बढ़ती तोंद पिचकते पेट - गिरीश मिश्र

पूंजीवाद के विकास क्रम के वर्तमान मानदंड के तौर पर भारत आज विश्व में सबसे उर्वर माना जा रहा है। दुनिया भर में तैर रही करीब 300 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की सरप्लस पूंजी का मुंह भारत की ओर है लेकिन इस दौर में भी भारत में फैली दानवाकार सामाजिक विषमता का आकलन करता लेख
इस बात को शायद ही कोई विवेकशील व्यक्ति नकारेगा कि आजादी पाने के बाद छ: दशकों में भारत ने भारी तरक्की की है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था स्वतंत्र और काफी हद तक संतुलित है। वह उस स्थिति से निकल चुकी है जब वह ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का दुमछल्ला थी और उसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल और खनिज पदार्थ प्रदान करना तथा ब्रिटिश उत्पादों के लिए बाजार उपलब्ध कराना था। वह बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही है। आर्थिक संवृद्धि की दर नौ प्रतिशत के वार्षिक आंकड़े को पारकर चुकी है और सब ठीक ठाक रहा तो वह दस प्रतिशत पर पहुंच जाएगी। आजादी के बाद से अब तक जनसंख्या में ढाई गुनी बढ़ोत्तरी के बावजूद खाद्यान्न उत्पादन लगभग चार गुना अधिक है। अकाल अतीत की बात बन चुका है। देश में भारी उद्योगों और पूंजीगत वस्तुएं बनाने वाले उद्यमों की कोई कमी नहीं है। देश महामारियों से लगभग मुक्त है तथा इलाज की बेहतर सुविधाएं मौजूद हैं। देश में तकनीकी शिक्षा प्राप्त लोगों की एक बड़ी जमात है। आधुनिकतम शिक्षण संस्थाएं पढ़ाई-लिखाई और शोधकार्य को लेकर विश्वभर में प्रशंसा पा रही हैं।
उपर्युक्त उपलब्धियों के बावजूद कतिपय खामियां हैं जिनको दूर करने के लिए जल्द कदम उठाए जाने चाहिए नहीं तो हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ सकती है। आजादी की लड़ाई के समय से ही यह वादा बार-बार दुहराया जाता रहा है कि स्वतंत्रता के बाद समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता तथा क्षेत्रीय असंतुलन को यथा संभव कम करने के लिए कदम उठाए जाएंगे। कहना न होगा कि इस वादे को पूरा करने में हमारा गणतंत्र विफल रहा है और जब ये भूमंडलीकरण के तहत आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ है तब से विफलता का रूप भयावह होता जा रहा है। नक्सली आंदोलन, 'मुंबई, मुंबई वालों के लिए' का नारा, असम में हिन्दी भाषी लोगों की हत्याएं आदि किसी न किसी तरह इसी विफलता को इंगित करते हैं। अपहरण, हत्या, डकैती, भ्रष्टाचार आदि में वृद्धि के पीछे भी यही तथ्य किसी न किसी रूप में है।
अभी चंद हफ्ते पहले एशियाई विकास बैंक की एक रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है कि 1980 तक भारत की आर्थिक संवृद्धि की दर अपेक्षाकृत धीमी थी और सामाज में आर्थिक विषमता भी कम थी। इस आर्थिक विषमता में बहुत कम वृद्धि हो रही थी। किन्तु 1990 के दशक से आर्थिक संवृद्धि की दर के बढ़ने के साथ ही आर्थिक विषमता में तेजी से वृद्धि हो रही है। उसने रेखांकित किया है कि इस बढ़ती आर्थिक विषमता का आधार यह पारंपरिक मान्यता नहीं हैकि धनी पहले की अपेक्षा अधिक धनवान और गरीब अधिक निर्धन हो रहे हैं। वस्तुत: दोनों धनवानों और गरीबों को आर्थिक संवृद्धि का फायदा मिल रहा है मगर गरीबों की तुलना में धनवानों को आर्थिक संवृद्धि के फल में लगातार अधिकाधिक हिस्सा मिलता जा रहा है। इसका असर इस तथ्य से उजागर होता है कि जहां सबसे धनी बीस प्रतिशत भारतीय परिवारों के केवल पांच प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन वाले हैं वहीं सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों में यह अनुपात 28 प्रतिशत है। कहना न होगा कि इस अंतर का मुख्य कारण आय की विषमता है।
