बढ़ती तोंद पिचकते पेट - गिरीश मिश्र

पूंजीवाद के विकास क्रम के वर्तमान मानदंड के तौर पर भारत आज विश्व में सबसे उर्वर माना जा रहा है। दुनिया भर में तैर रही करीब 300 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की सरप्लस पूंजी का मुंह भारत की ओर है लेकिन इस दौर में भी भारत में फैली दानवाकार सामाजिक विषमता का आकलन करता लेख
इस बात को शायद ही कोई विवेकशील व्यक्ति नकारेगा कि आजादी पाने के बाद छ: दशकों में भारत ने भारी तरक्की की है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था स्वतंत्र और काफी हद तक संतुलित है। वह उस स्थिति से निकल चुकी है जब वह ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का दुमछल्ला थी और उसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल और खनिज पदार्थ प्रदान करना तथा ब्रिटिश उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराना था। वह बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है। आर्थिक संवृद्धि की दर नौ प्रतिशत के वार्षिक आंकड़े को पारकर चुकी है और सब ठीक ठाक रहा तो वह दस प्रतिशत पर पहुंच जाएगी। आजादी के बाद से अब तक जनसंख्या में ढाई गुनी बढ़ोत्तरी के बावजूद खाद्यान्न उत्पादन लगभग चार गुना अधिक है। अकाल अतीत की बात बन चुका है। देश में भारी उद्योगों और पूंजीगत वस्तुएं बनाने वाले उद्यमों की कोई कमी नहीं है। देश महामारियों से लगभग मुक्त है तथा इलाज की बेहतर सुविधाएं मौजूद हैं। देश में तकनीकी शिक्षा प्राप्त लोगों की एक बड़ी जमात है। आधुनिकतम शिक्षण संस्थाएं पढ़ाई-लिखाई और शोधकार्य को लेकर विश्वभर में प्रशंसा पा रही हैं।
उपर्युक्त उपलब्धियों के बावजूद कतिपय खामियां हैं जिनको दूर करने के लिए जल्द कदम उठाए जाने चाहिए नहीं तो हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती है। आजादी की लड़ाई के समय से ही यह वादा बार-बार दुहराया जाता रहा है कि स्वतंत्रता के बाद समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता तथा क्षेत्रीय असंतुलन को यथा संभव कम करने के लिए कदम उठाए जाएंगे। कहना न होगा कि इस वादे को पूरा करने में हमारा गणतंत्र विफल रहा है और जब ये भूमंडलीकरण के तहत आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ है तब से विफलता का रूप भयावह होता जा रहा है। नक्सली आंदोलन, 'मुंबई, मुंबई वालों के लिए' का नारा, असम में हिन्दी भाषी लोगों की हत्याएं आदि किसी न किसी तरह इसी विफलता को इंगित करते हैं। अपहरण, हत्या, डकैती, भ्रष्टाचार आदि में वृद्धि के पीछे भी यही तथ्य किसी न किसी रूप में है।
अभी चंद हफ्ते पहले एशियाई विकास बैंक की एक रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है कि 1980 तक भारत की आर्थिक संवृद्धि की दर अपेक्षाकृत धीमी थी और सामाज में आर्थिक विषमता भी कम थी। इस आर्थिक विषमता में बहुत कम वृद्धि हो रही थी। किन्तु 1990 के दशक से आर्थिक संवृद्धि की दर के बढ़ने के साथ ही आर्थिक विषमता में तेजी से वृद्धि हो रही है। उसने रेखांकित किया है कि इस बढ़ती आर्थिक विषमता का आधार यह पारंपरिक मान्यता नहीं हैकि धनी पहले की अपेक्षा अधिक धनवान और गरीब अधिक निर्धन हो रहे हैं। वस्तुत: दोनों धनवानों और गरीबों को आर्थिक संवृद्धि का फायदा मिल रहा है मगर गरीबों की तुलना में धनवानों को आर्थिक संवृद्धि के फल में लगातार अधिकाधिक हिस्सा मिलता जा रहा है। इसका असर इस तथ्य से उजागर होता है कि जहां सबसे धनी बीस प्रतिशत भारतीय परिवारों के केवल पांच प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन वाले हैं वहीं सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों में यह अनुपात 28 प्रतिशत है। कहना न होगा कि इस अंतर का मुख्य कारण आय की विषमता है।
आज जब हम अपने गणतंत्र की महानता और जनतांत्रिक उपलब्धियों की चर्चा करते नहीं थकते हैं तब हमें नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी तीस करोड़ भारतीय गरीबी में जी रहे हैं और 40 करोड़ अपना नाम भी नहीं लिख सकते यानी पूरी तरह निरक्षर हैं।
प्रतिष्ठित अमेरिकी समाचार पत्र 'वाशिंगटन पोस्ट' (20 अगस्त) के अनुसार बहुराष्ट्रीय निगमों और आउटसोर्सिंग से जुड़ी भारतीय कंपनियों में 86 प्रतिशत प्रौद्योगिक कर्मी उच्च जातियों और धनी मध्यवर्ती जातियों के हैं। दलित जातियों तथा अति पिछड़े वर्गों के इक्के-दुक्के ही हैं। इतना ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों में भी उच्च जातियों का वर्चस्व है क्योंकि साधन संपन्न होने के कारण वे ही आधुनिक शिक्षा सुविधाओं का लाभ उठाते हैं और कार्य एवं शिक्षा के लिए जरूरी वीजा तथा हवाई यात्रा का खर्च उठा पाते हैं। इसी पत्र ने यह शोचनीय तथ्य उजागर किया है कि वर्ष 2006 में पाया गया कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मी देश के एक तिहाई दलित गांवों में नहीं जाते और 24 प्रतिशत दलितों को डाकिए चिट्ठी आदि नहीं पहुंचाते।
आर्थिक विषमता को मापने के लिए सांख्यिकी में 'गिनी गुणांक' का इस्तेमाल किया जाता है। यदि यह गुणांक 100 है तो पूर्णतया आर्थिक समानता और शून्य है तो पूर्णतया आर्थिक विषमता होती है। शून्य में सौ की और ज्यों-ज्यों बढ़ते हैं त्यों-त्यों विषमता कम होती जाती है। जहां तक भारत का सवाल है, वर्ष 1993 में गिनी गुणांक 32.9 था जो 2004 में बढ़कर 36.2 हो गया। कहना न होगा कि हमारे यहां आय की विषमता काफी है और उसमें ग्यारह वर्षों में मामूली सी कमी आई। इस स्थिति को तभी बदला जा सकता है जब सरकार की भूमिका कारगर हो और वह धनवानों से पैसे करों के जरिए प्राप्त कर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर पैदा करने पर खर्च करे। ऐसा हो सकेगा इसमें संदेह है क्योंकि वाशिंगटन आम राय पर आधारित भूमंडलीकरण के तहत वर्ष 1991 से लागू किए गए आर्थिक सुधार कार्यक्रम राज्य की भूमिका को बढ़ाए जाने के विपरीत हैं।
