भारत में पशु चिकित्सा विज्ञान (वेटेनरी साइंस) में उच्च शिक्षा और डाक्टरेट की डिग्री लेकर मैं कनाडा में एक वैज्ञानिक की तरह एक सरकारी प्रतिष्ठान में सेवा करने लगा। 1969 से 1989 तक बीस वर्ष मैं प्रचलित व्यवस्था का अंग था। उस समय अन्य वैज्ञानिकों की तरहमैं भी मानता था कि विज्ञान सब कुछ कर देगा, स्वास्थ्य में, भोजनमें, सभी में। विज्ञान ही मानवता की आशा है, ऐसा मैं भी मानता था।
पर धीरे-धीरे मुझे उस व्यवस्था पर संदेह होने लगा। मैं समझने लगा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जिनमें मोनसांटो का नाम पहले आता है, दिखावा तो करती है कि रिसर्च कर रही हैं, पर दरअसल वह रिसर्चनहीं कर रही हैं, वह सिर्फ पैसा बना रही हैं। ये कंपनियां कहती हैं कि देशों के कानून बड़े कठोर हैं, उनमें ढिलाई होनी चाहिए। वैज्ञानिक जो कार्य करें उन पर कानून लागू नहीं होने चाहिए। मुझे काम करते-करते यह शक होने लगा कि एड्स का रोग दवाओं के कारण भी बढ़ रहा है।
इस बीच एक घटना मेरे परिवार में घटी। मेरी पत्नीनिर्मला खुद वैज्ञानिक हैं। उसे भी कई बातें स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक महसूस हुई। उन्होंने ब्रेस्ट इम्प्लांट का विरोध किया। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
1990 के आते-आते मेरी उलझनें बढ़ने लगी। मैंने सवाल पूछने शुरू कर दिये। खासतौर से हारमोन के क्षेत्र में। बोबाइन ग्रोथ हारमोन का प्रयोग खतरनाक है, ऐसा मुझे वैज्ञानिक परीक्षण से पता चला। इन्हें देने से पेनक्रियाज और नर्वस सिस्टम बिगड़ता है। यह मेरे संज्ञान में आने लगा। मैंने 'बोबाइन ग्रोथ हारमोन' के उपयोग पर सवाल पूछने शुरू किये। मैंने ऊपर के वैज्ञानिकों, विभाग से संबंधित मंत्रियोंको पत्र लिखे और वैज्ञानिक प्रमाण देकर बताया कि इस हारमोन का प्रयोग कितना खतरनाक है और कंपनियां अपना उत्पादन और मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में विज्ञान की उपेक्षा कर रही हैं।
दरअसल कई मल्टीनेशनल कंपनियां जैसे-फाइजर, इली-लिली और मोनसांटो इस क्षेत्र में बहुत बड़ा व्यवसाय देख रही थीं। इनमें दो कंपनियां इली-लिली और मोनसांटो सबसे बड़ी लुटेरी हैं। ये एक-दूसरे पर निगाह भी रखती हैं, पर साझे स्वार्थ के लिए एकजुट भी हो जाती हैं। मोनसांटो का अमरीका के व्हाइट हाउस पर प्रभाव था। इन कंपनियों ने अपना मंतव्य पूरा करने के लिए कनाडा का इस्तेमाल किया। अपने 4-5 लोग मुख्य स्थानों पर बैठा दिये जो सरकारी नीतियों को प्रभावित कर सकें। इन कंपनियों ने एक बड़ी चाल चली। इन्होंने अफ्रीका के छोटे-गरीब 14 देशों में लोभ-लालच देकर अपने जीएम बीज को मान्यता दिलवायी और वे कनाडा पहुंची और कहा देखिए कितने देशों ने मान्यता दे दी है, आप भी दीजिए! इस प्रकार कनाडा से भी मान्यता प्राप्त कर ली। हकीकत यह है कि इन जीएम बीजों को न लोग चाहते हैं और न ही किसान।
