केरल के पतनमदित्ता जिला के ब्लाक कोनी में चेंगेरा प्लांटेशन क्षेत्र में 5000 दलित परिवारों ने सत्तारूढ़ सीपीएम सरकार के 'भूमि सुधार' कार्यक्रमों के ऊपर सवाल उठाते हुए 'हेरीसेन मलयालम' को दी गयी प्लान्टेशन की हजारों एकड़ भूमि पर अगस्त 2007 में अपना कब्जा कायम कर लिया है। आखिर इतने वर्षो से इन दलित परिवारों के बीच यह आस बनी हुई थी कि केरल में हुए बेहतरीन भूमि सुधार कार्यक्रमों का लाभ उन्हेें भी मिलेगा। परन्तु यह ख्वाब, ख्वाब ही रह गया तथा खेतिहर मजदूरों और प्लान्टेशन मजदूरों को भूमि सुधार कार्यक्रमों से सुनियोजित ढंग से बाहर रखा गया।
चेंगेरा के हेरीसन मलयालम एस्टेट, जिसे लाहा एस्टेट भी कहा जाता है, में पिछले चार महीनों से जमीनी हक के लिए संघर्ष चल रहा है। यह संघर्ष उन 5,000 परिवारों का है जो खेती की जमीनों पर अपना हक मांग रहे हैं। इन सबने मिलकर लाहा एस्टेट में एक प्रतिज्ञा ली है, जिसे 'चेंगेरा प्रतिज्ञा' का नाम दिया है। केरल के पथनमदित्ता जिले के चेंगेरा में बेघर दलितों और आदिवासियों ने 4 अगस्त 2007 को यह संघर्ष शुरू किया था।
बंगाल में नन्दीग्राम और केरल में चेंगेरा, दोनों ही प्रदेशों में सीपीएम की हुकूमत और दोनों ही प्रदेशों में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों, महिलाओं की जमीन पाने के लिए भूमि सुधार की मांग जंग के साथ जारी है। जहाँ एक ओर नन्दीग्राम में वाम सरकार ने अपने ही सिध्दान्तों, नीतियों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास बतौर गिरवी रख दिया है तथा विकास की नई परिभाषा ''कृषि नहीं औद्योगिक विकास'' की व्याख्या की है, वहीं चेंगेरा में दलितों ने भूमि पर दखल कर ठीक इसके विपरीत विकास को पुन: परिभाषित किया है।
जमीन के मालिकाना हक के लिए सरकार की वादा खिलाफी की वजह से आंदोलनरत 20,000 से ज्यादा लोगों ने हेरीसन मलयालम प्राइवेट लिमिटेड एस्टेट में घुसकर रहना शुरू कर दिया है। उनकी मांग है कि खेती की जमीनों का मालिकाना हक हेरीसन कंपनी से लेकर उन्हें दिया जाए। 'साधुजन विमोचना संयुक्तवेदी संघर्ष समिति' संघर्ष का नेतृत्व कर रही हैं।
मानवाधिकार कार्यकर्ता रोमा कहतीं हैं कि इन दलित परिवारों ने राजसत्ता को सीधे-सीधे चुनौती दे दी है कि या तो हमें जमीन दो, नहीं तो गोली। इस आन्दोलन में बड़ी तेज़ी से और भी दलित परिवार शामिल होते जा रहे हैं जो ''हेरीसन मलयालम'' कम्पनी को लीज पर दी गयी रबर प्लान्टेशन वाली भूमि को लेकर सवाल उठा रहे हैं। ये दलित परिवार भूखे, प्यासे मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों से भी जुझते हुए अपने सर्ंञ्ष को जारी रखे हुए हैं। इनके सर्ंञ्ष को रोकने के लिए पुलिस ने चारों ओर से नाकेबंदी कर दी है। बीमार लोग अपना इलाज कराने अस्पताल तक नहीं जा सकते। बच्चे संघर्ष के चलते अपने बुनियादी मौलिक-अधिकार यानि शिक्षा से भी वंचित है, अन्य मूलभूत सुविधाओं का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
केरल देश का ऐसा प्रदेश है जहां प्रति व्यक्ति आय रु 25,764 है, यही एक ऐसा प्रदेश है जहां पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 1058 है जो कि देश में सबसे ज्यादा बेहतर है। जीडीपी 9.2.फीसदी है जो कि देश में सबसे ज्यादा है। लेकिन क्या केरल के दलित, आदिवासी एवं अन्य गरीब तबके भी इस तथाकथित 'केरल शाइनिंग' की गिनती में कहीं आते हैं ? चेंगेरा में आकर ऐसा बिल्कुल प्रतीत नहीं होता। 1966 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार केरल में 10 लाख एकड़ भूमि आबंटन हेतु उपलब्ध थी, परन्तु अभी तक 4 लाख एकड़ भूमि ही भूमिहीनों को आबंटित हो पायी है, दलितों के पासभूमि औसतन0.43 एकड़ है जबकि अन्यों के पास 0.86 एकड़ है।
