जवाबदेही मांगता साल - प्रशांत भूषण

वर्ष 2007 न्यायपालिका के लिए घटनाओं से परिपूर्ण था, खासकर अगर उसे सुखयों में मिली जगह पर ध्यान दिया जाए। ऐसा शायद ही कोई दिन था जब सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को अखबारों में पहले पन्ने पर और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की प्रमुख खबरों में जगह न दी गई हो। सप्रीम कोर्ट में हर कामकाज के दिन प्रमुख चैनलों के ओबी वैन नजर आते हैं। चाहे किसी महत्त्वपूर्ण मामले की सुनवाई या फैसले का दिन हो या न हो, समाचार माध्यमों के प्रतिनिधि अपने दर्शकों या पाठकों को सबसे पहले खबर पहुंचाने के लिए एक-दूसरे से होड़ लगाते हैं। यहां तक कि न्यायाधीशों के मामूली विचारों को प्रमुख खबर के रूप में पेश किया जाता है। मिसाल के तौर पर मुख्य न्यायाधीश ने हाल में कहा कि वे न्यायिक सक्रियता से संबंधित दो न्यायाधीशों की पीठ के विचार से बंधे नहीं हैं।
मैं यहां इस साल सप्रीम कोर्ट द्वारा प्रमुख मामलों के फैसलों को नहीं गिनाऊंगा। इस साल न्यायपालिका में दिखे प्रमुख रुझनों के बारे में चर्चा ज्यादा सार्थक होगी। इस साल के शुरू में एक्टिविस्ट मुख्य न्यायाधीश वाई.के. सभरवाल पद से हटे और न्यायमूत के.जी. बालकृष्णन ने उनकी जगह ली। उन्होंने बार-बार स्पष्ट किया था कि न्यायिक सक्रियता के बारे में उनके विचार उनके पूर्ववतयों के विचार से काफी अलग हैं। उन्होंने अदालत में और उसके बाहर कहा कि अदालतें न केवल सरकार की नीतियों बल्कि उसके कामकाज में भी दखल नहीं कर सकतीं। इस तरह पुलिस सुधार से संबंधित न्यायमूत सभरवाल के फैसले उनके उत्तराधिकारी के कुछ हद तक उदासीन रवैये के कारण लटके हुए हैं। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश के रवैये का पूरी न्यायपालिका पर निर्णायक असर पड़ा है। हालांकि अभी तक इससे हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की दूसरी पीठों से उठने वाली न्यायिक सक्रियता पर पूरी तरह रोक नहीं लगी है।
सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों की पीठ ने हालात सुधारने के लिए ही फैसला दिया था। उन्होंने स्पष्ट चेतावनी दी थी कि कई अदालतें न्यायिक सक्रियता के नाम पर अपने हदों को लांघ रही हैं। न्यायमूत काटजू और माथुर ने कहा कि कई मुकदमों में न्यायाधीश सरकारी विशेषज्ञों की राय पर अपनी राय थोपने का प्रयास करके ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि न्यायाधीश स्पीड ब्रेकर के आकार, हवाई अड्डों पर विमानों के लिए प्रतीक्षा शुल्क, नर्सरी में दाखिले से पहले बच्चों के साक्षात्कार लिये जाने चाहिए या नहीं, संसद में किस तरह से मतदान कराना चाहिए इत्यादि जैसे मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं। इसके अलावा, जनता ने उन्हें लोकतांत्रिक ढंग से चुना नहीं है न ही वे संसद के प्रति जवाबदेह हैं या फिर कोई भी संस्था उनकी समीक्षा नहीं करती। न्यायिक आदेशों के जरिए कार्यपालिका या संसद पर अपने विचार थोपना न केवल उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है बल्कि किसी भी लोकतंत्र में यह खतरनाक हो सकता है। इन न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि अदालत कानून नहीं बना सकती या संसद को कानून बनाने के लिए किसी भी तरह से निर्देश नहीं दे सकती। यह भी खतरनाक होगा क्योंकि इस तरह के आदेश संसद जैसी किसी निर्वाचित संस्था की समीक्षा का विषय नहीं होंगे। अदालत ने कहा कि हाल में कई न्यायाधीश ऐसे व्यवहार करने लगे हैं मानो वे सम्राट हों और अगर यह रुझान जारी रहा तो इससे न केवल कार्यपालिका और संसद के साथ टकराव अवश्यंभावी है बल्कि इससे न्यायपालिका के अधिकार काफी कम हो सकते हैं।