-प्रो. अमित भादुरी
यदि बहुदलीय संसदीय प्रजातंत्र का मतलब जनता को राजनीतिक चयन की स्वतंत्रता देना है, तो फिर भारत में इसके लिए ढेरों छोटी-बड़ी पार्टियां मौजूद हैं। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर शायद ही किसी भी पार्टी के पास कोई नया विकल्प रह गया है। वस्तुत: आज राजनीतिक दलों के पास न तो कोई राजनीतिक एजेन्डा रह गया है, न ही आर्थिक। फिर भी भ्रमित पार्टियां ' आर्थिक वृध्दि', 'औद्योगिकीकरण' और विकास के नारे लगा रही हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर आर्थिक वृध्दि दर बढ़ाने के लिए एक निश्चित प्रकार के औद्योगिकीकरण की जरूरत हो, तो क्या इस औद्योगिकीकरण को विकास का पर्याय माना जा सकता है?
आर्थिक वृध्दि दर बढ़ाने के लिए भारत में इस समय जिस तरह का औद्योगिकीकरण हो रहा है। उसमें नवउदारीकरण की तीन मुख्य विशेषताएं नजर आती हैं। पहली:- इसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियां काम कर रही हैं। दूसरी:- ये कंपनियां अधिकांशत: निजी क्षेत्र की हैं। तीसरी:- केन्द्र व राज्य सरकारें नियामक की बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की एजेन्ट बन गयी हैं। सभी राजनीतिक दल यथास्थिति से सहमत हैं। इस बात को बार-बार दोहराया जा रहा है। कि ऐसे औद्योगिकीकरण के लिए त्याग की जरूरत है। लेकिन इस सच्चाई को सभी छुपाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह त्याग सिर्फ गरीबों को करना है। अमीरों को तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं है, उस पर तुर्रा ये कि उन्हें तो सरकार से सहायता भी दी जा रही है॥ सिंगूर, पश्चिम बंगाल में टाटा को दी जाने वाली अनुमानित सबसिडी 1000 करोड़ रूपये के निवेश पर 850 करोड़ रुपए से भी ज्यादा है। इसी तरह की डील उत्तर प्रदेश के दादरी, महाराष्ट्र के रायगढ़ के सेज के लिए अंबानी बंधुओं के साथ होने की बात सामने आ रही है।
नवउदारीकरण ने आज पारम्परिक राजनैतिक विभिन्नताओं को समाप्त कर दिया है। सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं ने यह बता दिया है कि वामपंथी दल भी विश्वबैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी संस्थाओं का समर्थन करने वाले केन्द्र में बैठे आर्थिक नीति-निर्माताओं से भिन्न नहीं हैं। राम मंदिर और वंदेमातरम् के झंडावरदार हिंदुत्ववादी भी अंत में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने ही शीश नवा रहे हैं। राजनीति दोगली हो गयी है। 1984 के दंगों के जनसंहार को शायद कांग्रेस भूल गयी है। वामदल गुजरात के 2002 के दंगों को बार-बार उठाते हैं, जिसे भाजपा राज्य सरकार झूठे प्रचार के माध्यम से दबाती है। एक ओर आडवाणी नंदीग्राम में हुए जनसंहार की तुलना जलियाँवाला बाग से करते हैं, तो वामपंथी नेता और समर्थक इसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना का नाम देकर चुप्पी साध लेते हैं। सिंगूर और नंदीग्राम की तरह टाटा को जमीन देने का विरोध कर रहे कलिंगनगर के 13 आदिवासियों पर पुलिस ने बिना चेतावनी के ही गोलियां चला दीं। क्या ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं पर बचाव के लिए कोरे शब्दों का इस्तेमाल करना ठीक होगा कि नवीन पटनायक बुध्ददेव भट्टाचार्य से इसलिए अलग हैं, क्याेंकि वह भिन्न पार्टी से हैं?
