समानता के लिए संघर्ष ही रास्ता - प्रो. अरुण कुमार

(प्रो. अरुण कुमार जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। उन्होंने देश में हो रहे आर्थिक-सामाजिक बदलाव पर पैनी नजर रखी है। देश में व्यवस्था परिवर्तन के लिए चल रहे आन्दोलनों से उनका गहरा जुड़ाव रहा है। उनका यह विचारोत्तोजक लेख वर्तमान परिस्थितियों को और उनको बदलने के लिए आन्दोलनों और संघर्षों की जरूरतों को समझने में मददगार होगा-सम्पादक)
सभी महत्वपूर्ण धर्म और दर्शन मानव के बीच समानता की बात करते हैं। परन्तु इन धर्मों और दर्शन के आधार पर चलने वाले समाजों में भी समानता नहीं दिखायी देती। वास्तव में ज्यादातर समाज यह बात स्वीकार कर चुके हैं कि अब उन्हें बढ़ती असमानताओं के साथ ही जीना है। पिछले 30 वर्षों में भौतिक विषमताएं बढ़ कर उस स्तर पर पहुंच गयी हैं जैसी कि 1930 के दशक में दिखायी पड़ती थी। इस सम्बन्ध में भारत तो चरम विरोधाभासों की धरती है जहां अरबपतियों की संख्या के मामले में यह दूसरे नम्बर पर है वहीं गरीबों की संख्या के मामले में विश्व में अव्वल है।
अमीर समाजों ने भी गरीबी की निरन्तरता देखी है हालांकि उनके पास इससे मुक्ति पाने के साधन उपलब्ध हैं। इसके बावजूद चूंकि इन समाजों के नागरिक अपने संगी नागरिकों को मानवीय अस्तित्व के निचले स्तर पर जीते हुए देख कर भी कोई आपत्ति नहीं करते, इसलिये वहां विषमता की स्वीकार्यता आसान हो जाती है।
विकासशील समाजों में असमानता का विचार और ज्यादा स्वीकार्य हो जाता है क्योंकि वहां के शासक गरीबी और संसाधनों की कमी के कारण असहाय होने का तर्क जो दे देते हैं। इन समाजों का उच्च वर्ग जिसका जीने का तौर तरीका गरीबों पर और बढ़ती विषमता पर ही जीवित रहता है, इसके बारे में कुछ नहीं करता। वे सुझाव देते हैं कि 'रिसन का सिध्दान्त' से भविष्य में यह समस्या अपने आप सुलझ जायेगी इसलिये अभी कुछ करने की जरूरत नहीं है। वे तर्क देते हैं कि उच्च वृध्दि से यह लक्ष्य जल्दी हासिल किया जा सकेगा परन्तु उच्च वृध्दि के लिये उन्हें और ज्यादा छूट/सहूलियतें चाहिये जिससे वे और अमीर हो जायँ। जल्दी से अमीर बनने के अपने ही स्वार्थ में डूबे ये लोग इसमें कुछ भी गलत नहीं मानते। इसलिये गरीबी और विषमता की समस्याएं संरचनात्मक हैं और इन्हें केवल समग्र परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है जिसे यहां दिया जा रहा है।
दार्शनिक अन्दाज में कहें तो सभी नागरिक जन्म से समान होते हैं, जिनमें एक जैसी समर्थताएं मौजूद रहती हैं लेकिन सामाजिक अस्तित्व के पैमाने पर लोग असमान हो जाते हैं। यदि विभिन्न लोगों में प्राकृतिक भिन्नताएं मौजूद हैं तो भी समाज ही तय करता है कि उनके साथ बराबरी का सलूक किया जाय या यदि गैरबराबरी का किया जाय तो कितनी गैरबराबरी का। उच्चवर्ग/बड़े लोग ही यह तय करते हैं कि किसको कैसा स्टेट्स मिले और अपने फायदे के लिये ये लोग सामाजिक सोपानों ;ैवबपंस ीपमतंतबीलध्द की रचना करते हैं। उनकी इस सामाजिक दृष्टि को समाज की स्वाभाविक स्थिति कह कर जायज ठहरा दिया जाता है। इन लोगों की न्यायदृष्टि भी इसी सोपानीकृत समाज दृष्टि से परिभाषित होती है।
