हरित क्रांति से कैंसरग्रस्त हुए पंजाबी पुत्तर
भटिंडा का भूजल नाईट्रेट से प्रभावित
भटिंडा सहित पंजाब के कई जिलों के पानी में नाईट्रेट का जहर
पंजाब के तीनों जिलों के विभिन्न गांवों से पानी के नमूनों की जांच के आधार पर ग्रीन पीस द्वारा तैयार रिपोर्ट के मुताबिक यह बात भी सामने आई कि इन जिलों में धरती के पानी में नाईट्रेट की खतरनाक मात्रा किसी कुदरती प्रकोप से नहीं बढ़ी है, बल्कि इसके लिए धरती-पुत्र (किसान) सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। जिन्होंने अपनी जमीनों में फसल की पैदावार बढ़ाने के लालच में रासायनिक खादों का अंधाधुंध इस्तेमाल किया। नतीजतन नाईट्रेट ने मिट्टी को अपना निशाना बनाने के साथ धरती के पानी को भी अपनी चपेट में
भटिंडा के पानी पर कुछ कहानियां
काश सतही रिपोर्टों से पंजाब का मालवा क्षेत्र कैंसर निष्प्रभावित हो जाए
सिराज केसर
समस्याओं की सतही रिपोर्टिंग करके लोगों के बीच जगह बनाकर उनके बेच लेने या थोड़ी वाह-वाही बटोर कर कोई पत्रकारिता का मानक तय करने का दंभ भरने लगे, तो उसका भला भगवान ही कर सकता है। अजय प्रकाश जी की रिपोर्ट ठगी का सामाजिक अभियान के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। पर मैं अपनी बात माफी मांगते हुए और दुख के साथ जरूर कहना चाहूंगा।
अजय जी ने अपने आलेख में पहला सवाल उठाया है कि ---
(29 तारीख को मैं भी उस गाड़ी में सवार हो गया. गाड़ी में किसी और पत्रकार को न देख मुझे आश्चर्य हुआ. पूछने पर मेजबानों ने बाजारू पत्रकारिता का हवाला देकर मुझे सामाजिक पत्रकारिता का वीर पुरुष करार दिया. अफसोस भी जताया कि हमने तो मेल कई हजार लोगों को भेजे थे, उनमें आपके अलावा सिर्फ एक और पत्रकार मणिमाला साथ जा रही हैं. मणिमाला से परिचय के बाद जब हमलोग चाय के लिए रूके तो उन्होंने एनजीओ के अनुभवों को साझा किया कि, एक नहीं सभी अपने बजट का 85 फीसदी हिस्सा बड़े पदाधिकारियों के खर्चे और तामझाम में लगा देते हैं.)
महोदय मुझे याद नहीं की मैंने कब आपको ‘सामाजिक पत्रकारिता का वीर पुरुष करार दिया’। क्योंकि मैंने आपकी कुछ रिपोर्टों पढ़ी जरूर हैं पर कोई याद नहीं हैं। पर पब्लिक एजेंडा पत्रिका अच्छी लगती है, यह जरूर कहा था।
हम आपके साथ थे। मैंने चाय तक नहीं पी। क्योंकि मैं चाय पीना भी उपयुक्त नहीं समझता, मानते हैं कि शरीर को कोई पोषण नहीं पहुंचाती तो शायद इसकी जरूरत नहीं है। पर हमसे ज्यादा ठाट आपके रहे कि सिगरेट के कस पर कस आपके चलते रहे, आपने दारू-बीयर क्या कुछ जो भी है गटकी। हां अपने पैसे से गटकी, पर इसका सबूत मैं नहीं दे सकता, जो आप माँगेगे जरूर। पर वहां गये मित्रों की गवाही और आपके अल्कोहलिक होने का कोई टेस्ट ही इस बात को सिद्ध कर सकते हैं।
हां शराब पीना अल्ट्रा माडर्न होने की निशानी भी एक तबका मानता है, पर अंततः उसकी कीमत किसी गरीबों के जिम्मे ही जाती है।
अजय जी ने आप कहते हैं कि ---
(भटिंडा में पहले दिन का सत्र शुरु होने के बाद भी दूसरे किसी भागीदार पत्रकार को न देख हमें संदेह हुआ. पूछने पर कि हमलोग इलाके में कब चलेंगे, सिराज केसर ने बताया कि पहली पारी की बैठक खत्म हो जाये तो हम सभी क्षेत्र में चलेंगे. एक घंटा फूलों के लेन-देन और स्वागत में लगाने के बाद गुरुनानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर से आये भौतिकी के प्रोफेसर डॉक्टर सुरिंदर सिंह ने यूरेनियम पर 20 साल पहले का एक अध्ययन पेश किया. डेढ़ घंटे के भाषण में वे एक दफा भी नहीं बता पाये कि यूरेनियम की वजह से कोई रोग हो रहा है. इस पर सवाल उठा तो दिल्ली और भटिंडा के आयोजक हमें यह समझानें में लग गये कि यह जबाव भौतिकी के प्रोफेसर का बनता ही नहीं है. तो जवाब कौन देगा, इस पर आयोजकों ने चुप्पी साध ली.
हमने प्रोफेसर सुरिंदर सिंह से पूछना उचित समझा कि बीस साल पहले किये गये अध्ययन को आज पेश कर आप क्या बताना चाहते हैं. जिन प्रोफेसर सुरिंदर सिंह ने यूरेनियम में पानी पर डेढ़ का लंबा भाषण दिया था, उन बेचारे ने डेढ़ मिनट में जो कुछ बताया वह इस प्रकार से है- मालवा क्षेत्र के कुछ इलाकों में पानी में यूरेनियम ज्यादा है जिसका 90 प्रतिशत स्रोत प्राकृतिक है. रही बात बीस साल पहले के अध्ययन को पेश करने की तो यहां इन्होंने बुलाया था, इसलिए हमने पेश किया. इसकी वजह से कोई बीमारी होती है या किन रोगों की संभावना होती है, ऐसा कोई अध्ययन मैंने क्या, किसी ने नहीं किया है. )
पहले दिन के कार्यशाला की खबरें लगभग सभी प्रमुख अखबारें में थीं। वे आए थे। खबर बनाकर चले गये। आप भंटिण्डा के पत्रकारों को सबको पहचानने की मुगालता कैसे पाल सकते हैं। आपको वहां के अखबारों में छपी रिपोर्टों कहिए तो भेज दें।
मैंने बताया कि पहली पारी की बैठक खत्म हो जाये तो हम सभी क्षेत्र में चलेंगे. आपकी यह बात सही है, क्योंकि मुझे ऐसा ही संदेश प्राप्त हुआ था। एक घंटा फूलों के लेन-देन और स्वागत में लगाने के बाद। फूलों के इस कार्यक्रम से जो टाइम लगा था वह मैं भी नहीं पसंद करता हूं।
महोदय आप यहां पर शब्दों का खेल खेल रहे हैं। सुत्रों के अनुसार, विश्वत सुत्रों से मिली जानकारी के अनुसार , अन्य सुत्रों से मिली जानकारी के आधार पर यह बात मीडिया करती है, वह गुरुनानक देव विश्वविद्यालय का कोई प्रोफेसर इस तरह के उत्तर नहीं दे सकता। और सुरिंदर सिंह ने यूरेनियम पर करीब 20 साल पहले का एक अध्ययन पेश किया। यह सही है। क्योंकि कभी उसके बाद कोई अध्ययन ही नहीं हुआ है। लेकिन उनके अध्ययन में यह बात साफ तौर पर थी कि पंजाब में कई जगहों पर पानी में यूरेनियम की मात्रा मानक स्तर से ज्यादा है। यूरेनियम से क्या-क्या बीमारियाँ होती हैं यह कोई भौतिकी का प्रोफेसर कैसे कह सकता है, मेडिकल साइंस का कोई प्रोफेसर जरूर यह कह सकता है, जो वे थे नहीं।