उदारीकरण के इस दौर में सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व और राज्य को एजेन्ट वाली भूमिका का औद्योगिकरण ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन दूसरी ओर देश में सब ओर इस तथाकथित विकास के विरूध्द विद्रोह पनप रहा है। महाराष्ट्र, पंजाब, आंध्रप्रदेश में किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। क्योंकि सरकार डब्लूटीओ के झंडे तले एक नए प्रकार की व्यवसायिक कृषि लाद रही है, जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारी निवेश तो है। लेकिन किसानों के उत्पाद का न तो उचित मूल्य है और न ही कोई सबसिडी। उधर छत्तीसगढ़ में भी सलवा-जुडुम के नेतृत्व में आदिवासियों को उग्रवाद के नाम पर उनके घरों से निकाला जा रहा है। क्योंकि वहां की खनिज संपदा पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी गिध्ददृष्टि लगाए हुए हैं। गरीब आदमी देश की अपार प्राकृतिक संपदा का मालिक है, फिर भी उसके इस अधिकार को नकारा जा रहा है।
संवैधानिक तौर पर भूमि राज्य का विषय होने के बावजूद भी विभिन्न राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपापात्र बनने के लिए भूमि कब्जाने की होड़ में लगी हुई हैं और शान से कहती हैं' पश्चिम बंगाल में भले ही न सही हम उत्तरांचल में अपने मकसद् में जरूर कामयाब होंगे' या टाटा, जिंदल या और ऐसी किसी भी कंपनी की खुशामद के लिए हम उड़ीसा से भी ज्यादा भयानक बन सकते हैं।
जमीनें अलग-अलग तरीकों से कब्जाई जा रही हैं, खनन, उद्योगों, विशाल रियासतों, आईटी पार्कों और विदेशी क्षेत्रों- सेज के नाम पर। विदेशी क्षेत्र का उपबंध भूमि के निजी स्वामित्व के अधिकार को जनहित में राज्य के अधिकार में बदल देता है। इसमें भूमि के साथ पानी, खनिज आदि भी शामिल है। एक कृषि प्रधान देश में जहां भूमि ही रोजी-रोटी का मुख्यस्रोत है, जहां किसान के लिए जमीन ण्क सम्पत्ति नहीं बल्कि रोजी है; वहां आम आदमी से जबरदस्ती संसाधन छीनकर निजी कंपनियों को दिए जा रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने के पुराने अधिनियम में ही 1984 में कुछ संशोधन करके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधने के लिए गरीब से न केवल निवाला छीना जा रहा है; बल्कि उसे घर से भी बेघर किया जा रहा है। प्राय: ऐसा कहा जाता है कि इस आर्थिक प्रक्रिया में लगातार लाभ प्राप्त करता और खोने वाले होते हैं, जिसे शुम्पीटर ने 'रचनात्मक विनाश' का नाम दिया है। हालांकि वर्तमान संदर्भ में यह एक भ्रमित करने वाला आधा सच है। यदि ऐसा 'रचनात्मक विनाश' पूंजीवादी विकास की आम प्रक्रिया होती तो शायद निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफ से जनहित के नाम पर राज्य को हस्तक्षेप करने की जरूरत ही न पड़ती। इस लेन-देन में दो निजी पक्ष बहुराष्ट्रीय कंपनी और जमीन का मालिक किसान शामिल है। राज्य का कर्य तो इस लेन-देन को ऐच्छिक बनाने के लिए होना चाहिए। क्योंकि इस सौदे में एक पक्ष यानी किसान आर्थिक रूप से कमजोर है। इसका मतलब होगा कि कंपनियां उस मुल्य पर तमीन खरीदें। जहां किसान स्वेच्छा से उसे बेचने के लिए तैयार हों। उसका निर्णय चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक। आदिवासियों की जमीन के सौदे के लिए तो निर्णय सामूहिक होना चाहिए। लेकिन आज किसानों और कंपनियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा के बजाय राज्य सूचना के अधिकार की परवाह किए बिना हिंसा और दमन से जमीनें कब्जा रहे हैं।