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के कई विवादास्पद फैसले और आदेश आए जिन पर निर्वाचित विधायकों और सांसदों ने काफी नाराजगी जाहिर की तथा न्यायपालिका में ही काफी लोग आहत हुए। न्यायमूत काटजू और न्यायमूत माथुर के फैसले से न्यायपालिका की सक्रियता और न्यायपालिका के अधिकारों पर रोचक बहस छिड़ गई। इस फैसले की आलोचना में कहा गया कि इसने सप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ के फैसले के विरुध्द टिप्पणी की और इस तरह यह फैसला स्वयं न्यायपालिका के अनुशासन के विरुध्द है। एक और आलोचना में कहा गया कि इसने उन मुकदमों के खिलाफ टिप्पणी की है जो उस अदालत के सक्षम नहीं हैं और उनमें अदालत ने दूसरे पक्ष की दलील नहीं सुनी है। वैसे, यह प्रक्रिया की आलोचना थी। लेकिन इस संक्षिप्त फैसले की एक महत्त्वपूर्ण आलोचना हो सकती है। हालांकि इसमें जो बातें कही गईं उनमें से अधिकांश न केवल सही हैं बल्कि वे स्वागत योग्य हैं और उनकी जरूरत थी। एक ओर जहां फैसले में कहा गया है कि अदालतें नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं, वहीं अदालतों का अक्सर ऐसी परिस्थितियों से सामना होता है जिनमें सरकार की नीति बिना किसी सोच-समझ के लागू होती है और उनमें किसी विशेषज्ञ समिति की राय नहीं होती। कभी-कभी यह स्पष्ट होता है कि नीतिगत फैसला बाहरी कारकों के मद्देनजर किया गया है या ऐसे लोगों ने फैसला किया है जिनके बीच जबरदस्त हित संघर्ष है। मिसाल के तौर पर मौजूदा सरकार द्वारा परमाणु बिजली उत्पादन में इजाफा करने और अमेरिकी सरकार के साथ परमाणु करार करने के सरकार के नीतिगत फैसले के आलोचकों का कहना है कि इस तरह के फैसले से पहले ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों की लागत और लाभ के बारे में कोई विश्लेषण नहीं किया गया। परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष गोपालकृष्णन, प्रोफेसर एम.जी.के. मेनन जैसे लोग अकसर इस तरह की बातें करते रहे हैं। अगर कई परमाणु बिजली संयंत्र (जो कई वजहों से बेहद खतरनाक हैं) लगाने के लिए जनहित याचिका दायर की जाती है तो क्या अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती और सरकार से पूछ सकती है कि क्या ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों की लागत और लाभ के लिए अध्ययन करके ही इस तरह का फैसला किया गया है। दुर्भाग्यवश सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अदालत के अधिकारों और कामकाज के बारे में खुलासा नहीं होता।
एक और मामले को लें जो फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष है। सरकार आनुवांशिक रूप से संवर्ध्दित खाद्यान्न और ऑर्गेनिज्म (जो कई तरह से जहरीले, एलर्जीकारक और खतरनाक हो सकते हैं) का खुलकर आयात करती है। इसके लिए इन ऑर्गेनिज्म की जैव सुरक्षा या सूक्ष्म जीवों, जानवरों और इंसानों पर उनके प्रभाव का अध्ययन नहीं किया गया है। क्या अदालत इसमें हस्तक्षप कर सरकार से यह नहीं कह सकती कि इस तरह के खुद से उत्पन्न होने वाले खतरनाक ऑर्गेनिज्म को लाने से पहले जैव सुरक्षा की जांच और अध्ययन सुनिश्चित करने चाहिए। मान लीजिए, जैसा कि इस मामले में है, कि सरकार कहती है कि