न्यायपालिका और गरीब

‘कैंपेन फॉर ज्युडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म’, न्यायपालिका की जवाबदेही और इसमें सुधारों के लिए अभियान चलाने वाले प्रतिष्ठित न्यायविदों और बुद्धिजीवियों का संगठन है. हाल ही न्यायपालिका और गरीब विषय पर इस गैरसरकारी संस्था की एक गोष्ठी हुई जिसके बाद जारी बयान पवित्र गाय मानी जाने वाली देश की महाशक्तिशाली न्यायपालिका पर करारी चोट करने की हिम्मत करता है.
देश के ज्यादातर लोगों के लिए न्यायपालिका, न्याय के माध्यम के रूप में काम नहीं कर रही है. ऐसा लगता है कि न्यायपालिका का एक बड़ा हिस्सा इसके उलट उन व्यापारिक हितों के पक्ष में काम कर रहा है जो सरकार को अपने इशारों पर नचा रहे हैं. यही वजह है कि जब शक्तिशाली लोगों या सरकार द्वारा गरीबों के अधिकार कुचले जाते हैं तो न्यायपालिका के आदेश अक्सर उन अधिकारों को बहाल करने की बजाय गरीबों को उन अधिकारों से ही वंचित कर देते हैं.
हाल में हुए कुछ फैसलों पर नजर डालें तो पता चलता है कि अदालतों का दृष्टिकोण तो कॉरपोरेट हितों के हिसाब से चल रही सरकार के रवैये से भी ज्यादा संकुचित है. गरीबों पर रोज होने वाले जुल्म और अन्याय से न्यायपालिका को कोई फर्क नहीं पड़ता.
जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो गरीब है और जिसकी देश की न्यायिक व्यवस्था तक पहुंच ही नहीं है. दूरी, खर्च और प्रक्रियाओं की जटिलता इसके कारण हैं. वकीलों के बिना इस व्यवस्था तक पहुंचा नहीं जा सकता और गरीब के पास वकीलों को देने के लिए पैसा होता नहीं. अगर कोई गरीब किसी आरोप में फंस जाए तो वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में अपने बचाव के लिए उसके पास कोई उम्मीद नहीं होती. यही वजह है कि कई ऐसे लोग सुनवाई के इंतजार में अपराध के लिए निर्धारित सज़ा से भी ज्यादा वक्त जेल में काट देते हैं.
इससे भी बुरा है ज्यादातर (खासकर सुप्रीम कोर्ट के) जजों में बढ़ता गरीब विरोधी दृष्टिकोण. हाल में हुए कुछ फैसलों पर नजर डालें तो पता चलता है कि अदालतों का दृष्टिकोण तो कॉरपोरेट हितों के हिसाब से चल रही सरकार के रवैये से भी ज्यादा संकुचित है. गरीबों पर रोज होने वाले जुल्म और अन्याय से न्यायपालिका को कोई फर्क नहीं पड़ता. इसलिए जब व्यापारिक हितों के लिए गरीबों को उनकी जमीन और संसाधनों से बेदखल कर दिया गया तो कुछेक अपवादों को छोड़कर अदालतों ने ऐसे मामलों में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया. इससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए अक्सर अदालतों ने ही पुनर्वास के बिना गरीब झुग्गीवासियों को हटाने के निर्देश दिए. और ऐसा उनका पक्ष सुने बिना किया गया जो कि उनके आश्रय के अधिकार और निष्पक्ष न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है. कई बार ये इस आधार पर किया गया कि झुग्गीवालों ने सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा किया है और कई बार ये कहकर कि ये झुग्गियां पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील इलाके यानी यमुना के किनारे बनी हुई हैं. मगर जब रिज इलाके में शॉपिंग माल बना या उसी यमुना तट पर अक्षरधाम मंदिर बना तो इनकी राह में कोई ऐसे तर्क आड़े नहीं आए.
अदालतों ने कई शहरों की गलियों से हॉकरों को हटाने का हुक्म भी दिया है. इसमें भी अदालत ने पुनर्वास के मुद्दे पर ध्यान दिए बिना और दूसरे पक्ष की बात सुने बगैर ही फैसला सुना दिया. ये फैसला उनकी आजीविका के अधिकार का उल्लंघन है. इसी तरह दिल्ली की सड़कों से रिक्शाचालकों को हटाने का निर्देश दिया गया. ये ऐसे कदम थे जिन्हें उठाने में सरकार भी अपने लोकतांत्रिक दायित्वबोध के चलते हिचक रही थी मगर पूरी तरह से गैरजिम्मेदार न्यायपालिका को ऐसा करने में कोई हिचक नहीं हुई.
हाल के दिनों में हमने न्यायपालिका के हाथों श्रम संरक्षण क़ानूनों की धीमी मौत होते देखी है. इसने अनुबंध आधारित श्रम क़ानूनों को लागू करने से इनकार कर दिया और बहुत सफाई से तमाम श्रम क़ानूनों की परिभाषा बड़े व्यापारियों के फायदे के हिसाब से तय कर दी. एक फैसले में तो न्यायपालिका सारी हदें लांघ गई. उसने कहा कि श्रम क़ानूनों की परिभाषा सरकार की आर्थिक नीतियों के मुताबिक तय होनी चाहिए. इस तरह से उसने सरकार के लिए वो काम कर दिया जो सरकार संवैधानिक रूप से नहीं कर सकती थी क्योंकि इसके लिए आम सहमति बनाना मुश्किल होता.