सेज की योजन में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित-साधन ही है। भले ही नंदीग्राम और सिंगूर में कानूनी रूप से टाटा व फिएट के ज्वांइट वेंचर और सलेम ग्रुप के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण कानूनी रूप से सही रहा हो, परन्तु उन किसानों के नजरिए से देखा जाए, जो उस जमीन से जीविका पाते थे, तो गलत है। नंदीग्राम की घटना के बाद ज्यादातर राजनीतिक दल, जिसमें वामदल भी शामिल हैं, ने सरकार को यह सलाह दी की कि सभी सेज को खत्म न किया जाए बल्कि उनका अधिकतम भूमि का दायरा सीमित कर दिया जाए। हालांकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को किसानों से छीनकर दिए गये संसाधनों में केवल जमीन ही दिखाई देती है, लेकिन सम्स्याएं तो और भी गहरी हैं। परोक्ष और अपरोक्ष दोनों रूपों से नीतियां गरीबों के खिलाफ बनाई जा रही हैं, योजनाओं में सीधे तौर पर देखा जा सकता है। भारत की 60 फीसदी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। परन्तु पिछली जितनी भी पंचवर्षीय योजनाएं थीं, उसमें सरकार ने पाँच फीसदी से अधिक कृषि को नहीं दिया। अपरोक्ष रूप फसल की खपत और पैदावार के प्रति सरकार द्वारा तय नीति में देखा जा सकता है। कई बड़ी परियोजनाएं जैसे मॉल्स, भूमिगत मैट्रो सब जनता के खर्च पर शहरीकरण की अच्छी छवि बनाते हैं। इन सब चीजों को मूलभूत सुविधा मानकर स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि इनसे यात्रा में समय की बचत होती ही है। जीवन स्तर भी बेहतर बनता है। साथ ही निवेश को भी बढ़ावा मिलता है। यह तर्क गलत नही ंतो एकतरफा तो जरूर है। हमें जरूरत तो है, पर शायद ही हम उस ग्रामीण भारत को सुविधाएं और बेहतर बनाने के बारे में सोचते हैं। जहां देश की अधिकांश आबादी रहती है।
महानगरों में हमें मूलभूत सुविधाएं चाहिएं। मैनहटन जैसे शहर हमारा लक्ष्य बना दिए गये हैं। जबकि भारत में 25 से 60 फीसदी जनसंख्या को झोपड़पट्टी में मानवीय जीवन की सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। यह पक्षपात क्यों? इससे किसको लाभ होगा। उस धनाढय शहरी वर्ग को, जो कि शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है। जहां रोज बिजली-पानी और जगह की हवस बढ़ती जा रही है। इसलिए बिना पुनर्वास के झोपड़पट्टियां उजाड़ी जा रही हैं। आवागमन के नए साधन जिनके लिए नए फ्लाई ओवर, नए तरह के शॉपिंग व आवासीय काम्पलेक्स को हम बढ़ावा दे रहे हैं, आश्चर्यजनक है! यह सब गहन बिजली खपत करते हैं। जिसका खामियाजा उन लोगों को भी भुगतना पड़ता है, जो इसका उपयोग नहीं करते। इसलिए किसानों को पानी, बिजली, साफ पीने का पानी और शौचालय आदि गाँवों में मयस्सर नहीं है।
यह सोच कि उद्योग कृषि से ज्यादा सक्षम हैं, वास्तव में किसान और गरीब विरोधी हैं। लगभग दो-तिहाई भारत की कामकाजी जनसंख्या कृषि कार्य करती है और राष्ट्रीय आय में मात्र एक चौथाई ही देती है, जबकि उद्योग राष्ट्रीय आय में दुगना देते हैं।
