गोपनीयकारक – जयसिंह

इतिहास हमें इस बात का ज्ञान कराता है कि अनेक राष्ट्रों का विनाश का कारण बाहरी आक्रमण से ज्यादा अक्सर आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार ही होता है। आंतरिक पतन और भ्रष्टाचार; कठोर और अपारदर्शी कानूनों से और मजबूत होता है तथा जनता को उनके अधिकारों से वंचित करता है। यह समाज के जानने की स्वतंत्रता से समझौता कर जनता के विकल्प को सीमित तथा उनके अधिकारों को कमजोर बनाता है। जबकि दूसरी तरफ पारदर्शिता विकास के दरवाजे खोलता है तथा ठीक आधारों पर लोगों को समर्थ बनाता है। सरकारी कार्यों में पारदर्शिता की आवश्यकता लोकतांत्रिक सरकार के लिए बुनियादी सिध्दांत है। सूचनाओं का महत्व सिर्फ राज्य, सरकार या सरकारी कर्मचारियों के लिए ही नहीं होती बल्कि आम लोगों के लिए भी होती है। . . . . . .पूरा पढ़ें

गोद लेने की आड़ में बच्चों का व्यापार - गीता वरदराजन चेन्नई से

हाल ही में चेन्नई उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक फैसले में गोद लेने (इंटर-कंट्री एडॉप्शन- आईसीए) के एक घटनाक्रम में तीन बच्चों के अपहरण की जांच के आदेश सीबीआई को देने के मामले ने एक बार फिर कानूनी विधायी तंत्र की असफलता को उजागर कर दिया है। एक दम्पत्ति को गिरफ्तार किया गया है जो गोद लेने (एडॉप्शन) के आड़ में सरकार तथा उसकी एजेंसीयों के आंखों में धूल झोंककर बच्चों का व्यापार करता था।कुछ समय पहले तमिलनाडु पुलिस ने बच्चों का व्यापार करने वाले एक रैकेट, जिसमें कई व्यक्तिगत तथा सरकारी एजेंसियां शामिल थीं; का भांडाफोड़ किया था। ये व्यापारी सड़क छाप बच्चों या गरीब परिवार के बच्चों और सरकारी अस्पतालों के मातृत्व कक्ष में भर्ती महिलाओं के बच्चों को अपहृत करते और तथाकथित गोद ग्रहण करनेवाली एजेंसियों को 5000 रू से 25000 रू प्रति बच्चे की दर से बेच देते थे। . . . . . . .पूरा पढ़ें

लोक अदालतें : खट्टे-मीठे अनुभव

लोक अदालतों का मुख्य लक्ष्य विवाद के त्वरित निर्णय और दोस्ताना समझौते के साथ-साथ विवादित पक्ष तथा न्यायालय के समय और पैसे की बचत भी है। लेकिन राज्य के उद्देष्यों को पूरा करने में लोक अदालतों के लक्ष्यों की सफलता अभी भी विवादित ही है। फैजल ने लोक अदालतों के सार्थकता और प्रभाव की जानकारी के लिए कष्मीर के कानूनी मामलों से जुड़े कुछ लोगों से बात की। उनकी राय-विचारों का सारांष यहां प्रस्तुत है :

मीर सैयद लतीफ (कश्मीर बार एसोसिएशन के सदस्य)
जन अदालतों की स्थापना का उद्देष्य मुकदमों में लगनेवाले समय को कम करना तथा सुविधा में वृध्दि करना और जल्दी निपटारा करना था। लेकिन लोक अदालतों को लेकर आम लोगों में जागरूकता की कमी है जो इस उद्देष्य को हासिल करने में एक रूकावट है। इसके अलावा वकील अपने मुवक्किल से मामले को लोक अदालतों में ले जाने से पहले सलाह नहीं करते जिसके कारण मुकदमों के निपटारे की गति काफी धीमी है। वकीलों को चाहिए कि वे संबंधित पक्षों को एक सद्भावपूर्ण समझौते के लिए प्रेरित करें और मुकदमों के निपटारे को आसान बनाएं। . . . . पूरा पढ़ें

शिक्षा में छिपा है महिला सशक्तिकरण का रहस्य - राजु कुमार

महिला सशक्तिकरण की जब भी बात की जाती है, तब सिर्फ राजनीतिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण पर चर्चा होती है पर सामाजिक सशक्तिकरण की चर्चा नहीं होती.
ऐतिहासिक रूप से महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है. उन्हें सिर्फ पुरुषों से ही नहीं बल्कि जातीय संरचना में भी सबसे पीछे रखा गया है. इन परिस्थितियों में उन्हें राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त करने की बात बेमानी लगती है, भले ही उन्हें कई कानूनी अधिकार मिल चुके हैं. महिलाओं का जब तक सामाजिक सशक्तिकरण नहीं होगा, तब तक वह अपने कानूनी अधिकारों का समुचित उपयोग नहीं कर सकेंगी. सामाजिक अधिकार या समानता एक जटिल प्रक्रिया है, कई प्रतिगामी ताकतें सामाजिक यथास्थितिवाद को बढ़ावा देती हैं और कभी-कभी तो वह सामाजिक विकास को पीछे धकेलती हैं.
प्रश्न यह है कि सामाजिक सशक्तिकरण का जरिया क्या हो सकती हैं? इसका जवाब बहुत ही सरल, पर लक्ष्य कठिन है. शिक्षा एक ऐसा कारगर हथियार है, जो सामाजिक विकास की गति को तेज करता है. समानता, स्वतंत्रता के साथ-साथ शिक्षित व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों का बेहतर उपयोग भी करता है और राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सशक्त भी होता है. महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से शिक्षा से वंचित रखने का षडयंत्र भी इसलिए किया गया कि न वह शिक्षित होंगी और न ही वह अपने अधिकारों की मांग करेंगी. यानी, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाये रखने में सहुलियत होगी. इसी वजह से महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत बहुत ही कम है. हाल के वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों एवं स्वाभाविक सामाजिक विकास के कारण शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, जिस कारण बालिका शिक्षा को परे रखना संभव नहीं रहा है. इसके बावजूद सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से शिक्षा को किसी ने प्राथमिकता सूची में पहले पायदान पर रखकर इसके लिए विशेष प्रयास नहीं किया. कई सरकारी एवं गैर सरकारी आंकड़ें यह दर्शाते हैं कि महिला साक्षरता दर बहुत ही कम है और उनके लिए प्राथमिक स्तर पर अभी भी विषम परिस्थितियाँ हैं. यानी प्रारम्भिक शिक्षा के लिए जो भी प्रयास हो रहे हैं, उसमें बालिकाओं के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित करने की सोच नहीं दिखती. महिला शिक्षकों की कमी एवं बालिकाओं के लिए अलग शौचालय नहीं होने से बालिका शिक्षा पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और प्राथमिक एवं मिडिल स्तर पर बालकों की तुलना में बालिकाओं की शाला त्यागने की दर ज्यादा है. यद्यपि प्राथमिक स्तर की पूरी शिक्षा व्यवस्था में ही कई कमियां हैं. . . . .पूरा पढ़ें

नोवार्टिस का चीनी दवा कंपनियों और भारतीय जयचंदों से गठजोड़ -मीनाक्षी अरोड़ा

नोवार्टिस की चाल
पर दवा में अकूत मुनाफे के लालच में पिछले वर्ष स्विटज़रलैंड की नोवार्टिस कम्पनी ने एक नई चाल चली; रक्त कैंसर के इलाज में प्रयोग की जाने वाली दवा ग्लीवेक के फारमूले में कुछ बदलाव करके उसके नये कोपीराईट के लिए अर्जी दी, जो भारत सरकार ने यह कह कर नामंजूर कर दिया कि यह नया आविष्कार नहीं बल्कि पुराने फारमूले में थोड़ी सी अदला-बदली करके किया गया है। इस पर नोवार्टिस ने भारत सरकार पर मुकदमा कर दिया है कि 'भारत का यह कानून डब्ल्यूटीओ के नियमों के विरुध्द है और इस कानून को रद्द कर दिया जाना चाहिये।' पर काफी लड़ाइयों के बाद चेन्नई हाईकोर्र्ट में नोवार्टिस की याचिका खारिज कर दी। . . .

