वोल्कर समिति की रिपोर्ट का गहन अध्ययन उन तमाम आशकाओं से परे है, जो राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (एनडीए) उन पर लगाती रही है। ईराक में तेल के बदले अनाज कार्यक्रम के संबंध में हुए पूरे विवाद में नटवर सिंह को ही सिर्फ निशाने पर रखा गया; अर्थात कांग्रेस पार्टी या अन्यों के किसी भी स्तर का कोई भी नेता-व्यक्ति नटवर सिंह पर निशाना साधने से नहीं चूकता ताकि घोटाले से रिलायंस पेट्रोलियम के लिप्त होने की तरफ से लोगों का ध्यान भटकाया जा सके।
बड़े दुख की बात है कि इसमें नटवर सिंह कि किसी भी घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी को भी किसी भी संकोच का सामना नहीं करना पड़ा। इससे न तो पार्टी में और न ही कोषदाताओं में किसी बात की घबराहट हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। इधर रिलायंस शुरू से ही शीर्ष पदस्थ व्यक्तियों जो शक्तिसंपन्न और उदार हो उनसे मित्रता रखने के सिध्दांत पर कार्य करता रहा है।
कंपनी गर्व से कहती है कि वह निगमित शासन के क्रियान्वयन में सबसे आगे है जो बहुत से प्रशंसनीय सिध्दांतों पर आधारित है जिसमें इसके कर्मचारी, ग्राहक, अंशधारक और निवेशक सहित सभी पूंजीधारकों के साथ उचित और समान व्यवहार शामिल है। उसके पूंजीधारकों में देश के सभी शक्तिशाली अभिजात्य यहां तक कि मीडिया भी शामिल है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वित्तीय संकट और तेल की किल्लत झेल रही सरकार वर्षों से रिलायंस द्वारा राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से अर्जित लाभ पर कोई टैक्स नहीं लगा पाई। वी पी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को छोड़कर अन्य किसी भी सरकार ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कोई ऐसा कर नहीं लगाया जो रिलायंस के विशेष हित के विपरीत हो।
रिलायंस के अन्वेषी कार्य की असाधारण रूप से बढ़ती गतिविधि किसी को भी आश्चर्यचकित कर सकती है कि कंपनी को अन्वेषी कार्य मिला हो या तेल क्षेत्रों की खोज का; बात चाहे जो भी हो अंतिम परिणाम के रूप में रिलायंस को 10000 करोड़ डॉलर का मुनाफा हुआ। ये संसाधन देश के आम लोगों से संबंधित थीं और उनका उपयोग आम लोगों के लाभ के लिए होना था जैसा कि संविधान के नीति-निर्देशक तत्व में कहा गया है।
फिर रिलायंस के पीटीए प्लांट का मामला आया जिसमें रिलायंस ने स्वीकृत क्षमता से ज्यादा मात्रा मे मशीनरी का अवैध आयात किया था। इसमें 120 करोड़ रूपए के सीमा शुल्क का मामला अभी भी न्यायालय में लंबित पड़ा है।
मामले की सामान्य सच्चाई यही है कि वित्तीय अभियांत्रिकी जैसे ऋण का इक्विटी में विलय, अपने शेयर की कीमत खुद से उपर उठाना, सार्वजनिक संस्थानाें को शेयर देना, सार्वजनिक रूप से नई कंपनियों के शेयर निर्गत करना और उसके बाद कंपनियों का विलय करना, प्रोमोटर को खुद की पूंजी बढ़ाने के लिए शेयर आवंटित करना, करों को नकारना और कर व्यवस्था को कंपनी के उपयुक्त बनाना और अंतत: सरकार द्वारा तेल बोनंजा का हस्तांतरण जिसके द्वारा रिलायंस भारत की सबसे बड़ी कंपनी बन गई और इसके मालिक देश के सबसे धनी व्यक्ति। और आश्चर्यजनक रूप से मात्र तीस साल में इसका कुल व्यापार लगभग 100 करोड़ से बढ़कर 100000 करोड़ रुपये का हो गया।
आज रिलायंस ऐसी कंपनी मानी जाती है जिसे किसी बात का कोई भय न हो। कोई भी आज इससे उसी तरह नहीं उलझना चाहता जैसे भारत के किसी अंडरवर्ल्ड के डॉन से।
संक्षेप में तथ्य यह स्थापित करता है कि सरकारी तेल नीति का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस बना जो इसकी संपत्ति का बड़ा हिस्सा है। इसलिए 1999 में रिफाइनरी के खोज कार्य में जाने से छ: महीने पूर्व ही कंपनी ने खुद को यूएन में राष्ट्रीय तेल खरीदार के रूप में पंजीकृत करवा लिया। बीपीसीएल , एचपीसीएल, और एचपी जैसे पीएसयू की शिकायतों को अनदेखा किया गया। इराक तेल के बदले अनाज कार्यक्रम के तहत रिलायंस द्वारा आयातित पहली खेप में ही भारी रिश्वत दी गई।