कौन जवाब देगा। यह सवाल महत्वपूर्ण है। हमारे लिए भी महत्वपूर्ण है – जो जवाब हमें मीडिया से ही आया था।
अब के दौर में सबसे महत्वपूर्ण काम दक्षिण अफ़्रीका की मेंटल टॉक्सिकोलॉजिस्ट डॉ केरिन स्मिथ ने किया है, वह है, जिनको भी जर्मनी की प्रयोगशाला की लैब की संक्षिप्त जांच रिपोर्ट चाहिए वे हमें लिख भेजें - -
इससे जो बात निकल कर आयी थी वह, गार्डियन की रिपोर्ट में इस लिंक पर है - -
(http://www.guardian.co.uk/world/2009/aug/30/india-punjab-children-uranium-pollution)
(हिन्दी अनुवाद)
इस विपदा से पीड़ित बच्चों का इलाज बच्चों के लिये विशेष रूप से बनाये गये भटिण्डा के बाबा फ़रीद केन्द्र में किया जा रहा है, जबकि फ़रीदकोट के नज़दीक ही दो थर्मल प्लाण्ट मौजूद हैं। इन दोनों स्वास्थ्य केन्द्रों के कर्मचारियों ने ही सबसे पहले इस सम्बन्ध में आवाज़ उठाई थी, क्योंकि उन्होंने देखा कि अचानक ऐसे मरीजों की संख्या में बढ़ोतरी हो गई थी। जन्म से ही उन बच्चों में हाइड्रोसिफ़ाली, माइक्रोसिफ़ाली, सेरेब्रल पाल्सी, डाउन्स सिन्ड्रोम और अन्य कई विकृतियाँ मौजूद थीं, जबकि कई बच्चे तो जन्म लेते ही मर गये।
फ़रीदकोट में क्लीनिक चलाने वाले डॉ प्रीतपाल सिंह के अनुसार, "…गत 6-7 साल से अचानक ऐसे प्रदूषण से पीड़ित बच्चों की संख्या में तेजी आई है, लेकिन सरकार के अधिकारी इस सारे मामले को दबाने में लगे हैं। ये अधिकारी बच्चों का ज़हर तो कम नहीं कर सकते, लेकिन अब उन्हें पूरे पंजाब को ही जहरमुक्त करना होगा। उन्होंने हमें धमकी दी है कि यदि इस मामले पर हम अधिक बोलेंगे तो वे हमारे क्लीनिक बन्द करवा देंगे, लेकिन मैंने निश्चय किया कि यदि मैं चुप रहा तो यह सब कुछ और वर्षों तक चलता रहेगा, और कोई कुछ नहीं करेगा। यदि मैं चुप रहा तो हो सकता है कल मेरे बच्चे के साथ भी यही हो, क्योंकि मैंने कई बच्चों को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ते देखा है…"।
दक्षिण अफ़्रीका की मेटल टॉक्सिकोलॉजिस्ट डॉ केरिन स्मिथ, जिन्होंने बच्चों के नमूनों को जर्मनी की प्रयोगशाला में जाँच के लिये भेजा, कहती हैं कि स्थिति को और अधिक बिगड़ने से तुरन्त रोकना ही होगा। "इन बच्चों के शरीर में घातक रेडियोएक्टिव पदार्थ मौजूद हैं और इन्हें तत्काल प्रभाव से साफ़ करने की आवश्यकता है, ताकि इनके शरीर फ़िर से ठीक ढंग से काम करना शुरु करें…"। यदि यह रेडियोएक्टिव प्रदूषण अधिक प्रसार पाता है तो पश्चिम में पाकिस्तानी सीमा तक मुक्तसर तक एवं पूर्व में हिमाचल प्रदेश की पहाड़ियों की तलछटी तक भी पहुँच सकता है, और ऐसे में एक बड़ी आबादी भारी खतरे का सामना कर रही होगी। फ़रीदकोट के केन्द्र में 15 वर्षीय हरमनबीर कौर तेजी से आगे-पीछे डोल रही थीं, उसके नमूने के परीक्षण में यूरेनियम का स्तर 10 गुना पाया गया, जबकि उसी के छोटे भाई नौनिहाल सिंह के शरीर में यह दोगुने से भी अधिक पाया गया। हरमनबीर का जन्म फ़रीदकोट से 25 मील दूर मुक्तसर में हुआ। उसकी माँ कुलबीर कौर (37) ने देखा कि उसकी स्वस्थ बच्ची धीरे-धीरे सुस्त होने लगी, खाने में उसकी अरुचि बढ़ने लगी और धीरे-धीरे उसके शरीर के अंगों ने एक-एक करके काम करना बन्द कर दिया। कुलबीर कहती हैं, "भगवान जाने, मैंने कौन सा पाप किया था, हमारे गाँव वाले कहते हैं कि यह मेरे परिवार को श्राप मिला है, लेकिन मैं विश्वास नहीं करती…, इस इलाके का हर गाँव प्रभावित है, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे बच्चे यूरेनियम से पीड़ित हो जायेंगे…"।
अजय प्रकाश जी की रिपोर्ट कहती है कि - -
(दिल्ली से गये दानदाताओं ने बताया कि इस फर्जी जानकारी के सूत्रधार तो स्थानीय संयोजक एनजीओ ‘खेती विरासत’ के सुरिंदर सिंह और उनके सहयोगी शिक्षक चंद्रप्रकाश हैं. हिंदी वाटर पोर्टल के सिराज के मुताबिक, "खेती विरासत ने ही पानी में अधिक यूरेनियम होने की वजह से क्षेत्र में सेरीब्रल पैल्सी रोग हो रहा है, की जानकारी मुहैया करायी थी." लेकिन हमारा सवाल था कि तथ्यों की सही जानकारी के बगैर गुमराही का यह काम ‘खेती विरासत’ के इशारे पर ‘आरघ्यम’ और ‘पोर्टल’ ने संयुक्त रूप से कैसे कर लिया? )
आपकी दी गयी यहां पर जानकारी असत्य है। मैंने यह कभी नहीं कहा कि ‘इस फर्जी जानकारी के सूत्रधार तो स्थानीय संयोजक एनजीओ ‘खेती विरासत’ के सुरिंदर सिंह और उनके सहयोगी शिक्षक चंद्रप्रकाश हैं.’। मैं यह कभी नहीं कह सकता क्योंकि जो शुरुआती स्रोत हैं वे अधिकतम मीडिया के हैं। जो आपको भेजे गये थे –
1- पंजाब में जल प्रदूषक यूरेनियम, आर्सेनिक, फ़्लोराइड, नाइट्रेट आदि के खतरे पर कार्यशाला
2 - भटिंडा : पानी में यूरेनियम …
3 - भटिण्डा के पानी में यूरेनियम, रेडियम और रेडॉन
4 - पंजाब के पानी में यूरेनियम
इन सबके कौन से स्रोत हैं आप खुद ही देख सकते हैं। सबके नीचे लिख गये हैं।
( अजय जी आप अपनी रिपोर्ट में कहते हैं कि - इस मसले पर बहस में जाने के बजाय अब हम फिर क्षेत्र में जाने के कार्यक्रम पर आ गये. लेकिन ‘खेती विरासत’ के संयोजक सुरिंदर सिंह पीड़ितों से मिलाने ले जाने को अनसुना करते रहे. काफी जद्दोजहद के बाद वह दूसरे दिन सुबह आठ बजे हमें पीड़ितों से मिलाने को तैयार हुए.