हमारे यहां आर्थिक विषमता कई रूपों में दिखती है। शहरों और गांवों के बीच विषमता है। शहरी लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं ग्रामीण जन की अपेक्षा कहीं अधिक प्राप्त हैं। इतना ही नहीं, बल्कि शहरों में रोजगार के अवसर विविध रूपों में विद्यमान हैं जबकि गांवों में रोजगार के अवसर कृषि कार्य से मुख्यरूप से जुडे होते हैं जिससे वे न तो पूरा वक्री होते हैं और न ही मजदूरी की दर ऊंची होती है। इसके अतिरिक्त गांवों में जातिगत भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है जब कि शहरों में इस प्रकार के भेदभाव बहुत कम दिखते हैं। साथ ही धनी और गरीब राज्यें के बीच आय की विषमता के चरित्र में फर्क होता है। हरियाणा, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि में बसने वाले गरीब इतने बेहाल नहीं हैं जितने उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहने वाले। पूर्वोतर राज्यों में नए देशी-विदेशी निवेश आ रहे तथा वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन की क्षमताओं का निर्माण होने से रोजगार के नए अवसर खुल रहे हैं। इतना ही नहीं, वहां प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं की स्थिति बेहतर है तथा स्वास्थ्य सेवाएं भी सार्वजनिक क्षेत्र में अच्छी स्थिति में हैं। राज्य द्वारा नए सार्वजनिक उपक्रमों को लगाने से हाथ खींचने तथा अनेक स्थापित उपक्रमों को बेचने के कारण रोजगार के अवसरों की उपलब्धता घटी है। सेवाओं के क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर आए या आ रहे हैं उनका लाभ उन्हें ही मिल रहा है जिनके पास उच्च शिक्षा और कौशल है जिन्हें धनवानों के बच्चे ही आमतौर से प्राप्त कर पाते हैं।

आर्थिक भूमंडलीकरण और न्याय तक पहुंच - उपेंद्र बख्शी

एक ऐसे दौर में जब राजनीति बाजार को बढ़ावा दे रही है और न्यायपालिका भी खुद को उसी सांचे में ढाल रही है, ऐसे में गरीबों के लिए तो कोई अवसर हीं नहीं बचा है। राजनीति और न्यायपालिका बाजार अर्थव्यव्यवस्था की जरूरतें पूरी कर रही हैं ताकि अरबपतियों के और ज्यादा अमीर बनने के 'अधिकारों' की रक्षा हो सके तो दूसरी ओर गरीब और ज्यादा गरीब बने रहें। 'बाजार अर्थव्यवस्था में समान भागीदारी और समानता' पर इंडियन लॉ इंस्टीटयूट के गोल्डन जुबली समारोह में उपेंद्र बख्शी का व्याख्यान ................

'बाजार अर्थव्यवस्था' जैसी है, वैसी दिखती नहीं है। इसे पूरी तरह समझने के लिए हमें उत्पादन और प्रलोभन में अंतर समझना होगा। उत्तर आधुनिक काल के फ्रांसीसी विचारक ज्यां ब्रादिया ने अपने एक निबंध 'द मिरर ऑव प्रोडक्शन' में इस अंतर को स्पष्ट किया है : उत्पादन अदृश्य वस्तुओं को दृश्य बनाता है और लालच दृश्य वस्तुओं को अदृश्य कर देता है, हमें निश्चित रूप से यह सवाल उठाना चाहिए कि आज के 'सुधारों के युग' में भारतीय संविधान ने क्या बनाया, जिसे लालच ने बिगाड़ दिया।
संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के बीच कई अंतर्विरोधों को पठनीय बना दिया, आंबेडकर ने भी 'विरोधाभासों से भरा जीवन' पर अपने भाषण में सर्वोच्च न्यायालय की भरपूर प्रशंसा की। उपनिवेशी शासन से मुक्त होने के बाद भारत में अन्तर्विरोधों से भरे समान सामाजिक विकास के मूल्यों की ञेषणा के साथ संविधान में अनुच्छेद 31 के तहत 'संपत्ति का अधिकार' भी जोड़ दिया गया।
अगर हम संविधान में किये गए 1 से 44 तक के संशोधनों और न्यायालय द्वारा की गई व्याख्याओं पर नजर डालें तो हमें यह साफ दिखाई देगा कि किस तरह राज्यों के नियमों के तहत भागीदारी और समानता के नाम पर उत्पादन के साधनों पर निजी संपत्ति अधिकार लागू कराने की कोशिशें की गईं। पर अन्त में 44वें संविधान संशोधन द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया, सच में खत्म हुआ या फिर इसे संवैधानिक अधिकार के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। यहां मैं यह पूरी कहानी बयां करने नहीं जा रहा हूं, बल्कि यह याद दिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि संवैधानिक व्याख्या के पहले दशकों में सर्वोच्च न्यायालय ने जो कुछ भी कहा था अब वह अपने ही दिये गए फैसलों से मुकर रहा है। पहले दिये गए फैसलों में मौलिक अधिकारों के सामने सभी करारों और संपत्ति को नगण्य बताया था। मैं ऐसे पांच उदाहरण दे सकता हूं, जिसमें न्यायालय का बदला हुआ रूप साफ दिखाई देता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मूल्य, गरीब और पिछड़े लोगों के मौलिक अधिकार, नीति-निर्देशक तत्व और नागरिकों के मूल कर्तव्य सब कुछ नीति-निर्माताओं और न्यायाधीशों ने मिलकर खत्म कर दिया है। हमारे नीति- निर्देशक तत्व खासतौर पर संवैधानिक विकास की तस्वीर बनाने के लिए संविधान में रखे गए थे जो आज के आर्थिक सुधारों के दौर में फिट नहीं हो रहे हैं।
एक समारोह में भाग लेते समय, बहुत से लोगों ने हमारे से यह सवाल पूछा कि क्या भारतीय कानूनी शिक्षा, शोध, व्यवसाय और यहां तक कि न्यायपालिका वैश्विक बाजार की जरूरतों को पूरा कर पाएगी?
सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूंगा कि 'न्याय तक पहुंच' (एक्सेस टू जस्टिस) शब्द उतना ही रहस्यवादी है जितना कि 'वैश्विक अर्थव्यवस्था'। जिन लोगों ने डब्ल्यूटीओ की विफल हुई दोहा वार्ताओं को देखा है वे जरूर इस बात से सहमत होंगे। इस वार्ता में 'नॉन एग्रीकल्चर मार्केट एक्सेस' (नामा)भी शामिल था, जिसका मुख्य लक्ष्य था कि मुक्त बाजार पर सभी प्रकार के शुल्क संबंधी और गैर शुल्क सम्बंधी प्रतिबंधों को सभी देश हटा लें। जैसा कि हम सभी को पता है कि 'अमेरिका की जीरो टैरिफ कोएलिशन' जिसके एक कर्मचारी डॉव केमिकल्स से थे, ने मांग की कि बहुत से क्रूशियल सेक्टरों में जीरो टैरिफ कर दिया जाए। इनमें खेल का सामान, खिलौने, लकड़ी की मशीनें और लकड़ी का सामान भी शामिल था। कुछ आलोचकों ने नामा को कंपनियों के लिए एक ऐसा स्वप्निल वाहन बताया जो पूरी दुनिया में करों और नियमों को कुचल रहा है। जैसा कि हमें पता है जी-90 ने भी खतरे के लिए भय व्यक्त किया था कि कहीं मुक्त अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता छोटे उद्योगों और छोटी फर्मों को खत्म न कर दे। उन्हें यह भी डर था कि जीरो टैरिफ आगे चलकर अनौद्योगीकरण, बेकारी और गरीबी जैसे संकट पैदा कर देगा। वैश्विक पूंजी से प्रोत्साहित होकर 'नामा' की प्राकृतिक संसाधनों की खोज विनाश का मिशन न बन जाए।
असल में 'वैश्विक अर्थव्यवस्था' की धारणा 'वैश्विक पूंजी' द्वारा लूट के नये तरीकों को परिभाषित करती है। भूमंडलीकरण का मतलब नए तरह का उपनिवेशवाद है, इसके पुराने रूप में प्रदेशों, साधनों और लोगों पर हुकूमत साफ तौर पर दिखाई तो देती थी, लेकिन अब नए रूप में तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, सब कुछ अदृश्य रूप से हो रहा है, जो और भी ञतक है।
वर्तमान भूमंडलीकरण के कई रूप हैं, लेकिन इनमें कानूनी और न्यायिक भूमंडलीकरण की मुख्य भूमिका है। कानूनी भूमंडलीकरण में कई बाते हैं। यह कानूनी नौकरियों के लिए विश्व बाजार में एक 'प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति बनाता है और महानगरीय कानूनी व्यवसाय को आधुनिक भी बनाता है। इस प्रक्रिया में कुछ प्रतिष्ठत राष्ट्रीय लॉ स्कूलों के वाइस-चांसलर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे संवैधानिक बदलाव, आर्थिक नीति और कानून में सुधार आदि के मामलों में सलाह देने के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों को कॉरपोरेट ढंग से काम करने के लिए भी तैयार करते हैं।
कानूनी भूमंडलीकरण नए कानूनी सुधार के एजेंडे को भी व्यक्त करता है जो आर्थिक भूमंडलीकरण के तीन 'डी' डीनैशनलाइजेशन (विराष्ट्रीयकरण), डिस-इंवेस्टमेंट (विनिवेश) और डीरेग्युलेशन (विनियमन) को साकार कर रहा है। इस एजेंडे में खासतौर पर नई कार्यान्वयन संस्थाओं, प्रक्रियाओं, और संस्कृतियों को अपने ढंग से मोड़ना, विवादों के वैकल्पिक निर्णय पर जोर देना, निवेश और व्यावसायिक कानूनों को सरल बनाना है। इसका झुकाव 'श्रम बाजार' के लचीलेपन को बढ़ावा देने की ओर है। कानूनी सुधारों में न्यायिक प्रशासन की कार्यकुशलता खासतौर पर नई आर्थिक नीति का यंत्र नजर आती है। 'फॉर ग्लोबलाइजेशन' नाम की इस प्रक्रिया ने कई महत्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन किये हैं, जैसे- रोजगार गारंटी योजना अधिनियम, बाल श्रम कानूनों को लागू करना, उपभोक्ताओं के अधिकारों की सुरक्षा-व्यवस्था और सूचना का अधिकार। संक्षेप में कहें तो कानूनी भूमंडलीकरण्ा भारत के नए उभरते मध्य वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ जरूरतों को बढ़ावा भी दे रहा है।
मुझे यकीन है कि इस नए विषैले न्याय की वैश्विक सामाजिक उत्पत्ति पर सवाल जरूर उठेंगे कि वैश्विक स्तर पर न्याय पर बात करने वाले कौन से दबाव, मैनेजर और एजेंट हैं? हम उनकी असली मंशा कैसे जान सकते हैं? मुझे तो यह बिल्कुल साफ नजर आ रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय और प्रांतीय वित्तीय संस्थाएं, अमेरिका, यूरोपीय संञ्, जापान और बुरी तरह से ञयल हुआ डब्ल्यूटीओ, इनका एक ही मकसद है कि तीसरी दुनिया के श्रम और पूंजी बाजार में ञ्ुसपैठ करना ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों के लिए साफ-सुरक्षित रास्ता तैयार हो सके।
न्यायिक भूमंडलीकरण के संदर्भ में मैं 'एक्सेस' शब्द के दु:खद पहलू पर रोशनी डालना चाहता हूं। न्यायिक भूमंडलीकरण विषय पर उपलब्ध थोड़े बहुत साहित्य से यह पता चलता है कि यह दुनिया के शीर्ष न्यायालयों और न्यायाधीशों के बीच सौहार्द और सहयोग की नयी व्यवस्था है। पहली नजर में, इस बात पर प्रश्न उठता है कि शीर्ष न्यायाधीशों को एक दूसरे के साथ मिलकर उनकी उपलब्धियों को जानना चाहिए या फिर उन्हें राष्ट्रीय और वैश्विक न्याय के कामों का पालन करते हुए 'सहकारी समाज' बन जाना चाहिए। अक्सर साधारण सी दिखने वाली बातों में कुछ बड़ा एजेंडा छिपा होता है। न्यायिक सौहार्द अक्सर आधिपत्य और कभी-कभी तो सामान्य प्रभुत्व में रंगा होता है।
उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस कांड में जज कीनान ने कहा कि यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के कारण हुए महाविनाश की इस जटिल परिस्थिति के बारे में निर्णय लेने में 'भारतीय न्यायालय' सक्षम नहीं है। इस सारे प्रकरण्ा में खास बात यह थी कि हानि के लिए भरपाई 'शेष प्रक्रिया' पूरी होने पर ही की जाएगी और यह कार्रवाई भारत के 'स्माल कॉजिज कोर्ट' निचली अदालतों की बराबरी करने वाले 'न्यूयॉर्क' कोर्ट द्वारा की जाएगी और उसी कोर्ट को कहा गया है कि वह निर्णय ले कि इस सबके लिए भारतीय सर्वोच्च न्यायालय योग्य है या नहीं? संक्षेप में, न्यायिक भूमंडलीकरण का मतलब है दक्षिण के सर्वोच्च न्यायालयों पर उत्तर के न्यायालयों का प्रभुत्व।