जैव सुरक्षा की जांच करने और मंजूरी देने के लिए विशेषज्ञों की समिति गठित कर दी है। लेकिन अदालत को पता लगता है कि विशेषज्ञों की उस समिति में ऐसे लोग हैं जो कंपनियों और संगठनों से जुड़े हुए हैं और उन्हें पैसा मिल रहा है और आनुवांशिक रूप से संवर्ध्दित खाद्यान्न को मंजूरी दिलाने में उनका निहित स्वार्थ है। क्या अदालतें उनमें यह कहकर हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं कि विशेषज्ञों के स्वतंत्र समूह से पर्याप्त अध्ययन कराए बिना इन खतरनाक पदार्थों को देश के नागरिकों को न मुहैया कराया जाए। दुर्भाग्यवश, अदालत के आदेश से इन परिस्थितियों पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। यही वजह है कि इससे हाईकोर्टों और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में भी कुछ भ्रम पैदा हो सकता है।
लिहाजा यह स्वागत योग्य है कि सुप्रीम कोर्ट की उच्च पीठ जनहित के मामलों में अदालत के अधिकारों के लिए व्यापक दिशानिर्देश तैयार करने पर विचार कर रही है। लेकिन इस कसरत को उचित, विश्वसनीय और उपयोगी बनाने के लिए यह काम पांच सदस्यीय संविधान पीठ को करना चाहिए और इससे पहले देश के जनहित में सोचने वाले नागरिकों को इस बारे में राय रखने का मौका दिया जाना चाहिए। यह इतना महत्त्वपूर्ण कार्य है कि इसे सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों की पीठ के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता।
न्यायपालिका की ईमानदारी पर संदेह करने वाली एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई। दिल्ली में कमशयल संपत्तियों की सीलिंग के संबंध में मुख्य न्यायाधीश वाई.के.सभरवाल पर आरोप लगाए गए। मुख्य न्यायाधीश वाई.के. सभरवाल के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में उन कमशयल संपत्तियों को सील करने के आदेश पारित किए जो पहले के मास्टर प्लान के मुताबिक आवासीय इलाकों पर बनाए गए थे। इसकी वजह से दिल्ली में दहशत और अराजकता फैल गई और लाखों दुकानों तथा दफ्तरों को नए शॉपिंग मॉल और कमशयल कांप्लेक्सों में स्थानांतरित करना पड़ा। हालांकि सरकार ने मास्टर प्लान में तब्दीली करके कई आवासीय इलाकों को कमशयल उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करने की इजाजत दे दी फिर भी इस सीलिंग की मुहिम को जारी रखने का आदेश दिया गया। वैसे, बाद में पता चला कि एक ओर न्यायमूत सभरवाल इन आदेशों को पारित कर रहे थे और दूसरी ओर उनके बेटों ने शॉपिंग मॉल और कमशयल कांप्लेक्स के डेवलपरों से साझेदारी कर ली और इस तरह अपने पिता के आदेशों से उन्हें फायदा हो रहा था। यह भी पता चला कि उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें ऐसे समय में बड़े पैमाने पर कमशयल संपत्ति आवंटित कर दी जब न्यायमूत सभरवाल अमर सिंह के चचत टेपों के मामले की सुनवाई कर रहे थे। उन्होंने उनके प्रकाशन पर रोक लगा दी थी। संयोगवश, इन कमशयल भूखंडों को आवंटित करने का प्रभार अमर सिंह के पास ही था। इस मामले का खुलासा करने वाले अखबार मिड डे के पत्रकारों के खिलाफ सुओ मोटु नोटिस लेकर अदालत की अवमानना का मामला बनाया गया और उन्हें चार महीने कारावास की सजा सुनाई गई। इस फैसले पर मीडिया में काफी हंगामा खड़ा हो गया और फिर अवमानना के मामले में अदालत के अधिकारों की समीक्षा करके उन्हें सीमित करने की मांग उठने लगी। खासकर ''अवमानना की परिभाषा में से अदालत को विवादित करने या उसके अधिकार को कम करने'' वाले अंश को हटाने की मांग की जाने लगी। 