दूसरे दिन वे पहुंचे तो सही, मगर नये बहानों के साथ. बहाना था कि साथ जाने वाला कोई नहीं है और आपलोग पंजाबी जानते नहीं हैं, इसलिए वहां बात कैसे कर पायेंगे. यह सब होते-हवाते दिन के ग्यारह बज गये, जबकि हमें वहां लौटकर तीन बजे दिल्ली के लिए रवाना भी होना था. मौके की नजाकत और आयोजकों का टालू रवैया देख पत्रकार मणिमाला ने क्षेत्र में जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया और कहा कि मुझे यहां किताबों का वितरण करना है, सो मैं नहीं जा पाउंगी.
अब मैं जाने वालों में अकेला बचा था. इनकी ठगी पर जितना कोफ्त हो रहा था, उससे कहीं ज्यादा अपनी समझदारी पर कि गर मैंने दिल्ली में मित्रों से राय ले ली होती तो एनजीओ के भरोसे रिपोर्टिंग के मुगालते से बच गये रहते. इस अफसोस के साथ थोड़ी खुशी भी थी. खुशी इसलिए कि पहली दफा की ही मुफ्तखोरी ने अहसास करा दिया था कि देशी-विदेशी दानदाताओं की पेटियों से झरझराते सिक्के हमारे जैसे पत्रकारों के लिए नहीं हैं. तभी ‘खेती विरासत’ के सुरिंदर सिंह ने कहा कि भटिंडा जिले की तलवंडी साबो तहसील में कई ऐसे गांव हैं, जहां पानी में आर्सेनिक की अधिकता की वजह से केंसर और अन्य घातक रोग हो रहे हैं.
यानी अब मामला यूरेनियम से खिसकर आर्सेनिक पर आ गया था. बात को जायज ठहराने के लिए खेती विरासत से जुड़े चंद्र प्रकाश ने कुछ नामचीन अखबारों, रेडियो और टीवी चैनलों का हवाला भी दिया कि वह इस मसले पर कई बड़ी खबरें कर चुके हैं. अपनी तीन दिन की छुट्टी और उर्जा को किसी तरह बचा लेने की अंतिम कोशिश करते हुए मैंने उनके आर्सेनिक वाले प्रस्ताव को स्वीकार लिया. मैंने आयोजकों से कहा कि कुछ गांवो के नाम और दो-चार संपर्क बता दें, जिससे सुविधा हो. )
अब आप कहानी ज्यादा, मुद्दा की बात कम कर रहे हैं। महोदय आप सरासर झूठ बोल रहे हैं, क्योंकि जो निमंत्रण भेजा गया था। आप कहते हैं कि यूरेनियम से खिसक कर आर्सेनिक पर आ गया था. हमने निमंत्रण की जो कापी आपको भेजी है वह बताती है कि ‘पंजाब में जल प्रदूषक यूरेनियम, आर्सेनिक, फ़्लोराइड, नाइट्रेट आदि के खतरे पर कार्यशाला’। कार्यशाला का मुद्दा केवल और केवल यूरेनियम है, की बात किसी भी चिट्ठी में नहीं कहा गया है।
(आपकी रिपोर्ट कहती है कि - बड़ी मुश्किल से सुरिंदर ने मलकाना गांव के एक सज्जन का नंबर दिया, जिनका भूरा सिंह नाम था. इस गांव के बारे में स्थानीय आयोजकों ने मुझे बताया गया कि यहां न सिर्फ सेरीब्रल पैल्सी बल्कि केंसर, नपुंसकता, दस पंद्रह की उम्र के बाद एकाएक न्यूरो तंत्र का शरीर से नियंत्रण खत्म हो जाने वाला रोग और गर्भपात के रोगियों की एक बड़ी संख्या है. भटिंडा से लगभग पैंतीस किलोमीटर दूर जब इस गांव में पहुंचे तो भूरा सिंह गुरूद्वारे के पास हमारा इंतजार कर रहे थे. उनके साथ चार-पांच और लोग खड़े थे. भूरा सिंह ने बताया कि यह सभी लोग किसी की तेरही में खाने आये हैं. बातचीत में पता चला कि गांव में सात हजार आबादी और बत्तीस सौ वोट हैं. पीने के पानी की समस्या पर लोगों ने बताया कि अब गांव में सरकार की मदद से पंचायत ने आरओ (पानी शुद्ध करने का यंत्र) लगा दिया है.)
वहां पंजाब सरकार ने आरओ सिस्टम लगा दिया था। काहे को लगाया है। यदि कोई समस्या नहीं है है, तो लगाने की जरूरत तो नहीं थी, और लगाया तो क्या समस्या है. यह बात आपकी ज़हन में आनी चाहिए।
(अजय जी आप अपनी रिपोर्ट में कहते हैं - पानी में आर्सेनिक की अधिकता की वजह से केंसर के बारे में गांव वालों ने इनकार किया. इनकार तो उस कार्यक्रम में आये गुरूनानक देव विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राजकुमार ने भी किया था. श्रोताओं ने जब यह पूछा कि क्या कोई ऐसा अध्ययन है जो बताता है कि पानी में आर्सेनिक की बढ़ी मात्रा की वजह से केंसर हो रहा है तो प्रोफेसर राजकुमार ने हाथ खड़े कर लिये. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पानी में आर्सेनिक के मुख्यतः स्रोत प्राकृतिक हैं.’ तब वहां सवाल भी उठा था कि फिर इस आयोजन का मकसद क्या है और प्रोफेसर साहब चुप हो गये थे.
दरअसल प्रोफेसर लगातार यह समझा रहे थे कि जहां पानी में आर्सेनिक अधिक है, वहां केंसर रोगी ज्यादा हैं. मगर जो नक्शा दिखाकर जानकारियां दे रहे थे, वह उनके रिसर्च का हिस्सा नहीं बल्कि पंजाब के एक अंग्रेजी दैनिक का उतरन था.
बहरहाल हम यह सब झेलकर उस जगह पर आ गये थे, जिस गांव के एक डॉक्टर ने बताया कि "चंडीगढ़ पीजीआई की टीम आई थी जिसने कहा कि पानी में आर्सेनिक नहीं बल्कि क्लोरोमिअम ज्यादा है, जिसका कारण भारी मात्रा में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक हैं." बताते चलें कि मालवा क्षेत्र का भटिंडा जिला पंजाब में इस्तेमाल किये जाने वाले कुल कीटनाशकों का एक बड़ा उपभोक्ता है. )
पानी में आर्सेनिक की अधिकता की वजह से केंसर के बारे में गांव वालों ने इनकार किया. गांव वालों ने किया होगा पर आप सरासर झूठ बोल रहे हैं कि ‘इनकार तो उस कार्यक्रम में आये गुरूनानक देव विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राजकुमार ने भी किया था.’