'गुड गवर्नेंस' की धारणा भी न्यायिक भूमंडलीकरण का ही रूप है, जिसमें सरकारी और अंतर्शासकीय सहायता और विकास एजेंसियों के तहत निर्णय में सुधार शामिल है। ऐसी खास एजेंसियां अक्सर कानूनी सुधारों और न्यायिक प्रशासन को अपने हाथ में ले लेती हैं और उन्हें अपनी ही आर्थिक और स्ट्रेटेजिक जरूरतों के मुताबिक ढाल लेती हैं। खासतौर पर व्यापारिक उदारीकरण, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, कम्पनी टाउन की स्थापना, मुक्त व्यापार आर्थिक क्षेत्र और लचीला श्रम बाजार जैसे मामलों में न्यायिक रूप से स्वयं को नियंत्रित करने को बढ़ावा देती हैं।
'ढांचागत समायोजन' एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके तहत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं सहारा लेकर उन देशों की आजादी को निगल रही हैं जो कभी साम्राज्यवादी ताकतों के गुलाम रह चुके हैं। यह व्यवस्था न्यायिक शक्ति सामर्थ्य और प्रक्रिया से भी परे है। मुझे तो लगता है कि विश्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, यूएनडीपी और इनसे जुड़े 'गुड गवर्नेंस' के कार्यक्रम सभी 'न्यायिक सक्रियतावाद' को बढ़ावा दे रहे हैं। ये सभी न्यायिक व्याख्याओं फैसलों और शासन के सभी रूपों को बाजार सहयोगी और व्यापार-संबंधी बनाना चाहते हैं। न्यायिक नीति की आधार 'मैक्रो-इकॉनोमिक पॉलिसी' से जुड़े न्यायिक प्रतिबंधनों को पहले से ही 'हाइपर- ग्लोबलाइज' हुए 'इंडियन एपिलेट बार' ने अपने ढंग से ढाल दिया है। न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया का जो हाल है उसने तो 'भारतीय भूमंडलीकरण के आलोचकों' के मनों से न्यायपालिका के प्रति सम्मान ही खत्म कर दिया है।
संक्षेप में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि न्याय सुलभता (न्याय तक पहुंच विषय पर विचार) समस्या बनी रहेगी, समाधान नहीं। इसका हल ढूंढने के लिए कुछ सवालों के जवाब खोजने होंगे- हम ज्यूडिशियल एक्सेस को ही डी-ग्लोबलाइज कैसे कर सकते हैं, जबकि देश में समुद्रपारीय पूंजी से कामगार वर्ग की जीविका और सम्मान के अधिकारों पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता? हम यह कैसे मान सकते हैं कि नए ग्लोबल शहरों और सेज जैसे एंक्लेव को बनाकर विस्थापित और पीड़ित शहरी लोगों को पहले जैसे ही मानव अधिकार बहाल किये जाएंगे? हम अपने लोकतंत्र और संविधान में गुड गवर्नेंस' जैसी बाहरी उधार ली हुई धारणा को कैसे अपना सकते हैं? निर्वाचित और गैर- निर्वाचित (न्यायाधीश) अधिकारियों के शासन में नई आर्थिक नीति निष्पक्ष मानव अधिकारों को लागू करने में कितनी प्रभावशाली साबित होगी, हम कैसे न्यायपालिका की गरिमा को फिर से वापस ला सकते हैं? अंत में मैं ज्याँ फ्रास्वाँ ल्योता के शब्दों को दोहराना चाहूंगा। उन्होंने कहा था : ''हम इतिहास के उन सबसे बुरे प्रभावों को खोजने के लिए जरूरतों के आधार में गिरावट को कैसे समझ सकते हैं, जो सच्चाई की पूरी और कठोर तस्वीर के निर्माण का विरोध करते हैं... (जो केवल सुनते हैं)... अस्पष्ट भावनाओं, नेताओं के दम्भ, कामगारों का दुख, किसानों का अपमान और शासित लोगों का गुस्सा और विद्रोह की ञ्बराहट, यही ञ्बराहट फिर से वर्गीय अव्यवस्था को दावत देती है। ''जस्टिस गोस्वामी ने एक बार सर्वोच्च न्यायालय के बारे में कहा था कि यह ञ्बराए और सताए लोगों का आखिरी सहारा है। शायद ग्लोबलाइज हुए भारतीय न्यायालय को फिर से अपनी खोई न्यायिक गरिमा को बरकरार रखने की जरूरत है। (पीएनएन- काम्बैट लॉ)

न्यायपालिका में सुधार जरूरी -प्रशांत भूषण

आज का एक बड़ा सच है कि हमारी न्याय व्यवस्था अमीर पक्षधर हो गयी है, ऐसे में गरीबों को न्याय बमुश्किल ही मिल पाता है। यही कारण है कि आज गरीबों के अधिकार छीने जा रहे हैं और देश के धनी कानून का उल्लंघन कर रहे हैं। देश के ज्यादातर लोगों के लिए न्यायपालिका, न्याय के माध्यम के रूप में काम नहीं कर रही है. ऐसा लगता है कि न्यायपालिका का एक बड़ा हिस्सा इसके उलट उन व्यापारिक हितों के पक्ष में काम कर रहा है जो सरकार को अपने इशारों पर नचा रहे हैं। यही वजह है कि जब शक्तिशाली लोगों या सरकार द्वारा गरीबों के अधिकार कुचले जाते हैं तो न्यायपालिका के आदेश भी अक्सर उन अधिकारों को बहाल करने की बजाय गरीबों को अधिकारों से वंचित करते हैं। हाल में हुए कुछ फैसलों पर नजर डालें तो पता चलता है कि अदालतों का दृष्टिकोण तो कॉरपोरेट हितों के हिसाब से चल रही सरकार के रवैये से भी ज्यादा तंग हो गया है, गरीबों पर रोज होने वाले जुल्म और अन्याय से न्यायपालिका को कोई फर्क नहीं पड़ता।
देश की बड़ी आबादी गरीब है और जिसकी न्यायिक व्यवस्था तक पहुंच ही नहीं है। जटिल न्याय व्यवस्था, बड़े खर्चे के चलते हमारी न्याय व्यवस्था देश के आधे से अधिक गरीबों की पहुंच से बाहर है। न्यायाधीश वकीलों के बिना कानून की भाषा भी नहीं समझ सकते और वकीलों को देने के लिए उनके पास मोटी रकम भी नहीं होती। आज की शासन व्यवस्था में कोई गरीब न तो अपना बचाव कर सकता है और न ही माफी की उम्मीद कर सकता है। यही कारण है कि ट्रायल के दौरान जितना समय वह सलाखों के पीछे गुजार देता है, वह सजा वास्तविक गुनाह की सजा से कहीं ज्यादा होती है।