चेन्नई हाईकोर्र्ट में याचिका खारिज होने के बाद नोवार्टिस एक बार फिर भारतीय पेटेंट कानून को कुछ और दांव-पेंच के साथ चुनौती देने की तैयारी कर रही है :-

इस बार नोवार्टिस अकेली नहीं है बल्कि माशेल्कर और शमनाद बशीर जैसे जयचंदों और चीन की 'ओपीटीआर' के दबाव से मुकदमा जीतने की तैयारी की जा रही है।
रोचक मोड़ तो यह है कि चेन्नई हाईकोर्ट में खाए हुए तमाचे के बाद बौखलायी नोवार्टिस ने तुरन्त यह घोषणा कर दी कि भारत में पेटेन्ट कानूनों पर कठोर प्रतिबन्धों के चलते यह चीन में निवेश करेगी।

नोवार्टिस को जब पेटेंट की मंजूरी नहीं मिली तो उसने भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों सिपला आदि की दवा कीमतों को ही चुनौती देना शुरू कर दिया। हाल ही में 'द हिंदू' में सिपला को चुनौती देने वाले विज्ञापन ने इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नीच हथकण्डों की साजिश का पर्दाफाश कर दिया है। . . . . . पूरा पढ़ें

घटता लिंगानुपात और महिला नेत्रियाँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

कितना विचित्र लगता है कि जो सुख-सुविधाएँ हमे आसानी से मिल जाना थी उसके लिए हमे भारी जद्दोजहद करना पड़ती है और आज तीव्र विकास के चलते हमे जहाँ होना चाहिये वहाँ नहीं पहुँच पाने का अवसाद झेलना पड़ता है। इन सब के पीछे सबसे महत्वपूर्ण एवं विकराल समस्या हमारी जनसंख्या में अंधाधुंध बढ़ोतरी है। हमारे देश की उतरोत्तर प्रगति में हमेशा से बाधक बनी रही जनसंख्या विस्फोट की समस्या इन दिनों अपने नए-नए जाल फैलाती जा रही है। विशेषकर अशिक्षा, जागरूकता के अभाव और समस्या की भयावहता से अपरिचित होने के कारण ग्रामीण जनसंख्या में भारी बढ़ोतरी हमारे सारे विकास कार्यक्रमों को पीछे धकेल रही है। पंचायती राज के तहत विकेन्द्रीकृत जमीनी स्तर की प्रशासन व्यवस्था तो लागू भी कर दी गई है और जनसंख्या में कमी लाने के प्रावधान भी विभिन्न तरीकों से किए जा रहे हैं। घर में अधिक जनसंख्या और उससे होने वाले प्रतिप्रभावों से महिलाएँ अधिक परिचित होती हैं इसलिए शासन द्वारा किए गए 33 प्रतिशत आरक्षण के द्वारा महिलाएँ भी जमीनी स्तर के प्रशासन से जुड़कर राज-काज में हिस्सा ले रही हैं, और देखा जाय तो स्थितियाँ निराशाजनक भी नहीं है। . . . . . पूरा पढ़ें

प्रबुध्द नागरिकता और जमीनी प्रजातंत्र में महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

राज दरबार खचाखच भरा था। कारण था एक अपराधी को राजा सजा सुनाएँगे। सभी के मन में कौतुहल मिश्रित उत्सुकता थी। राजा आए, अपराधी को लाया गया। राजा ने सिंह की सी आवाज में अपराधी से कहा, हम तुम पर रहम बरतते हैं क्योंकि आज हमारी बेटी का जन्मोत्सव है.....तुम्हे हम अपनी सजा स्वयं चुनने का मौका देते हैं। ये जो तीन तख्ते तुम्हारे सामने रखे हैं उनमें तुम्हारे लिए तीन सजाएँ लिखी हुई हैं......जो चाहो वो तुम चुन सकते हो। अपराधी खुश हुआ.... राजा ने भी एक लम्बा ठहाका लगाया। अपराधी ने एक तख्ता उठाया उस पर लिखा था मौत....। गुस्से में उसने दूसरा भी उठा लिया उस पर भी लिखा था मौत.... और तीसरा उठाया तो उस पर भी लिखा था मौत....। . . . . . पूरा पढ़ें

गाँवों में जबरन घुसता बाजार और महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

मैं मिट्टी में खेला, मिट्टी में ही बना हूँ। गाँव में जन्मा, बचपन का बड़ा हिस्सा वहीं बीता, किशोरावस्था की भी बड़ी कशिश की दुपहरी और ऍंधेरी-उजाली रात गाँव में ही बीती। अब फिर गाँव में हूँ, फेलोशिप की वजह से। इस थोडे से अंतराल में गाँव में बडे-बडे क़्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं, शक्ति के नए समीकरण बने हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज आ गया है। महिलाएँ भी नेतृत्व करने लगी हैं। होले-होले शहर की सभी न्यामतें यहाँ पहुंच गयीं हैं। शहरी आदतें धीरे से अपनी पैठ जमा रहीं हैं। देर तक जगना, देर से सोना, शोर-शराबे में एकान्त क्षण पाना। अब देखता हँ बच्चे रेड़ियों, टीवी, टेपरिकॉर्डर के मतवाले हैं और उन्हे पूरे वाल्यूम पर चला देते हैं, तभी उनके पढ़ने में एकाग्रता बनती है। . . . . . . पूरा पढ़ें

नेतृत्व ने बदले नारी के तेवर - लोकेन्द्रसिंह कोट

विभिन्न स्तरों पर नारी
आज नारी समाज का अभिन्न अंग है भी, और नहीं भी। उपभोग करते समय नारी समाज का अभिन्न अंग है, वहीं शेष कार्यों में समाज का अभिन्न अंग नहीं है। यूँ तो आज के इस उपभोक्तावादी समाज में लगभग हर रिश्ते में एक अजीब प्रकार का शून्य उभर रहा है, फिर भी नारी के साथ जितने भी रिश्ते जुड़े हैं उनमें इस शून्य के साथ-साथ दोयम दर्जे का व्यवहार भी नारी के ही पल्ले बँधता है।हमारा समाज वास्तव में अब स्पष्ट तौर पर तीन हिस्सों में विभक्त हो चुका है।
पहला शहरी समाज दूसरा, कस्बाई समाज तथा तीसरा, ग्रामीण समाज। इन तीनों में अनेक समानताएं हैं, परन्तु महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशाल अंतर है। शहरी समाज अपनी अधकचरी उन्नति के दंभ से फटा हुआ है और यहाँ की स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता मिली है, किन्तु नारी को एक विशेष संघर्ष करना होता है, क्योंकि नारी को दोयम दर्जे का रखने का खेल यहां सलीके से खेला जाता है। दूसरे पक्ष अर्थात् खुद नारी के पक्ष में देखें, तो नारी भी अपने आपको नारा बनाए जाने में योगदान ही करती है। नारियों में पुरूषों के पदचिन्हों पर चलने की, पुरूषों की तरह समस्याएँ सुलझाने की प्रवृति बहुत ज्यादा है। जबकि नारी को पुरूष का कार्य करने की जरूरत ही नहीं है। उसे तो पुरूषों के विचारों पर भी सोचने की आवश्यकता नहीं है, उसका लक्ष्य तो नारीत्व को अभिव्यक्ति देना है। उसका कार्य अपनी सभी गतिविधियों में नारीत्व के तत्व को जोड़ कर एक नई मानवीय दुनिया का निर्माण करना है। . . . . . . . पूरा पढ़ें