पर धीरे-धीरे मुझे उस व्यवस्था पर संदेह होने लगा। मैं समझने लगा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जिनमें मोनसांटो का नाम पहले आता है, दिखावा तो करती है कि रिसर्च कर रही हैं, पर दरअसल वह रिसर्चनहीं कर रही हैं, वह सिर्फ पैसा बना रही हैं। ये कंपनियां कहती हैं कि देशों के कानून बड़े कठोर हैं, उनमें ढिलाई होनी चाहिए। वैज्ञानिक जो कार्य करें उन पर कानून लागू नहीं होने चाहिए। मुझे काम करते-करते यह शक होने लगा कि एड्स का रोग दवाओं के कारण भी बढ़ रहा है।
इस बीच एक घटना मेरे परिवार में घटी। मेरी पत्नीनिर्मला खुद वैज्ञानिक हैं। उसे भी कई बातें स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक महसूस हुई। उन्होंने ब्रेस्ट इम्प्लांट का विरोध किया। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
1990 के आते-आते मेरी उलझनें बढ़ने लगी। मैंने सवाल पूछने शुरू कर दिये। खासतौर से हारमोन के क्षेत्र में। बोबाइन ग्रोथ हारमोन का प्रयोग खतरनाक है, ऐसा मुझे वैज्ञानिक परीक्षण से पता चला। इन्हें देने से पेनक्रियाज और नर्वस सिस्टम बिगड़ता है। यह मेरे संज्ञान में आने लगा। मैंने 'बोबाइन ग्रोथ हारमोन' के उपयोग पर सवाल पूछने शुरू किये। मैंने ऊपर के वैज्ञानिकों, विभाग से संबंधित मंत्रियोंको पत्र लिखे और वैज्ञानिक प्रमाण देकर बताया कि इस हारमोन का प्रयोग कितना खतरनाक है और कंपनियां अपना उत्पादन और मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में विज्ञान की उपेक्षा कर रही हैं।
दरअसल कई मल्टीनेशनल कंपनियां जैसे-फाइजर, इली-लिली और मोनसांटो इस क्षेत्र में बहुत बड़ा व्यवसाय देख रही थीं। इनमें दो कंपनियां इली-लिली और मोनसांटो सबसे बड़ी लुटेरी हैं। ये एक-दूसरे पर निगाह भी रखती हैं, पर साझे स्वार्थ के लिए एकजुट भी हो जाती हैं। मोनसांटो का अमरीका के व्हाइट हाउस पर प्रभाव था। इन कंपनियों ने अपना मंतव्य पूरा करने के लिए कनाडा का इस्तेमाल किया। अपने 4-5 लोग मुख्य स्थानों पर बैठा दिये जो सरकारी नीतियों को प्रभावित कर सकें। इन कंपनियों ने एक बड़ी चाल चली। इन्होंने अफ्रीका के छोटे-गरीब 14 देशों में लोभ-लालच देकर अपने जीएम बीज को मान्यता दिलवायी और वे कनाडा पहुंची और कहा देखिए कितने देशों ने मान्यता दे दी है, आप भी दीजिए! इस प्रकार कनाडा से भी मान्यता प्राप्त कर ली। हकीकत यह है कि इन जीएम बीजों को न लोग चाहते हैं और न ही किसान।
एंटीबायोटिक्स का मुद्दा भी अत्यन्त गंभीर है। 75 फीसदी से अधिक एंटीबायोटिक्स खेती में इस्तेमाल किये जाते हैं। इनके कारण जो अच्छे बैक्टीरिया होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। अब सभी बैक्टीरिया प्रतिरोधी रेजिस्टेंट हो गये हैं। अत: एंटीबायोटिक्स काम नहीं करते पर उनका इस्तेमाल जारी है जिसका नतीजा यह है कि हजारों लोग मर रहे हैं। पर सरकारें इसे मानने को तैयार नहीं हैं।