क्या समाज स्वयमेव पक्षपातहीनता या समानता का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है ? क्या यह समाज की स्वाभाविक गति मानी जा सकती है ? इन प्रश्नों के उत्तर समाज की प्रकृति/अवस्था से, इसकी संस्थाओं से और इसकी न्याय चेतना से जुड़े हुए हैं। किसी समाज में प्रचलित न्यायदृष्टि उस समाज के शासकों के वैचारिक प्रभुत्व से ही उपजती है और यह ऐसी होती है कि जो व्यवस्था पर उनकी पकड़ को और मजबूत करें। यहां तक कि पीड़ित या व्यवस्था से सताये लोग भी इसी न्याय दृष्टि को उचित मानने और स्वीकार करने लगते हैं। उदाहरण के लिये, वर्तमान पुरुष प्रधान दुनिया में सफल महिलायें भी पुरुष केन्द्रित मूल्यों को अपना रही हैं और इसी को स्वाभाविक अवस्था मान रही हैं।
समाज की समानता की समझ को प्रभावित करने वाले लक्षण केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, भाषागत, परिस्थितिकीगत आदि भी होते हैं। इसलिये समानता के प्रति समाज के दृष्टिकोण में किसी बदलाव के लिये इन सभी क्षेत्रों में व्यापक और बुनियादी बदलाव होना जरूरी है और इसका अर्थ होता है सामाजिक चेतना में ही सम्पूर्ण बदलाव। ऐसा बदलाव केवल आंदोलनों और संघर्ष से ही आ सकता है। केवल शासकों की भलमनसाहत से कुछ नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये, पिछले दशकों में चले पर्यावरण आन्दोलन की असफलता के पीछे यह बात है कि यह आन्दोलन उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने में विफल रहा है। शिक्षा इस बदलाव में महत्वपूण्र् भूमिका निभा सकती है वर्तमान शिक्षा तो जमी हुई असमानताओं और चालू व्यवस्था को मजबूत करने में ही लगी हुई हैं। यह स्पष्ट है कि यदि परिवर्तन आना है तो सत्तासम्पन्न लोग क्या चाहते हैं उसके बावजूद भी इसे आना है। इसलिये बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के केन्द्र में संघर्ष और प्रतिरोध के आन्दोलन ही हैं।
बढ़ती असमानताओं की प्रकृति
असमानता के कई आयाम हैं। आज इसे मुख्यतया भौतिक आयाम के सम्बन्ध में ही समझा जाता है। दुनियाभर में भौतिक विषमताएं कम भी हुई हैं और बढ़ी भी हैं। प्रति व्यक्ति आमदनी के आधार पर देशों के बीच असमानता कम हुई है। खासतौर से पूर्व उपनिवेशों द्वारा 70 के दशक के बाद अच्छी प्रगति करने के कारण। किन्तु दुनिया के अधिकांश देशों में वितरण की समस्या बिगड़ गयी है। दोनों तथ्यों को एक साथ लेकर देखा जाय तो असमानता अवश्यम्भावी नहीं लगती और इसका सामाजिक आधार दिखायी पड़ता है। उदाहरण के लिये, उपनिवेशकाल में, असमानता का कारण मौजूदा परिस्थितियां थीं, इसके कोई प्राकृतिक कारण नहीं थे। वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के प्रभाव में विश्व में नई उदारवादी नीतियां चलायी जा रही हैं उनके कारण ये असमानताएं हैं।