जमीने बंदूक की जोर से छीनी जा रही हैं - सुमित सरकार

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ नंदीग्राम में औरतों और पुरूषों से लेकर छोटे बच्चों में भी भयानक रोष काफी पहले से है। गांव में पिछले डेढ़ साल से ही भूमि कब्जाने की अफवाह फैली हुई थी, जिसके चलते लोगों ने इसकी खिलाफ़त के लिए खुद को संगठित कर लिया था। पंचायतों और ग्रामसंसदों ने उनसे इस मुद्दे पर कोई बातचीत नहीं की। जब 'हल्दिया डेवलपमेंट अथारिटी' ने सलेम ग्रुप के सेज बनाने के लिए भूमि कब्जाने का नोटिस जारी किया, तब स्थानीय लोग 3 जनवरी को कालीचरणपुर पंचायत कार्यालय पर सूचना मांगने पहुंचे; तो प्रधान ने कहा कि उनके पास कोई भी सूचना नहीं है। लोग शान्तिपूर्वक वहाँ से लौट गए। इसके कुछ समय बाद ही पुलिस ने बैटन, आंसू गैस और गोलियों से स्थानीय लोगों पर आक्रमण किया जिसमें चार लोग घायल हुए। एक बड़ा जमावड़ा सड़कों पर उतर आया। महिलाएं हाथ में ञ्रेलू उपकरण जैसे चाकू आदि ही लेकर निकल पड़ीं, करीब एक घंटे तक पुलिस के साथ आमने-सामने की मुठभेंड़ हुई। भूटामोर गांव के मौके पर मौजूद स्थानीय लोगों के अनुसार बचकर भागने की कोशिश में पुलिस कीे जीप एक लैम्प पोस्ट से जा टकराई, जिससे शार्ट सर्किट होने की वजह से जीप बुरी तरह जल गई और एक पुलिसकर्मी तालाब में जा गिरा तो दूसरा सड़क पर। लोगों ने पुलिसवालों को मार-मारकर उल्टे पाँव भगा दिया। भगदड़ में वे अपनी एक राईफल भी गाँव में छोड़ गए, जो बाद में स्थानीय पुलिस थाने में जमा कर दी गई। पुलिस और माकपा कैडर दोबारा गाँव में न आ सकें इसके लिए लोगों ने नाकाबन्दी कर दी, पुल गिरा दिया और सड़कों को भी खोद दिया। . . . . . . . पूरा पढ़ें

संकट में हमारी जमीन - शिराज केसर

तथाकथित अर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत के लिए चमकता भारत (इंडिया शाइनिंग) समर्थ भारत (पॉइज्ड इंडिया) आदि के नारे लगाग जा रहे है। 8 फीसदी वृध्दि, कुछ अरबपतियों का जन्म और सूचना तकनीकी धूम का गीत गाया जा रहा है पर इन सबके पीछे की सच्चाई कुछ और ही दास्तां बयान कर रही है। यह दास्तां है 8 फीसदी वृध्दि व अमीरों के नाम पर गरीब किसानों की जमीनें जबरन छीनने की, किसानों के लिए चमकता भारत, समर्थ भारत की बजाय साधनहीन भारत उजड़ा भारत बन जाने की। रोजी-रोटी छिन जाने से उजड़े किसानों के सिर पर न छत है न पेट में रोट। कहां जाएं? किधर जाएं? आखिर मजबूर होकर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लोग आंदोलन करने को उठ खडे हुए है। और धीरे-धीरे लड़ाई 'जान देंगे, जमींन नहीं देंगे' तक पहुंच रही है।
वित्तमंत्री पी चिदंबरम कहते है, जमीन और किसान के बीच पवित्र और गहरा रिश्ता है, इस रिश्ते को जो भी तोड़ने की कोशिश करेगा, उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा।' पर चिदंबरम न तो किसानां के हितैषी हैं न खेतों के। बल्कि भूमंडलीकरण के समर्थक है। बात यह है कि जहां जहां भी बहुराष्ट्रीय चारागाह बनाने के लिए जमीनों पर कब्जा किया जा रहा है, वहीं कब्जे से जमीनों को छुड़ाने के लिए जंग छिड़ गई है। जंग में हद तो यह हो गई कि कलिंगनगर से दादरी, सिंगूर से नदींग्राम तक हर जगह गरीब किसानों से जमीनें लेने के लिए पुलिस हथियार और गोला बारूद का इस्तेमाल कर रही है। पुलिस किसानों के साथ आंतकवादियों जैसा व्यवहार कर रही है, डंडे की ताकत पर लोगाें को चुप कराने की कोशिश हो रही है। . . . . . . .पूरा पढ़ें

एस.इ.जेड (सेज) का सच -प्र्भात कुमार

ग्लोबल कंपीटिशन, विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और कुछ चुनिंदा वस्तुओं को निर्यातोन्मुखी बनाने आदि के लिए सरकार सेज बना रही है। इसके लिए निवेश करने वाले देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों को आमंत्रित किया जा रहा है। इसमें व्यापारियों को सस्ती जमीनें, बिजली, पानी के साथ-साथ निर्यात शुल्क, उत्पाद कर आदि की विशेष रियायत दी जा रही है। कहा तो यह जा रहा है कि सेज में कानून व्यवस्था पर स्थानीय प्रशासन का प्रभाव नहीं रहेगा। साथ ही श्रम कानून भी लागू नहीं होंगे।कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 1999 के बाद से पिछले 7 वर्षों में लगभग 13 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि कार्य से हटाकर दूसरे काम में लगा दी गयी है। जाहिर है, इसका इस्तेमाल उद्योग आदि के लिए किया गया। सबसे चिन्ता का विषय यह है कि सेज भी कृषिभूमि को ही निगल रहे हैं। कारपोरेट जगत ने सरकार की साठगांठ से पूरे देश में जमीन की लूट का संगठित प्रयास चला रखा है। अब तक 30,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहीत हो चुकी है, जबकि 95,000 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहण करने की योजना पर काम जारी है। . . . . . . . पूरा पढ़ें

संशोधन नहीं, सेज रद्द करना ही हल है -मीनाक्षी अरोरा

नंदीग्राम और अन्य स्थानों पर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ़ हो रहे जन विरोधो के दबाव में केंद्र सरकार के मंत्रीसमूह ने पाँच अप्रैल 07 को हुई बैठक में सेज एक्ट में सुधार के जो सुझाव दिए हैं, वह लोगों का ध्यान समस्या से हटाने की एक चाल भर है। ताकि लोग इन छोटे-मोटे सुधारों के चक्कर में सरकार पर भरोसा रखें, दूसरी ओर सरकार अपने विदेशी मित्रों के स्वागत के लिए दरवाजे खोल सके- बिना किसी जन विरोध के। मंत्रीसमूह के द्वारा दिए गये सुझावों को देखकर यह तो अब स्पष्ट है कि सेज के खिलाफ़ जन विरोध, मासूम लोगों की हत्याओं और हजारों-लाखों किसानों के उजाड़े जाने के बावजूद भी केंद्र सरकार सेज बनाने की अपनी नीति पर आमादा है। बस उसने किसानों से भूमि अधिग्रहण करने में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप को खत्म कर दिया है। अब सीधे कम्पनियाँ यह तय करेंगी कि किसानों से कैसे और कौन सी जमीन लेनी है? पहले सेज के लिए न्यूनतम सीमा तो निर्धारित थी, अधिकतम सीमा तय नहीं थी; कितना भी बड़ा सेज बनाया जा सकता था। लेकिन अब सेज की अधिकतम सीमा 5 हजार हेक्टेअर तय कर दी गई है और इन क्षेत्रों के रियल एस्टेट में परिवर्तित होने के खतरों को देखते हुए सेज के अंदर उद्योग के लिए 35 फ़ीसदी जमीन के प्रयोग को बढ़ाकर 50 फ़ीसदी कर दिया गया है। 83 नये सेजों को मंजूरी दी जा रही है। इसके अलावा केन्द्र का यह भी सुझाव है कि इन सेजों के लिए जो किसान स्वेच्छा से जमीन दे देंगे, उनके परिवार में से कम से कम एक आदमी को संबध्द प्रोजेक्ट में रोजगार मिलेगा। . . . . . . . . .पूरा पढ़ें