न्यायाधीशों की गरीब विरोधी विचारधारा और एक समूह विशेष के हितों का ध्यान रखने वाली नीति, कानून तक गरीबों के न पहुंच पाने से भी ज्यादा शर्मनाक है। कभी-कभी तो इनके फैसले इतने गरीब विरोधी होते हैं कि उद्योग घरानों के एजेंट के रूप में काम कर रही सरकार को भी पीछे छोड़ देते हैं। जब-जब गरीबों की अस्मिता को खतरा होता है, न्यायालय इन मामलों में सुनवाई नहीं करता और दूर से ही तमाशा देखता है। जब गरीब की रोटी (आजीविका) को छीन लिया जाता है तो न्यायालय पुनर्वास के लिए कोई आदेश नहीं देता और न ही उनके मामलों की सुनवाई करता है। न्यायालय के पास झुग्गियों को उजाड़ने के बहाने कई होते हैं, कभी तो इन्हें गैरकानूनी बताकर उजाड़ा जाता है और कभी यह कहकर कि ये यमुना के किनारे हैं, या इनसे पर्यावरण को खतरा है गरीबों को बेघर कर दिया जाता है। दूसरी ओर जब इन्हीं यमुना के किनारों पर 'शॉपिंग मॉल' व 'अक्षरधाम मंदिर' बनाए जाते हैं तो न्यायालय सभी फिल्मी डायलॉग भूल जाता है। इसी तरह फेरीवालों और रिक्शा चालकों के प्रति न्यायालय हमेशा बेरहम ही रहा, उनकी रोजी-रोटी का कोई इंतजाम किए बिना न्यायालय ने इन्हें गैरकानूनी करार दे दिया।
न्यायपालिका ने 'श्रम सुरक्षा कानून' को धीरे-धीरे खत्म कर डाला और उसने 'कॉन्ट्रेक्ट श्रम अधिनियम' को लागू करने से मना कर दिया। इन्हीं अधिनियमों में चतुराई के साथ व्यावसायियों के हित में फेरबदल कर लागू कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने तो एक फैसले में यहां तक कहा कि श्रम कानून को सरकार द्वारा बनाई गई आर्थिक नीतियों के अनुसार ही होना चाहिए। ऐसा कह कर सर्वोच्च न्यायालय ने वह कर दिखाया जो संसद में अपना चेहरा बचाने को ही सरकार शायद कभी नहीं कर पाती।
इसी तरह का एक और पक्षपात भरा रवैया गरीबों के प्रति भी देखने को मिला जब हमने नागरिक अधिकारों से जुड़े मामलों में कोर्ट के आदेशों का विश्लेषण किया। अक्सर गरीब और कमज़ोर तबके के लोगों की ज़मानत याचिकाओं पर सालों सुनवायी नहीं होती जबकि शक्तिशाली और पैसेवालों के मामले, जिनकी पैरवी बड़े वकील कर रहे होते हैं, पर तुरंत कोर्ट की नज़रें इनायत हो जाती हैं। यहां तक कि विनायक सेन जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के प्रति भी कोर्ट का रवैया ढुलमुल रहा और उनकी ज़मानत याचिका रद्द कर दी गयी जबकि तस्करों और सफेदपोशों को ज़मानत देने में कोई हिचक नहीं दिखाई।
देश के नागरिकों के लिए वक्त आ गया है कि वे अपने न्यायिक तंत्र की फिर से समीक्षा करें. एक जनप्रिय न्यायिक तंत्र वह है जिसकी आम नागरिक तक पहुंच बिना किसी पेशेवर वकील की मध्यस्थता के हो सके। क़ानून और इसकी प्रक्रियाएं सरल होनी चाहिए ताकि ये आम लोगों की समझ में आसानी से आ सके और लोगों तक इसकी पहुंच भी बढ़ सके। कोर्ट की कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए और इसके आंकड़े सूचना का अधिकार क़ानून के तहत आम नागरिक को सुलभ होना जरूरी हो। हाल ही में प्रस्तावित ग्राम न्यायालय इस दिशा में सही क़दम प्रतीत होता है।
सबसे महत्वपूर्ण है जन अदालतों को संचालित करने वाले जजों की नियुक्तियों में पारदर्शिता, जिसमें जनता की सहभागिता सबसे ज्यादा हो। यह देखना होगा कि जिस व्यक्ति की नियुक्ति की जानी है उसका सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण हमारे संविधान के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से मेल खाता है या नहीं और साथ ही उसके मन में गरीबों के प्रति गहरी समझ और संवेदना भी होनी चाहिए। इसके लिए हमें एक न्यायिक नियुक्ति आयोग की दरकार है जिसके सदस्य जज न हों। इसमें जनता की पूर्ण भागीदारी की इजाजत हो जो कि लोकतंत्र का मूलभूत आधार भी है।
न्यायाधीशों के आचरण, अपराध, मूल्यांकन, मामलों से निपटने के तरीकों आदि पर पैनी नजर रखने के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था होनी चाहिए। एक ऐसे स्वतंत्र न्यायाधिकरण की स्थापना करनी पड़ेगी जो न्यायाधीशों के बर्ताव की जांच करे और इन पर कड़ी नजर रखे। अक्सर सरकार के आधिकारिक सम्मेलनों में भी स्वीकार किया जाता है कि न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर है। बहरहाल सिर्फ निर्णय देने की गति को बढ़ा कर गरीबों के लिए प्रभावी न्यायिक तंत्र नहीं बनाया जा सकता. इसके लिए हमें पूरी व्यवस्था को फिर से खड़ा करना होगा. ऐसे क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए देश में एक सशक्त जन आंदोलन की आवश्यकता होगी. यद्यपि यह अभी काफी दूर की बात है लेकिन इस मुद्दे पर जनता के बीच बहस-विचार की शुरुआत होनी चाहिए। अब तो वर्तमान न्यायिक तंत्र की बड़ी शल्य क्रिया की आवश्यकता है। (पीएनएन)

माकपा को नंगा करती केरल में चेंगेरा की जमीनी लड़ाई -मीनाक्षी अरोरा

केरल के पतनमदित्ता जिला के ब्लाक कोनी में चेंगेरा प्लांटेशन क्षेत्र में 5000 दलित परिवारों ने सत्तारूढ़ सीपीएम सरकार के 'भूमि सुधार' कार्यक्रमों के ऊपर सवाल उठाते हुए 'हेरीसेन मलयालम' को दी गयी प्लान्टेशन की हजारों एकड़ भूमि पर अगस्त 2007 में अपना कब्जा कायम कर लिया है। आखिर इतने वर्षो से इन दलित परिवारों के बीच यह आस बनी हुई थी कि केरल में हुए बेहतरीन भूमि सुधार कार्यक्रमों का लाभ उन्हेें भी मिलेगा। परन्तु यह ख्वाब, ख्वाब ही रह गया तथा खेतिहर मजदूरों और प्लान्टेशन मजदूरों को भूमि सुधार कार्यक्रमों से सुनियोजित ढंग से बाहर रखा गया।
