने पति और निर्दोष लोगों की बेरहमी से की गई हत्या को अपनी आंखों से देखा और पांडे जी की पुलिस का तो अता-पता भी नहीं था।
दंगों के शिकार लोगों ने नरौडा पटिया में भाजपा-विहिप नेताओं मायाबेन कोडनानी, बाबू बजरंगी और जयदीप पटेल पर खुले तौर पर दंगे भड़काने का आरोप लगाया। अहमदाबाद में युवकों और किशोरियों खासतौर पर मुसलमानों को निशाना बनाकर बजरंगी ने अकेले ही फिल्म परजन्या को रोक दिया जबकि गुजरात पुलिस ने अलग रास्ता अख्तियार किया। भाजपा सांसद बाबूभाई कटारा हाल ही में मानव व्यापार के दोषी पाए गए, इतना ही नहीं उनके बेटे का गुजरात दंगों में हाथ होने का भी सबूत मिला है, तो ऐसे में आरएसएस और भाजपा सत्ता की ठेकेदार कैसे बन सकती है? कैसे गुजरात पुलिस इस रैकेट का भंडाफोड़ करने में नाकाम रही? क्यों पुलिस के हाथ कोई सुराग नहीं लगा?
ऐसे में जहां मोदी की सरपरस्ती में फर्जी मुठभेड़ राज्य का चरित्र बन गया हो वहां सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर बी जैसे निर्दोष लोग फर्जी मुठभेड़ में मार दिए जायें तो इसमें हैरानी ही क्या हैघ् जहां-जहां मोदी और उसके चेलों ने 'मुसलमानों पाकिस्तान लौटो' का नारा बुलंद किया वहीं अनेक मुसलमानों को आतंकवादी करार देकर फर्जी मुठभेड़ में मौत के घाट उतार दिया गया।
नफरत को एक खूबसूरत जामा पहनाया गया है ठीक वैसे ही जैसे एक आर्किटेक्ट एक शहर का डिजाईन बनाता हैए जिसमें खुद ही राज्य की छत्रछाया में दंगे कराओ, जेल में मुसलमानों को डाल दो, वो भी पोटा के तहत, हत्यारे और बलात्कारी आजाद हवा में सांस लें, महज इसलिए कि वें आपके संघ परिवार के लंगोटिए हैं। उस साम्प्रदायिक पुलिस का क्या- उसे भी आप कोई दंड नहीं देते, हजारों लोगों को आप मजबूर कर देते हैं शरण्ाार्थियों की तरह खुले आसमान के नीचे तम्बुओं में रहने के लिएए इस तरह लाचार लोगों को अपनी ही जमीन से बेघर करके खुद ही आप तानाशाह बन जाते हैंए न्यायालय के दरवाजे बंद कर देते हैं। उन गरीबों, बेघरों की रोजी तक छीनकर, उन्हें समाज से भी अलग-थलग कर देते हैं या फिर 'जाहिरा शेख केस' की तरह रिश्वत देकर शिकायत वापिस लेने की धमकी देते हैं और जर्मन के फासीवादी और इसराइल के यहूदीवादियों की तरह भारतीय मुसलमानों के दिल में एक ऐसा खौफ भर रहे हें कि उन्हें लोकतंत्र, न्याय तो दूर मदद की एक उम्मीद तक आपसे नहीं है। अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रह गए हैं।
इतना ही नहीं खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए भी मोदी के गैर- संवैधानिक तरीकों के खिलाफ़ गूंगी और बहरी बन गई है। मोदी खुद को विकास पुरुष कहते हैं दरअसल उनकी ऑंखें केंद्र पर टिकी हैंए वे तो खुद को भावी प्रधानमंत्री समझते हैं। धर्म निरपेक्षता के नाम पर आप सब कुछ कर सकते हैं; दंगे-फसाद और हिंसा, लेकिन बस विकास का पल्ला पकडे रहिए।
जहाँ राजनीति के ठेकेदार खुद ही धर्मनिर्पेक्षता और लोकतंत्र की धज्ज्ाियां उड़ा दें, पुलिस नौकरशाही और कानून, सब साम्प्रदायिक हो गए हों ऐसे में गुजरात सरकार 'एंटी- टेरारिस्ट स्क्वाड' के आत्मसमर्पण में इतनी नैतिक कैसे हो गई?
'एंटी-टेरारिस्ट स्क्वाड' के हैड डी.जी. वन्जारा, एस. पी. इंटेलिजेंस राजकुमार पंडियान और एम. एन. दिनेश कुमार एस. पी. अलवर राजस्थान को 26 नवम्बर 2005 को हुई सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है तीन अन्यों को भी गिरफ्तार किया गया है जिसमें एक व्यक्ति्त वह है जिसने जांच अधिकारी गीता चौधरी को ग्राफ़िक डिटेल दिए थे। वन्जारा को मोदी का आदमी बताया गया था। खैर इस सबसे यह तो साफ़ है कि इन दंगों के पीछे मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का हाथ है। भाजपा विरोधी नलिन भट्ट ने भी वन्जारा द्वारा अंजाम दी गई इस रहस्यमय मुठभेड़ों की सी.बी.आई. जाँच की माँग की है। सब इस बात को जानते हैं कि वन्जारा तो मात्र एक कठपुतली था। इशरत जहां, समीर पठान और अन्य लोगों की हत्या के मामले एक बार फ़िर उठाए जा रहे हैं, अगर इस बार गुजरात पुलिस मोदी को हत्यारा साबित करने में नाकाम रहती हैं तो मोदी और उसकी राजनीतिक ठेकेदार और पुलिस को कुछ भी कर के साफ़ बच निकलने का आसान रास्ता मिल जाएगा।
सी.आई.डी.(क्राइम) आईजी. गीता चौधरी की रिपोर्ट कि सोहराबुद्दीन शेख की हत्या का मामला फ़र्जी मुठभेड़ का मामला है, के बाद गिरफ्तारी का निर्णय लिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उन्होने जाँच की और दिसंबर 2006 में अपनी रिपोर्ट दे दी थी तो फ़िर राज्य सरकार इतने समय तक चुप क्यों रही? क्यों और कैसे इस जाँच को गीता चौधरी के हाथ से लेकर किसी दूसरे अफसर को दे दिया गया? सच तो यह है कि गुजरात पुलिस में आज ईमानदार पुलिस अफसर का गला घोंटा जा रहा है। उनके लिए वहां कोई जगह नहीं है। 2002 के दंगों में कुछ पुलिस अफ़सर और प्रशासनिक अधिकारीए हिंदुत्ववादियों को दंगा भड़काने से रोकना चाहते थे, लेकिन मोदी ने इस पर गौर नहीं किया। दंगों के बाद श्रीकुमार ने मोदी के खिलाफ़ आवाज उठाई लेकिन उसे और उसके जैसे अनेक अफ़सरों को दंगों के दौरान और बाद में भाजपा सरकार और हिंदुत्ववादी झंडेबरदारों का कोपभाजक बनना पड़ा।
मुख्यमंत्री और गृहमंत्री का फ़र्जी मुठभेड़ में हाथ होने की पोल खुलने के डर से गुजरात पुलिस सी.बी.आई. जाँच का विरोध कर रही है।