आप्रवासियों के लिए निजी जेल - दीपा फर्नाण्डीज, प्रस्तुति-अफलातून

जेलों का निजीकरण? जी हाँ। कम्पनियों द्वारा संचालित जेलें, यह एक सच्चाई है। अमेरिकी पत्रकार दीपा फर्नाण्डीज़ की ताजा किताब टार्गेटेड में अमेरिका की निजी जेलों और जेल-उद्योग का तफ़सील से विवरण है, जो आजकल आप्रवासियों से भरी हुई हैं। -संपादक
दक्षिण -पश्चिम अमेरिका में मेक्सिको से सटा एक राज्य है, एरिज़ोना। एरिज़ोना में एक छोटा कस्बा है 'फ्लोरेन्स'। अमेरिका में निजी जेलों की हुई वृध्दि का एक केन्द्र यह कस्बा भी है। नागफनी, लाल चट्टानें और पहाड़ों के करीब से गुजरने वाले एक-लेन के राजमार्ग से पहुँचा जाता है, इस रेगिस्तानी जेल-कस्बे में।फ्लोरेन्स में एरिज़ोना राज्य का शासकीय कारागार, निजी सुरक्षा कम्पनियों द्वारा संचालित दो कारागार और स्वदेश सुरक्षा विभाग (होमलैण्ड सिक्यूरिटि डिपार्टमेंट) द्वारा संचालित आप्रवासियों के लिए बना एक कारागार है। इस कस्बे में चलने वाले एकमात्र जनहित कानूनी सहायता केन्द्र की संचालिका अधिवक्ता विक्टोरिया लोपेज़ कहती हैं, ''यहाँ की अर्थव्यवस्था जेल-केन्द्रित है और जनसाधारण की सोच और चिन्तन भी जेल-केन्द्रित है।'' ज्यादातर स्थानीय बाशिन्दे पुश्तों से जेल-धंधा से जुड़े रहे हैं। . . . . . . . . . . पूरा पढ़ें

टिटनेस वैक्सीन बनाम प्रजनन-रोधी वैक्सीन - मीनाक्षी अरोड़ा

90 के दशक में टिटनेस वैक्सीन के खिलाफ बहुत से आन्दोलन हुए। निकारागुआ, मैक्सिकों ओर फिलीपींस में मुख्य रूप् से वैक्सीन के खिलाफ आवाज उठाई गई। मैक्सिको की एक समिति ''कमिटि' प्रो विडा द मैक्सिको' ने आन्दोलनों से प्रभावित होकर ही वैक्सीन के कुछ सैम्पल लिए और केमिस्ट से उनका परीक्षण कराया। उनमें से कुछ वैक्सीन में (एच सी जी) हयूमैन कोरिओनिक गोनाडोट्रफिन पाया गया, यह गर्भधारण के लिये आवश्यक प्राकृतिक हारमोन है।
एचसीजी और एचसीजी रोधी प्रतिरक्षी- एचसीजी हारमोन प्राकृतिक रूप् से यह बताता है कि कोई स्त्री गर्भवती है या नहीं, इसके अतिरिक्त यह गर्भनाल में प्रसव के लिए आवश्यक हारमोंस को छोड़कर अन्य सभी को हटा देता है। एचसीजी का बढ़ता हुआ स्तर गर्भावस्था को निश्चित करता है। आमतौर पर जब महिलाएं गर्भधारण का परीक्षण कराती हैं तो वह परीक्षण एचसीजी की उपस्थिति जानने के लिए ही किया जाता है। लेकिन जब एचसीजी को टिटनेस टॉक्सोइड के साथ शरीर में पहुंचाया जाता है तब न केवल टिटनेस प्रतिरोधी पैदा होने लगते हैं बल्कि एचसीजी के प्रतिरोधी भी पैदा होने लगते हैं .. . .. . . .पूरा पढ़ें

पुलिस संस्था और संस्थागत साम्प्रदायिकता - कोलिन गोंजाल्विस

2002 के गुजरात दंगों में हुई घटनाओं में पुलिस की शर्मनाक भूमिका ने एक बार फिर यह साबित किया था कि संस्थागत साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों से देश को निपटना होगा। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों द्वारा जांच के लिए गठित किये गए विभिन्न न्यायिक आयोगों के अध्ययन और अनुशंसा में तथा राष्ट्रीय एकता परिषद और राष्ट्रीय पुलिस आयोग की छठीं रिपोर्ट में पुलिस की संदिग्ध भूमिका सामने आई है। जब-जब साम्प्रदायिकता की आग भड़कती है तब-तब पुलिस की संदिग्ध भूमिका सामने आई लेकिन किसी भी सरकार ने पुलिस के दुराचार के खिलाफ शिकायतें सुनने के लिए कोई संस्थागत व्यवस्था नहीं की।
आयोग- 1961 से एक के बाद एक आयोग बना, सभी ने पुलिस को दोषी करार दिया। 1961 में जबलपुर, सागर, दामोह और नरसिंहपुर में हुए दंगों पर जस्टिस श्रीवास्तव जांच आयोग ने अपने अध्ययन में पाया कि इंटलिजेंस डिपार्टमेंट पूरी तरह अयोग्य है और लॉ एण्ड ऑर्डर अधिकारियों की जांच प्रक्रिया में लापरवाही की वजह से ही अपराधी अभियोग से छूट जाता था। . . . . . . . . .पूरा पढ़ें

नेतृत्व के श्रेष्ठ विकल्प के रूप में उभर रही हैं महिलाएँ - लोकेन्द्रसिंह कोट

एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक यथार्थ संचार के लिए बोलना और सुनना ही एक मात्र सहज उपाय है। साथ ही यह भी सही है कि बोलने व सुनने का महत्व मूक-बधिर मानव या अन्य मूक-बधिर जीवों को अधिक होता है। किसी भी बात की कमी ही उसके वास्तविक मूल्य व महत्व का भान कराती है।
एक दूसरे से परस्पर संबंध बनाने के इस सहज उपाय में प्रत्येक पक्ष की बोलने व सुनने की अपनी-अपनी सीमाएं होती हैं, (उसी तरह, जिस तरह प्रकृति में प्रत्येक कण-कण की अपनी-अपनी सीमाएं हैं), उसी सीमा के तहत ये दोनों बातें अच्छी लगती हैं, समायोजित अस्तित्व का आभास कराती हैं। हमारे यहाँ तो हमेशा से सामंती शासन रहा और एक बड़ा वर्ग सुनने-सहने के लिए ही बना रहा। महिलाएँ सदैव से पुरूषों का खिलौना बनी रही और उन्हे सिर्फ गुलाम के तौर पर रखा जाता था। उन्हे ज्यादा बोलने या सुनने की मनाही थी। किंतु जैसे ही बोलने या सुनने की अपनी वर्जनाएं टूटती हैं तो कोई भूचाल नहीं आता है, कोई दृश्यगत हानि नहीं होती है, परंतु उसके द्वारा संपूर्ण परिदृश्य में मनोवैज्ञानिक बदलाव जरूर होते हैं, जो एक नए प्रकार की कुण्ठा, अवसाद को जन्म देते हैं व विद्रोह का आधार बनते हैं। एक हद तक खामोशी या सुनना भी ठीक है तथा आवाज या बोलना भी ठीक है परन्तु इनकी अति होने पर दोनों ही अन्याय व तत्पश्चात विद्रोह के हेतु बन जाती है। . . . . . पूरा पढ़ें

लोकतंत्र का विकेन्द्रीकरण और महिला - लोकेन्द्रसिंह कोट

भारत की अधिकांश महिलाऐं तो अनपढ़ है, उनमें तो अधिकांश घर की चारदीवारी से कभी बाहर नहीं निकलती है। यदि ऐसी महिलाएं चुनाव में जीत भी गई तो क्या वे पंचायत का कार्यभार सुचारू रूप से चला पाएंगी? इस प्रकार के अनेक प्रश्न लोगों के मन में उठ रहे थे, किंतु चुनाव के बाद जब बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं चयनित होकर पंचायतों के नेतृत्व हेतु आ गई तो ये शंकाएं स्वत: समाप्त हो गई। वर्तमान संदर्भों में देखा जाय तो बिहार के बाद मध्यप्रदेश में आने वाले पंचायती चुनावों में यह प्रतिशत बढ़ाकर 50 कर दिया है और यह सब इसलिए भी हुआ है कि महिलाओं की शक्ति को अब पहचान मिल चुकी है और उन्हौने कहीं अधिक संवेदनशीलता के साथ अपने पदों पर रहकर न्याय किया है। आज भले ही पंचायतों में महिलाओं की स्थिति को लेकर प्रश्न उठाया जा रहा है, परंतु यह धारणा बिल्कुल गलत है कि महिलाएं कोई ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं है या उनमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। वास्तविकता यह है कि अब तक महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा गया था और सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ते मार्ग में अड़चने पैदा करने का ही प्रयास किया गया। . . . . . . .पूरा पढ़ें