इसी तरह का पक्षपात भरा रवैया गरीबों के प्रति भी देखने को मिला जब हमने नागरिक अधिकारों से जुड़े मामलों में कोर्ट के आदेशों का विश्लेषण किया. अक्सर गरीब औऱ कमज़ोर तबके के लोगों की ज़मानत याचिकाओं पर सालों सुनवायी नहीं होती जबकि शक्तिशाली और पैसेवालों के मामले, जिनकी पैरवी बड़े वकील कर रहे होते हैं, पर तुरंत कोर्ट की नज़रें इनायत हो जाती हैं. यहां तक कि बिनायक सेन जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के प्रति भी कोर्ट का रवैया ढुलमुल रहा और उनकी ज़मानत याचिका रद्द कर दी गयी जबकि तस्करों और सफेदपोशों को ज़मानत देने में कोई हिचक नहीं दिखाई दी.
ये देखना होगा कि जिस व्यक्ति की नियुक्ति की जानी है उसका सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण हमारे संविधान के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से मेल खाता है या नहीं और साथ ही उसके मन में गरीबों के प्रति गहरी समझ और संवेदना भी होनी चाहिए।
देश के नागरिकों के लिए वक्त आ गया है कि वो अपने न्यायिक तंत्र की फिर से समीक्षा करें. एक जनप्रिय न्यायिक तंत्र वो है जिसकी आम नागरिक तक पहुंच बिना किसी पेशेवर वकील की मध्यस्थता के हो सके. इसमें सबकी हिस्सेदारी होना और पारदर्शी तरीके से काम करना जरूरी है। क़ानून और इसकी प्रक्रियाएं सरल होनी चाहिए ताकि ये आम लोगों की समझ में आसानी से आ सके और लोगों तक इसकी पहुंच भी बढ़ सके। कोर्ट की कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए और इसके आंकड़े सूचना का अधिकार क़ानून के तहत आम नागरिक को सुलभ होना जरूरी हो। हाल ही में प्रस्तावित ग्राम न्यायालय इस दिशा में सही क़दम प्रतीत होता है। इनकी पर्याप्त संख्या में स्थापना की जाय ताकि ये कम से कम हर ब्लॉक पर लोगों को उपलब्ध हो सके। सरल क़ानूनी प्रक्रियाओं के साथ मिलकर ये योजना न्याय प्रक्रिया को तेज़ करने में सहायक सिद्ध होगी। हम यहां जन न्यायालय का विस्तृत खाका खींच सकते हैं लेकिन इसका संपूर्ण ब्लूप्रिंट तैयार किए जाने की जरूरत है।
सबसे महत्वपूर्ण है इन जन अदालतों को संचालित करने वाले जजों की नियुक्तियों में पारदर्शिता, जिसमें जनता की सहभागिता सबसे ज्यादा हो। ये देखना होगा कि जिस व्यक्ति की नियुक्ति की जानी है उसका सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण हमारे संविधान के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से मेल खाता है या नहीं और साथ ही उसके मन में गरीबों के प्रति गहरी समझ और संवेदना भी होनी चाहिए। इसके लिए हमें एक न्यायिक नियुक्ति आयोग की दरकार है जिसके सदस्य जज न हों। इसमें जनता की पूर्ण भागीदारी की इजाजत हो जो कि लोकतंत्र का मूलभूत आधार भी है।
इसके साथ ही एक ऐसे पारदर्शी और सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने वाले तंत्र की भी जरूरत है जो जजों के प्रदर्शन और दुराचरण पर नजर रखे. जजों को भ्रष्टाचार के अलावा और भी दूसरी वजहों जैसे संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप काम करने और न करने के लिए भी जवाबदेह बनाया जाना चाहिए. एक पूर्णकालिक, स्वतंत्र, न्यायिक प्रदर्शन आयोग को, जो कि जांचने की क्षमता भी रखता हो, नियमित रूप से जजों के प्रदर्शन की समीक्षा करनी चाहिए.
अक्सर और यहां तक कि आधिकारिक सम्मेलनों में भी कहा जाता है कि यहां की न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर है, क्योंकि न्याय देने की गति बहुत धीमी है. बहरहाल सिर्फ निर्णय देने की गति को बढ़ा कर गरीबों के लिए प्रभावी न्यायिक तंत्र नहीं बनाया जा सकता. इसके लिए हमें पूरी व्यवस्था को फिर से खड़ा करना होगा. ऐसे क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए देश में एक सशक्त जन आंदोलन की आवश्यकता होगी. यद्यपि यह अभी काफी दूर की बात है लेकिन इस मुद्दे पर जनता के बीच बहस-विचार की शुरुआत हो जानी चाहिए. वर्तमान न्यायिक तंत्र में लगे पैबंद को ढंकने के लिए लगाई गई किसी भी रकम का कोई सार्थक नतीजा नहीं निकलने वाला. बड़ी शल्य क्रिया की आवश्यकता है
साभार - http://www.tehelkahindi.com/InDinon/470.html

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