आज जब हम अपने गणतंत्र की महानता और जनतांत्रिक उपलब्धियों की चर्चा करते नहीं थकते हैं तब हमें नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी तीस करोड़ भारतीय गरीबी में जी रहे हैं और 40 करोड़ अपना नाम भी नहीं लिख सकते यानी पूरी तरह निरक्षर हैं।
प्रतिष्ठित अमेरिकी समाचार पत्र 'वाशिंगटन पोस्ट' (20 अगस्त) के अनुसार बहुराष्ट्रीय निगमों और आउटसोर्सिंग से जुड़ी भारतीय कंपनियों में 86 प्रतिशत प्रौद्योगिक कर्मी उच्च जातियों और धनी मध्यवर्ती जातियों के हैं। दलित जातियों तथा अति पिछड़े वर्गों के इक्के-दुक्के ही हैं। इतना ही नहीं, अमेरिका और ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों में भी उच्च जातियों का वर्चस्व है क्योंकि साधन संपन्न होने के कारण वे ही आधुनिक शिक्षा सुविधाओं का लाभ उठाते हैं और कार्य एवं शिक्षा के लिए जरूरी वीजा तथा हवाई यात्रा का खर्च उठा पाते हैं। इसी पत्र ने यह शोचनीय तथ्य उजागर किया है कि वर्ष 2006 में पाया गया कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मी देश के एक तिहाई दलित गांवों में नहीं जाते और 24 प्रतिशत दलितों को डाकिए चिट्ठी आदि नहीं पहुंचाते।
आर्थिक विषमता को मापने के लिए सांख्यिकी में 'गिनी गुणांक' का इस्तेमाल किया जाता है। यदि यह गुणांक 100 है तो पूर्णतया आर्थिक समानता और शून्य है तो पूर्णतया आर्थिक विषमता होती है। शून्य में सौ की और ज्यों-ज्यों बढ़ते हैं त्यों-त्यों विषमता कम होती जाती है। जहां तक भारत का सवाल है, वर्ष 1993 में गिनी गुणांक 32.9 था जो 2004 में बढ़कर 36.2 हो गया। कहना न होगा कि हमारे यहां आय की विषमता काफी है और उसमें ग्यारह वर्षों में मामूली सी कमी आई। इस स्थिति को तभी बदला जा सकता है जब सरकार की भूमिका कारगर हो और वह धनवानों से पैसे करों के जरिए प्राप्त कर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर पैदा करने पर खर्च करे। ऐसा हो सकेगा इसमें संदेह है क्योंकि वाशिंगटन आम राय पर आधारित भूमंडलीकरण के तहत वर्ष 1991 से लागू किए गए आर्थिक सुधार कार्यक्रम राज्य की भूमिका को बढ़ाए जाने के विपरीत हैं।
हमारे यहां आर्थिक विषमता कई रूपों में दिखती है। शहरों और गांवों के बीच विषमता है। शहरी लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं ग्रामीण जन की अपेक्षा कहीं अधिक प्राप्त हैं। इतना ही नहीं, बल्कि शहरों में रोजगार के अवसर विविध रूपों में विद्यमान हैं जबकि गांवों में रोजगार के अवसर कृषि कार्य से मुख्यरूप से जुडे होते हैं जिससे वे न तो पूरा वक्री होते हैं और न ही मजदूरी की दर ऊंची होती है। इसके अतिरिक्त गांवों में जातिगत भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है जब कि शहरों में इस प्रकार के भेदभाव बहुत कम दिखते हैं। साथ ही धनी और गरीब राज्यें के बीच आय की विषमता के चरित्र में फर्क होता है। हरियाणा, पंजाब, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश आदि में बसने वाले गरीब इतने बेहाल नहीं हैं जितने उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहने वाले। पूर्वोतर राज्यों में नए देशी-विदेशी निवेश आ रहे तथा वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन की क्षमताओं का निर्माण होने से रोजगार के नए अवसर खुल रहे हैं। इतना ही नहीं, वहां प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षण संस्थाओं की स्थिति बेहतर है तथा स्वास्थ्य सेवाएं भी सार्वजनिक क्षेत्र में अच्छी स्थिति में हैं। राज्य द्वारा नए सार्वजनिक उपक्रमों को लगाने से हाथ खींचने तथा अनेक स्थापित उपक्रमों को बेचने के कारण रोजगार के अवसरों की उपलब्धता घटी है। सेवाओं के क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर आए या आ रहे हैं उनका लाभ उन्हें ही मिल रहा है जिनके पास उच्च शिक्षा और कौशल है जिन्हें धनवानों के बच्चे ही आमतौर से प्राप्त कर पाते हैं।

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