भारत में पहली “विश्व बैंक समूह पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण”का फैसला

ज्यूरी द्वारा प्राथमिक जांच

हम 12 ज्यूरी सदस्यों ने पूरे भारत के प्रभावित लोगों, 60 जमीनी विशेषज्ञों और अकादमिकों, समाजसेवी समूहों और समुदायों के साक्ष्यों और बयानों को चार दिनों से सुना है। 26 भिन्न-भिन्न आर्थिक और सामाजिक विकास के क्षेत्रों से, जिसका फैलाव मैक्रो अर्थशास्त्र से आर्थिक नीतियों तक है; के समुदायों के प्रतिनिधियों ने बयान दिया कि विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाएं उन्हें नुकसान पहुंचाती हैं और निर्धन बनाती हैं। हमारे सदस्यों में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायधीश, वकील, लेखक वैज्ञानिक, धार्मिक नेता, भारत सरकार के पूर्व अधिकारी शामिल हैं। हमने नोट किया कि विश्व बैंक के दिल्ली कार्यालय ने दो सप्ताह पहले न्यायाधिकरण में शामिल होने का आमंत्रण प्राप्त कर लिया था, लेकिन उन्होंने प्रक्रिया में शामिल होने में रुचि नहीं दिखाई। . . . . . . पूरा पढ़ें

ऐसे कैसे चलेगा मी लॉर्ड ! - भंवर मेघवंशी

न्यायपालिका और कार्यपालिका तथा विधायिका में टकराव होता रहता है, एक-दूसरे पर हावी होने की प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती है। आजकल एक नया रूझान और भी उभरकर सामने आया है कि न्यायपालिका और प्रेस के मध्य भी टकराव होने लगा है। हाल ही में भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल साहब के आचरण को लेकर उठी आवाजों के मद्देनजर पूरे दस्तावेजी सबूतों को आधार बनाकर मिड डे नामक अखबार ने लेख छाप दिए, न्यायपालिका इस स्वस्थ आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाई, फलत: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक स्वत: स्फूर्त प्रसंज्ञान के जरिए मिड डे के चार पत्रकारों को कोर्ट की अवमानना करने के अपराध में चार-चार महीने की सजा सुना दी। कोर्ट की इस कार्यवाही को लेकर मीडिया की ओर से देशभर में जबरदस्त हल्ला मचा हुआ है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी है मगर यह बहस तो छिड़ ही गई है कि- क्या न्यायपालिका निर्विवाद है, उस पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती है, क्या वह ईश्वरीय शक्ति संपन्न है! उसकी आलोचना करना क्या 'ईशनिंदा' है? क्या माननीय न्यायाधीशगण दैवीय ऊर्जा वाले विशिष्ट महामानव होते है कि उनके काम और आचरण पर प्रश्न ही नहीं खड़े किए जा सके? . . . . . पूरा पढ़ें

जायजा राज्यों का - सूचना के अधिकार कानून लागू करने में भी मनमर्जी

राज्य सरकारें सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय कानून को मनमर्जी से लागू कर रही हैं। अभी तक राज्य सरकारों को दी कई जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई हैं। इस कानून के बारे में लोगों को जानकारी तक नहीं है। अनेक राज्यों में जनता, कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए न तो प्रशिक्षण मॉडयूल बने हैं। न ही प्रशिक्षण आयोजित किए गए हैं। राज्य सरकारें सूचना आयुक्तों को पूरी सुविधाएं नहीं दे रही हैं। कई राज्यों में सूचना मांगने व निरीक्षण करने की मनमानी फीस वसूली जा रही है। समय पर अपीलों की सुनवाई नहीं होती। अपनी पहल से धारा 4 के तहत सूचना नहीं दी जा रही। सूचना मांगने वालों को धमकाया जाता है। आमजन सरकारी दफ्तरों में जाने से डरते हैं। देशभर में सूचना के अधिकार को लेकर बहुत कम संस्था संगठन काम कर रहे हैं। ये जानाकारियां सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान के एक आंकलन से पता चली हैं। इस अभियान ने 17 राज्यों के सूचना के अधिकार के सहयोगी समूहों को एक प्रश्नावली भेजी थी। उनसे इसे भर कर भेजने को कहा गया था। इसी प्रश्नावली से यह जानकारी मिली है। . . . . . पूरा पढ़ें

अन्याय के खिलाफ जनता का हथियार -- गोपालकृष्ण गांधी

सूचना का अधिकार कानून बन चुका है। बढ़िया कानून है। बहादुर कानून है। हर प्रदेश में लागू हो गया है। एक बड़े आंदोलन की इस कानून में फतह हुई है। इस कानून ने कइयों को इंसाफ दिलाया है, कई गफलतों, गलतियों, घूस और घोर अन्यायों का मुकाबला किया है। इस सबके बावजूद भी इस सूचना के अधिकार अभियान की जरूरत महसूस हुई है। वजह यह है- यह कानून जो कि भारतवासियों के कानों तक पहुंचने को था, कइयों के कानों तक पहुंचा जरूर है, पर कई औरों-करोड़ों- के कानों के ऊपर-ऊपर से सरसराता हुआ प्रवेश कर गया है दफ्तरों में। इस बात में वैसे कोई खराबी नहीं। दफ्तरों के बिना कोई कानून नहीं चलता। लेकिन दफ्तरों का एक अजीब तरीका होता है। वे कानूनों को अपने कूचे में मेहमान बना देते है। दफ्तरों की कोशिश होती है कि कानून को इज्जत मिले। लेकिन इस इज्जत के बारे में गलतफहमी रहती है। कुछ दफ्तर समझते हैं कि कानून को इज्जत देने का मतलब है, कानून को कम से कम तकलीफ हो, ज्यादा से ज्यादा आराम। लेकिन सूचना के अधिकार का यह कानून आराम के लिए नहीं बना है। काम के लिए बना है। उसे मेहनत चाहिए, राहत नहीं। दफ्तरों को कानून में घर बनाना चाहिए, न कि कानून को दफ्तरों में। कानून को दफ्तरों में सिर्फ उतनी ही देर के लिए रहना पसंद है जितना कि तीर को तरकश में। . . . . . . . पूरा पढ़ें

इराकी शासन में फैला भ्रष्टाचार: अमरीका उलझा

इराकी शासन में फैला भ्रष्टाचार, इराक में अमेरिका की कारगुजारियों पर पानी फेर रहा है, जब से ही अमेरिकी कांग्रेस ने जनरल डेविड पेट्रायस और अमरीकी राजदूत रेयान क्रोकर से इराक के बारे में रिपोर्ट लाने और इराकी युध्द के लिए जार्ज डब्ल्यू बुश की 50 बिलियन डालर की मांग पर संसदीय बहस की तैयारी की, तभी से इराकी प्रधानमंत्री नूरी अल- मालिकी के नेतृत्व वाली सरकार के कामकाज विवादों के केन्द्र में आ गए हैं। बगदाद के अमरीकी दूतावास द्वारा तैयार किए गए एक गुप्त-मसौदे के अनुसार मालिकी सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बुरी तरह फेल हुई है। रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि मालिकी शासन ''भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों को आंशिक रूप से भी लागू कर पाने में असमर्थ'' रहा है और रिपोर्ट में जो सबसे बुरी बात है कि 'मालिकी कार्यालय स्वयं ही शासन में भ्रष्टाचार, जालसाजी और अपराधों की जांच में अड़चनें पैदा कर रहा है।' . . . . . . . . . पूरा पढें

नंदीग्राम में जारी माकपा के हिंसक हमले का समाचार कवरेज से मीडिया को सीपीएम के कैडरों द्वारा प्रतिबंधित करने के संबंध में