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महोदय यह एक प्रमाणित तथ्य है, इस पर कई रिसर्च हो चुकी हैं लेकिन अभी मेरे पास नहीं हैं, कोशिश कर रहा हूं कि आर्सेनिक की रिसर्च जो दक्षिण-पश्चिम पंजाब में हो चुकी हैं, उस पर कोई उपलब्ध कर सकूं। उम्मीद है कि हम अपको जल्दी ही उपलब्ध करा सकेंगे। आर्सेनिक जहां मानक स्तर से ज्यादा होता है वह कैंसर का कारण होता ही है, इस पर कई अध्ययन हो चुके हैं। ऐसी भी रिसर्च हम उपलब्ध कर लेगें क्योंकि इन चीजों पर काम काफी हुआ है। हम आपको देगें।
प्रोफेसर राजकुमार जो मैप आपको दिखा रहे थे। वह मैप आपको समझाता हूं। उस मैप में एक तरफ था ‘आर्सेनिक मैप आफ पंजाब’ और दूसरी तरफ था ‘कैंसर मैप आफ पंजाब’। जिनमें आपस में काफी समानता है। इस आधार पर वे कहना चाहते थे कि ‘कैंसर मैप आफ पंजाब’ एक तरीके से ‘आर्सेनिक मैप आफ पंजाब’ के काफी नजदीक है। यानी कैंसर और आर्सेनिक में कोई न कोई संबंध है। ‘कैंसर मैप आफ पंजाब’ ट्रिब्यून ने बनाया है, ट्रिब्यून ने यह मैप किस-किस इलाके में कैंसर मरीज ज्यादा हैं, उस आधार पर मैप बनाया है। जिसका वे इस्तेमाल कर रहे हैं। आप मैप देखें - खुद ब खुद समझ आ जाएगा। यहां वह मैप अटैच है।
(अजय जी आप अपनी रिपोर्ट में कहते हैं - पानी में आर्सेनिक की वजह से मलकाना गांव में लोग केंसर पीड़ित हैं, को लेकर हंगामा क्यों है. गांव के नौजवान और क्लब सदस्य रणधीर सिंह ने बताया कि ‘क्षेत्र के किसी गांव में चले जाइये, आमतौर पर 40 से 50 प्रतिशत लोग नशाखोरी की जद से त्रस्त मिल जायेंगे. वहीं कीटनाशकों के इस्तेमाल से पानी की गड़बड़ी की शिकायत आम है. वैसे में एनजीओ वाले आर्सेनिक पर जोर ज्यादा इसलिए देते हैं कि इसमें खतरे कम हैं. अगर नशाखोरी के खिलाफ लड़ना है तो पहली लड़ाई माफियाओं से है. पेस्टीसाइड के खिलाफ लड़ेंगे तो सरकार, कंपनी और माफिया तीनों से भिड़ना है. इन सबसे से उपर यह है कि इन लड़ाईयों और जागरूकता के संसाधन जनता से जुटाने हैं। )
खेती विरासत का जोर पेस्टीसाइड पर ही ज्यादा था। पर आप को तो धैर्य हो तब न। खेती विरासत के ऊपर कीटनाशकों के इस्तेमाल से पानी की गड़बड़ी की शिकायत और बीमारियों की बात करने से ही यूनाइटेड फास्फोरस लिमिटेड ( एक पेस्टीसाइड कंपनी) ने मुकदमा कर रखा है जो मुम्बई में चलता है, एक छोटे से संगठन के लिए यह कितना मुश्किल है। कीटनाशकों से डीएनए-डैमेज होता है, इस पर खेती विरासत से जुड़ी रविन्दरजीत कौर ने पीएचडी भी की है। पूरे वर्कशाप में मुझे याद है कि कीटनाशकों पर सबसे ज्यादा समय खर्च किया गया था। पेस्टीसाइड के खिलाफ लड़ाईयों से कुछ उलट देने का दंभ तो नहीं पर कहके पूरी साहस से उसकी कीमत चुकाने का काम खेती विरासत तो कर ही रहा है।
खेती विरासत कोई बात कह रहा है। यह महत्व की बात नहीं है। बात यह है कि सच्चाई क्या है? क्या उस बेल्ट में आर्सेनिक नहीं है। या ‘कैंसर मैप आफ पंजाब’ जो ट्रिब्यून ने बनाया है वह झूठा है। आरओ सिस्टम वहां पर पंजाब सरकार ने लगाए हैं कोई एनजीओ सेक्टर ने नहीं। आरओ सिस्टम के विज्ञापन छापकर कमाई कौन करते हैं, वह सभी जानते हैं। उसकी रोटी पर ही हम सब पलते हैं।
अजय प्रकाश जी मामला यह है कि पेशे के प्रति प्रतिबद्धता की बात सभी के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जो वह पत्रकार हो या किसी एनजीओ में नौकरी करने वाला। सभी के लिए उतना ही महत्व रखता है।
हमारी प्रतिबद्धता किसके प्रति है हम जानने की कोशिश करते रहेंगे। आप जैसों की रिपोर्टें हमें सही रास्ता दिखाती रहें। पूरी तन्मयता से यह कर पाएंगे या नहीं पर यह हमारी सोच में जरूर है। पर अपनी खुंदक को प्रतिबद्धता का ताना मत पहनाइए। पंजाब का मालवा क्षेत्र कैंसर प्रभावित क्षेत्र नहीं है, ऐसी सतही और गलत रिपोर्ट पेश कर आप क्या करना चाहते हैं?
लेकिन सवाल जो शुरू हुए थे वे भी अभी अधूरे हैं, उनके उत्तर भी अभी अधूरे हैं। अगले किस्तों में हम आर्सेंनिक और पंजाब का मालवा पर एक रिसर्च रिपोर्ट देंगे। और पंजाब में यूरेनियम की स्थिति पर कौन-कौन सी संस्थाएं क्या कहती हैं। कीटनाशकों से डीएनए-डैमेज होता है, इस पर खेती विरासत से जुड़ी रविन्दरजीत कौर की पीएचडी क्या कहती है? वह आपसे शेयर करेंगे।
अजय प्रकाश जी आपने जिस गांव को लेकर आपने विलाप किया है। वह आर्सेनिक जोन है, आगे से जब कभी वहां जाइएगा। शराब का नशा और सभी को देख लेने का नशा थोड़ा कम हो तो ही कुछ दिखेगा।
क्या जज कानून से ऊपर हैं? भ्रष्ट जजों को सजा दो
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल, ने अपने बेटों और उनके सहयोगियों के हित के लिए दिल्ली में व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को सील करने का आदेश देकर अपने पद का दुरुपयोग किया। न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल के बेटों ने उसके बाद 15 करोड़ रुपये का मकान खरीदा जबकि उस समय उनकी घोषित आय लाखों में ही थी। सरकार का कहना है कि ऐसा कोई कानून नहीं है, जिसके तहत एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के गलत कामों की जांच की जाए। इतना ही नहीं, मिडडे के जिन पत्रकारों ने इन काली करतूतों का पर्दाफाश किया उन्हें न्यायालय की अवमानना के जुर्म में उच्च न्यायालय ने जेल भेजने की सजा सुना दी।
न्यायाधीश जगदीश भल्ला के परिवार ने नोएडा में 7 करोड़ बाजार मूल्य की जमीन मात्र 5 लाख में एक ऐसे भू-माफिया से खरीदी, जिसके खिलाफ कई फौजादारी मामले उन्हीं की निचली अदालतों के तहत चल रहे थे। 'कमेटी फॉर ज्यूडिशियल एकांउटबिलिटि' द्वारा कई बार शिकायत किए जाने के बावजूद भी, कोई जांच नहीं की गई, उल्टे उन्हें हिमाचल प्रदेश में मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर दिया गया है।
पिछले दस सालों के दौरान जज नियुक्त करने की कमेटी से सलाह किये बिना और निर्धारित प्रक्रिया का उल्लंघन करके उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में कितने ही जजों की नियुक्ति, की गई है। कुछ जजों को तो, उनके खिलाफ खुफिया विभाग द्वारा भ्रष्टाचार की मजबूत रिपोर्टों के दिए जाने के बाद भी नियुक्त कर दिया गया है। सरकार कहती है कि जजों की नियुक्ति संबंधी फाइलें गुप्त हैं। तो क्या सरकार को भ्रष्ट न्यायपालिका की जरूरत है?