2007 में कई संदिग्ध न्यायिक नियुक्तियों और प्रोन्नतियों का भी भंडाफोड़ हुआ। इसकी वजह से इस तरह की नियुक्तियों और प्रोन्नतियों में मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट में उनके कॉलेजियम के मनमानीे सिफारिशों से पर्दा हट गया। खासकर, चेन्नै हाईकोर्ट में न्यायमूत अशोक कुमार की नियुक्ति को इस आधार पर सप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई कि इस बारे में अकेले मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने सिफारिश की थी। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसलों के मुताबिक दूसरे न्यायाधीशों के कॉलेजियम के साथ मशविरा नहीं किया था। इस तथ्य के बावजूद यह सिफारिश की गई कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों ने इससे पहले उनकी ईमानदारी के बारे में विपरीत रिपोर्टों के मद्देनजर उन्हें न्यायाधीश नियुक्त न करने की सिफारिश की थी। नियुक्तिप्रोन्नति का एक और संदिग्ध उदाहरण न्यायमूत जगदीश भल्ला से जुड़ा था, जिन्हें हिमाचल के मुख्य न्यायाधीश के रूप में प्रोन्नति दी गई। यह सिफारिश इस तथ्य के बावजूद की गई कि उन्हें गंभीर आरोपों के कारण केरल का मुख्य न्यायाधीश बनाए जाने के योग्य नहीं समझा गया। लेकिन अदालत की अपनी आंतरिक प्रक्रिया के मुताबिक इन आरोपों की जांच नहीं की गई। यह प्रक्रिया 1999 के मुख्य न्यायाधीशों के कॉन्फ्रेंस में तैयार कर दी गई थी। यह वही आंतरिक प्रक्रिया है जिसे न्यायाधीश जांच संशोधन विधेयक के जरिए संवैधानिक दर्जा दिए जाने की कोशिश की जा रही है। सभ्य समाज और संसद की स्थायी समिति की तीखी आलोचना के चलते यह विधेयक संकट में है। इस विधेयक को स्थायी समिति के हवाले किया गया था। एक आलोचना यह है कि न्यायाधीशों में भाईचारा होता है और ऐसे में न्यायाधीशों की समिति को अपने ही भाइयों के खिलाफ जांच करने का काम सौंपना मुनासिब नहीं होगा।
इन सारी घटनाओं और खुलासों के कारण न्यायपालिका और न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया की गंभीर आलोचना शुरू हो गई है और उस पर बहस छिड़ गई है। पहली बार देश में न्यायपालिका से जवाबदेही मांगी जाने लगी है, पहली बार मीडिया ने खुलेआम न्यायिक जवाबदेही की जरूरत पर बात शुरू कर दी है। 2007 में पहली बार न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया, जिसे न्यायपालिका ने सरकार से छीन लिया, पर सवालिया निशान लगाए जाने लगे। 2007 में ही पहली बार देश में न्यायिक सक्रियता पर गंभीर बहस शुरू हो गई। उम्मीद है कि 2007 में शुरू हुई बहस आने वाले वर्षों में तेज होगी और इसकी वजह से उचित व्यवस्था और न्यायिक जवाबदेही के लिए संस्थाएं बनाई जाएंगी और देश के लोग न्यायपालिका पर भरोसा करने लगेंगे।

न्यायपालिका और गरीब - प्रशांत भूषण

अगर किसी से भी यह पूछा जाए कि देश की न्यायपालिका के दरवाजे तक सही मायने में कितने लोग पहुंच पाते हैं? तो नि:संदेह ! उत्तर होगा ''आधे से भी कम''। वजह- हमारी न्यायिक व्यवस्था। जिसे गुलामी के दिनों में अंग्रेजों ने अपने लिए बनाया था। अंग्रेजों की न्यायिक व्यवस्था ने हमेशा से आम आदमी को इंसाफ दिलाने के बजाय अंग्रेजों का साथ दिया ताकि भारतीय उनके गुलाम बने रहें। यही वजह है कि न्यायिक प्रक्रिया के लिए न केवल अंग्रेजी भाषा इस्तेमाल की गई बल्कि उसे इतना जटिल बना दिया गया है कि आम आदमी वकीलों की मदद के बिना तो वहां तक