पूंजीवाद का यह एक लक्षण है कि असमानता के कारण यह और फलता फूलता है। चूंकि, प्रगति बड़े लोगों के क्रियाकलापों पर निर्भर दिखायी पड़ती है, इसलिये वे अपने लिये समाज से ज्यादा से ज्यादा छूटों की मांग करते हैं और जब वे ये छूटें प्राप्त कर लेते हैं तो असमानता और बढ़ जाती है। अब कल्याणकारी राज्य में विश्वास खत्म हो गया है और उसके स्थान पर विकास का अनन्य और उच्चवर्गीय मॉडल स्थापित हो गया है। इस स्थिति को डॉलर वोट के 'बाजार कट्टरवाद' ने मजबूत किया है और बाजार द्वारा हाशिये पर पड़े लोगों को और किनारे धकेलने के कारण यह स्थिति विकट हो गयी है। पूंजीवाद में सबसे बड़ी असमानता मजदूरी और मुनाफे के बीच है। जैसे-जैसे पूंजी कुछ हाथों में सिमटती जाती है या/और श्रमिक कमजोर होता जाता है वैसे-वैसे एकाधिकार का अंश बढ़ता जाता है। ऐसा ही वर्तमान समय में हो रहा है। परिणाम है बढ़ती असमानता।
'बाजार' और 'समाज के बाजारीकरण' के बीच महत्वपूर्ण भेद को रेखांकित करना जरूरी है। बाजार तो बहुत पहले से मौजूद है, परन्तु समाज का बाजारीकरण नयी घटना है। इसके परिणामस्वरूप लोगों में भावना का अहसास, सामुदायिकता और एकजुटता की चेतना कमजोर पड गयी और अलगाव और अकेले रहने की भावना स्थापित हो गयी है। लोग एक मशीन मात्र बन कर रह गये हैं। उदाहरण के लिये, चिकित्सा के आधुनिक पेशे में मनुष्य को सम्पूर्ण मान कर इलाज नहीं किया जाता बल्कि उसे अलग-अलग हिस्सों में बांट कर देखा जाता है। आधाुनिक शिक्षा लोगों को खनिजों की तरह एक संसाधन मानती है जिन्हें उत्पादन के लिये इस्तेमाल किया जा सके। शिक्षा को अब मानव संसाधन विकास के तरीके से लिया जाता है।
मुनाफे को अधिकतम करने वाली व्यवस्था में अपराधबोध और स्वसंदेह की भावनाएं उभरती हैं जिन्हें कम से कम करने की जरूरत पड़ती है। इसीलिये उच्च वर्गों को गरीबी या असमानता के अस्तित्व के लिये जिम्मेदार होने या उसके लिये बुरा महसूस करने की आवश्यकता नहीं है। जब 'अधिक अच्छा है' का विचार मान लिया गया तो फिर त्याग करना तो मूर्खता ही माना जायेगा। इसलिये कोई भी शर्मनाक रूप से स्वकेन्द्रित हो सकता है। किन्तु, परिवार-समाज आदि ऐसी संस्थाएं र्हैं जिन्हें बनाये रखने के लिये त्याग की जरूरत पड़ती है और चूंकि त्याग का मूल्य पिट चुका है इसलिये ये संस्थाएं संकट से घिर गयी हैं। जो यह कहते हैं कि मनुष्य मजबूत प्राणी है वे वही हैं जो मनुष्य को कमजोर करने के सबसे ज्यादा उपक्रम करते हैं। समाज की दखलन्दाजी को कम करने और लोगों का ज्यादा शोषण करने की भूमिका बांधने के लिये इस तर्क को बार-बार दोहराया जाता है।
बढ़ती काली अर्थव्यवस्था और अवैधानिकता का चरित्र समाज विरोधी है। ये समाज के अन्दरूनी अंगों को दीमक की तरह चट कर रही हैं। आंकलन किया गया है कि भारत में जी.डी.पी. के 50 प्रतिशत के बराबर काली अर्थव्यवस्था मौजूद है। यह इतनी विशाल है कि व्यवस्थागत और व्यवस्थामूलक दोनों है। यह केवल 3 प्रतिशत भारतीयों के हाथ मेंं केन्द्रित है और विशाल विषमता को जन्म देती हैं। यह व्यक्तियों के अलगाव को बढ़ा कर अपने खिलाफ समाज के हस्तक्षेप को मुश्किल बना देती हैं।
