आर्थिक भूमंडलीकरण और न्याय तक पहुंच - उपेंद्र बख्शी

एक ऐसे दौर में जब राजनीति बाजार को बढ़ावा दे रही है और न्यायपालिका भी खुद को उसी सांचे में ढाल रही है, ऐसे में गरीबों के लिए तो कोई अवसर हीं नहीं बचा है। राजनीति और न्यायपालिका बाजार अर्थव्यव्यवस्था की जरूरतें पूरी कर रही हैं ताकि अरबपतियों के और ज्यादा अमीर बनने के 'अधिकारों' की रक्षा हो सके तो दूसरी ओर गरीब और ज्यादा गरीब बने रहें। 'बाजार अर्थव्यवस्था में समान भागीदारी और समानता' पर इंडियन लॉ इंस्टीटयूट के गोल्डन जुबली समारोह में उपेंद्र बख्शी का व्याख्यान ................

'बाजार अर्थव्यवस्था' जैसी है, वैसी दिखती नहीं है। इसे पूरी तरह समझने के लिए हमें उत्पादन और प्रलोभन में अंतर समझना होगा। उत्तर आधुनिक काल के फ्रांसीसी विचारक ज्यां ब्रादिया ने अपने एक निबंध 'द मिरर ऑव प्रोडक्शन' में इस अंतर को स्पष्ट किया है : उत्पादन अदृश्य वस्तुओं को दृश्य बनाता है और लालच दृश्य वस्तुओं को अदृश्य कर देता है, हमें निश्चित रूप से यह सवाल उठाना चाहिए कि आज के 'सुधारों के युग' में भारतीय संविधान ने क्या बनाया, जिसे लालच ने बिगाड़ दिया।
संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के बीच कई अंतर्विरोधों को पठनीय बना दिया, आंबेडकर ने भी 'विरोधाभासों से भरा जीवन' पर अपने भाषण में सर्वोच्च न्यायालय की भरपूर प्रशंसा की। उपनिवेशी शासन से मुक्त होने के बाद भारत में अन्तर्विरोधों से भरे समान सामाजिक विकास के मूल्यों की ञेषणा के साथ संविधान में अनुच्छेद 31 के तहत 'संपत्ति का अधिकार' भी जोड़ दिया गया।
अगर हम संविधान में किये गए 1 से 44 तक के संशोधनों और न्यायालय द्वारा की गई व्याख्याओं पर नजर डालें तो हमें यह साफ दिखाई देगा कि किस तरह राज्यों के नियमों के तहत भागीदारी और समानता के नाम पर उत्पादन के साधनों पर निजी संपत्ति अधिकार लागू कराने की कोशिशें की गईं। पर अन्त में 44वें संविधान संशोधन द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया, सच में खत्म हुआ या फिर इसे संवैधानिक अधिकार के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। यहां मैं यह पूरी कहानी बयां करने नहीं जा रहा हूं, बल्कि यह याद दिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि संवैधानिक व्याख्या के पहले दशकों में सर्वोच्च न्यायालय ने जो कुछ भी कहा था अब वह अपने ही दिये गए फैसलों से मुकर रहा है। पहले दिये गए फैसलों में मौलिक अधिकारों के सामने सभी करारों और संपत्ति को नगण्य बताया था। मैं ऐसे पांच उदाहरण दे सकता हूं, जिसमें न्यायालय का बदला हुआ रूप साफ दिखाई देता है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मूल्य, गरीब और पिछड़े लोगों के मौलिक अधिकार, नीति-निर्देशक तत्व और नागरिकों के मूल कर्तव्य सब कुछ नीति-निर्माताओं और न्यायाधीशों ने मिलकर खत्म कर दिया है। हमारे नीति- निर्देशक तत्व खासतौर पर संवैधानिक विकास की तस्वीर बनाने के लिए संविधान में रखे गए थे जो आज के आर्थिक सुधारों के दौर में फिट नहीं हो रहे हैं।
एक समारोह में भाग लेते समय, बहुत से लोगों ने हमारे से यह सवाल पूछा कि क्या भारतीय कानूनी शिक्षा, शोध, व्यवसाय और यहां तक कि न्यायपालिका वैश्विक बाजार की जरूरतों को पूरा कर पाएगी?
सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूंगा कि 'न्याय तक पहुंच' (एक्सेस टू जस्टिस) शब्द उतना ही रहस्यवादी है जितना कि 'वैश्विक अर्थव्यवस्था'। जिन लोगों ने डब्ल्यूटीओ की विफल हुई दोहा वार्ताओं को देखा है वे जरूर इस बात से सहमत होंगे। इस वार्ता में 'नॉन एग्रीकल्चर मार्केट एक्सेस' (नामा)भी शामिल था, जिसका मुख्य लक्ष्य था कि मुक्त बाजार पर सभी प्रकार के शुल्क संबंधी और गैर शुल्क सम्बंधी प्रतिबंधों को सभी देश हटा लें। जैसा कि हम सभी को पता है कि 'अमेरिका की जीरो टैरिफ कोएलिशन' जिसके एक कर्मचारी डॉव केमिकल्स से थे, ने मांग की कि बहुत से क्रूशियल सेक्टरों में जीरो टैरिफ कर दिया जाए। इनमें खेल का सामान, खिलौने, लकड़ी की मशीनें और लकड़ी का सामान भी शामिल था। कुछ आलोचकों ने नामा को कंपनियों के लिए एक ऐसा स्वप्निल वाहन बताया जो पूरी दुनिया में करों और नियमों को कुचल रहा है। जैसा कि हमें पता है जी-90 ने भी खतरे के लिए भय व्यक्त किया था कि कहीं मुक्त अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता छोटे उद्योगों और छोटी फर्मों को खत्म न कर दे। उन्हें यह भी डर था कि जीरो टैरिफ आगे चलकर अनौद्योगीकरण, बेकारी और गरीबी जैसे संकट पैदा कर देगा। वैश्विक पूंजी से प्रोत्साहित होकर 'नामा' की प्राकृतिक संसाधनों की खोज विनाश का मिशन न बन जाए।
असल में 'वैश्विक अर्थव्यवस्था' की धारणा 'वैश्विक पूंजी' द्वारा लूट के नये तरीकों को परिभाषित करती है। भूमंडलीकरण का मतलब नए तरह का उपनिवेशवाद है, इसके पुराने रूप में प्रदेशों, साधनों और लोगों पर हुकूमत साफ तौर पर दिखाई तो देती थी, लेकिन अब नए रूप में तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, सब कुछ अदृश्य रूप से हो रहा है, जो और भी ञतक है।
वर्तमान भूमंडलीकरण के कई रूप हैं, लेकिन इनमें कानूनी और न्यायिक भूमंडलीकरण की मुख्य भूमिका है। कानूनी भूमंडलीकरण में कई बाते हैं। यह कानूनी नौकरियों के लिए विश्व बाजार में एक 'प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति बनाता है और महानगरीय कानूनी व्यवसाय को आधुनिक भी बनाता है। इस प्रक्रिया में कुछ प्रतिष्ठत राष्ट्रीय लॉ स्कूलों के वाइस-चांसलर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे संवैधानिक बदलाव, आर्थिक नीति और कानून में सुधार आदि के मामलों में सलाह देने के साथ-साथ अपने विद्यार्थियों को कॉरपोरेट ढंग से काम करने के लिए भी तैयार करते हैं।
कानूनी भूमंडलीकरण नए कानूनी सुधार के एजेंडे को भी व्यक्त करता है जो आर्थिक भूमंडलीकरण के तीन 'डी' डीनैशनलाइजेशन (विराष्ट्रीयकरण), डिस-इंवेस्टमेंट (विनिवेश) और डीरेग्युलेशन (विनियमन) को साकार कर रहा है। इस एजेंडे में खासतौर पर नई कार्यान्वयन संस्थाओं, प्रक्रियाओं, और संस्कृतियों को अपने ढंग से मोड़ना, विवादों के वैकल्पिक निर्णय पर जोर देना, निवेश और व्यावसायिक कानूनों को सरल बनाना है। इसका झुकाव 'श्रम बाजार' के लचीलेपन को बढ़ावा देने की ओर है। कानूनी सुधारों में न्यायिक प्रशासन की कार्यकुशलता खासतौर पर नई आर्थिक नीति का यंत्र नजर आती है। 