कौसर बी के साथ बलात्कार, फिर हत्या -
इस बात के पुख्ता सबूत मिल रहे हैं कि शेख की पत्नी कौसर बी के साथ बलात्कार करके हत्या की गई। उसे गाँधीनगर के पास एक फार्म हाउस पर ले जाया गया और 26 नवम्बर 2006 शेख की हत्या करने के बाद 28 नवंबर को मार दिया गया। उसकी लाश को वन्जारा के गांव इलोल, हिम्मतनगर लाने के बाद जला दिया गया। एक सिपाही ने यह सब अपनी ऑंखों से देखा और बताया कि कैसे बलात्कार के बाद वह बीमार हो गई इसलिए उसे जला दिया गया। यहाँ तक कि चश्मदीद सिपाही की भी हत्या कर दी गई।
अपहरण, हत्या बलात्कार के इस दहलाने वाले मंजर को पुलिस के आला अफ़सरों, सिपाहियों ने मिलकर अंजाम दिया। कितने दिन और रात गैर- कानूनी साधन जुटाए, वाहन किराय के लिए गए और फ़ार्म हाउस एक भाजपा नेता का था और ऐसे में मजेदार बात तो यह है कि मोदी शासन, उसकी पुलिस और नौकरशाही के हाथ कोई सुराग तक नहीं है।
शेख के बारे में भी कुछ अफ़वाहें सुनने में आ रही हैं कि उसे इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह उनके अंदर के बहुत से राज जानता था। वह खुद भी सीडी साजिश में शामिल था और उसके परिवार के राजस्थान में भाजपा से सम्बंध्द थेए उसकी माँ गाँव की सरपंच थी और परिवार मारबल का व्यापार करता था लेकिन व्यापार छिन जाने के बाद वह संकट में आ गया वगैरह....... लेकिन इन सब कहानियों को सच नहीं माना जा सकता। सी. आई. ड़ी. गीता चौधरी की रिपोर्ट और गुजरात पुलिस व सरकार के हस्तक्षेप के बिना उचित सी. बी. आई. जाँच के बाद निश्चित रूप से इन रहस्यमयी हत्याओं का पर्दाफ़ाश होगा। इतना ही नहीं और भी बहुत सी फ़र्जी हत्याओं के रहस्य से पर्दा उठेगा।जरा मुम्बरा की इशरत जहां और अहमदाबाद में तीन फिदायीन आतंकवादियों की जून 15ए 2004 को हुई निर्मम हत्या को याद कीजिए। जिसके बारे में कहा गया कि वें मोदी की हत्या के मिशन पर आए थे। 'नेशनल सिविल लिबर्टीज' की टीम में अपने अध्ययन में पाया कि पुलिस के बयान के मुताबिक केवल एक आतंकवादी भागा था। उन चारों के पास से केवल एक एके-56 और दो पिस्तौलें बरामद हुईए 20 पुलिस कर्मियों के दो दलए जो एके-47 और रिवॉल्वरों से लैस थे। कार को घेरने के बावजूद भी विपक्षी दल पर कमजोर पड़ गई। इस बात से पुलिस की नीयत पर सीधा शक जाता है कि वे उनकी हत्या के इरादतन वहाँ गई थी.........
अगर पुलिस की इस बात को माने कि आतंकवादियों ने बयालिस बार गोली चलाई तो एक भी पुलिस कर्मी के बदन पर गोली का निशान तक क्यों नहीं पाया गया? इस बात का सबूत न होने से उनके इस झूठ को सच नहीं माना जा सकता कि उन्होंने अपने बचाव में गोलियां चलाईं थीं.....