पहुंच ही नहीं सकता। ड्रेस कोड भी जानबूझकर आम आदमी के दिलों में व्यवस्था के लिए खौफ पैदा करने के लिए बनाया गया था। किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए आदमी के लिए खुद को बचा पाना नामुमकिन है। वह पूरी तरह से पुलिस और न्यायपालिका की दया पर निर्भर है, क्योंकि उसे तो कोर्ट की भाषा समझ में आती नहीं, तो 'कोर्ट' अकेले ही सारी प्रक्रिया निपटा लेता है। इससे भी कड़वा सच तो यह है कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए बनाई गई न्यायिक व्यवस्था केवल कागजों पर ही नजर आती है। ऐसी व्यवस्था गरीबों को इंसाफ दिलाने का साधन हो ही नहीं सकती।
70 के दशक के उत्तरार्ध्द में जब जस्टिस भगवती-कृष्ण अय्यर ने जनहित याचिका की परम्परा बनाई; तक यह सोचा गया था कि एक ऐसा यंत्र है जो गरीब की रोजी-रोटी और अधिकारों की रक्षा के लिए स्वयं नागरिकों द्वारा ही सर्वोच्च अदालत की भूमिका निभाई जाए और न्यायालय गरीबों के अधिकारों की रक्षा के लिए आम जनता की ओर से काम करे। तभी सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों को विस्तार से परिभाषित किया। यह परिभाषा खासकर संविधान के अनुच्छेद-21 में दिये गए 'जीवन के अधिकार' के संबंध में थी। अनुच्छेद 21- में 'सम्मान से जीने का अधिकार' शामिल किया गया और सम्मानपूर्वक जीने के लिए भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी होनी चाहिए।
इसलिए 80 के दशक में लीक से हटकर भी कुछ फैसले लिए गए। बेगार पर रोक, कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी, बंदीकरण सुरक्षा के अधिकार, पागलखानों में सुरक्षित परिस्थितियां, बेघर-फुटपाथियों के अधिकार आदि कई मुद्दों पर न्यायालय ने सकारात्मक रवैया अपनाया। लेकिन 90 के दशक में उदारीकरण के युग में गरीबों के प्रति उच्च न्यायालयों का रूख धीरे-धीरे बदलता गया। अब तो यह आलम है कि न्यायालय आम आदमी के लिए जीविका, आवास, आजादी आदि सुविधाएं मुहैया कराने के लिए सरकार को निर्देश देने से भी पीछे हट रहे हैं। यहां तक कि अपने ही दिये हुए पुराने निर्णयों को ही नकार रहे हैं। वे निर्णय जो गरीबों के लिए आवास, भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा के कोई प्रबंध न होने की वजह से पूर्व में न्यायपालिका द्वारा दिऐ गए थे।
आज गरीब आदमी 'नव आर्थिक उदारीकरण' की नीतियों की मार झेल रहा है। उसकी जमीन, पानी और रोजी-रोटी राज्य द्वारा कब्जाई जा रही हैं ताकि सबकुछ बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और धन्ना-सेठों की खनन, सेज और दूसरे बड़े-बड़े प्रोजेक्टों, आदि के लिए दी जा सकें। ऐसे में न्यायालयों को उन गरीबों की मदद के लिए आगे आना चाहिए था, जिनके अधिकार छीने जा रहे हैं। गरीबों के लिए कुछ करना तो दूर, न्यायालय उन संस्थाओं और लोगों की आवाज भी नहीं सुन रहे हैं, जो इन गरीबों के लिए न्याय की गुहार लगा रहे हैं।
न्यायालयों में आजकल गरीब विरोधी निर्णयों का तो फैशन ही चल पड़ा है। मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग द्वारा दायर किए जनहित मुकद्मों में जो न्यायालय गरीब-पक्षधर सकारात्मक रूख अपनाते थे, दुर्भाग्यवश आज वे ही अपने फैसलों से गरीबों से आवास, व्यवसाय, रोजी और यहां तक कि आजादी भी छीन रहे हैं। बहुत से मामलों में तो देखा यह जा रहा है कि कोर्ट गरीबों को नोटिस तक देने की जहमत नहीं उठा रहे हैं, जिनके घरों को उनके फैसले पर उजाड़ दिया गया, रोजी छीन ली गई है