क्या भौतिक तरक्की ही तरक्की का एकमात्र पैमाना है ? बाजार लोगों में संतुष्टि और संतृप्ति की भावना को प्रोत्साहित नहीं करता। इसलिये जीवन का भौतिक पक्ष अक्सर सुखानुभूति से अलग रह जाता है। और फिर समाज की अर्थशास्त्रीय दृष्टि भी एक छोटी सी परिभाषा 'अभी और यही' में परिलक्षित हो कर रह है जबकि समाज को दूरगामी सोच रखनी चाहिये। समाज की दूरगामी सोच और व्यक्ति के 'अभी और यही' के बीच का विशाल अन्तराल मानवजाति के लिये खतरनाक साबित हो रहा है।
वर्तमान विज्ञान और टेक्नोलाजी के बहुत से विशिष्ट रूप समाज में फैली असमानता के संबंध में हमारे वर्तमान मनोभावों के आर्थिक पक्षों को और मजबूत करते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विज्ञान और तकनीक ने भौतिक सम्पन्नता बढ़ायी है परन्तु इसने लोगों में असमानता को भी बढ़ाया है क्योंकि अलग-अलग लोगों की इस तक अलग-अलग पहुंच होती है। सूचना तकनीक और डिजिटल तकनीक की विभाजित पहुंच ऐसा ही मामला है। बायो टेक्नालाजी से लोगों को असमान बनाने की नई सम्भावनाएं निकल रही हैं और ये खतरनाक संकेत हैं। आज तकनीक का मनुष्य के ऊपर ऐसा प्रभुंत्व जम गया है जैसा पहले कभी नहीं था और इसने लोगों के इस विश्वास को मजबूत किया है कि यह हर मर्ज की दवा है और अब सामाजिक स्तर पर किसी भी प्रकार के एक्शन की जरूरत नहीं है। कई तरीकों से यह दृष्टि को संकीर्ण कर रहा है।
बढ़ती हुई सांस्कृतिक दरार भी असमानता को पुष्ट कर रही हैं। लोक संस्कृति गिनी-चुनी कम्पनियों और वाणिज्यिक हितों द्वारा निर्देशित हो रही हैं और बहुसंख्यक लोग किनारे खिसक कर निष्क्रिय दर्शक मात्र बन कर रह गये हैं। इससे सामान्य आदमी की सृजनशीलता सीमित होती जा रही है और निष्क्रियता की वजह से उनकी स्वत:स्फूर्तता घट रही है। यहां तक कि जो चीजें अब तक पवित्र मानी जाती थी वे भी अब वैसी नहीं रहीं। पवित्र गंगा और गोदावरी भयंकर प्रदूषित हैं परन्तु लोगों को अब उनकी कोई चिन्ता नहीं है। आधुनिक मनुष्य, वाणिज्य और पैसे के अलावा, किस निश्चित चीज में विश्वास करता है ?
असमानता का भाषायी आयाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। आज हमें अंग्रेजी का प्रभुत्व और इसके द्वारा अंग्रेजी शिक्षित उच्च वर्ग और बाकी लोगों के बीच बनी गहरी खांई स्वीकार हो गयी है। विश्व में अनेकानेक भाषायें तो अब विलुप्ति के कगार पर हैं और इस कारण इन भाषा बोलने वालों की अस्मिता और संस्कृति पर गहरा संकट है।
बिगड़ता पर्यावरण विषमता को चौड़ा करने और अमीरी के टापुओं के बीच बढ़ती गरीबी की तरफ ले जा रहा है। प्रजातियां खतरनाक दर से विलुप्त हो रही हैं और निकट आती जा रही प्राकृतिक विपदा की ओर इशारा कर रही हैं। वैश्विक गर्मी, प्राकृतिक आपदा और नई बीमारियां बढ़ने पर हैं। इन सभी का असर गरीबों पर ही ज्यादा पड़ रहा है।
समाज और विशेष कर उनमें रहने वाले अमीर पृथ्वी के संसाधनों का बड़ा हिस्सा चट कर जा रहे है। इस कारण विभिन्न प्रकार के झगड़े (खास कर प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर नियंत्रण को लेकर) खड़े हो गये हैं। कुछ लोग केवल तभी तक ज्यादा उपभोग कर सकते हैं जब तक कि बहुसंख्यक लोग वंचित रहें। इसलिये शासक कमजोरों को दबाने के लिये अधिाकारवादी बनते जा रहे हैं।