लेकिन केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री द्वारा जबाब में सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत संबंधित फाइल की मांग इस बात पर जोर देता है कि उनको इस बात का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था कि रिलायंस पेट्रोलियम ने खुद के राष्ट्रीय तेल खरीदार होने का दावा अपनी वेबसाइट के उसी खंड में किया है जिसमें तेल के बदले अनाज कार्यक्रम घोटाले में किसी भी अनियमितता या अवैधानिकता से खुद को दोषमुक्त कहा है। कंपनी और सरकार द्वारा किए गए दावे में किसी अंतर्विरोध की स्थिति में वर्तमान तथ्य सत्य प्रतीत होते हैं। आखिरकार वह कहनेवाला कौन है जो अंतर्विरोध की स्थिति में सरकार से कुछ कहता है ? और इसीलिए सरकार तेल के बदले अनाज कार्यक्रम में भारत का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस पेट्रोलियम लिमिटेड द्वारा क्रियान्वित सौदे की वैधानिकता की जांच की मांग को दृढ़ अस्वीकृति से अनसुना कर देती है।
यद्यपि वोल्कर घोटाले में शामिल रकम जिसमें रिलायंस पेट्रोलियम का नाम एक गैर अनुबंधित लाभभोगी के रूप में आया है, रिलायंस और अंतरराष्ट्रीय दोनों पैमानों पर बहुत छोटी है। लेकिन इससे राज्य के किसी भी अंग पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
नटवर सिंह मामले में शामिल रकम 70लाख रूपए भी भारत के आज के राजनीतिक भ्रष्टाचार के हिसाब से बहुत कम है लेकिन व्यवस्था ने जिस तरह पूरे मामले में अपनी प्रतिक्रिया दर्शायी वह शामिल रकम की तुलना में असमानुपाती है। वैसे शामिल रकम कोई मुद्दा नहीं है।
अगर व्यवस्था की असफलता की बात हो तो रिलायंस मामले में सामूहिक माफी सोची जा सकती है लेकिन यहां व्यवस्था असफल नहीं हुआ बल्कि रिलायंस का साझीदार बन गया।
अब यह पता नहीं है कि चीजें कैसे खत्म होनी चाहिए और कैसे खत्म होगी । लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है। जो घटनाएं घटीं वे उतना दुखद नहीं कही जा सकतीं, लेकिन जिस तरह उसको हल किया गया वो निश्चित रूप से दुखद है।
अपराध के ज्यादातर मामलों में संबंधित तथ्य खुद ही सारी कहानी बयां करते हैं। सरकार और उसकी संस्था अभी भी मूक बनी हुई है कि क्या कहे। लेकिन देश के लोग उन आवाजों को ज्यादा जोर और स्पष्टता से सुन रहे हैं। यही सबसे बड़ी बात है।
बड़े दुख की बात है कि इसमें नटवर सिंह कि किसी भी घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी को भी किसी भी संकोच का सामना नहीं करना पड़ा। इससे न तो पार्टी में और न ही कोषदाताओं में किसी बात की घबराहट हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। इधर रिलायंस शुरू से ही शीर्ष पदस्थ व्यक्तियों जो शक्तिसंपन्न और उदार हो उनसे मित्रता रखने के सिध्दांत पर कार्य करता रहा है।
कंपनी गर्व से कहती है कि वह निगमित शासन के क्रियान्वयन में सबसे आगे है जो बहुत से प्रशंसनीय सिध्दांतों पर आधारित है जिसमें इसके कर्मचारी, ग्राहक, अंशधारक और निवेशक सहित सभी पूंजीधारकों के साथ उचित और समान व्यवहार शामिल है। उसके पूंजीधारकों में देश के सभी शक्तिशाली अभिजात्य यहां तक कि मीडिया भी शामिल है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वित्तीय संकट और तेल की किल्लत झेल रही सरकार वर्षों से रिलायंस द्वारा राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से अर्जित लाभ पर कोई टैक्स नहीं लगा पाई। वी पी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को छोड़कर अन्य किसी भी सरकार ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में कोई ऐसा कर नहीं लगाया जो रिलायंस के विशेष हित के विपरीत हो।
रिलायंस के अन्वेषी कार्य की असाधारण रूप से बढ़ती गतिविधि किसी को भी आश्चर्यचकित कर सकती है कि कंपनी को अन्वेषी कार्य मिला हो या तेल क्षेत्रों की खोज का; बात चाहे जो भी हो अंतिम परिणाम के रूप में रिलायंस को 10000 करोड़ डॉलर का मुनाफा हुआ। ये संसाधन देश के आम लोगों से संबंधित थीं और उनका उपयोग आम लोगों के लाभ के लिए होना था जैसा कि संविधान के नीति-निर्देशक तत्व में कहा गया है।
