क्या जज कानून से ऊपर हैं? भ्रष्ट जजों को सजा दो

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल, ने अपने बेटों और उनके सहयोगियों के हित के लिए दिल्ली में व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को सील करने का आदेश देकर अपने पद का दुरुपयोग किया। न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल के बेटों ने उसके बाद 15 करोड़ रुपये का मकान खरीदा जबकि उस समय उनकी घोषित आय लाखों में ही थी। सरकार का कहना है कि ऐसा कोई कानून नहीं है, जिसके तहत एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के गलत कामों की जांच की जाए। इतना ही नहीं, मिडडे के जिन पत्रकारों ने इन काली करतूतों का पर्दाफाश किया उन्हें न्यायालय की अवमानना के जुर्म में उच्च न्यायालय ने जेल भेजने की सजा सुना दी।
न्यायाधीश जगदीश भल्ला के परिवार ने नोएडा में 7 करोड़ बाजार मूल्य की जमीन मात्र 5 लाख में एक ऐसे भू-माफिया से खरीदी, जिसके खिलाफ कई फौजादारी मामले उन्हीं की निचली अदालतों के तहत चल रहे थे। 'कमेटी फॉर ज्यूडिशियल एकांउटबिलिटि' द्वारा कई बार शिकायत किए जाने के बावजूद भी, कोई जांच नहीं की गई, उल्टे उन्हें हिमाचल प्रदेश में मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर दिया गया है।
पिछले दस सालों के दौरान जज नियुक्त करने की कमेटी से सलाह किये बिना और निर्धारित प्रक्रिया का उल्लंघन करके उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में कितने ही जजों की नियुक्ति, की गई है। कुछ जजों को तो, उनके खिलाफ खुफिया विभाग द्वारा भ्रष्टाचार की मजबूत रिपोर्टों के दिए जाने के बाद भी नियुक्त कर दिया गया है। सरकार कहती है कि जजों की नियुक्ति संबंधी फाइलें गुप्त हैं। तो क्या सरकार को भ्रष्ट न्यायपालिका की जरूरत है?
हाल में ही उजागर गाजियाबाद में प्रोविडेन्ट फंड घोटाले में सर्वोच्च न्यायालय के एक पीठासीन जज, उच्च न्यायालय के 13 जज और जिला अदालतों के 12 जज शामिल हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश प्रोविडेन्ट फंड में फंसे जजों से पुलिस को सीधे सवाल पूछने तक की इजाजत नहीं दे रहे हैं और पुलिस को केवल लिखित सवाल भेजने का निर्देश दे रहे हैं।
1991 में वीरास्वामी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के बिना किसी भी जज के खिलाफ कोई भी एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती। इस तरह न्यायपालिका ने किसी भी आपराधिक कार्रवाई से अपने को पूरी तरह मुक्त कर लिया है; फिर जज का अपराध चाहे कितना भी गंभीर क्यों हो। जजों द्वारा कई बार घोर अपराध किए जाने के बावजूद मुख्य न्यायाधीश ने उनके खिलाफ एफआईआर दायर करने की इजाजत नहीं दी है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश जजों की सम्पत्ति के ब्यौरे को भी सार्वजनिक करने से इंकार करते हैं। जबकि नेताओं और नौकरशाहों के लिए सम्पत्ति का खुलासा करना जरूरी होता है। फिर जजों के लिए क्यों नहीं? मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि कोई भी स्वाभिमानी जज अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देने के लिए राजी नहीं होगा, इतना ही नहीं वे तो यह भी कहते हैं कि मुख्य न्यायाधीश का पद सूचना के अधिकार के तहत नहीं आता। मजेदार बात यह है कि चुनाव लड़ने वाले नेताओं की सम्पत्ति का ब्यौरा देने का आदेश खुद सर्वोच्च न्यायालय ने दिया था। कई उच्च न्यायालयों ने सूचना के अधिकार के तहत अपने सुविधानुसार नियम बना दिये हैं, जिसमें प्रशासनिक और वित्तीय मामलों पर सूचना लेने की मनाही है। यही वजह है कि जजों या अन्य लोगों की नियुक्ति, लम्बित पड़े मामलों और यहां तक कि अदालतों के बजट के बारे में भी सूचना आम जनता को नहीं मिल रही है।

क्या न्यायपालिका की कोई जवाबदेही है?


हमारी मांगें
- एक जवाबदेह न्यायपालिका
-एक स्वतंत्र राष्ट्रीय न्यायिक आयोग, जिसे जजों को अनुशासित करने का अधिकार हो।
-आपराधिक मामलों के संदर्भ में जजों की भी जांच करने पर कोई बंधन हो। वीरास्वामी मामले में दिये गये फैसले को वापस लिया जाए।
-न्यायालय की अवमानना अधिनियम में संशोधन किया जाए।
- सूचना का अधिकार विधेयक पूरी तरह से न्यायायपालिका पर लागू हो - उनकी नियुक्तियां, पदोन्नति और सम्पत्ति सार्वजनिक किया जाए।
एक जवाबदेह न्यायपालिका के लिए हमसे जुड़ें . . क्योंकि न्याय की हम सबको जरूरत है।
कैम्पेन फॉर ज्यूडिशियल एकांउटबिलिटि एंड रिफॉर्म (न्यायिक जवाबदेही और सुधार के लिए अभियान)
वेबसाइट : www.judicialreforms.org ईमेल : judicialreforms@gmail.com

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