यूरोप ने एंटीबायोटिक्स पर प्रतिबंध लगा दिया है पर अमरीका, कनाडा ने नहीं। इस पर डब्लूटीओ में अमरीका और यूरोपीय संघ के बीच बड़ी लड़ाई चल रही है। अमेरिका में बड़ी मात्रा में दूध, मांस पैदा हो रहा है। अमेरिका उसको हर कीमत पर बेचना चाहता है। वैज्ञानिकों को पूछा नहीं जाता। व्यापार ने दरअसल सरकारों पर नियंत्रण कायम कर लिया है। पीछे के दरवाजे से घुसी कंपनियां सरकारों से वही करारही हैं, जो वे चाहती हैं।
ये सारी बातों की पोल मैंने खोली। हमारा विभाग तथा कनाडा की सरकार आग बबूला हो गयी। मेरे ऊपर इल्जाम लगाया कि यह व्यक्ति विदेशीहै, बहुत सवाल पूछता है, जिसका इसको हक नहीं है। मैंने कनाडा सरकार पररंगभेद का मुकदमा दायर किया और 1997 मेंजीता।
मेरे ऊपर इल्जाम लगाया कि शिव चोपड़ा लाइलाज है। पर मैंने कहा 'जो यहां हो रहा है, वह भ्रष्टाचार है। मैं इसे नहीं होने दूंगा।' परमेरे ऊपर प्रतिबंध लगा दिया कि मैं किसी विषय पर मुंह नहीं खोलूंगा। मेरे साथ 5 वैज्ञानिक और इस लड़ाई में खड़े हो गये। हम छ: लोगों की नौकरी खत्म कर दी गयी। मेरी जो मानसिक प्रताड़ना हुई, उसे मैंने गांधीजी को याद करके, उनकी आत्मकथा पढ़ कर साहस के साथ पार किया।
कंपनियां आखिर चाहती क्या हैं? वे पूरी दुनिया के खाद्य भंडार पर पूर्ण नियंत्रण चाहती हैं। इसके लिए एक तो उन्होंने जेनिटकली मोडीफाइड फसलों का रास्ता पकड़ा है और दूसरा जानवरों के क्लोनिंग का। इसके लिए अमरीका की कंपनियां कई तरीके अपना रही हैं।
भोजन ईश्वर ने बनाया है,बिना हारमोन का, बिना एंटीबायोटिक्स का, बिना जीएमओ का।आज गायों में जो भयंकर बीमारियां मेडकाउ जैसी फैली हैं, उनका मूल कारण यही है कि उन्हें मांसाहारी भोजन ज्यादा मांस, दूध बढ़ाने के लिए दिया जा रहा है। कत्लखानों में जो बचता है उसे सुखा कर चूरा बना कर गायों के भोजन में मिला दिया जाता है।
बर्डफ्ल्यू एक बड़ा धोखा है। यह हमेशा पूर्व में फैलता है। लाखों-करोड़ों मुर्गियां मार दी जाती हैं। तभी तो वालमार्ट को अपने हारमोन, एंटीबायोटिक्स और जीएमओ वाली मुर्गी बेचने का मौका मिलेगा। यह हमारा दैविक अधिकार है कि हम जैविक भोजन प्राप्त कर सकें। इसके लिए कंपनियों को ध्वस्त करना होगा।
(डॉ. शिव चोपड़ा भारतीय मूल के कनाडाई जीवविज्ञानी हैं। हारमोन, एंटीबायोटिक्स पर की गयी शोधों के लिए इन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले हैं। लेकिन बहुराश्ट्रीय कंपनियों द्वारा हारमोन, एंटीबायोटिक्स का दुरुपयोग करने पर इन्होंने विरोध किया, लम्बी लड़ाइयां लड़ीं, कानूनी लड़ाइयों में विजयी भी हुए। पर कंपनियों के सरकारों पर दबाव होने के कारण इन्हें अन्तत: अपनी वैज्ञानिक के रूप में नौकरी खोनी पड़ी। मांनसांटो जैसी कंपनियों के विरोध में वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करके वे संघर्ष कर रहे हैं।)