मोदी की स्वीकारोक्ति से उठे सवाल
मोदी की स्वीकारोक्ति के बाद क्यों सोहराबुद्दीन शेख हत्या के मामले में मोदी को आरोपी नहीं बनाया जा रहा है? जबकि सोहराबुद्दीन शेख और उनकी पत्नी कौसर बी के बारे में सुप्रीम कोर्ट में दिया गया गुजरात सरकार का यह बयान कि ये दोनों एनकाउंटर में नहीं मारे गये थे। बल्कि पुलिस ने सोच-समझ कर उनकी हत्या की थी। किसी सरकार द्वारा की गयी एक महत्वपूर्ण और शर्मनाक स्वीकारोक्ति है. पर देखने की बात यह है कि इस स्वीकारोक्ति से देश का आम आदमी चौंका नहीं है. जाहिर है कि इस तरह के एनकाउंटर आम बात हो चुके हैं। 2003 से लेकर 2006 के बीच नरेंद्र मोदी के शासनकाल में कम से कम 27 एनकाउंटर हो चुके हैं. यह कहना तो कठिन है कि इनमें से कितने सचमुच एनकाउंटर थे और कितने फर्जी लेकिन यह इस बात का सबूत तो हैं ही कि कथित अपराधियों के खात्मे का यह तरीका प्रशासन को रास आता है.

गुजरात में भी एंटी टेररिज्म स्क्वाड के मुखिया डीजी बंजारा की मोदी सरकार कई बार पीठ थपथपा चुकी है. इन्हीं के निर्देशन में सोहराबुद्दीन और उनकी पत्नी की हत्या की योजना क्रियान्वित हुई थी. तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की गिरफ्तारी और अब गुजरात सरकार द्वारा गिरफ्तारी को अंजाम देनेवाले अफसर के पर कुतरने की कार्रवाई इस बात का प्रमाण है कि पुलिस यह काम सरकारी समर्थन (या शह) के बिना नहीं कर सकती थी. बात सिर्फ पुलिस तक ही सीमित नहीं हैं। गुजरात तक ही नहीं. हम देख चुके हैं कि कश्मीर और असम में कैसे सेना आतंकवादी बता कर निर्दोषों का एनकाउंटर कर चुकी है. अक्सर इस अवैध और अमानुषिक कारवाई के शिकार बेगुनाह होते हैं. गुजरात का यह मामला नवीनतम उदाहरण है. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव में भाजपा नेता वीके मल्होत्रा कह रहे हैं कि सोहराबुद्दीन जैसे व्यक्ति को महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए। वह भयादोहन जैसी गतिविधियों में लिप्त था। लेकिन इस सच को कैसे नकारा जाये कि सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी न आतंकवादी थे, न लश्कर-ए-तोएबा के लिए काम करते थे और न ही गुजरात के मुख्यमंत्री को मारने की साजिश कर रहे थे।

सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी की हत्या की तर्ज पर ही इशरत जहाँ और उसके साथियों को फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया। क्या और लोग भी इसी तरह अतिरिक्त न्यायिक कार्यवाही के नाम पर मौत के घाट उतार दिए जाएँगे? क्यों आतंकवादी हमेशा मार दिए जाते हैं? पकड़े क्यों नहीं जाते? जिससे उनके सरपरस्तों का भंडाफोड़ कर औरों को बचाया जा सके। सिपाहियों को गम्भीर चोटें क्यों नहीं लगती, ऐसा क्यों होता है कि उनमें से ज्यादातर या तो मोदी की हत्या के लिए मिशन पर होते हैं या पाकिस्तानी इस्लामी ग्रुप से जुड़े होते हैं? एक ही तरह के मुठभेड़ में हर बार वही सिपाही क्यों शामिल होता है ? क्या ऐसी मुठभेड़ों के तरीके एकतरफा नहीं हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि मुख्यमंत्री से लेकर गृहमंत्री आदि इंटेलिजेंस, पुलिस और प्रशासन को इसकी भनक तक नहीं है? क्या कभी सच बाहर आएगा? क्या न्याय की जीत होगी? या फिर वंजारा के गांव में जलाई गई कौसरबी की लाश की राख में सबूतों की तरह यह भी भारतीय लोकतंत्र के प्यासे कुंए में दफ़न हो जाएगा?

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सोहराबुद्दीन मामले से प्रकाश में आये डीआइजी डीजी बंजारा की संपत्ति तो लगभग 150 करोड़ बतायी जा रही है, जिसमें होटल, बंगला और भूमि है. फर्जी मुठभेड़ से ऐसे पुलिसवालों की कमायी का अंदाजा लगाना इतना आसान भी नहीं है. जमीन-जायदाद के मामले को सुलझान में ही कमाई लाखों में हो जाती है. एक अनुमान के मुताबिक फर्जी मुठभेड़ में एक पुलिसवाले की सलाना कमाई 2 से 5 करोड़ रुपये तक हो जाती है. अब सवाल यह उठता है कि जब इतना सबकुछ पता है तो ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की जाती है, जवाब भी सीधा है कि ऐसे लोगों के उपर राजनेताओं का हाथ होता है, जो ऐसे पुलिसवावलों का उपयोग अपने सत्ता संचालन में करते हैं.
सवाल यह उठता है कि ऐसे में पुलिस फोर्स को अपराध से लड़ने के लिए किस प्रकार का और कैसे अधिकार दिये जाने चाहिए और उसका उपयोग किस प्रकार से करें कि इसका गलत उपयोग न हो सके. इसके लिए पुलिस प्रशासन को एक दिशा निर्देश की जरूरत है, जिसमें हर एक एनकाउंटर के बाद उसकी पुलिस विभाग द्वारा ही जांच की जानी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद इस केस की सच्चाई सामने आ रही है. ऐसे में दिल्ली और मुंबई सहित पूरे देश में हो रहे एनकाउंटर शक के दायरे में आ गये हैं. प्रकाश में आये ज्यादातर पुलिसवालों की संपत्ति लाखों में नहीं करोड़ों में देखी गयी है. एक लेखक के रूप में कैरियर की शुरुआत करने के बाद पुलिस फोर्स ज्वाइन करनेवाले दया नायक की संपत्ति का अनुमान एंटी करप्शन ब्यरो ने लगभग 9 करोड़ आंकी है. एक सब इंस्पेक्टर जिसकी सैलरी 12 हजार रुपये है, को दुबई के एक होटल का पार्टनर बना पाया गया है और कर्नाटक में 1 करोड़ की लागत से स्कूल भी है, जिसका उदघाटन सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने किया था. ऐसा नहीं है कि ऐसे केस सिर्फ मुंबई में ही हुए है. देश के अन्य शहरों में भी इस तरह की घटनाएं आम है.