'फॉर ग्लोबलाइजेशन' नाम की इस प्रक्रिया ने कई महत्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन किये हैं, जैसे- रोजगार गारंटी योजना अधिनियम, बाल श्रम कानूनों को लागू करना, उपभोक्ताओं के अधिकारों की सुरक्षा-व्यवस्था और सूचना का अधिकार। संक्षेप में कहें तो कानूनी भूमंडलीकरण्ा भारत के नए उभरते मध्य वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ जरूरतों को बढ़ावा भी दे रहा है।
मुझे यकीन है कि इस नए विषैले न्याय की वैश्विक सामाजिक उत्पत्ति पर सवाल जरूर उठेंगे कि वैश्विक स्तर पर न्याय पर बात करने वाले कौन से दबाव, मैनेजर और एजेंट हैं? हम उनकी असली मंशा कैसे जान सकते हैं? मुझे तो यह बिल्कुल साफ नजर आ रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय और प्रांतीय वित्तीय संस्थाएं, अमेरिका, यूरोपीय संञ्, जापान और बुरी तरह से ञयल हुआ डब्ल्यूटीओ, इनका एक ही मकसद है कि तीसरी दुनिया के श्रम और पूंजी बाजार में ञ्ुसपैठ करना ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों के लिए साफ-सुरक्षित रास्ता तैयार हो सके।
न्यायिक भूमंडलीकरण के संदर्भ में मैं 'एक्सेस' शब्द के दु:खद पहलू पर रोशनी डालना चाहता हूं। न्यायिक भूमंडलीकरण विषय पर उपलब्ध थोड़े बहुत साहित्य से यह पता चलता है कि यह दुनिया के शीर्ष न्यायालयों और न्यायाधीशों के बीच सौहार्द और सहयोग की नयी व्यवस्था है। पहली नजर में, इस बात पर प्रश्न उठता है कि शीर्ष न्यायाधीशों को एक दूसरे के साथ मिलकर उनकी उपलब्धियों को जानना चाहिए या फिर उन्हें राष्ट्रीय और वैश्विक न्याय के कामों का पालन करते हुए 'सहकारी समाज' बन जाना चाहिए। अक्सर साधारण सी दिखने वाली बातों में कुछ बड़ा एजेंडा छिपा होता है। न्यायिक सौहार्द अक्सर आधिपत्य और कभी-कभी तो सामान्य प्रभुत्व में रंगा होता है।
उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस कांड में जज कीनान ने कहा कि यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के कारण हुए महाविनाश की इस जटिल परिस्थिति के बारे में निर्णय लेने में 'भारतीय न्यायालय' सक्षम नहीं है। इस सारे प्रकरण्ा में खास बात यह थी कि हानि के लिए भरपाई 'शेष प्रक्रिया' पूरी होने पर ही की जाएगी और यह कार्रवाई भारत के 'स्माल कॉजिज कोर्ट' निचली अदालतों की बराबरी करने वाले 'न्यूयॉर्क' कोर्ट द्वारा की जाएगी और उसी कोर्ट को कहा गया है कि वह निर्णय ले कि इस सबके लिए भारतीय सर्वोच्च न्यायालय योग्य है या नहीं? संक्षेप में, न्यायिक भूमंडलीकरण का मतलब है दक्षिण के सर्वोच्च न्यायालयों पर उत्तर के न्यायालयों का प्रभुत्व।
'गुड गवर्नेंस' की धारणा भी न्यायिक भूमंडलीकरण का ही रूप है, जिसमें सरकारी और अंतर्शासकीय सहायता और विकास एजेंसियों के तहत निर्णय में सुधार शामिल है। ऐसी खास एजेंसियां अक्सर कानूनी सुधारों और न्यायिक प्रशासन को अपने हाथ में ले लेती हैं और उन्हें अपनी ही आर्थिक और स्ट्रेटेजिक जरूरतों के मुताबिक ढाल लेती हैं। खासतौर पर व्यापारिक उदारीकरण, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, कम्पनी टाउन की स्थापना, मुक्त व्यापार आर्थिक क्षेत्र और लचीला श्रम बाजार जैसे मामलों में न्यायिक रूप से स्वयं को नियंत्रित करने को बढ़ावा देती हैं।