हाल में ही उजागर गाजियाबाद में प्रोविडेन्ट फंड घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठासीन जज, उच्च न्यायालय के 13 जज और जिला अदालतों के 12 जज शामिल हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश प्रोविडेन्ट फंड में फंसे जजों से पुलिस को सीधे सवाल पूछने तक की इजाजत नहीं दे रहे हैं और पुलिस को केवल लिखित सवाल भेजने का निर्देश दे रहे हैं।
1991 में वीरास्वामी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के बिना किसी भी जज के खिलाफ कोई भी एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती। इस तरह न्यायपालिका ने किसी भी आपराधिक कार्रवाई से अपने को पूरी तरह मुक्त कर लिया है; फिर जज का अपराध चाहे कितना भी गंभीर क्यों न हो। जजों द्वारा कई बार घोर अपराध किए जाने के बावजूद मुख्य न्यायाधीश ने उनके खिलाफ एफआईआर दायर करने की इजाजत नहीं दी है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश जजों की सम्पत्ति के ब्यौरे को भी सार्वजनिक करने से इंकार करते हैं। जबकि नेताओं और नौकरशाहों के लिए सम्पत्ति का खुलासा करना जरूरी होता है। फिर जजों के लिए क्यों नहीं? मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि कोई भी स्वाभिमानी जज अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देने के लिए राजी नहीं होगा, इतना ही नहीं वे तो यह भी कहते हैं कि मुख्य न्यायाधीश का पद सूचना के अधिकार के तहत नहीं आता। मजेदार बात यह है कि चुनाव लड़ने वाले नेताओं की सम्पत्ति का ब्यौरा देने का आदेश खुद सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था। कई उच्च न्यायालयों ने सूचना के अधिकार के तहत अपने सुविधानुसार नियम बना दिये हैं, जिसमें प्रशासनिक और वित्तीय मामलों पर सूचना लेने की मनाही है। यही वजह है कि जजों या अन्य लोगों की नियुक्ति, लम्बित पड़े मामलों और यहां तक कि अदालतों के बजट के बारे में भी सूचना आम जनता को नहीं मिल रही है।
क्या न्यायपालिका की कोई जवाबदेही है?
हमारी मांगें
- एक जवाबदेह न्यायपालिका
-एक स्वतंत्र राष्ट्रीय न्यायिक आयोग, जिसे जजों को अनुशासित करने का अधिकार हो।
-आपराधिक मामलों के संदर्भ में जजों की भी जांच करने पर कोई बंधन न हो। वीरास्वामी मामले में दिये गये फैसले को वापस लिया जाए।
-न्यायालय की अवमानना अधिनियम में संशोधन किया जाए।
- सूचना का अधिकार विधेयक पूरी तरह से न्यायायपालिका पर लागू हो - उनकी नियुक्तियां, पदोन्नति और सम्पत्ति सार्वजनिक किया जाए।
एक जवाबदेह न्यायपालिका के लिए हमसे जुड़ें . . क्योंकि न्याय की हम सबको जरूरत है।
कैम्पेन फॉर ज्यूडिशियल एकांउटबिलिटि एंड रिफॉर्म (न्यायिक जवाबदेही और सुधार के लिए अभियान)
वेबसाइट : www.judicialreforms.org व ईमेल : judicialreforms@gmail.com
बढ़ती तोंद पिचकते पेट - गिरीश मिश्र
पूंजीवाद के विकास क्रम के वर्तमान मानदंड के तौर पर भारत आज विश्व में सबसे उर्वर माना जा रहा है। दुनिया भर में तैर रही करीब 300 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की सरप्लस पूंजी का मुंह भारत की ओर है लेकिन इस दौर में भी भारत में फैली दानवाकार सामाजिक विषमता का आकलन करता लेख
इस बात को शायद ही कोई विवेकशील व्यक्ति नकारेगा कि आजादी पाने के बाद छ: दशकों में भारत ने भारी तरक्की की है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था स्वतंत्र और काफी हद तक संतुलित है। वह उस स्थिति से निकल चुकी है जब वह ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का दुमछल्ला थी और उसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल और खनिज पदार्थ प्रदान करना तथा ब्रिटिश उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराना था। वह बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है। आर्थिक संवृद्धि की दर नौ प्रतिशत के वार्षिक आंकड़े को पारकर चुकी है और सब ठीक ठाक रहा तो वह दस प्रतिशत पर पहुंच जाएगी। आजादी के बाद से अब तक जनसंख्या में ढाई गुनी बढ़ोत्तरी के बावजूद खाद्यान्न उत्पादन लगभग चार गुना अधिक है। अकाल अतीत की बात बन चुका है। देश में भारी उद्योगों और पूंजीगत वस्तुएं बनाने वाले उद्यमों की कोई कमी नहीं है। देश महामारियों से लगभग मुक्त है तथा इलाज की बेहतर सुविधाएं मौजूद हैं। देश में तकनीकी शिक्षा प्राप्त लोगों की एक बड़ी जमात है। आधुनिकतम शिक्षण संस्थाएं पढ़ाई-लिखाई और शोधकार्य को लेकर विश्वभर में प्रशंसा पा रही हैं।
उपर्युक्त उपलब्धियों के बावजूद कतिपय खामियां हैं जिनको दूर करने के लिए जल्द कदम उठाए जाने चाहिए नहीं तो हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती है। आजादी की लड़ाई के समय से ही यह वादा बार-बार दुहराया जाता रहा है कि स्वतंत्रता के बाद समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता तथा क्षेत्रीय असंतुलन को यथा संभव कम करने के लिए कदम उठाए जाएंगे। कहना न होगा कि इस वादे को पूरा करने में हमारा गणतंत्र विफल रहा है और जब ये भूमंडलीकरण के तहत आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ है तब से विफलता का रूप भयावह होता जा रहा है। नक्सली आंदोलन, 'मुंबई, मुंबई वालों के लिए' का नारा, असम में हिन्दी भाषी लोगों की हत्याएं आदि किसी न किसी तरह इसी विफलता को इंगित करते हैं। अपहरण, हत्या, डकैती, भ्रष्टाचार आदि में वृद्धि के पीछे भी यही तथ्य किसी न किसी रूप में है।