यूरोप ने एंटीबायोटिक्स पर प्रतिबंध लगा दिया है पर अमरीका, कनाडा ने नहीं। इस पर डब्लूटीओ में अमरीका और यूरोपीय संघ के बीच बड़ी लड़ाई चल रही है। अमेरिका में बड़ी मात्रा में दूध, मांस पैदा हो रहा है। अमेरिका उसको हर कीमत पर बेचना चाहता है। वैज्ञानिकों को पूछा नहीं जाता। व्यापार ने दरअसल सरकारों पर नियंत्रण कायम कर लिया है। पीछे के दरवाजे से घुसी कंपनियां सरकारों से वही करारही हैं, जो वे चाहती हैं।
ये सारी बातों की पोल मैंने खोली। हमारा विभाग तथा कनाडा की सरकार आग बबूला हो गयी। मेरे ऊपर इल्जाम लगाया कि यह व्यक्ति विदेशीहै, बहुत सवाल पूछता है, जिसका इसको हक नहीं है। मैंने कनाडा सरकार पररंगभेद का मुकदमा दायर किया और 1997 मेंजीता।
मेरे ऊपर इल्जाम लगाया कि शिव चोपड़ा लाइलाज है। पर मैंने कहा 'जो यहां हो रहा है, वह भ्रष्टाचार है। मैं इसे नहीं होने दूंगा।' परमेरे ऊपर प्रतिबंध लगा दिया कि मैं किसी विषय पर मुंह नहीं खोलूंगा। मेरे साथ 5 वैज्ञानिक और इस लड़ाई में खड़े हो गये। हम छ: लोगों की नौकरी खत्म कर दी गयी। मेरी जो मानसिक प्रताड़ना हुई, उसे मैंने गांधीजी को याद करके, उनकी आत्मकथा पढ़ कर साहस के साथ पार किया।
कंपनियां आखिर चाहती क्या हैं? वे पूरी दुनिया के खाद्य भंडार पर पूर्ण नियंत्रण चाहती हैं। इसके लिए एक तो उन्होंने जेनिटकली मोडीफाइड फसलों का रास्ता पकड़ा है और दूसरा जानवरों के क्लोनिंग का। इसके लिए अमरीका की कंपनियां कई तरीके अपना रही हैं।
भोजन ईश्वर ने बनाया है,बिना हारमोन का, बिना एंटीबायोटिक्स का, बिना जीएमओ का।आज गायों में जो भयंकर बीमारियां मेडकाउ जैसी फैली हैं, उनका मूल कारण यही है कि उन्हें मांसाहारी भोजन ज्यादा मांस, दूध बढ़ाने के लिए दिया जा रहा है। कत्लखानों में जो बचता है उसे सुखा कर चूरा बना कर गायों के भोजन में मिला दिया जाता है।
बर्डफ्ल्यू एक बड़ा धोखा है। यह हमेशा पूर्व में फैलता है। लाखों-करोड़ों मुर्गियां मार दी जाती हैं। तभी तो वालमार्ट को अपने हारमोन, एंटीबायोटिक्स और जीएमओ वाली मुर्गी बेचने का मौका मिलेगा। यह हमारा दैविक अधिकार है कि हम जैविक भोजन प्राप्त कर सकें। इसके लिए कंपनियों को ध्वस्त करना होगा।
(डॉ. शिव चोपड़ा भारतीय मूल के कनाडाई जीवविज्ञानी हैं। हारमोन, एंटीबायोटिक्स पर की गयी शोधों के लिए इन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले हैं। लेकिन बहुराश्ट्रीय कंपनियों द्वारा हारमोन, एंटीबायोटिक्स का दुरुपयोग करने पर इन्होंने विरोध किया, लम्बी लड़ाइयां लड़ीं, कानूनी लड़ाइयों में विजयी भी हुए। पर कंपनियों के सरकारों पर दबाव होने के कारण इन्हें अन्तत: अपनी वैज्ञानिक के रूप में नौकरी खोनी पड़ी। मांनसांटो जैसी कंपनियों के विरोध में वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करके वे संघर्ष कर रहे हैं।)