माननीय चेयरमैन प्रेस कौंसिल, नई दिल्ली
विषय - नंदीग्राम में जारी माकपा के हिंसक हमले का समाचार कवरेज से मीडिया को सीपीएम के कैडरों द्वारा प्रतिबंधित करने के संबंध में
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महाशय,
हम सब पत्रकार हैं और 14 मार्च के नंदीग्राम के जनसंहार के बाद हमने नंदी ग्राम पर केंद्री त शोधपरक लेखन /रिपोर्ट लेखन किया है । यह पत्र हम नंदीग्राम में जारी हिंसक कार्रवाई के कवरेज के अधिकार के लिए लिख रहे हैं । नंदीग्राम के गांव से आ रही फोन सूचनाओं के अनुसार 2 नवंबर से नंदीग्राम दो और नंदीग्राम एक को घेर कर सीपीएम के सशस्त्र दस्ते हमला कर रहे हैं। यह जानकारी कितनी सही है यह जानने के लिए 8 नवम्बर को जब कुछ पत्रकार समाज सेविका मेधा पाटकर के साथ नंदीग्राम जा रहे थे तो कापसऐटिया (मेहिशादल) के पास मेधा पाटकर और मीडियाकर्मियों पर भी हमले हुए। आलोक बनर्जी (इंडिया टुडे अंग्रेजी) और वापन साहू ( 24 घंटे बंगाल चैनल) को पीटा गया।
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नंदीग्राम में मीडिया के प्रवेश को सीपीएम ने घोषित तरीके प्रतिबंधित कर दिया है और नंदीग्राम में हिंसक हमले जारी हैं। देश की मीडिया इस समय नंदीग्राम के भीतर नहीं है और कोलकाता से नंदीग्राम की राह में र ेवापा डा और चंडीपुर में सीपीएम के कैडर लाल झंडे के साथ सड़क पर बेरीकेट कर रोक रहे हैं। हमें फोन से सूचना आ रही है कि 10 और 11 नवंबर के बीच नंदीग्राम में निहत्थे लोगों पर सीपीएम कैडरों ने हमला किया और हमले में 40 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। हम इस सूचना की पुष्टि के लिए देश की मीडिया को नंदीग्राम में प्रवेश की अनुमति चाहते हैं। हम चाहते हैं कि राष्ट्रीय मीडिया को नंदीग्राम प्रवेश की छूट दी जाए और मीडिया को सुरक्षा की गारंटी दी जाए। 10 नवम्बर को तैसाली बाजार के पास 20 हजार से ज्यादा निहत्थे लोगों के जुलूस पर सीपीएम कैडरों के हमले में कितने लोग मारे गए हैं यह जांच-परख का सवाल है।
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लेकिन नंदीग्राम कॉलेज में विस्थापित होकर 25000 से ज्यादा लोग शरणागत हैं , यह खबर सही है क्योंकि सोनाचूड़ा से भागकर आए लोगों से कोलकाता में हमारी बात हुई है। सोनाचूड़ा के थंकर खटुवा के अनुसार उसने 10 नवंबर को अपनी आंखों से बीस के करीब लाशों को रिक्शा ठेला से सीपीएम कैंडरों को ले जाते हुए देखा है। नंदीग्राम में जनसंहार हुआ है , लेकिन देश को यह खबर इसलिए मालूम नहीं है कि मीडिया का प्रवेश नंदीग्राम में प्रतिबंधित है।
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हम नंदीग्राम की स्थिति का कवरेज करने का एक सिर्फ अपने लिए नहीं संपूर्ण मीडिया समूह के लिए चहाते हैं और कुछ पत्रकारों का नाम सूचीबध्द कर रहे हैं , जिन्हें रोका गया और पीटा गया है। ज्ञात हो कि एक दर्जन से ज्यादा पत्रकार नंदीग्राम प्रवेश की राह सीपीएम कैडरों के द्वारा पीटे गए हैं।
1- गोरंगो हाजरा (तारा टी. वी. बांग्ला चैनल) हाथ तोड़ दिया।
2-महुआ साजा (तारा टी. वी. की चीफ रिपोर्टर) को पीटा गया।
3-चप्पन बसु ( 24 घंटे बांग्ला)
4-आलोक बनर्जी (इंडिया टुडे अंग्रेजी)
5-अकबर हुसैन मलिक ( 24 घंटे बांग्ला)
6-पवन साहू (आकाश गंगा बांग्ला)
7-दयाल साहू (कोलकाता टीवी)
8-असरफुल हुसैन (स्टार आनंद)
हमारी जानकारी के अनुसार सीपीएम कैडरों के शिकार पत्रकारों ने अगर पुलिस के प्राथमिकी दर्ज करवाने की कोशिश की तो प्रथमिक नहीं ली गई या जान के भय से किसी ने प्राथमिकी की हिम्मत नहीं जुटाई। प्रेस काउंसिल को मीडिया के समाचार संकलन के हक पर प्रतिबंध को गंभीरता से लेना चाहिए और दोषी सीपीएम के खिलाफ कार्रवाई की अनुशंसा करनी चाहिए। आपकी कार्रवाई के लिए हम प्रेस कौंसिल के प्रति आभारी होंगे।
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सादर,
अपेक्षित
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रामबहादुर राय (प्रथम प्रवक्ता )
पुष्पराज (स्वतंत्र पत्रकार) मोबाइल नंबर 09431862080 (कोलकाता )
शिराज केसर ( पीएनएन) मोबाइल नंबर 9211530510 ( दिल्ली)
संजय तिवारी ( युगवार्ता) मोबाइल नंबर 9312440606 ( दिल्ली)

सोयाबीन नहीं किसान का जीवन चट किया इल्लियों ने - सचिन कुमार जैन

सोयाबीन पर इल्लियों के आक्रमण से मिले संकेतों को समझने की जरूरत है। यह तथ्य हमारे किसानों के लिए आने वाले विनाश का एक संकेत है कि इस वर्ष मध्यप्रदेश 9.78 लाख हेक्टेयर में बोई गई सोयाबीन की खड़ी फसल को स्पाट ऑप टेरा लिटयूरा इल्ली देखते ही देखते चट कर गई। ऐसा लगता है कि ये इल्लियाँ किसी मुहिम के तहत मध्यप्रदेश के किसानों पर कहर बनके बरपी हैं क्योंकि फसल का विनाश करने के बाद वे खेतों से निकलकर किसान के खलिहान, घर के आंगन और खाट के पायों तक जा पहुंची। वास्तव में ये साफ संकेत है कि सोयाबीन की खेती ने फसल चक्र और पर्यावरणीय अर्थ व्यवस्था को जो नुकसान पहुंचाया है उसे अब रोकने के लिए ये इल्लियां चुनौती देने किसानों के घरों तक पहुंची। अकेले हरदा जिले में डेढ़ लाख हेक्टेयर में से 1.10 लाख हैक्टेयर फसल इल्लियों के पेट में जा चुकी है और वहां अब स्कूल में बच्चे पढ़ाई नहीं बल्कि इल्लियां भोजन के बाद आराम कर रही हैं। यह जानकर और अधिक आश्चर्य होगा कि इन इल्लियों पर किसी भी तरह के कीटनाशकों का असर नहीं हुआ और किसानों को खुद अपने ट्रेक्टरों से खड़ी फसल को नष्ट कर देना पड़ा। इन इल्लियों की उम्र भले ही 30 से 40 दिन की होती है पर ये स्वप्रजनन पध्दति से तीसरे दिन अण्डे देना शुरू कर देती हैं और एक इल्ली से डेढ़ से ढाई हजार इल्लियों का जन्म होता है। इस प्रकोप के कारण 1.07 लाख किसानों के जीवन के लिए संकट काल शुरू हो गया है क्योंकि तीन वर्ष के लगातार सूखे के कारण वैसे ही उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो चुकी थी और 80 फीसदी किसान साहूकारों या बैंक के कर्जों तले दबे हुये थे। . . . . . पूरा पढ़ें

भूमण्डलीकरण और बैगा महिला - सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)

पारम्परिक व्यवस्था के अनुसार बैगा आदिवासी धरती को मां के रूप में स्वीकार करता है जिसके सीने पर हल नहीं चलाया जा सकता है। ऐसे में उसकी खेती की व्यवस्था ही ऐसी बनी जिसमें बिना हल वाली कोदो-कुटकी जैसी पारम्परिक फसल को अपनाया। इस फसल के बीज सामान्य रूप से खेत में छिड़क दिये जाते हैं और बिना हल-बिना पानी के कोदो-कुटकी की फसल लहलहाने लगती है। इसी उत्पादन में से कुछ बीज बनाकर वे अगली फसल के लिए सुरक्षित रख लेते थे परन्तु बाजार के लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार नहीं हुई और सुनियोजित ढंग से नकद फसलों को इन इलाको में भी प्रोत्साहित किया जाने लगया। सरकार ने भी पारम्परिक कृषि और सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने में बाजार का हर संभव-असंभव सहयोग दिया है। परिणाम यह हुआ कि 20 हजार बैगा परिवार में से एक भी कर्ज मुक्त परिवार खोज पाना नामुमकिन हो गया। . . . . . पूरा पढ़ें