अभी चंद हफ्ते पहले एशियाई विकास बैंक की एक रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है कि 1980 तक भारत की आर्थिक संवृद्धि की दर अपेक्षाकृत धीमी थी और सामाज में आर्थिक विषमता भी कम थी। इस आर्थिक विषमता में बहुत कम वृद्धि हो रही थी। किन्तु 1990 के दशक से आर्थिक संवृद्धि की दर के बढ़ने के साथ ही आर्थिक विषमता में तेजी से वृद्धि हो रही है। उसने रेखांकित किया है कि इस बढ़ती आर्थिक विषमता का आधार यह पारंपरिक मान्यता नहीं हैकि धनी पहले की अपेक्षा अधिक धनवान और गरीब अधिक निर्धन हो रहे हैं। वस्तुत: दोनों धनवानों और गरीबों को आर्थिक संवृद्धि का फायदा मिल रहा है मगर गरीबों की तुलना में धनवानों को आर्थिक संवृद्धि के फल में लगातार अधिकाधिक हिस्सा मिलता जा रहा है। इसका असर इस तथ्य से उजागर होता है कि जहां सबसे धनी बीस प्रतिशत भारतीय परिवारों के केवल पांच प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन वाले हैं वहीं सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों में यह अनुपात 28 प्रतिशत है। कहना न होगा कि इस अंतर का मुख्य कारण आय की विषमता है।
आज जब हम अपने गणतंत्र की महानता और जनतांत्रिक उपलब्धियों की चर्चा करते नहीं थकते हैं तब हमें नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी तीस करोड़ भारतीय गरीबी में जी रहे हैं और 40 करोड़ अपना नाम भी नहीं लिख सकते यानी पूरी तरह निरक्षर हैं।
प्रतिष्ठित अमेरिकी समाचार पत्र 'वाशिंगटन पोस्ट' (20 अगस्त) के अनुसार बहुराष्ट्रीय निगमों और आउटसोर्सिंग से जुड़ी भारतीय कंपनियों में 86 प्रतिशत प्रौद्योगिक कर्मी उच्च जातियों और धनी मध्यवर्ती जातियों के हैं। दलित जातियों तथा अति पिछड़े वर्गों के इक्के-दुक्के ही हैं। इतना ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों में भी उच्च जातियों का वर्चस्व है क्योंकि साधन संपन्न होने के कारण वे ही आधुनिक शिक्षा सुविधाओं का लाभ उठाते हैं और कार्य एवं शिक्षा के लिए जरूरी वीजा तथा हवाई यात्रा का खर्च उठा पाते हैं। इसी पत्र ने यह शोचनीय तथ्य उजागर किया है कि वर्ष 2006 में पाया गया कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मी देश के एक तिहाई दलित गांवों में नहीं जाते और 24 प्रतिशत दलितों को डाकिए चिट्ठी आदि नहीं पहुंचाते।
आर्थिक विषमता को मापने के लिए सांख्यिकी में 'गिनी गुणांक' का इस्तेमाल किया जाता है। यदि यह गुणांक 100 है तो पूर्णतया आर्थिक समानता और शून्य है तो पूर्णतया आर्थिक विषमता होती है। शून्य में सौ की और ज्यों-ज्यों बढ़ते हैं त्यों-त्यों विषमता कम होती जाती है। जहां तक भारत का सवाल है, वर्ष 1993 में गिनी गुणांक 32.9 था जो 2004 में बढ़कर 36.2 हो गया। कहना न होगा कि हमारे यहां आय की विषमता काफी है और उसमें ग्यारह वर्षों में मामूली सी कमी आई। इस स्थिति को तभी बदला जा सकता है जब सरकार की भूमिका कारगर हो और वह धनवानों से पैसे करों के जरिए प्राप्त कर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर पैदा करने पर खर्च करे। ऐसा हो सकेगा इसमें संदेह है क्योंकि वाशिंगटन आम राय पर आधारित भूमंडलीकरण के तहत वर्ष 1991 से लागू किए गए आर्थिक सुधार कार्यक्रम राज्य की भूमिका को बढ़ाए जाने के विपरीत हैं।
हमारे यहां आर्थिक विषमता कई रूपों में दिखती है। शहरों और गांवों के बीच विषमता है। शहरी लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं ग्रामीण जन की अपेक्षा कहीं अधिक प्राप्त हैं। इतना ही नहीं, बल्कि शहरों में रोजगार के अवसर विविध रूपों में विद्यमान हैं जबकि गांवों में रोजगार के अवसर कृषि कार्य से मुख्यरूप से जुडे होते हैं जिससे वे न तो पूरा वक्री होते हैं और न ही मजदूरी की दर ऊंची होती है। इसके अतिरिक्त गांवों में जातिगत भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है जब कि शहरों में इस प्रकार के भेदभाव बहुत कम दिखते हैं। साथ ही धनी और गरीब राज्यें के बीच आय की विषमता के चरित्र में फर्क होता है। हरियाणा, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि में बसने वाले गरीब इतने बेहाल नहीं हैं जितने उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहने वाले। पूर्वोतर राज्यों में नए देशी-विदेशी निवेश आ रहे तथा वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन की क्षमताओं का निर्माण होने से रोजगार के नए अवसर खुल रहे हैं। इतना ही नहीं, वहां प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं की स्थिति बेहतर है तथा स्वास्थ्य सेवाएं भी सार्वजनिक क्षेत्र में अच्छी स्थिति में हैं। राज्य द्वारा नए सार्वजनिक उपक्रमों को लगाने से हाथ खींचने तथा अनेक स्थापित उपक्रमों को बेचने के कारण रोजगार के अवसरों की उपलब्धता घटी है। सेवाओं के क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर आए या आ रहे हैं उनका लाभ उन्हें ही मिल रहा है जिनके पास उच्च शिक्षा और कौशल है जिन्हें धनवानों के बच्चे ही आमतौर से प्राप्त कर पाते हैं।
आर्थिक भूमंडलीकरण और न्याय तक पहुंच - उपेंद्र बख्शी
एक ऐसे दौर में जब राजनीति बाजार को बढ़ावा दे रही है और न्यायपालिका भी खुद को उसी सांचे में ढाल रही है, ऐसे में गरीबों के लिए तो कोई अवसर हीं नहीं बचा है। राजनीति और न्यायपालिका बाजार अर्थव्यव्यवस्था की जरूरतें पूरी कर रही हैं ताकि अरबपतियों के और ज्यादा अमीर बनने के 'अधिकारों' की रक्षा हो सके तो दूसरी ओर गरीब और ज्यादा गरीब बने रहें। 'बाजार अर्थव्यवस्था में समान भागीदारी और समानता' पर इंडियन लॉ इंस्टीटयूट के गोल्डन जुबली समारोह में उपेंद्र बख्शी का व्याख्यान ................