और आजीविका एक ही पल में मिट्टी कर दिए गए और इस सबको 'कानून का शासन' नाम का जामा पहनाया जा रहा है। अमीरों को साफ-सुथरा पर्यावरण देने के कानून के लिए शासन के नाम पर गरीबों को सरकारी जमीन पर बने उनके मकानों में रहने से रोका जाता रहा है। जैसे कि दिल्ली और मुम्बई में हमने देखा कि एक ओर तो उच्च-मध्यम वर्ग की कॉलोनियों के पास बनी गरीबों की झुग्गियों की उजाड़ दिया गया तो दूसरी ओर दिल्ली की सड़कों से साइकिल और रिक्शा चलाने वालों को महज इसलिए हटा दिया गया, ताकि मध्यम और उच्च वर्ग के अमीरजादों को कार में घूमने का रास्ता साफ/क्लियर मिल सके।
ऐसा लगता है कि इन निर्देशों के पीछे 'कोर्ट' और सरकार की मिलीभगत है, क्योंकि सरकार दिल्ली में यमुना पुश्ता पर बनी झुग्गियों को हटाना चाहती थी ताकि उस जमीन पर फाइव स्टार होटल और शॉपिंग माल्स बनाए जा सकें। सरकार में इतना दम नहीं था कि वह राजनीतिक रूप से इन झुग्गियों को हटाती। वजह, चुनाव में हर पांच साल बाद वोट भी तो लेने होते हैं। सो इसने न्यायपालिका के कंधे पर रखकर बंदूक चलाई, क्योंकि न्यायपालिका लोकतांत्रिक या अन्य किसी भी तरह से, किसी भी प्रकार के संस्थान के प्रति जवाबदेह नहीं है। यह बड़ी आसानी से ऐसे आर्डर पास कर सकती थी, खासकर तब; जबकि फैसले इस वर्ग (न्यायपालिका के इलीट वर्ग) के भी अनुकूल थे। पिछले कुछ सालों से जिस तरीके से कामगारों और मजदूरों के लिए बने कानूनों को बिगाड़ा है। उससे सरकार और न्यायपालिका की जालसाजियों की सारी पोल खोल दी है। जैसे ही आर्थिक नीतियों का उदारीकरण किया गया और विदेशी कंपनियों को भारत में दुकानें खोलने के लिए बुलाया गया तो उद्योगों ने श्रम कानूनों को भी कम करने के लिए कदम उठाए और हवाला दिया कि देश को नए श्रम सुधारों की जरूरत है। इन सुधारों से श्रमिकों को मिली हुई सुरक्षा खत्म हो जाएगी और उन्हें अपने मालिकों की दया पर जीना होगा।
इसके बाद की सरकारों के लिए श्रम कानूनों को खत्म करना जरा मुश्किल था क्योंकि वे सभी वामपंथी पाटियों के सहयोग पर निर्भर थीं या फिर उन्हें कामगारों और गरीबों से अगले चुनावों में वोट न मिलने का भी खतरा था। लेकिन तभी फिर से 'न्यायपालिका' में सुविधाजनक रास्ता खोज लिया गया और न्यायपालिका ने बड़ी ही सफाई से मजदूरों की सुरक्षा के लिए बने कानूनों पर अपनी कैंची चला दी। इन कानूनों की नई परिभाषाएं देकर गरीब मजदूरों को कर्ज और मुफलिसी की जिंदगी के जीने का फरमान सुना दिया। 'कांट्रेक्ट लेबर एक्ट' तो एक तरह से खत्म ही हो गया है, क्योंकि एक के बाद एक मुकद्मे होने के बावजूद भी न्यायालय इसे लागू करने से इनकार कर रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय तो इनसे भी एक कदम आगे चला गया और कहा कि 'न्यायालय अपनी राज्य सरकार की आर्थिक नीतियों के अनुसार श्रम कानूनों को परिभाषित कर सकती हैं।' इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय की एक अन्य बेंच ने भी सरकार के उस फैसले को उचित ठहराया जिसमें उसने मॉरिशस में रजिस्टर्ड किसी 'एक पोस्ट बॉक्स कम्पनी' को 'इण्डो-मॉरिशस डबल टैक्सेशन अवाइडेंस एग्रीमेंट' का लाभ उठाने की अनुमति दे दी और इस तरह भारत को कोई भी टैक्स न देने का रास्ता साफ कर दिया। अब यह भारत में काम कर रही सभी विदेशी कंपनियां इसी रास्ते पर चल रही हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अब सरकार ऐसे आदेश देकर कम्पनियों को कर से छूट दे सकती है। यह तो एक व्यवस्थित संसदीय-प्रक्रिया का भी माखौल है क्योंकि संसद केवल वित्त विधेयक द्वारा ही करों में छूट आदि के कानून बना सकती है।