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर विकासशील देशों के सस्ते खनिजों और सस्ते श्रमिकों पर गड़ी हुई है। लोगों का उनके लिये कोई अर्थ नहीं है। इनके ऊपर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिये कुछ भी बेचा जा सकता है। लोगों-आदिवासी और स्थानीय- का कोई मतलब नहीं है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ लोगों के प्रतिरोध को तोड़ने के लिये राज्य की मदद जरूरी है। कार्पोरेट सेक्टर संसाधनों (जैसे-सेज के लिये जमीन) पर कब्जा करने के लिये राज्य का उपयोग कर रहा है। सरकार इण्डिया प्राइवेट लि. बन गयी है।
किसी भी परिवर्तन का ऐतिहासिक आयाम महत्वपूर्ण होता है। लोग कोई रोबोट तो होते नहीं बल्कि ऐतिहासिक रूप से मर्यादित होते हैं। इसलिये सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी होती है और फिर विकासशील देशों के समाज तो तितर-बितर हो चुके समाज हैं। आजकल ईराक और अफगानिस्तान में ऐसा हो रहा है। पहले सम्पूर्ण उपनिवेश ऐसी ही स्थिति में थे। इस विध्वंस के दूरगामी असर हुए क्योंकि गुलाम देशों का उच्च वर्ग शासक देशों के साथ मिल गया था। बाहरी शक्तियां/प्रभाव असरकारी हो गये और इन समाजों ने अपनी गतिशीलता खो दी। अपना ज्ञान और सामाजिक समझ उससे तय होने लगी जो कुछ विकसित दुनिया में हो रहा है और हमारे विचारक व्युत्पन्न बुध्दिजीवी बन गये हैं। व्यवस्था बाहरी संस्थाओं (जैसे-आईएमएफ और विश्वबैंक) के प्रति उत्तरदायी हैं न कि अपने लोगों के प्रति और इसलिये राजनीतिक आजादी हासिल कर लेने के बावजूद शासक और शोषित के बीच की खांई विशाल बनी हुई है।
संक्षेप में, असमानता अपने चरित्र और कारणों की दृष्टि से केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि बहुआयामी है। हालांकि सामाजिक अस्तित्व के हर क्षेत्र में आर्थिक आयाम की घुसपैठ से तस्वीर पहले के मुकाबले और जटिल हो गयी है।
आज के आन्दोलनों और प्रतिरोधों की प्रकृति
क्या आन्दोलन स्वत:स्फूर्त होते हैं ? वे कब और कैसे खड़े होते हैं ? उनकी क्या प्रकृति होती है ? इन सबको समझने के लिये सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक अध्ययन होना जरूरी है। समाज की चेतना के परिवर्तन में आन्दोलन द्वि-विधि कड़ी बनते हैं। उदाहरण के लिये-आधुनिक समय में कम्युनिस्ट, समाजवादी, राष्ट्रवादी, नारी आन्दोलन, अमरीका में काले लोगों के आन्दोलन, भारत में दलितों के आन्दोलन, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आन्दोलन, नाभिकीय अस्त्र विरोधी, पर्यावरण और धार्मिक आन्दोलनों ने लोगों के मानस पर असर डाला।
आन्दोलनों में सम्भावित पदानुक्रम को पहचानना चाहिये। कुछ ने समाज के बुनियादी उसूलों को बदल दिया, कुछ ने नहीं। समाज में उपस्थित संकट सफल आन्दोलन को जन्म दे भी सकता है नहीं भी दे सकता। परिणामस्वरूप समस्याएं लम्बे समय तक उबलती रह सकती हैं। कोई जरूरी नहीं है कि बदलाव हो ही। इसलिये लोगों द्वारा सफल आन्दोलनों के लिये अविचल कार्य करने की जरूरत रहती है।