'बाजार अर्थव्यवस्था' जैसी है, वैसी दिखती नहीं है। इसे पूरी तरह समझने के लिए हमें उत्पादन और प्रलोभन में अंतर समझना होगा। उत्तर आधुनिक काल के फ्रांसीसी विचारक ज्यां ब्रादिया ने अपने एक निबंध 'द मिरर ऑव प्रोडक्शन' में इस अंतर को स्पष्ट किया है : उत्पादन अदृश्य वस्तुओं को दृश्य बनाता है और लालच दृश्य वस्तुओं को अदृश्य कर देता है, हमें निश्चित रूप से यह सवाल उठाना चाहिए कि आज के 'सुधारों के युग' में भारतीय संविधान ने क्या बनाया, जिसे लालच ने बिगाड़ दिया।
संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के बीच कई अंतर्विरोधों को पठनीय बना दिया, आंबेडकर ने भी 'विरोधाभासों से भरा जीवन' पर अपने भाषण में सर्वोच्च न्यायालय की भरपूर प्रशंसा की। उपनिवेशी शासन से मुक्त होने के बाद भारत में अन्तर्विरोधों से भरे समान सामाजिक विकास के मूल्यों की ञेषणा के साथ संविधान में अनुच्छेद 31 के तहत 'संपत्ति का अधिकार' भी जोड़ दिया गया।
अगर हम संविधान में किये गए 1 से 44 तक के संशोधनों और न्यायालय द्वारा की गई व्याख्याओं पर नजर डालें तो हमें यह साफ दिखाई देगा कि किस तरह राज्यों के नियमों के तहत भागीदारी और समानता के नाम पर उत्पादन के साधनों पर निजी संपत्ति अधिकार लागू कराने की कोशिशें की गईं। पर अन्त में 44वें संविधान संशोधन द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया, सच में खत्म हुआ या फिर इसे संवैधानिक अधिकार के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। यहां मैं यह पूरी कहानी बयां करने नहीं जा रहा हूं, बल्कि यह याद दिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि संवैधानिक व्याख्या के पहले दशकों में सर्वोच्च न्यायालय ने जो कुछ भी कहा था अब वह अपने ही दिये गए फैसलों से मुकर रहा है। पहले दिये गए फैसलों में मौलिक अधिकारों के सामने सभी करारों और संपत्ति को नगण्य बताया था। मैं ऐसे पांच उदाहरण दे सकता हूं, जिसमें न्यायालय का बदला हुआ रूप साफ दिखाई देता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मूल्य, गरीब और पिछड़े लोगों के मौलिक अधिकार, नीति-निर्देशक तत्व और नागरिकों के मूल कर्तव्य सब कुछ नीति-निर्माताओं और न्यायाधीशों ने मिलकर खत्म कर दिया है। हमारे नीति- निर्देशक तत्व खासतौर पर संवैधानिक विकास की तस्वीर बनाने के लिए संविधान में रखे गए थे जो आज के आर्थिक सुधारों के दौर में फिट नहीं हो रहे हैं।
एक समारोह में भाग लेते समय, बहुत से लोगों ने हमारे से यह सवाल पूछा कि क्या भारतीय कानूनी शिक्षा, शोध, व्यवसाय और यहां तक कि न्यायपालिका वैश्विक बाजार की जरूरतों को पूरा कर पाएगी?
सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूंगा कि 'न्याय तक पहुंच' (एक्सेस टू जस्टिस) शब्द उतना ही रहस्यवादी है जितना कि 'वैश्विक अर्थव्यवस्था'। जिन लोगों ने डब्ल्यूटीओ की विफल हुई दोहा वार्ताओं को देखा है वे जरूर इस बात से सहमत होंगे। इस वार्ता में 'नॉन एग्रीकल्चर मार्केट एक्सेस' (नामा)भी शामिल था, जिसका मुख्य लक्ष्य था कि मुक्त बाजार पर सभी प्रकार के शुल्क संबंधी और गैर शुल्क सम्बंधी प्रतिबंधों को सभी देश हटा लें। जैसा कि हम सभी को पता है कि 'अमेरिका की जीरो टैरिफ कोएलिशन' जिसके एक कर्मचारी डॉव केमिकल्स से थे, ने मांग की कि बहुत से क्रूशियल सेक्टरों में जीरो टैरिफ कर दिया जाए। इनमें खेल का सामान, खिलौने, लकड़ी की मशीनें और लकड़ी का सामान भी शामिल था। कुछ आलोचकों ने नामा को कंपनियों के लिए एक ऐसा स्वप्निल वाहन बताया जो पूरी दुनिया में करों और नियमों को कुचल रहा है। जैसा कि हमें पता है जी-90 ने भी खतरे के लिए भय व्यक्त किया था कि कहीं मुक्त अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता छोटे उद्योगों और छोटी फर्मों को खत्म न कर दे। उन्हें यह भी डर था कि जीरो टैरिफ आगे चलकर अनौद्योगीकरण, बेकारी और गरीबी जैसे संकट पैदा कर देगा। वैश्विक पूंजी से प्रोत्साहित होकर 'नामा' की प्राकृतिक संसाधनों की खोज विनाश का मिशन न बन जाए।
असल में 'वैश्विक अर्थव्यवस्था' की धारणा 'वैश्विक पूंजी' द्वारा लूट के नये तरीकों को परिभाषित करती है। भूमंडलीकरण का मतलब नए तरह का उपनिवेशवाद है, इसके पुराने रूप में प्रदेशों, साधनों और लोगों पर हुकूमत साफ तौर पर दिखाई तो देती थी, लेकिन अब नए रूप में तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, सब कुछ अदृश्य रूप से हो रहा है, जो और भी ञतक है।
वर्तमान भूमंडलीकरण के कई रूप हैं, लेकिन इनमें कानूनी और न्यायिक भूमंडलीकरण की मुख्य भूमिका है। कानूनी भूमंडलीकरण में कई बाते हैं। यह कानूनी नौकरियों के लिए विश्व बाजार में एक 'प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति बनाता है और महानगरीय कानूनी व्यवसाय को आधुनिक भी बनाता है। इस प्रक्रिया में कुछ प्रतिष्ठत राष्ट्रीय लॉ स्कूलों के वाइस-चांसलर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे संवैधानिक बदलाव, आर्थिक नीति और कानून में सुधार आदि के मामलों में सलाह देने के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों को कॉरपोरेट ढंग से काम करने के लिए भी तैयार करते हैं।
कानूनी भूमंडलीकरण नए कानूनी सुधार के एजेंडे को भी व्यक्त करता है जो आर्थिक भूमंडलीकरण के तीन 'डी' डीनैशनलाइजेशन (विराष्ट्रीयकरण), डिस-इंवेस्टमेंट (विनिवेश) और डीरेग्युलेशन (विनियमन) को साकार कर रहा है। इस एजेंडे में खासतौर पर नई कार्यान्वयन संस्थाओं, प्रक्रियाओं, और संस्कृतियों को अपने ढंग से मोड़ना, विवादों के वैकल्पिक निर्णय पर जोर देना, निवेश और व्यावसायिक कानूनों को सरल बनाना है। इसका झुकाव 'श्रम बाजार' के लचीलेपन को बढ़ावा देने की ओर है। कानूनी सुधारों में न्यायिक प्रशासन की कार्यकुशलता खासतौर पर नई आर्थिक नीति का यंत्र नजर आती है। 'फॉर ग्लोबलाइजेशन' नाम की इस प्रक्रिया ने कई महत्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन किये हैं, जैसे- रोजगार गारंटी योजना अधिनियम, बाल श्रम कानूनों को लागू करना, उपभोक्ताओं के अधिकारों की सुरक्षा-व्यवस्था और सूचना का अधिकार। संक्षेप में कहें तो कानूनी भूमंडलीकरण्ा भारत के नए उभरते मध्य वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ जरूरतों को बढ़ावा भी दे रहा है।