क्यों है बीटी बैंगन एक खतरा? -सचिन जैन

हम सबने सुना कि अब बाजार में बीटी बैंगन के बीज आ रहे हैं। बहुत से शहरी लोग नहीं समझ पायेंगे कि ये बीटी बीज क्या होते हैं? तो इसका अर्थ यह है कि बैंगन के जहर बुझे बीज। बीटी बीज बनाने वाली कम्पनी का कहना है कि बैंगन या आलू की फसल को कीटों से बचाने के लिये ऊपर से कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है इसलिये समस्याओं से बचने के लिये कम्पनी ने बीज में ही कीटनाशक (यानी जहर) प्रवेश करा दिये हैं यह तकनीक कुछ और नहीं, केवल बीजों, कीटनाशकों और नई समस्याओं के समाधान का बाजार खोजने की रणनीति है। और भूमण्डलीकरण में आम लोगों के लिये इसी बाजार से निपटना सबसे बड़ी चुनौती है। . . . . . . पूरा पढ़ें

भारत के लिए गहरे ढांचे की एक परिभाषा - प्रो. अमित भादुरी

सरकारी तंत्र पर निगाह डालें तो लगता है कि मानों सरकार देश के गरीब और कमजोर तबके को सशक्त बनाने वाले दो अहम अधिनियमों का अनमने मन से बोझा ढ़ो रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी अधिनियम (नरेगा) और सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) को जिस तरह की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है, उसे देखने पर यह साफ जाहिर हो गया था कि न तो सरकार और न ही नौकरशाही इन अधिनियमों को पारित कराने में उत्साहित थी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाले 'राष्ट्रीय सलाहकार परिषद' के समर्थन के बिना तो शायद दोनों अधिनियिम पारित होने संभव ही नहीं थे। लेकिन यह सच है कि इनसे कई और मुद्दे खड़े हो गये हैं। . . . . . . पूरा पढ़ें

सहरिया आदिवासियों की व्यथा कथा - दो

सरकारी व्यवस्था के ध्वस्त होने का मतलब
मध्यप्रदेश के सहरिया आदिवासियों के लिये जीवन का सबसे बड़ा अर्थ है उपेक्षा। राज्य की सबसे पिछड़ी हुई जनजाति के लोगों की जीवन में भुखमरी, कुपोषण और बीमारियों का चक्रवात ठीक उसी तरह निरन्तरता से आता है, जिस निरन्तरता से व्यापक समाज में अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी आती है। यूं तो सहरिया आदिवासी स्वतंत्रता के बाद से ही सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं किन्तु वर्ष 2001 से यह समुदाय लाल सुर्खियों में रहा है और सुर्खियों में आने का कारण रहा है भुखमरी और बीमारी के कारण इनका सिमटता अस्तित्व। . . . . . . . पूरा पढ़ें

सहरिया आदिवासियों की व्यथा कथा - एक दर्दनाक हकीकत - एक

मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही में भोपाल की एक आलीशान होटल में जश्न मनाया। यह जश्न इसलिये मनाया गया क्योंकि सुरक्षित मातृत्व के संदर्भ में किये गये प्रयासों के लिये दस में से दस अंक मिले हैं परन्तु इस जश्न की रौशनी के बाहर सहरिया आदिवासियों के जीवन में गहरी कालिमा छाई हुई है। राज्य के श्योपुर जिले के सहरिया आदिवासी बहुल गांवों में सरकार के सुरक्षित मातृत्व के मकसद और योजना का चेहरा बदरंग ही नजर आ रहा है। जिला मुख्यालय से साठ किलोमीटर दूर रानीपुरा गांव के शिवलाल की पत्नी भभूति जब गर्भवती हुई तो उसे प्रसव की पीड़ा के साथ-साथ सरकारी व्यवस्था के अमानवीय व्यवहार के कारण होने वाली पीड़ा का अंदाजा नहीं था। भभूति ने अपने सामने ही गांव की छह महिलाओं . . . . . . . . ..पूरा पढ़ें

प्रसव पीड़ा के व्यवसायीकरण की अमानवीय कोशिश

5.60 लाख की जनसंख्या वाले श्योपुर जिले में 533 गांव हैं। यहां के एक जिला एवं चार अन्य अस्पतालों में मरीजों के लिये कुल 166 पलंग ही उपलब्ध हैं जिनमें से 148 बिस्तर पिछले 13 वर्षों से बदले नहीं गये हैं। विगत दो वर्षों से सुरक्षित मातृत्व को बढ़ावा देने के लिये जमकर बातें की जा रही हैं किन्तु पिछले छह वर्षों की तरह अब भी जिले के कराहल विकासखण्ड में चार में से तीन चिकित्सकों के पद खाली पड़े हुये हैं। इस दौरान न तो चिकित्सा व्यवस्था में सुधार हुआ न ही एक भी प्रसूति रोग विशेषज्ञ की नियुक्ति ही यहां हो र्पाई। इसी जिले के गोठरा कपूरा गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बिलासी देवी अपने अनुभवों के आधार पर कहती हैं कि अस्पताल में क्यों जायें, वहां एक तो कोई भी अच्छे से बात नहीं करता है ऊपर से नर्स, डॉक्टर और सफाई करने वाली बाई हर कोई पैसे मांगता है परन्तु सरकार कहती है कि संस्थागत प्रसव कराने पर सत्रह सौ रूपये मिलेंगे, वाहन का भाड़ा मिलेगा और दवाई मिलेगी; भभूति के प्रसव के दौरान गये थे और वह जमीन गिरवी रखकर ही मां बन पाई। . . . . . पूरा पढ़ें

महिला स्वास्थ्य : हर क्षण चरित्र पर सवाल - सचिन कुमार जैन

औरत के नजरिये से समाज एक अलग ही रूप में नजर आता है। वह वैसा रचनात्मक और स्वस्थ्य नहीं होता जिस तरह यह पुरूषों के लिये होता है। यहां महिलाओं के लिये गरीबी शायद एक बड़ा बोझ नहीं है परन्तु हर माह, माहवारी के दौर से गुजरना और उनके गुप्तांगों से होने वाले श्वेत द्रव के बहाव के बोझ से वे दोहरी हुई जाती हैं। विज्ञान के नजरिये से तो यह बहुत गंभीर समस्या नहीं है परन्तु समाज इसे स्त्री के चरित्र, उसके भाग्य और जीवन की स्वच्छता से जोड़कर परिभाषित करता है। . . . . . . .पूरा पढ़ें

जागीर में मिलता है मैला ढोने का काम - सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)

सुमित्रा बाई ने खुद को इस पेशे के चक्रव्यूह में से बाहर निकालने की जध्दोजहद की। अब से दो साल पहले उन्होंने मैला ढोने का काम बंद कर दिया था। उन्हें अन्त्यावसायी योजना के अन्तर्गत राष्ट्रीयकृत बैंक से वैकल्पिक रोजगार के लिये 20 हजार रूपये का ऋण भी मिला। वह खुश थीं कि अब उनके बच्चों को समाज में सम्मान मिलेगा और वह बेहतर जीवन जी पायेंगी। सुमित्रा बाई ने ऋण राशि से गांव में कपड़े की दुकान खोली; परन्तु मुक्ति का वह रास्ता किसी अंधेरी गुफा में जा पहुंचा। तीन माह तक हर रोज सुमित्रा बाई बड़ी उम्मीद के साथ दुकान खोलती, पर इस दौरान गांव के किसी व्यक्ति ने उनके यहां से कपड़े का एक टुकड़ा तक नहीं खरीदा। गांव में यह बात प्रचलित हो गई कि सुमित्रा बाई मसान के कपड़े बेच रही है। आखिरकार उन्हें अपनी दुकान बंद कर देना पड़ी और एक सुखद सपने का शुरूआत से पहले ही अंत हो गया। डेढ़ साल तक फिर भी वह अन्य विकल्पों की तलाश करती रही पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी और सुमित्रा बाई को एक बार फिर कच्चे शौचालयों की सफाई के काम की ओर कदम बढ़ाने पड़े। . . . . . . .पूरा पढ़ें