जब तक न्यायिक प्रक्रिया को आसान और आम आदमी के पहुंच के लिहाज से नहीं बनाया जायेगा, तब तक सही न्याय नहीं मिलेगा.
प्रशांत भूषण (वरिष्ठ अधिवक्ता)
आये दिन पुलिस द्वारा किये गये फर्जी मुठभेड़ की खबर सुनने को मिलती है, लेकिन अजीब विडंबना है कि ऐसे मामलों में दोषी पुलिसवालों को दंड कम ही मिल पाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह हमारे सिस्टम में व्याप्त खामियां हैं. फर्जी मुठभेड़ की खबर जब सामने आती है, तब कोई जांच कमेटी या साधारण जांच गठित कर दी जाती है. लेकिन इसका निष्कर्ष सही दिशा में नहीं निकल पाता. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है जांच में पुलिसवालों का शामिल होना. निश्चित रूप से एकसाथ काम कर रहे पुलिसवालों को आपस में सांठ-गांठ बनी ही रहती है. यह बात स्पष्ट रूप से जांच में सामने आता है. गुजरात, कश्मीर, उत्तर पूर्वी राज्यों आदि में फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं अक्सर सुनने में आती है. ऐसे मामलों में सभी की सामूहिक जवाबदेही तय होनी चाहिए. राजनीतिक पार्टियां भी अपने हित के लिए पुलिस का इस्तेमाल करती है और फर्जी एनकाउंटर करवाया जाता है.
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फिलिस्तीन की पीठ-लोकतंत्र का नक्शा

फिलिस्तीन जमीन से ज्यादा एक जज्बा है। आजादी की एक ऐसी जंग जो आज भी जारी है। फिलिस्तीन दुनिया के बादशाहों की बिगड़ैल फौज के आगे निहत्थे मुट्ठी तानकर खड़े हो जाने के साहस का भी नाम है। आजादी-पसंद फिलिस्तीन को फिलहाल दुनिया के बादशाहों ने अपनी शतरंजी चालों से घेर दिया है और फिलिस्तीन में लोकतंत्र रोज लहूलुहान हो रहा है। शहादत की इस धरती पर राष्ट्रवाद बनाम लोकतंत्र का कठिन सवाल एक बार फिर सामने है। एक बँटे-छँटे फिलिस्तीन का नक्शा खींचकर उस पर डिजायनर लोकतंत्र का 'मेड इन अमेरिका' स्टीकर लगाने की कवायद तेज हो गई है। इस कवायद के मकसदों पर सवाल उठाता आलेख। . . . . . . पूरा पढ़ें

बड़े उद्योगों की बड़ी विडंबना - सुनील

मध्य प्रदेश के रीवा जिले में जेपी. सीमेंट कारखाने के गेट पर 22 सितंबर की सुबह समीप के गांवों के हजार से ज्यादा स्त्री-फरुष-बच्चे वहां अपनी मांग लेकर इकट्ठे हुए। मांगे रखने से पहले ही पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। फिर फैक्टरी प्रबंधन की ओर से गोलियां चली। एक नौजवान मारा गया। सौ के लगभग स्त्री-पुरुष घायल हुए, ज्यादातर घायलों को फैक्टरी के सुरक्षाकर्मियों की बंदूकों के छर्रे लगे थे। पुलिस व प्रबंधन का कहना है कि भीड़ बेकाबू हो गई थी और पथराव कर रही थी।
ग्रामवासियों की दलील है कि उन्हें हुड़दंग ही करना होता, तो स्त्रियां-बच्चें क्यों आते? ग्रामवासियों की मांग थी कि फैक्टरी में उन्हें स्थायी रोजगार दिया जाए। फैक्टरी उनकी जमीन पर बनी है, किंतु उन्हें इसमें रोजगार नहीं मिला। कुछ लोगों को रोजगार मिला, तो वह भी दैनिक मजदूरी पर अस्थायी चौकीदारों के रूप में। चौबीस वर्ष पहले 1983 में कारखाने का शिलान्यास करते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने ग्रामवासियों से कहा था कि यह फैक्टरी आपके विकास के लिए है, आप जमीन दो, हम रोजगार देंगे। . . . . .पूरा पढ़ें