दूसरे तरह के विकास करने वाला आर्थिक विकल्प भी संभव है। जिसके तत्व आज के राजनीतिक-आर्थिक पध्दति में मौजूद हैं, जो तीन बातों पर निर्भर हैं; पहला हमें विदेशी बाजार की बजाए अपने ञ्रेलू बाजार पर विश्वास करना होगा। आम आदमी की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए रोजगार के अवसर को बढ़ाना होगा। कुछ सालों में भारत का रिकॉर्ड इस दिशा में कुछ खास अच्छा नहीं रहा हैं। ऐसा सोचना तो मूर्खता ही होगी कि कंपनियां से रोजगार पैदा हाेंगे क्याेंकि इनको मुनाफा चाहिए, जिसके लिए वह कम से कम लागत में काम करना चाहती है, इसमें श्रम की लागत भी शामिल है। अगर हम भूमण्डलीकरण को बिना शर्त स्वीकार करते हैं, तो बजाए घरेलू बाजार के विदेशी बाजार ही मजबूत होगा, मतलब निर्यात बढ़ाने क लिए श्रम की लागत में कमी होगी, ज्यादा निर्यात का मतलब, यहां की जनता की जरूरत के हिसाब से उत्पादन का नहीं होना है। घरेलू बाजार के विकास के लिए जरूरी है, रोजगाार के अवसर। अत: हमें भूमण्डलीकरण का चुनाव सोच-समझ से करना होगा।
दूसरा, रोजगार की बढ़ोत्तरी से आर्थिक विकास होना चाहिए न कि आर्थिक विकास के लिए रोजगार ही खत्म कर दिए जाएँ। रोजगार रोजगार वृध्दि आर्थिक वृध्दि दर में कितना योगदान देती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी उत्पादकता से श्रम को लगाया जा सकता है। भारत इस क्षेत्र में बहुत पीछे है, जिसके नतीजे अच्छे नहीं हैं। कारण केन्द्रीकृत नौकरशाही, जो स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णयों को खत्म कर देती है। हमें एक नई शुरुआत करनी होगी, सामाजिक रूढ़िवाद और नवउदारवादी नीतियों के मिले-जुले स्वरूप के साथ। एक ओर तो हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल से बचना है, जिसके लिए हमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि को केन्द्रीय बिन्दु बनाना होगा, दूसरी तरफ़ हमें मौजूदा केन्द्रीकृत नौकरशाही को खत्म करना होगा। यह तभी संभव है, जब मौजूदा राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना को पूर्ण रोजगार में तब्दील कर पंचायताें तथा स्थानीय लोगों को अधिक से अधिक शक्तियां दी जाएं ताकि वे अपने स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा कर रोजगार दें। इसके लिए जमीन से संबंधित स्थानीय नियंत्रण पंचायतों को अधिकतम आर्थिक स्वायत्तता देना पहली शर्त है। हालांकि संविशान के अनुच्छेद 243 के अनुसार ग्राम्य/वार्ड स्तर के स्थानीय निकायों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने और सहायता देने के लिए 1993 में एक वित्त आयोग की स्थापना की जानी थी। लेकिन न तो केन्द्र और न ही राज्य की सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया।
लेकिन न तो केन्द्र की सरकार ने और राज्य की सरकार ने इसे गम्भीरता से लिया। इस मामले में केरल अव्वल रहा तो पश्चिम बंगाल सबसे खराब। गौरतलब है कि वामदल ने नरेगा को पास कराने में अहम भूमिका निभाई, परंतु आश्चर्यजनक बात यह है कि मात्र 14 फीसदी धन का जो कि रोजगार के लिए आबंटित हुआ था, पुरूलिया के लिए प्रयोग में लाया गया। दिसम्बर 2006 तक केन्द्र द्वारा आबंटित आधे से ज्यादा धन खर्च ही नहीं किया गया और न ही 16 दिन से ज्यादा का रोजगार दिया गया; जबकि नियम के हिसाब से 100 दिन का होना चाहिए था। अगर सरकार ने थोड़ा भी अपना ध्यान या थोड़ी भी इच्छाशक्ति रोजगार देने के वादे पर लगाई होती तो भूमि अधिग्रहण के बजाए यह सही विकास की दिशा में पहला कदम होता।