दलितों पर बढ़ता उत्पीड़न - राजु कुमार

कुछ दिन पूर्व ही सागर जिले के रहली थाना क्षेत्र के भैसा गांव मे एक दलित परिवार के घर कन्याभोज आयोजित किया गया था। गांव के हनुमान मंदिर में भोज का भोग लगाने गए दलित समुदाय के साथ ऊंची जाति के दबंगो ने मारपीट की और उन्हे धमकी देकर गांव से भगा दिया। इस घटना में गांव से 15 महिलाओं सहित 43 दलित बहिष्कृत हो गए। गांव के हैण्डपंप से उन्हें पानी भरने से भी रोक दिया गया। इसी तरह की घटनाक्रम में उज्जैन जिले के झरनावदा गांव में सवर्णों ने एक दलित युवक को खम्बे से बांधकर पिटाई की। उज्जैन के ही चापानेरा गांव में सवर्णों ने एक दलित महिला को अर्ध्दनग्न कर गदहे पर बैठाकर घुमाया। गुना जिले के उमरियाखुर्द गांव के एक दलित परिवार को गांव के दबंगों ने गांव से खदेड़कर उनके घर मे आग लगा दी। इस घटना में दलित परिवार को पट्टे में मिली जमीन पर दबंगों ने कब्जा . . . . . . पूरा पढ़ें

औरत के डाकिन होने के मायने

सीधी जिले के सेंदुरा गांव के प्रभावशाली लोगों ने बूटनदेवी नामक एक महिला को ऊपरी बाधा यानी डाकिन के रूप में प्रचारित किया। बूटनदेवी को गांव के पंडा के पास ले जाया गया जहां भूत भगाने के नाम पर पूजा-पाठ करके उसके माथे पर कील ठोक दी गई। लोग कहते हैं कि यह पुलिस या कानून का नहीं समाज का मामला है। समाज किस रूप में पितृसत्ताात्मक है इसका प्रमाण डाकिन या चुड़ैल जैसी व्यवस्थाओं से मिल जाता है। यह माना जाता है कि गर्भावस्था के दौरान जिन महिलाओं की मृत्यु हो जाती है या फिर बुरे कर्म करने वाली और बुरी नजर वाली महिलायें डाकिन या चुड़ैल बनती हैं। . . . . . . पूरा पढ़ें

अगर इतिहास को रचनात्मक होना है - हावर्ड ज़िन

चुनौती अब भी बाकी है। विरोधी पक्ष के पास बहुत सी ताकतें हैं: पैसा, राजनैतिक शक्ति, अधिकतर मीडिया। हमारी तरफ है दुनिया की जनता और पैसे व हथियारों से बड़ी एक ताकत: सच। सच की अपनी ताकत होती है। कला की अपनी ताकत होती है। संयुक्त राज्य तथा सभी जगहों में जन संघर्षों का असली मतलब है वही युगों पुराना पाठ - कि हम जो भी करते हैं उससे फ़र्क पड़ता है। एक कविता एक आंदोलन की प्रेरणा बन सकती है। एक पर्चा क्रांति के लिए चिनगारी बन सकता है। नागरिक असहयोग लोगों को जगा सकता है और हमें सोचने के लिए उकसा सकता है। जब हम एक-दूसरे के साथ संगठित हो जाते हैं, जब हम शामिल हो जाते हैं, जब हम खड़े होकर साथ बोलने के लिए तैयार हो जाते हैं, तब हम ऐसी ताकत पैदा कर सकते हैं जिसे कोई सरकार दबा नहीं सकती।
हम रहते तो एक खूबसूरत देश में हैं। लेकिन ऐसे लोगों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है जो मानव जीवन, आज़ादी .................पूरा पढ़ें

ब्रिटेन के भुला दिए गए हत्याकांड - जॉर्ज मॉन्बिऑट

ज़ुल्म? कौनसे ज़ुल्म? जब तुर्की में कोई लेखक इस शब्द का प्रयोग करता हैं, तुर्की में हर कोई जानता है कि वह क्या कह रहा है, चाहे वे कितने ही ज़ोर-शोर से कहें कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। लेकिन ब्रिटेन में अधिकतर लोग आपको खाली निगाहों से देखेंगे, बिना समझे। तो मैं आपके दो ऐसे उदाहरण देता हूँ, जिनके बारे में उतने ही सारे दस्तावेज़ हैं जितने आर्मेनियाई क़त्ले-आम के बारे में।
2001 में प्रकाशित अपनी किताब लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट्स (उत्तर विक्टोरियाई हत्याकांड) में माइक डेविस हमें उन अकालों की कहानी सुनाते हैं जिनमें 1.2 से 2.9 करोड़ भारतीय मारे गए (1)। वे दिखाते हैं कि इन लोगों की ब्रिटेन की सरकारी नीति द्वारा हत्या की गई थी।जब एक एल नीनो अकाल ने 1876 में दक्खन के पठार के किसानों को दरिद्र बना दिया, तब भारत में चावल और गेहूँ की पैदावार ज़रूरी मात्रा से ऊपर हुई थी। लेकिन वाइसरॉय, लॉर्ड लिटन, ने ज़ोर दिया कि इसके इंग्लैंड को निर्यात में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए। 1877 और 1878 में, अकाल के चरम पर, अनाज व्यापारियों ने रिकॉर्ड 64 लाख सेर गेहूँ का निर्यात किया। जब किसान भूख से मरने लग गए, ..................पूरा पढ़ें

प्रॉपेगंडा और मतारोपण : नोम चोम्स्की

विशेष रूप से बुद्धिमान होना तो ज़रूरी नहीं है, पर विशेष सुविधाएँ ज़रूर चाहिए होती हैं। ये लोग सही हैं। आपके पास विशेष सुविधाएँ तो होनी ही चाहिएँ, जो कि हम लोगों के पास हैं। यह जायज़ नहीं है, पर सुविधाएँ तो हमें मिली ही हैं। साधन, प्रशिक्षण, समय, और अपने जीवन पर नियंत्रण। मैं चाहे सौ घंटे प्रति सप्ताह काम करूँ, पर ये सौ वही हैं जो मैं चुनता हूँ। यह दुर्लभ सुविधा है। जनसंख्या का एक छोटा सा हिस्सा ही इसे पा सकता है, साधनों और प्रशिक्षण की तो बात ही छोड़ दें। ऐसा अपने बल पर करना बहुत ही मुश्किल है। लेकिन हमें इसे बढ़ा-चढ़ा के नहीं देखना चाहिए। ऐसा सर्वश्रेष्ठ ढंग से करने वाले बहुत से लोग सुविधासंपन्न नहीं हैं, जिसका एक कारण यह है कि उनके पक्ष में भी कई बातें हैं। अच्छी शिक्षा से होकर न गुज़रे होना, मतारोपण की बाढ़ से बचे होना, जो कि शिक्षा ज़्यादातर होती है, और मतारोपण तथा नियंत्रण के इस तंत्र का हिस्सा बनने यानि इसे अपने सोचने का तरीका बना लेने से बचे रहना। मतारोपण से मेरा मतलब है नर्सरी स्कूल से लेकर व्यावसायिक जीवन तक। इस सब का हिस्सा न होने का मतलब है कि आप कुछ स्वतंत्र हैं। तो सुविधा और प्रभुत्व की इस व्यवस्था से बाहर रहने के फ़ायदे भी हैं। लेकिन यह सच है कि जो दो वक्त का खाना जुटाने के लिए पचास घंटे प्रति सप्ताह काम करता है उसके पास वह सुविधा और अवसर नहीं है जो हमारे पास है। इसीलिए तो लोग साथ मिल कर काम करते हैं। कामगारों की शिक्षा के लिए संघ बनाने का उद्देश्य यही होता था, जो कि अक्सर मज़दूर आंदोलनों का एक पक्ष होता था। लोगों के लिए मिल कर एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने के तरीके होते थे। ...............पूरा पढ़ें

मुद्दे-स्तम्भकार