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ बीत चुकी है और आजादी प्राप्त किये हुंए भी 60 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन आज भी सेज और विस्थापन के खिलाफ नन्दीग्राम में और नर्मदा घाटी में आंदोलन हो रहे हैं। माओवादी आन्दोलन भी जोर पकड़ता जा रहा है और प्रधानमंत्री को यह स्वीकार करने के लिये मजबूर होना पड़ा है कि यह भारतीय राज्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
राजनीतिक व्यवस्था में उत्तरदायित्व की कमी के कारण भी विरोध और आन्दोलन खड़े हो जाते हैं। न्यायपालिका की असफलता और इसके दक्षिापंथी रुझान के कारण बढ़ती अन्याय की भावना से यह समस्या और जटिल हो गयी है। परन्तु महिला और दलित आन्दोलनों से अभी भी आशा की किरण दिखायी दे रही है। हालांकि बढ़ते भ्रष्टाचार और लोकतांत्रिक संस्थाओं में क्षरण के कारण इस आशावाद में थोड़े और सुधार की जरूरत है। और फिर ये आंदोलन कैसा समाज बनाना चाहते हैं, इसकी कोई समझदारी उनमें न होने के कारण और भी जटिलताएं हैं।
आज, राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र में सुधार के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा दिखायी पड़ती है। वे निहित स्वार्थों के साथ जुड़ी हुई देखी जाती है। लोकतंत्र औपचारिक हो चुका है। वोट देने से लोगों की प्रामाण्0श्निाक पसंद सामने नहीं आ रही है। अमरीका या इंग्लैण्ड का दो-पार्टी सिस्टम या भारत का सिस्टम लोगों को प्रामाणिक विकल्प नहीं दे रहे हैं। पार्टियां वोट लेने की मशीन भर हैं भारत में भी और बाहर भी। लोकतंत्र की साख को क्षति पहुंचाने वाले ये कारक आन्दोलन शुरू करने में मुश्किलें खड़ी कर देते हैं। पार्टियों और उनके नेताओं में लोगों की कोई आस्था नहीं है। यदि इस स्थिति को बदलना है तो भविष्य के विकल्प को स्पष्ट करना पड़ेगा। इस तरह से लोकतांत्रिक परिवर्तन और विकल्प एक दूसरे से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं।
आन्दोलन, सामूहिक कार्यक्रम और प्रतिरोध को संगठित करने में मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। ऐसा संकीर्णता के फैलाव, व्यक्ति के परमाणुकरण की प्रक्रिया में तेजी और सामाजिक प्रक्रियाओं के बाजारीकरण के कारण हो रहा है। समाज को चूंकि 'सब्जेक्टिव' और मार्केट को 'आब्जेक्टिव' बताया जा रहा है, इसलिये समाज धीरे-धीरे पीछे हटता जा रहा है और बाजारीकरण आगे बढ़ता जा रहा है।
आज लोगों के सामने आ रही एक विशेष मुसीबत है कि वैश्वीकरण के इस दौर में वैश्विक आन्दोलन खड़ा करने वाला कोई वैश्विक समाज नहीं है। इसलिये विश्व सामाजिक मंच जैसे आन्दोलनों की भी शक्ति सीमित ही है। 90 के दशक की शुरूआत में विकासशील देशों में डब्लूटीओ को बनाने वाले डंकल ड्राफ्ट के खिलाफ चला आन्दोलन असफल हो गया। पर्यावरण विनाश को रोकने के लिये चल रहे आन्दोलन को भी सीमित सफलता मिली। वैश्विक समाज अमीर और गरीब की विभिन्न श्रेणियों में बंटा हुआ है। उदाहरण के लिये, श्रमिक आन्दोलनों को वैश्विक स्तर पर श्रमिक निरंकुशता, स्वेच्छाचारिता का सामना करना पड़ रहा है या फिर संगठित और असंगठित क्षेत्रों के बीच की खांई से।
आज पूंजी तो चलायमान है परन्तु श्रम नहीं। इसके कारण पूंजी मजबूत हुई है और श्रम कमजोर। श्रमिक आन्दोलन अब हर जगह कमजोर पड़ गया है। अमरीका में 80 के दशक में निजी क्षेत्र के 25 प्रतिशत श्रमिक इन संगठनों के सदस्य थे अब ये घट कर 7 प्रतिशत रह गये हैं।