नक्सलियों, माओवादियों या फिर मानव अधिकारों के लिए लड़ने वालों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं के मामलों में भी न्यायालयों का अनुदारवादी और फासीवादी रूख नजर आ रहा है। राज्यों ने जिन लोगों को नक्सलवादी और माओवादी करार दिया, उनकी अपीलों के साथ जिस तरह न्यायालय ने व्यवहार किया और जिस तरीके से समाजसेवी डॉ. विनायक सेन की जमानत नामंजूर की, वह सब इस बात की तरफ इशारा करता है कि कुछ न्यायधीशों ने फासीवादी रूख अपनाने का मन ही बना लिया है।
अब यह बात साफ हो गई है कि अब न्यायपालिका गरीबों पर अत्याचार करने, भयभीत करने और यहां तक कि गरीबों से सबकुछ छीन लेने वाला तंत्र बनकर रह गई है। वह भी आम-जन को डराने और अत्याचार करने वाली संस्था बन गई है। ठीक वैसे ही जैसे पुलिस और नौकरशाही; आज विदेशी कंपनियों के पिट्ठू बनकर आम आदमी पर अत्याचार कर रहे हैं।
न्यायपालिका के जन-विरोधी रूख के लिये दरअसल इसका ढांचा ही जिम्मेदार है। इसमें वर्गीय प्रतिनिधित्व, चयन की प्रक्रिया और सदस्यों का स्थायित्व आदि कई खामियों ने न्यायपालिका को जनता की पहुंच से दूर कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय में ज्यादातर जज ऊंची जाति और उच्च मध्यम वर्ग से आते हैं। इसलिए गरीबों के प्रति सहानुभूति तो शायद ही उनके मनों में होती है। न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में ही अपारदर्शिता, निरंकुशता और भाई-भतीजावाद चलता है। जो व्यक्ति या अधिवक्ता उनके संघ के साथ मेल नहीं खाता और शासक वर्ग के साथ जिसका तालमेल नहीं है उसे चयन की प्रक्रिया से ही बाहर कर दिया जाता है। 1993 में न्यायपालिका ने संविधान की नई व्याख्या करके जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को कार्यपालिका के हाथों से छीन लिया और कार्यपालिका से स्वयं को 'मुक्त' करने के लिए न्यायपालिका ने सब किया। यह सब किया आजादी के नाम पर लेकिन गौर किया जाए तो इस सबसे न्यायपालिका की न तो स्वतंत्रता बढ़ी है; न ही न्यायपालिका में कोई सुधार ही हुआ है।
अब देश की जनता के लिए समय आ गया है कि वह वर्तमान न्यायिक व्यवस्था और उस प्रक्रिया के खिलाफ आवाज उठाए, जिससे वह गरीबों को न्याय और अधिकारों की रक्षा करने के बजाय अत्याचारी शासक बन गई है।
न्यायपालिका के सभी पक्षों और सारी कारगुजारियों को ध्यान में रखकर और विमर्श करके ही यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि अब क्या किया जाए, इसी को ध्यान में रखते हुए गरीब और न्यायपालिका पर चर्चा के लिए यह सभा आयोजित की गई है। इस सभा में हम न्यायपालिका के ढांचे, कार्यों, कार्यवाहियों और व्यवहार पर विस्तार से चर्चा करेंगे। यह चर्चा खासतौर पर गरीबों के प्रति न्यायपालिका के व्यवहार पर होगी। चर्चा में न्यायपालिका के कार्यों में बदलाव लाने वाले, ढांचागत परिवर्तनों का जवाब ढूढ़ने की कोशिश की जाएगी ताकि न्यायपालिका आम आदमी के अधिकारों को लागू और रक्षा करने वाली बनें। इन परिवर्तनों को लागू करने के लिए हमें अफसरों पर दबाव डालने के लिए एक अभियान और राजनीतिक स्ट्रेटेजी बनाने की जरूरत है।
हमें उम्मीद है कि जन आंदोलनों के प्रतिनिधि, ग्रासरूट संस्थाएं और दूसरे वे सभी लोग जो देश में न्यायपालिका की हालत पर चिन्तित हैं, इस सभा में जरूर भागीदारी करेंगें।

मुद्दे-स्तम्भकार