पंचायतो में महिलाओं की भागीदारी से: बदलाव की आहट सुनाई देती है - लोकेन्द्रसिंह कोट

लोकतंत्र की सबसे छोटी लेकिन महत्वपूर्ण इकाई हैं पंचायत। यहीं से प्रारम्भ होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी। प्राचीन समय से लेकर महात्मा गांधी के समय तक पंचायत की बात प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ढंग से होती रही है। वर्ष 1955 में पंचायतों की व्यवस्था की गई जो कई कारणों से असफल सिध्द हुई। इस एक बहुत बड़े अंतराल के बाद वर्ष 1993 में 73वें एवं 74वें संशोधन पर अभी तक हाशिए पर रही महिलाओं को इसमे 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इस उल्लेखनीय आरक्षण का परिणाम यह रहा कि देश भर की पंचायतों मे लगभग 1,63,000 महिलाएँ विभिन्न पदों पर नियुक्त हुई तथा सरपंच के तौर पर लगभग 10,000 महिलाएँ आगे आईं। एक पुरूष प्रधान समाज में इतना बड़ा कदम और फिर अच्छा परिणाम एक बारगी तो खुश होने के लिये पर्याप्त था लेकिन, बदलाव की इस प्रक्रिया में सिक्के का दूसरा पहलू भी विद्यमान रहा। कागजों पर ऑंकड़े और धरातल का व्यवहारिक सत्य, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर पाया गया। . . . . . . .पूरा पढ़ें

मुख्य धारा से जुड़ने के लिए संघर्ष कर रही हैं- आदिवासी महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

कक्षा 8 तक पढ़ी सुखवती ने नौ महिलाओं को पछाड़ते हुए तीन गांव की सरपंची हासिल की थी और उनकी पंचायत में चार महिला पंच भी हैं और वे भी उन्हे सहयोग देती हैं। उन्हौने पिछले ढाई-तीन साल में तीन तालाब, तीन कुएँ और लगभग साढे तीन किलोमीटर सड़क के साथ ही साथ रोजगार गारंटी योजना के तहत 473 लोगों को सौ दिनों का रोजगार मुहैया करवाया है। पंचायत के सचिव बालकुमार यादव जो पिछली तीन पारियों से यहाँ के सचिव हैं कहते हैं, ''महिलाएँ अधिक संवेदनशील होती हैं और उनमें कार्य को सही ढ़ंग से करने का सलीका तथा प्रबंधन के नैसर्गिक गुण पाए जाते हैं इसलिए मैं उनके साथ कार्य करने में पुरूषों की तुलना में बहुत ज्यादा खुश रहता हूँ।'' . . . . . . पूरा पढ़ें

समाज और परिवार का समायोजन सेतु है - नेतृत्व करती नारी - लोकेन्द्रसिंह कोट

जहाँ एक ओर आ रही जबरन आधुनिकता, स्वच्छंदता व गुमराह स्वतंत्रता को बढ़ावा दे रही है, वहीं आज की नेतृत्व करती नारी परिवार के तारों को आधुनिकता तथा संस्कृति के मध्य समायोजन कर बाँधने का प्रयास कर रही है। सिहोर जिले की कुर्लीकलां ग्राम पंचायत की सरपंच मैनबाई घर-घर जाती हैं, सबसे बातें करती हैं और इसी के चलते उन्हौने गांव पंचायत के विभिन्न वर्ग के लोगों में अपना विशेष स्थान बना लिया है। लोगों की सामाजिक और निजी समस्याओं को धेर्यपूर्वक सुनना और फिर उनके हल की दिशा में सार्थक प्रयास करना, वहाँ के लोगों को भी लगता है कि वे एक नारी हैं इसलिए इस मुकाम पर वे पुरूषों से बेहतर सामजस्य बैठा पाती हैं। मैनबाई स्वयं बहुत ही गरीब आदिवासी परिवार से संबध्द हैं और पंचायत के चारो गांवों, कुर्लीकलां, नांजीपुर, काेंड़कपुरा और निमावड़ा के गरीबों की व्यथा समझते हुए उस दिशा में जीतोड़ प्रयास करती हैं।. . . . .पूरा पढ़ें

मुद्दे-स्तम्भकार