न्यायपालिका में सुधार जरूरी -प्रशांत भूषण

आज का एक बड़ा सच है कि हमारी न्याय व्यवस्था अमीर पक्षधर हो गयी है, ऐसे में गरीबों को न्याय बमुश्किल ही मिल पाता है। यही कारण है कि आज गरीबों के अधिकार छीने जा रहे हैं और देश के धनी कानून का उल्लंघन कर रहे हैं। देश के ज्यादातर लोगों के लिए न्यायपालिका, न्याय के माध्यम के रूप में काम नहीं कर रही है. ऐसा लगता है कि न्यायपालिका का एक बड़ा हिस्सा इसके उलट उन व्यापारिक हितों के पक्ष में काम कर रहा है जो सरकार को अपने इशारों पर नचा रहे हैं। यही वजह है कि जब शक्तिशाली लोगों या सरकार द्वारा गरीबों के अधिकार कुचले जाते हैं तो न्यायपालिका के आदेश भी अक्सर उन अधिकारों को बहाल करने की बजाय गरीबों को अधिकारों से वंचित करते हैं। हाल में हुए कुछ फैसलों पर नजर डालें तो पता चलता है कि अदालतों का दृष्टिकोण तो कॉरपोरेट हितों के हिसाब से चल रही सरकार के रवैये से भी ज्यादा तंग हो गया है, गरीबों पर रोज होने वाले जुल्म और अन्याय से न्यायपालिका को कोई फर्क नहीं पड़ता।
देश की बड़ी आबादी गरीब है और जिसकी न्यायिक व्यवस्था तक पहुंच ही नहीं है। जटिल न्याय व्यवस्था, बड़े खर्चे के चलते हमारी न्याय व्यवस्था देश के आधे से अधिक गरीबों की पहुंच से बाहर है। न्यायाधीश वकीलों के बिना कानून की भाषा भी नहीं समझ सकते और वकीलों को देने के लिए उनके पास मोटी रकम भी नहीं होती। आज की शासन व्यवस्था में कोई गरीब न तो अपना बचाव कर सकता है और न ही माफी की उम्मीद कर सकता है। यही कारण है कि ट्रायल के दौरान जितना समय वह सलाखों के पीछे गुजार देता है, वह सजा वास्तविक गुनाह की सजा से कहीं ज्यादा होती है।
न्यायाधीशों की गरीब विरोधी विचारधारा और एक समूह विशेष के हितों का ध्यान रखने वाली नीति, कानून तक गरीबों के न पहुंच पाने से भी ज्यादा शर्मनाक है। कभी-कभी तो इनके फैसले इतने गरीब विरोधी होते हैं कि उद्योग घरानों के एजेंट के रूप में काम कर रही सरकार को भी पीछे छोड़ देते हैं। जब-जब गरीबों की अस्मिता को खतरा होता है, न्यायालय इन मामलों में सुनवाई नहीं करता और दूर से ही तमाशा देखता है। जब गरीब की रोटी (आजीविका) को छीन लिया जाता है तो न्यायालय पुनर्वास के लिए कोई आदेश नहीं देता और न ही उनके मामलों की सुनवाई करता है। न्यायालय के पास झुग्गियों को उजाड़ने के बहाने कई होते हैं, कभी तो इन्हें गैरकानूनी बताकर उजाड़ा जाता है और कभी यह कहकर कि ये यमुना के किनारे हैं, या इनसे पर्यावरण को खतरा है गरीबों को बेघर कर दिया जाता है। दूसरी ओर जब इन्हीं यमुना के किनारों पर 'शॉपिंग मॉल' व 'अक्षरधाम मंदिर' बनाए जाते हैं तो न्यायालय सभी फिल्मी डायलॉग भूल जाता है। इसी तरह फेरीवालों और रिक्शा चालकों के प्रति न्यायालय हमेशा बेरहम ही रहा, उनकी रोजी-रोटी का कोई इंतजाम किए बिना न्यायालय ने इन्हें गैरकानूनी करार दे दिया।
न्यायपालिका ने 'श्रम सुरक्षा कानून' को धीरे-धीरे खत्म कर डाला और उसने 'कॉन्ट्रेक्ट श्रम अधिनियम' को लागू करने से मना कर दिया। इन्हीं अधिनियमों में चतुराई के साथ व्यावसायियों के हित में फेरबदल कर लागू कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने तो एक फैसले में यहां तक कहा कि श्रम कानून को सरकार द्वारा बनाई गई आर्थिक नीतियों के अनुसार ही होना चाहिए। ऐसा कह कर सर्वोच्च न्यायालय ने वह कर दिखाया जो संसद में अपना चेहरा बचाने को ही सरकार शायद कभी नहीं कर पाती।
