(राजीव रतूड़ी लिखते हैं कि मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा से शुरू होने वाली विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की छ: दशक पुरानी लड़ाई इस घोषणा और बाद में हुए तमाम अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों के फलस्वरूप देश में बने कानूनों के लागू न हो पाने के कारण अभी खत्म नहीं हुई है।) भारत में फैले 700 लाख विकलांग व्यक्तियों के साथ आज भी दूसरे दर्जे के नागरिक का बर्ताव किया जाता है। उनके लिये अलगाव, सीमांतीकरण और भेदभाव आज भी अपवाद नहीं बल्कि आम है। प्रचलित रुख के कारण खड़ी हुई रूकावटों से रूबरू विकलांग आज भी दया और कल्याण के पात्र समझे जाते हैं और विश्व उनके सबसे बुनियादी अधिकारों को कुचलता हुआ आगे बढ़ जाता है। 1948 में मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा, जो न्याय, स्वतंत्रता और शांति सुनिश्चित करने के लिये मानव अधिकारों के पालन को जरूरी पूर्व शर्त मानती है, हो जाने के बावजूद ऐसा हो रहा है।
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