चेंगेरा के हेरीसन मलयालम एस्टेट, जिसे लाहा एस्टेट भी कहा जाता है, में पिछले चार महीनों से जमीनी हक के लिए संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष उन 5,000 परिवारों का है जो खेती की जमीनों पर अपना हक मांग रहे हैं। इन सबने मिलकर लाहा एस्टेट में एक प्रतिज्ञा ली है, जिसे 'चेंगेरा प्रतिज्ञा' का नाम दिया है। केरल के पथनमदित्ता जिले के चेंगेरा में बेघर दलितों और आदिवासियों ने 4 अगस्त 2007 को यह संघर्ष शुरू किया था।
बंगाल में नन्दीग्राम और केरल में चेंगेरा, दोनों ही प्रदेशों में सीपीएम की हुकूमत और दोनों ही प्रदेशों में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों, महिलाओं की जमीन पाने के लिए भूमि सुधार की मांग जंग के साथ जारी है। जहाँ एक ओर नन्दीग्राम में वाम सरकार ने अपने ही सिध्दान्तों, नीतियों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास बतौर गिरवी रख दिया है तथा विकास की नई परिभाषा ''कृषि नहीं औद्योगिक विकास'' की व्याख्या की है, वहीं चेंगेरा में दलितों ने भूमि पर दखल कर ठीक इसके विपरीत विकास को पुन: परिभाषित किया है।
जमीन के मालिकाना हक के लिए सरकार की वादा खिलाफी की वजह से आंदोलनरत 20,000 से ज्यादा लोगों ने हेरीसन मलयालम प्राइवेट लिमिटेड एस्टेट में घुसकर रहना शुरू कर दिया है। उनकी मांग है कि खेती की जमीनों का मालिकाना हक हेरीसन कंपनी से लेकर उन्हें दिया जाए। 'साधुजन विमोचना संयुक्तवेदी संघर्ष समिति' संघर्ष का नेतृत्व कर रही हैं।
मानवाधिकार कार्यकर्ता रोमा कहतीं हैं कि इन दलित परिवारों ने राजसत्ता को सीधे-सीधे चुनौती दे दी है कि या तो हमें जमीन दो, नहीं तो गोली। इस आन्दोलन में बड़ी तेज़ी से और भी दलित परिवार शामिल होते जा रहे हैं जो ''हेरीसन मलयालम'' कम्पनी को लीज पर दी गयी रबर प्लान्टेशन वाली भूमि को लेकर सवाल उठा रहे हैं। ये दलित परिवार भूखे, प्यासे मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों से भी जुझते हुए अपने सर्ंञ्ष को जारी रखे हुए हैं। इनके सर्ंञ्ष को रोकने के लिए पुलिस ने चारों ओर से नाकेबंदी कर दी है। बीमार लोग अपना इलाज कराने अस्पताल तक नहीं जा सकते। बच्चे संघर्ष के चलते अपने बुनियादी मौलिक-अधिकार यानि शिक्षा से भी वंचित है, अन्य मूलभूत सुविधाओं का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
केरल देश का ऐसा प्रदेश है जहां प्रति व्यक्ति आय रु 25,764 है, यही एक ऐसा प्रदेश है जहां पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 1058 है जो कि देश में सबसे ज्यादा बेहतर है। जीडीपी 9.2.फीसदी है जो कि देश में सबसे ज्यादा है। लेकिन क्या केरल के दलित, आदिवासी एवं अन्य गरीब तबके भी इस तथाकथित 'केरल शाइनिंग' की गिनती में कहीं आते हैं ? चेंगेरा में आकर ऐसा बिल्कुल प्रतीत नहीं होता। 1966 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार केरल में 10 लाख एकड़ भूमि आबंटन हेतु उपलब्ध थी, परन्तु अभी तक 4 लाख एकड़ भूमि ही भूमिहीनों को आबंटित हो पायी है, दलितों के पासभूमि औसतन0.43 एकड़ है जबकि अन्यों के पास 0.86 एकड़ है।
यह आंदोलन अभी तक हमलों, धमकियों, अकाल, आपदाओं और भूख की मार झेल रहा है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और एस्टेट के कामगारों की धमकियों के बावजूद भी बेघर दलित और आदिवासी परिवार एस्टेट में डटे हुए हैं। हैरीसन कंपनी ने यह जमीन 99 सालों के लिए पट्टे पर ली थी। अब उसकी समय सीमा खत्म होने के बावजूद भी कंपनी जमीन पर अपना कब्जा जमाए हुए है। इसीलिए स्थानीय लोग तुरंत उस जमीन को वापस लेना चाहते हैं। इतना ही नहीं कंपनी ने असल में जितनी जमीन पट्टे पर ली थी उससे 1048 एकड़ से भी ज्यादा पर कब्जा कर लिया है। एसजेवीएसबी के अध्यक्ष लाहा गोपालन ने बताया कि यह जमीन वहां के स्थानीय जमींदार ने एक परिवार को केले की खेती के लिए34 सालों के लिए पट्टे पर दी थी। जब इस परिवार ने हैरीसन कंपनी को यही जमीन 99 सालों के लिए पट्टे पर दे दी तो पहले वाला समझौता खत्म हो गया था। कंपनी ने 6000 हेक्टेयर के लगभग अतिरिक्त जमीन अपने कब्जे में ले ली है।
बड़े अफसोस की बात है कि हाल में सामाजिक विकास के क्षेत्र में केरल की लोक प्रसिध्द उपलब्धियों पर जब बड़ी-बड़ी चर्चाएं की गर्इं तो गंदी, अस्थायी झोपड़ियों, फुटपाथों पर रहने वाले बेघर लोगों का कहीं कोई जिक्र तक नहीं आया। भूमि सुधार अधिनियम, जिसे बनने के 15 साल बाद लागू किया गया था, के बावजूद भी ये बेबस लोग जमीनों से बेदखल हैं। जबकि लोगों को यही बताया जा रहा है कि केरल में जमीन के सवाल को लेकर होने वाली समस्या को सुलझा लिया गया है। 1970 के भूमि सुधार का केंद्र भी छोटे किसान और खेतिहर मजदूर थे, लेकिन इन दलितों और आदिवासियों को तो उससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ।
अब तो आलम यह है कि जमीन सहित सभी संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना कब्जा जमाए हुए हैं। पिछले दस सालों में बनी नीतियों और कानूनों ने जमीन पर कंपनियों को कब्जा देने में विशेष भूमिका निभाई है, अगर जमीन के सवाल को दलितों और आदिवासियों के इज्जत से जीने के अधिकार से जोड़कर देखा जाए तो तथ्य साफ तौर पर उभरकर आते हैं कि राज्य कहां खड़ा है?