इसी तरह का एक और पक्षपात भरा रवैया गरीबों के प्रति भी देखने को मिला जब हमने नागरिक अधिकारों से जुड़े मामलों में कोर्ट के आदेशों का विश्लेषण किया। अक्सर गरीब और कमज़ोर तबके के लोगों की ज़मानत याचिकाओं पर सालों सुनवायी नहीं होती जबकि शक्तिशाली और पैसेवालों के मामले, जिनकी पैरवी बड़े वकील कर रहे होते हैं, पर तुरंत कोर्ट की नज़रें इनायत हो जाती हैं। यहां तक कि विनायक सेन जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के प्रति भी कोर्ट का रवैया ढुलमुल रहा और उनकी ज़मानत याचिका रद्द कर दी गयी जबकि तस्करों और सफेदपोशों को ज़मानत देने में कोई हिचक नहीं दिखाई।
देश के नागरिकों के लिए वक्त आ गया है कि वे अपने न्यायिक तंत्र की फिर से समीक्षा करें. एक जनप्रिय न्यायिक तंत्र वह है जिसकी आम नागरिक तक पहुंच बिना किसी पेशेवर वकील की मध्यस्थता के हो सके। क़ानून और इसकी प्रक्रियाएं सरल होनी चाहिए ताकि ये आम लोगों की समझ में आसानी से आ सके और लोगों तक इसकी पहुंच भी बढ़ सके। कोर्ट की कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए और इसके आंकड़े सूचना का अधिकार क़ानून के तहत आम नागरिक को सुलभ होना जरूरी हो। हाल ही में प्रस्तावित ग्राम न्यायालय इस दिशा में सही क़दम प्रतीत होता है।
सबसे महत्वपूर्ण है जन अदालतों को संचालित करने वाले जजों की नियुक्तियों में पारदर्शिता, जिसमें जनता की सहभागिता सबसे ज्यादा हो। यह देखना होगा कि जिस व्यक्ति की नियुक्ति की जानी है उसका सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण हमारे संविधान के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से मेल खाता है या नहीं और साथ ही उसके मन में गरीबों के प्रति गहरी समझ और संवेदना भी होनी चाहिए। इसके लिए हमें एक न्यायिक नियुक्ति आयोग की दरकार है जिसके सदस्य जज न हों। इसमें जनता की पूर्ण भागीदारी की इजाजत हो जो कि लोकतंत्र का मूलभूत आधार भी है।
न्यायाधीशों के आचरण, अपराध, मूल्यांकन, मामलों से निपटने के तरीकों आदि पर पैनी नजर रखने के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था होनी चाहिए। एक ऐसे स्वतंत्र न्यायाधिकरण की स्थापना करनी पड़ेगी जो न्यायाधीशों के बर्ताव की जांच करे और इन पर कड़ी नजर रखे। अक्सर सरकार के आधिकारिक सम्मेलनों में भी स्वीकार किया जाता है कि न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर है। बहरहाल सिर्फ निर्णय देने की गति को बढ़ा कर गरीबों के लिए प्रभावी न्यायिक तंत्र नहीं बनाया जा सकता. इसके लिए हमें पूरी व्यवस्था को फिर से खड़ा करना होगा. ऐसे क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए देश में एक सशक्त जन आंदोलन की आवश्यकता होगी. यद्यपि यह अभी काफी दूर की बात है लेकिन इस मुद्दे पर जनता के बीच बहस-विचार की शुरुआत होनी चाहिए। अब तो वर्तमान न्यायिक तंत्र की बड़ी शल्य क्रिया की आवश्यकता है। (पीएनएन)

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