'ढांचागत समायोजन' एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके तहत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं सहारा लेकर उन देशों की आजादी को निगल रही हैं जो कभी साम्राज्यवादी ताकतों के गुलाम रह चुके हैं। यह व्यवस्था न्यायिक शक्ति सामर्थ्य और प्रक्रिया से भी परे है। मुझे तो लगता है कि विश्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, यूएनडीपी और इनसे जुड़े 'गुड गवर्नेंस' के कार्यक्रम सभी 'न्यायिक सक्रियतावाद' को बढ़ावा दे रहे हैं। ये सभी न्यायिक व्याख्याओं फैसलों और शासन के सभी रूपों को बाजार सहयोगी और व्यापार-संबंधी बनाना चाहते हैं। न्यायिक नीति की आधार 'मैक्रो-इकॉनोमिक पॉलिसी' से जुड़े न्यायिक प्रतिबंधनों को पहले से ही 'हाइपर- ग्लोबलाइज' हुए 'इंडियन एपिलेट बार' ने अपने ढंग से ढाल दिया है। न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया का जो हाल है उसने तो 'भारतीय भूमंडलीकरण के आलोचकों' के मनों से न्यायपालिका के प्रति सम्मान ही खत्म कर दिया है।
संक्षेप में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि न्याय सुलभता (न्याय तक पहुंच विषय पर विचार) समस्या बनी रहेगी, समाधान नहीं। इसका हल ढूंढने के लिए कुछ सवालों के जवाब खोजने होंगे- हम ज्यूडिशियल एक्सेस को ही डी-ग्लोबलाइज कैसे कर सकते हैं, जबकि देश में समुद्रपारीय पूंजी से कामगार वर्ग की जीविका और सम्मान के अधिकारों पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता? हम यह कैसे मान सकते हैं कि नए ग्लोबल शहरों और सेज जैसे एंक्लेव को बनाकर विस्थापित और पीड़ित शहरी लोगों को पहले जैसे ही मानव अधिकार बहाल किये जाएंगे? हम अपने लोकतंत्र और संविधान में गुड गवर्नेंस' जैसी बाहरी उधार ली हुई धारणा को कैसे अपना सकते हैं? निर्वाचित और गैर- निर्वाचित (न्यायाधीश) अधिकारियों के शासन में नई आर्थिक नीति निष्पक्ष मानव अधिकारों को लागू करने में कितनी प्रभावशाली साबित होगी, हम कैसे न्यायपालिका की गरिमा को फिर से वापस ला सकते हैं? अंत में मैं ज्याँ फ्रास्वाँ ल्योता के शब्दों को दोहराना चाहूंगा। उन्होंने कहा था : ''हम इतिहास के उन सबसे बुरे प्रभावों को खोजने के लिए जरूरतों के आधार में गिरावट को कैसे समझ सकते हैं, जो सच्चाई की पूरी और कठोर तस्वीर के निर्माण का विरोध करते हैं... (जो केवल सुनते हैं)... अस्पष्ट भावनाओं, नेताओं के दम्भ, कामगारों का दुख, किसानों का अपमान और शासित लोगों का गुस्सा और विद्रोह की ञ्बराहट, यही ञ्बराहट फिर से वर्गीय अव्यवस्था को दावत देती है। ''जस्टिस गोस्वामी ने एक बार सर्वोच्च न्यायालय के बारे में कहा था कि यह ञ्बराए और सताए लोगों का आखिरी सहारा है। शायद ग्लोबलाइज हुए भारतीय न्यायालय को फिर से अपनी खोई न्यायिक गरिमा को बरकरार रखने की जरूरत है। (पीएनएन- काम्बैट लॉ)

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