चेंगेरा के दलित लोगों को सत्तारूढ़ वामदल के एक्टिविस्ट लगातार धमकियां दे रहे हैं। इनमें सीपीआई-एम की व्यापार संघ संगठन सीटू (सीआईटीयू) भी शामिल है। सीटू ने दावा किया है कि अगर पुलिस इन लोगों को यहां से न निकाल पाई तो वह इन्हें बाहर निकाल देगा। सवाल यह उठता है कि राज्य सरकार की इस संघर्ष के संदर्भ में केरल हाईकोर्ट में क्या प्रतिक्रिया होगी? यह भी कि सदियों से जो लोग अलगाव और मानव अधिकारों का हनन झेल रहे हैं, हक की लड़ाई की परिस्थितियों में सरकार उनके लिए क्या कर सकती है? संघर्ष को गैर-कानूनी, हिंसक और राज्य विरोधी कहने के बजाय भूमि अधिनियम को लोगों की मांगों के हिसाब से कैसे बदला जा सकता है?
चेंगेरा का यह संघर्ष कोई नया नहीं है बल्कि इसकी जड़े इतिहास तक फैली हैं। अय्यनकली ने 1907 में दलितों और आदिवासियों के लिए खेती की जमीन की मांग की थी, 90 के दशक में भी दलितों के भूमि अधिकार के लिए आंदोलन किया गया था। अब आंदोलन ने अधिकारों की परिभाषा के लिए नई राजनीति और प्रत्यक्ष कार्रवाई का रास्ता अपना लिया है।(पीएनएन)

पॉस्को नहीं हक चाहिए -सिराज केसर

सरकारों का बहुररष्ट्रीय कंपनियों के आगे झुकने का इससे गंदा उदाहरण कम ही मिलेगा। उड़ीसा सरकार ने जगतसिंहपुर जिले में 'उत्कल दिवस' (उड़ीसा के निर्माण दिवस) 1 अप्रैल को पॉस्को निर्माण दिवस के रूप में मनाने का कार्यक्रम तय किया था। 'उत्कल दिवस' को इस तरह का रूप देना लोगों को नागवार गुजरा। पॉस्को के खिलाफ आन्दोलन कर रहे लोगों ने साफ शब्दों में चेताया कि सत्तारूढ़ सरकार का यह प्रयास बिल्कुल गलत है, क्योंकि इससे मातृभूमि के जन्मदिवस की पवित्रता भंग होती है और आन्दोलनकारी इसे किसी कीमत पर सम्भव नहीं होने देगें। पॉस्को विरोधी ताकतों ने 'उत्कल दिवस' 1 अप्रैल को एकजुट होने और पॉस्को भगाने का संयुक्त संकल्प का कार्यक्रम 'बिकल्प समाबेस' के रूप में आयोजित किया।
उड़ीसा के जगतसिंहपुर जिले के ढिनकिया, गड़कुजंगा और नवगांव गांवों के लोगों के साथ 'बिकल्प समाबेस' के लिए राज्य के अलग- अलग हिस्सों से हजारों लोग बालितुथा में इकट्ठा हुए, जहां प्रशासन ने कई हफ्तों से धारा 144 लगा रखी थी। प्रशासन ने राज्य सरकार को साफ तौर पर यह संकेत दे दिया था कि ज्यादातर स्थानीय लोग अभी भी पॉस्को परियोजना का विरोध कर रहे हैं। 'बिकल्प समाबेस' कार्यक्रम में भाग लेने वालों को जगह-जगह रोका गया। लौह अयस्क प्रभावित झरसुगुड़ा क्षेत्र से आने वाले लगभग 300 लोगों को रोक दिया गया था, इनमें ज्यादातर लोग किसान थे। बावजूद प्रशासन की रोकथाम के सुकिंडा, बेरहामपुर, कालाहांड़ी, झारखंड और अन्य स्थानों से हजारों लोग वहां पहुंचे और पुलिस के सभी बैरिकेड को तोड़ दिया। उन्होंने बालितुथा तक एक बड़ी रैली निकाली और ढिनकिया, गड़कुजंगा और नवगांव के लोगों से जा मिले, जो पिछले दो साल से 'पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति' के झंडे तले पॉस्को के लिए प्रस्तावित परियोजना का विरोध कर रहे हैं। पॉस्को परियोजना से प्रभावित गांवों को प्रशासन ने पिछले दो वर्ष से अघोषित कारागर जैसा बना रखा है। उन गांवों के चारों तरफ जगह-जगह पर पुलिस की चौकियां और आने-जाने के रास्तों पर बैरिकेड लगे हुए हैं। पॉस्को परियोजना से प्रभावित गांवों को अलग-थलग करके उनकी जमीन पॉस्को को दिलवाने के लिए प्रशासन ऐसा कर रहा है।
पॉस्को विरोधी ताकतों की रैली ने पुलिस द्वारा लगाए गए बांस के बैरिकेड को हर जगह हटा दिया और प्रशासन को 'उत्कल दिवस' को पॉस्को निर्माण दिवस के रूप में मनाने के कार्यक्रम को खत्म करने पर मजबूर कर दिया तब पुलिस ने अपनी मशीनगनों से पॉस्को विरोधी रैली के पांच हजार से भी ज्यादा लोगों को डराने की कोशिश की। लेकिन इससे लोग और गुस्से में आ गए और रैली में आई महिलाओं ने पुलिस को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया और 'बिकल्प समाबेस' के लिए रास्ता बनाया। उस समय ऐसा लगा कि जैसे यहां भी एक बार फिर से कलिंगनगर जैसी विनाश लीला होगी, लेकिन प्रशासन ने समझदारी दिखाई और पुलिस पीछे हट गई।