लोगों को अब विकास का अपना रास्ता चुनने का अधिकार नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी अब विकास का रास्ता तय करती है। स्थानीय उच्चवर्ग इसमें उसकी मदद करता है और उसके एजेन्ट की भूमिका निभाता है। यह राष्ट्र की सम्प्रभुता को भी दांव पर लगाने के लिये तैयार है क्योंकि अब इसे संप्रभुता में कोई फायदा नजर नहीं आता। इस दिशा में इस वर्ग ने कई कदम उठाये हैं जैसा कि 1991 के बाद से मनमोहन सिंह के क्रियाकलाप सिध्द करते हैं। इनका परिणाम हुआ है कि कटा-छटा लोकतन्त्र। विधायिका, न्यायपालिका, नौकरशाही और पुलिस सब इस क्षरण की प्रक्रिया के हिस्से हैं। सामाजिक इकरारनामे बिखर चुके हैं। हिंसा के ऊपर एकाधिकार रखने वाला राज्य अब इसका प्रयोग जम कर आन्दोलनों और संघर्षों को तोड़ने के लिये कर रहा है।
निष्कर्ष
समाज का एक सभ्य बनाने वाला पक्ष भी होता है और यदि व्यक्तियों के बीच प्राकृतिक मतभेद हैं तो भी समाज अपने विचारों और संगठनों के कारण उन पर विजय प्राप्त कर सकता है। सभ्य समाज अपने निर्बलों की रक्षा करते हैं क्योंकि उन्हें प्रत्येक व्यक्ति की क्षमताओं का अंदाज रहता है। 'बाजारीकरण' जो समाज को विपरीत दिशा में ले जा रहा है और आन्दोलनों और सामुहिक कार्यों के रास्ते में रूकावट पैदा कर रहा है, का आज समाज के इसी सभ्यकारी विचार से मुकाबला है।
परोपकार मनुष्य का बुनियादी गुण है। प्रतिस्पधर्ाा की दौड़ में इसको नकारा जा रहा है। युवा के सर्वोत्तम जीवन वर्ष छीने जा रहे हैं और उसका परमाणुकरण किया जा रहा है। समाज के वे अंग जो मनुष्य को मजबूत होने की और उसे मुक्त छोड़ने की घोषणा करते हैं वही हैं जो अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिये उसे सबसे कमजोर बनाने पर तुले हुए हैं। ऐसा केवल आर्थिक स्तर पर ही नहीं बल्कि संस्कृति, विज्ञान और तकनीक, मीडिया आदि अनेक स्तरों पर हो रहा है जिससे कि असमानता विभिन्न आपस में जुड़े हुए तरीकों से और पुष्ट हो। इन सभी स्तरों पर लड़ाई लड़नी होगी।
बढ़ती हुई निराशा और विचारों की संकीर्णता से समाज की निश्चलता समाप्त होती जा रही है और व्यक्तियों को ऐसे खोलों में बदलती जा रही है जिनमें भावनात्मक गइराई न हो और उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है जैसे वे एक जटिल मशीन मात्र हों। संक्षेप में, जिन कारणों से असमानता बढ़ रही है, वे ही कारण समानता प्राप्त करने के आन्दोलनों को संगठित करने में मुश्किलात खड़ी कर रहे हैं।
समानता के लिये विकल्प आधारित आन्दोलनों और संघर्षों की जरूरत है। गांधी ने इसके लिये 'अन्तिम व्यक्ति को पहले रखने' का रास्ता सुझाया है। गांधी आज की भौतिकवादी दुनिया में भी प्रासंगिक है। लोगों के बीच काम करने वाले समूहों को इस बिन्दु पर एकजुट होना होगा।
(एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में आयोजित 31वीं भारतीय समाज विज्ञान कांग्रेस में प्रो. अरुण कुमार की प्रस्तुति पर आधारित)

मुद्दे-स्तम्भकार