मुझे यकीन है कि इस नए विषैले न्याय की वैश्विक सामाजिक उत्पत्ति पर सवाल जरूर उठेंगे कि वैश्विक स्तर पर न्याय पर बात करने वाले कौन से दबाव, मैनेजर और एजेंट हैं? हम उनकी असली मंशा कैसे जान सकते हैं? मुझे तो यह बिल्कुल साफ नजर आ रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय और प्रांतीय वित्तीय संस्थाएं, अमेरिका, यूरोपीय संञ्, जापान और बुरी तरह से ञयल हुआ डब्ल्यूटीओ, इनका एक ही मकसद है कि तीसरी दुनिया के श्रम और पूंजी बाजार में ञ्ुसपैठ करना ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों के लिए साफ-सुरक्षित रास्ता तैयार हो सके।
न्यायिक भूमंडलीकरण के संदर्भ में मैं 'एक्सेस' शब्द के दु:खद पहलू पर रोशनी डालना चाहता हूं। न्यायिक भूमंडलीकरण विषय पर उपलब्ध थोड़े बहुत साहित्य से यह पता चलता है कि यह दुनिया के शीर्ष न्यायालयों और न्यायाधीशों के बीच सौहार्द और सहयोग की नयी व्यवस्था है। पहली नजर में, इस बात पर प्रश्न उठता है कि शीर्ष न्यायाधीशों को एक दूसरे के साथ मिलकर उनकी उपलब्धियों को जानना चाहिए या फिर उन्हें राष्ट्रीय और वैश्विक न्याय के कामों का पालन करते हुए 'सहकारी समाज' बन जाना चाहिए। अक्सर साधारण सी दिखने वाली बातों में कुछ बड़ा एजेंडा छिपा होता है। न्यायिक सौहार्द अक्सर आधिपत्य और कभी-कभी तो सामान्य प्रभुत्व में रंगा होता है।
उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस कांड में जज कीनान ने कहा कि यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के कारण हुए महाविनाश की इस जटिल परिस्थिति के बारे में निर्णय लेने में 'भारतीय न्यायालय' सक्षम नहीं है। इस सारे प्रकरण्ा में खास बात यह थी कि हानि के लिए भरपाई 'शेष प्रक्रिया' पूरी होने पर ही की जाएगी और यह कार्रवाई भारत के 'स्माल कॉजिज कोर्ट' निचली अदालतों की बराबरी करने वाले 'न्यूयॉर्क' कोर्ट द्वारा की जाएगी और उसी कोर्ट को कहा गया है कि वह निर्णय ले कि इस सबके लिए भारतीय सर्वोच्च न्यायालय योग्य है या नहीं? संक्षेप में, न्यायिक भूमंडलीकरण का मतलब है दक्षिण के सर्वोच्च न्यायालयों पर उत्तर के न्यायालयों का प्रभुत्व।
'गुड गवर्नेंस' की धारणा भी न्यायिक भूमंडलीकरण का ही रूप है, जिसमें सरकारी और अंतर्शासकीय सहायता और विकास एजेंसियों के तहत निर्णय में सुधार शामिल है। ऐसी खास एजेंसियां अक्सर कानूनी सुधारों और न्यायिक प्रशासन को अपने हाथ में ले लेती हैं और उन्हें अपनी ही आर्थिक और स्ट्रेटेजिक जरूरतों के मुताबिक ढाल लेती हैं। खासतौर पर व्यापारिक उदारीकरण, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, कम्पनी टाउन की स्थापना, मुक्त व्यापार आर्थिक क्षेत्र और लचीला श्रम बाजार जैसे मामलों में न्यायिक रूप से स्वयं को नियंत्रित करने को बढ़ावा देती हैं।
'ढांचागत समायोजन' एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके तहत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं सहारा लेकर उन देशों की आजादी को निगल रही हैं जो कभी साम्राज्यवादी ताकतों के गुलाम रह चुके हैं। यह व्यवस्था न्यायिक शक्ति सामर्थ्य और प्रक्रिया से भी परे है। मुझे तो लगता है कि विश्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, यूएनडीपी और इनसे जुड़े 'गुड गवर्नेंस' के कार्यक्रम सभी 'न्यायिक सक्रियतावाद' को बढ़ावा दे रहे हैं। ये सभी न्यायिक व्याख्याओं फैसलों और शासन के सभी रूपों को बाजार सहयोगी और व्यापार-संबंधी बनाना चाहते हैं। न्यायिक नीति की आधार 'मैक्रो-इकॉनोमिक पॉलिसी' से जुड़े न्यायिक प्रतिबंधनों को पहले से ही 'हाइपर- ग्लोबलाइज' हुए 'इंडियन एपिलेट बार' ने अपने ढंग से ढाल दिया है। न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया का जो हाल है उसने तो 'भारतीय भूमंडलीकरण के आलोचकों' के मनों से न्यायपालिका के प्रति सम्मान ही खत्म कर दिया है।
संक्षेप में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि न्याय सुलभता (न्याय तक पहुंच विषय पर विचार) समस्या बनी रहेगी, समाधान नहीं। इसका हल ढूंढने के लिए कुछ सवालों के जवाब खोजने होंगे- हम ज्यूडिशियल एक्सेस को ही डी-ग्लोबलाइज कैसे कर सकते हैं, जबकि देश में समुद्रपारीय पूंजी से कामगार वर्ग की जीविका और सम्मान के अधिकारों पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता? हम यह कैसे मान सकते हैं कि नए ग्लोबल शहरों और सेज जैसे एंक्लेव को बनाकर विस्थापित और पीड़ित शहरी लोगों को पहले जैसे ही मानव अधिकार बहाल किये जाएंगे? हम अपने लोकतंत्र और संविधान में गुड गवर्नेंस' जैसी बाहरी उधार ली हुई धारणा को कैसे अपना सकते हैं? निर्वाचित और गैर- निर्वाचित (न्यायाधीश) अधिकारियों के शासन में नई आर्थिक नीति निष्पक्ष मानव अधिकारों को लागू करने में कितनी प्रभावशाली साबित होगी, हम कैसे न्यायपालिका की गरिमा को फिर से वापस ला सकते हैं? अंत में मैं ज्याँ फ्रास्वाँ ल्योता के शब्दों को दोहराना चाहूंगा। उन्होंने कहा था : ''हम इतिहास के उन सबसे बुरे प्रभावों को खोजने के लिए जरूरतों के आधार में गिरावट को कैसे समझ सकते हैं, जो सच्चाई की पूरी और कठोर तस्वीर के निर्माण का विरोध करते हैं... (जो केवल सुनते हैं)... अस्पष्ट भावनाओं, नेताओं के दम्भ, कामगारों का दुख, किसानों का अपमान और शासित लोगों का गुस्सा और विद्रोह की ञ्बराहट, यही ञ्बराहट फिर से वर्गीय अव्यवस्था को दावत देती है। ''जस्टिस गोस्वामी ने एक बार सर्वोच्च न्यायालय के बारे में कहा था कि यह ञ्बराए और सताए लोगों का आखिरी सहारा है। शायद ग्लोबलाइज हुए भारतीय न्यायालय को फिर से अपनी खोई न्यायिक गरिमा को बरकरार रखने की जरूरत है। (पीएनएन- काम्बैट लॉ)