समाबेस में कई संगठनों के लोग और बहुत से कार्यकर्ता सम्मिलित हुए और अपने भाषणों में गांव वालों की प्रशंसा की जो कई महीनों से राज्य और पॉस्को के माफिया के दबाव का सामना कर रहे थे। समाबेस को संबोधित करते हुए पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के अभय साहू ने यह भी घोषणा की कि धारा 144 की अवज्ञा और 'बिकल्प समाबेस' की सफलता इस बात की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि पॉस्को वहां नहीं बन पाएगा। उन्होंने सरकार को स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा कि अगर सरकार पॉस्को परियोजना को जारी रखती है तो इससे भी बड़ा विरोध होगा।
झारखंड और दूसरे राज्यों से आए लोगों ने भी वादा किया कि पूरा देश इरसमा ब्लॉक के उन लोगों के साथ है, जो पॉस्को का विरोध कर रहे हैं। कोरिया के मानवाधिकार आयोग और कोरियाई स्टील श्रमिक संघ भी अपने पत्रों के जरिये लगातार इस विरोध का साथ दे रहे है। उन्होंने अपने पत्रों में न केवल राज्य के दमन की निंदा की बल्कि उन सब कामों का भी खुलासा किया है, जिसमें पॉस्को ने ताकत और रिश्वत के बल पर कोरिया में भी ठीक ऐसे ही काम किए, जैसे भारत में चल रहे हैं।
'बिकल्प समाबेस' को कवर करने के लिए अलग-अलग प्रेस के लोग भी शामिल थे, यहां तक कि कुछ विदेशी पत्रकार भी शामिल थे। पर पत्रकारों का झुकाव पॉस्को के पक्ष में ही रहा। उड़ीसा के एक मुख्य समाचार पत्र ने इस बात की झूठी सूचना छापी कि महिला माओवादियों का एक दल रात में गांव में घुसा, जबकि दूसरी ओर टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे बड़े अखबारों ने इस 'बिकल्प समाबेस' को अप्रैल फूल जैसी कारस्तानी बताया और उड़ीसा निर्माण दिवस पर एक विदेशी कंपनी के मुनाफे के लिए किए जा रहे राज्य के आंतक को सही करार दे दिया। गौरतलब है कि पॉस्को द्वारा सभी बड़े प्रकाशन समूहों के पत्रकारों को विदेशी टूर पर ले जाया गया था, इसलिए इस तरह की एकतरफा रिपोर्टिंग होना जाहिर सी बात है।
लगता है नंदीग्राम और सिंगूर में हुए घटनाक्रमों से देश की तथाकथित लोकतान्त्रिक सरकारों ने कुछ सीखा नहीं है। पॉस्को जैसी परियोजनाओं का लगातार विरोध हो रहा है; वहीं केंद्र तथा राज्य सरकारें, डब्लूटीओ के दबाव में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए रास्ते और आसान कर रही हैं। उड़ीसा सरकार तथा पॉस्को के बीच जिस सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुए हैं, उसके अनुसार दक्षिण कोरियाई स्टील कम्पनीे 51 हजार करोड़ रुपए के निवेश करने जा रही है। उड़ीसा सरकार किसी भी कीमत पर इस सौदे को हाथ से नहीं जाने देना चाहती है। उड़ीसा में जिस एमओयू पर नवीन पटनायक सरकार द्वारा 22 जून 2005 को हस्ताक्षर किया गया वह एक स्टील संयंत्र और एक बन्दरगाह के लिए था। प्रस्तावित संयंत्र जगतसिंहपुर में और कच्चे लोहे की खदानें क्ेयोंझर में होंगी। इसके अतिरिक्त बन्दरगाह जटाधारी में विकसित किया जाएगा। इस समझौते में ऐसी अनेक बातें शामिल हैं जिनका सीधा असर देश की सम्प्रभुता और सुरक्षा पर पड़ता है। लेकिन विरोध की मुख्य वजह भूमि ही है। पॉस्को को अपनी परियोजना के लिए 8000 एकड़ जमीन चाहिए। परन्तु साथ ही इससे अप्रत्यक्ष रूप से 20,000 एकड़ उपजाउ जमीन, जो खनिज अयस्कों की खुर्दाई तथा कम्पनी से निकलने वाले अपशिष्ट और मशीनी गतिविधियों की वजह से प्रभावित होगी। राज्य सरकार ने पहले ही कम्पनी को 25,000 रूपये प्रति एकड़ के हिसाब से 1135 एकड़ जमीन देने का वादा किया है। इस तरह सरकार आदिवासियों की बहुमूल्य जमीन कौड़ियों के दाम पॉस्को को दे रही है। सदियों से जिस जमीन पर आदिवासी रहते आए हैं। उसे वे इतनी आसानी से सरकार को दे देंगे, इसकी संभावना कम ही लगती है। पर सरकार के अड़ियल रुख की वजह से उड़ीसा में एक और बड़ा नंदीग्राम बनने वाला है। इस संयंत्र के लगने से जिले की तीन पंचायतों नवगांव, ढिनकिया, गडकुजंगा और इरसमां ब्लाक के 30,000 लोग विस्थापित होंगे और लगभग एक लाख लोग देर-सबेर विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर होंगे।
पॉस्को तथा उड़ीसा सरकार की मिलीभगत से हो रहे इस कुकृत्य का वहाँ के आदिवासियो,ं किसानों तथा मछुआरों द्वारा जबरदस्त विरोध किया जा रहा है। युवा भारत, भारत जन आंदोलन, नवनिर्माण समिति-इरासमा, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी सहित अनेक संगठनो के विरोध में शामिल हो जाने से 'पॉस्को भगाओ' आंदोलन में तेजी आ गई है। (पीएनएन)

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