फिर रिलायंस के पीटीए प्लांट का मामला आया जिसमें रिलायंस ने स्वीकृत क्षमता से ज्यादा मात्रा मे मशीनरी का अवैध आयात किया था। इसमें 120 करोड़ रूपए के सीमा शुल्क का मामला अभी भी न्यायालय में लंबित पड़ा है।
मामले की सामान्य सच्चाई यही है कि वित्तीय अभियांत्रिकी जैसे ऋण का इक्विटी में विलय, अपने शेयर की कीमत खुद से उपर उठाना, सार्वजनिक संस्थानाें को शेयर देना, सार्वजनिक रूप से नई कंपनियों के शेयर निर्गत करना और उसके बाद कंपनियों का विलय करना, प्रोमोटर को खुद की पूंजी बढ़ाने के लिए शेयर आवंटित करना, करों को नकारना और कर व्यवस्था को कंपनी के उपयुक्त बनाना और अंतत: सरकार द्वारा तेल बोनंजा का हस्तांतरण जिसके द्वारा रिलायंस भारत की सबसे बड़ी कंपनी बन गई और इसके मालिक देश के सबसे धनी व्यक्ति। और आश्चर्यजनक रूप से मात्र तीस साल में इसका कुल व्यापार लगभग 100 करोड़ से बढ़कर 100000 करोड़ रुपये का हो गया।
आज रिलायंस ऐसी कंपनी मानी जाती है जिसे किसी बात का कोई भय न हो। कोई भी आज इससे उसी तरह नहीं उलझना चाहता जैसे भारत के किसी अंडरवर्ल्ड के डॉन से।
संक्षेप में तथ्य यह स्थापित करता है कि सरकारी तेल नीति का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस बना जो इसकी संपत्ति का बड़ा हिस्सा है। इसलिए 1999 में रिफाइनरी के खोज कार्य में जाने से छ: महीने पूर्व ही कंपनी ने खुद को यूएन में राष्ट्रीय तेल खरीदार के रूप में पंजीकृत करवा लिया। बीपीसीएल , एचपीसीएल, और एचपी जैसे पीएसयू की शिकायतों को अनदेखा किया गया। इराक तेल के बदले अनाज कार्यक्रम के तहत रिलायंस द्वारा आयातित पहली खेप में ही भारी रिश्वत दी गई।
लेकिन केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री द्वारा जबाब में सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत संबंधित फाइल की मांग इस बात पर जोर देता है कि उनको इस बात का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था कि रिलायंस पेट्रोलियम ने खुद के राष्ट्रीय तेल खरीदार होने का दावा अपनी वेबसाइट के उसी खंड में किया है जिसमें तेल के बदले अनाज कार्यक्रम घोटाले में किसी भी अनियमितता या अवैधानिकता से खुद को दोषमुक्त कहा है। कंपनी और सरकार द्वारा किए गए दावे में किसी अंतर्विरोध की स्थिति में वर्तमान तथ्य सत्य प्रतीत होते हैं। आखिरकार वह कहनेवाला कौन है जो अंतर्विरोध की स्थिति में सरकार से कुछ कहता है ? और इसीलिए सरकार तेल के बदले अनाज कार्यक्रम में भारत का सबसे बड़ा लाभभोगी रिलायंस पेट्रोलियम लिमिटेड द्वारा क्रियान्वित सौदे की वैधानिकता की जांच की मांग को दृढ़ अस्वीकृति से अनसुना कर देती है।
यद्यपि वोल्कर घोटाले में शामिल रकम जिसमें रिलायंस पेट्रोलियम का नाम एक गैर अनुबंधित लाभभोगी के रूप में आया है, रिलायंस और अंतरराष्ट्रीय दोनों पैमानों पर बहुत छोटी है। लेकिन इससे राज्य के किसी भी अंग पर पर्दा नहीं डाला जा सकता।
नटवर सिंह मामले में शामिल रकम 70लाख रूपए भी भारत के आज के राजनीतिक भ्रष्टाचार के हिसाब से बहुत कम है लेकिन व्यवस्था ने जिस तरह पूरे मामले में अपनी प्रतिक्रिया दर्शायी वह शामिल रकम की तुलना में असमानुपाती है। वैसे शामिल रकम कोई मुद्दा नहीं है।
अगर व्यवस्था की असफलता की बात हो तो रिलायंस मामले में सामूहिक माफी सोची जा सकती है लेकिन यहां व्यवस्था असफल नहीं हुआ बल्कि रिलायंस का साझीदार बन गया।
अब यह पता नहीं है कि चीजें कैसे खत्म होनी चाहिए और कैसे खत्म होगी । लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है। जो घटनाएं घटीं वे उतना दुखद नहीं कही जा सकतीं, लेकिन जिस तरह उसको हल किया गया वो निश्चित रूप से दुखद है।
अपराध के ज्यादातर मामलों में संबंधित तथ्य खुद ही सारी कहानी बयां करते हैं। सरकार और उसकी संस्था अभी भी मूक बनी हुई है कि क्या कहे। लेकिन देश के लोग उन आवाजों को ज्यादा जोर और स्पष्टता से सुन रहे हैं। यही सबसे बड़ी बात है।
पुस्तक ''रिलायंस द रीयल नटवर'' मानस प्रकाशन ने छापी है।