यह आंदोलन अभी तक हमलों, धमकियों, अकाल, आपदाओं और भूख की मार झेल रहा है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और एस्टेट के कामगारों की धमकियों के बावजूद भी बेघर दलित और आदिवासी परिवार एस्टेट में डटे हुए हैं। हैरीसन कंपनी ने यह जमीन 99 सालों के लिए पट्टे पर ली थी। अब उसकी समय सीमा खत्म होने के बावजूद भी कंपनी जमीन पर अपना कब्जा जमाए हुए है। इसीलिए स्थानीय लोग तुरंत उस जमीन को वापस लेना चाहते हैं। इतना ही नहीं कंपनी ने असल में जितनी जमीन पट्टे पर ली थी उससे 1048 एकड़ से भी ज्यादा पर कब्जा कर लिया है। एसजेवीएसबी के अध्यक्ष लाहा गोपालन ने बताया कि यह जमीन वहां के स्थानीय जमींदार ने एक परिवार को केले की खेती के लिए34 सालों के लिए पट्टे पर दी थी। जब इस परिवार ने हैरीसन कंपनी को यही जमीन 99 सालों के लिए पट्टे पर दे दी तो पहले वाला समझौता खत्म हो गया था। कंपनी ने 6000 हेक्टेयर के लगभग अतिरिक्त जमीन अपने कब्जे में ले ली है।
बड़े अफसोस की बात है कि हाल में सामाजिक विकास के क्षेत्र में केरल की लोक प्रसिध्द उपलब्धियों पर जब बड़ी-बड़ी चर्चाएं की गर्इं तो गंदी, अस्थायी झोपड़ियों, फुटपाथों पर रहने वाले बेघर लोगों का कहीं कोई जिक्र तक नहीं आया। भूमि सुधार अधिनियम, जिसे बनने के 15 साल बाद लागू किया गया था, के बावजूद भी ये बेबस लोग जमीनों से बेदखल हैं। जबकि लोगों को यही बताया जा रहा है कि केरल में जमीन के सवाल को लेकर होने वाली समस्या को सुलझा लिया गया है। 1970 के भूमि सुधार का केंद्र भी छोटे किसान और खेतिहर मजदूर थे, लेकिन इन दलितों और आदिवासियों को तो उससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ।
अब तो आलम यह है कि जमीन सहित सभी संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना कब्जा जमाए हुए हैं। पिछले दस सालों में बनी नीतियों और कानूनों ने जमीन पर कंपनियों को कब्जा देने में विशेष भूमिका निभाई है, अगर जमीन के सवाल को दलितों और आदिवासियों के इज्जत से जीने के अधिकार से जोड़कर देखा जाए तो तथ्य साफ तौर पर उभरकर आते हैं कि राज्य कहां खड़ा है?
चेंगेरा के दलित लोगों को सत्तारूढ़ वामदल के एक्टिविस्ट लगातार धमकियां दे रहे हैं। इनमें सीपीआई-एम की व्यापार संघ संगठन सीटू (सीआईटीयू) भी शामिल है। सीटू ने दावा किया है कि अगर पुलिस इन लोगों को यहां से न निकाल पाई तो वह इन्हें बाहर निकाल देगा। सवाल यह उठता है कि राज्य सरकार की इस संघर्ष के संदर्भ में केरल हाईकोर्ट में क्या प्रतिक्रिया होगी? यह भी कि सदियों से जो लोग अलगाव और मानव अधिकारों का हनन झेल रहे हैं, हक की लड़ाई की परिस्थितियों में सरकार उनके लिए क्या कर सकती है? संघर्ष को गैर-कानूनी, हिंसक और राज्य विरोधी कहने के बजाय भूमि अधिनियम को लोगों की मांगों के हिसाब से कैसे बदला जा सकता है?
चेंगेरा का यह संघर्ष कोई नया नहीं है बल्कि इसकी जड़े इतिहास तक फैली हैं। अय्यनकली ने 1907 में दलितों और आदिवासियों के लिए खेती की जमीन की मांग की थी, 90 के दशक में भी दलितों के भूमि अधिकार के लिए आंदोलन किया गया था। अब आंदोलन ने अधिकारों की परिभाषा के लिए नई राजनीति और प्रत्यक्ष कार्रवाई का रास्ता अपना लिया है।(पीएनएन)
माकपा को नंगा करती केरल में चेंगेरा की जमीनी लड़ाई -मीनाक्षी अरोरा