अंत में सवाल आता है कि इन सब के लिए धन कहाँ से आएगा? उसका सही उपयोग किस तरह होगा? वित्त संबंधी जिम्मेदारी और बजट व्यवस्था अधिनियम-2003 ने रोजगार जैसे आवश्यक मामलों में धन खर्च करने के लिए सरकार के हाथ बांधे हुए हैं, इसे खत्म कर देना चाहिए। आर्थिक मदद के नाम पर सरकार अधिनियम की आड़ में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और मूलभूत सुविधाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा में खर्च की कटौती कर वित्तीय अनुशासन के नाम पर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है। इससे तो विश्वबैंक, आईएमएफ और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ही भला हो रहा है। वे तो चाहते ही यही हैं कि राज्य इन्हें बनाए नहीं बल्कि केवल लागू करने की भूमिका करें। वामदलों को इसके विरुध्द कार्य करना चाहिए और आग्रह करना चाहिए कि यह धन प्राथमिक शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य एवं असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा पर खर्च किया जाना चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए। इस नवीन उदारवादी अर्थिक विचारधारा के खिलाफ पहले थोड़ा बहुत हल्ला तो हुआ परंतु अब सबकी उर्जा इसी बहुराष्ट्रीय औद्योगिकरण पर लग रही है।
स्थानीय संस्थानों की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा उनके बजट को अलग से राष्ट्रीय बैंको में भी रखा जा सकता है, जिसमें पंचायतों को भी क्रेडिट लाइन दी जाए, जो कि राष्ट्रीय बैंकों से मिले जिसमें पंचायत भी शामिल हों। इसका यह फ़ायदा होगा कि कोई फ़र्जी संस्थान नहीं चला पाएगा और व्यवस्था द्वारा इन पर निगाह भी रखी जा सकेगी यानी 'नियंत्रण व संतुलन' की व्यवस्था कायम हो सकेगी कि इन्होंने जिन परियोजनाओं के लिए धन लिया था उन पर कार्य किया कि नहीं तभी आगे की परियोजनाओं के लिए धन मिलेगा।
इससे भले ही विकास की गति 8 से 10 फीसदी न हो, परंतु समाज के गरीब तबके का भला होगा और वह सबल और सक्षम बन सकेगा, जिससे भारत की गणतंत्र व्यवस्था मजबूत होगी। हम उम्मीद कर सकते हैं कि कंपनीहीन विकास ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देगा, जो कि मुख्य बिन्दु है, जिससे देश आगे बढ़ेगा।
यदि बहुदलीय संसदीय प्रजातंत्र का मतलब जनता को राजनीतिक चयन की स्वतंत्रता देना है, तो फिर भारत में इसके लिए ढेरों छोटी-बड़ी पार्टियां मौजूद हैं। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर शायद ही किसी भी पार्टी के पास कोई नया विकल्प रह गया है। वस्तुत: आज राजनीतिक दलों के पास न तो कोई राजनीतिक एजेन्डा रह गया है, न ही आर्थिक। फिर भी भ्रमित पार्टियां ' आर्थिक वृध्दि', 'औद्योगिकीकरण' और विकास के नारे लगा रही हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर आर्थिक वृध्दि दर बढ़ाने के लिए एक निश्चित प्रकार के औद्योगिकीकरण की जरूरत हो, तो क्या इस औद्योगिकीकरण को विकास का पर्याय माना जा सकता है?
आर्थिक वृध्दि दर बढ़ाने के लिए भारत में इस समय जिस तरह का औद्योगिकीकरण हो रहा है। उसमें नवउदारीकरण की तीन मुख्य विशेषताएं नजर आती हैं। पहली:- इसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियां काम कर रही हैं। दूसरी:- ये कंपनियां अधिकांशत: निजी क्षेत्र की हैं। तीसरी:- केन्द्र व राज्य सरकारें नियामक की बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की एजेन्ट बन गयी हैं। सभी राजनीतिक दल यथास्थिति से सहमत हैं। इस बात को बार-बार दोहराया जा रहा है। कि ऐसे औद्योगिकीकरण के लिए त्याग की जरूरत है। लेकिन इस सच्चाई को सभी छुपाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह त्याग सिर्फ गरीबों को करना है। अमीरों को तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं है, उस पर तुर्रा ये कि उन्हें तो सरकार से सहायता भी दी जा रही है॥ सिंगूर, पश्चिम बंगाल में टाटा को दी जाने वाली अनुमानित सबसिडी 1000 करोड़ रूपये के निवेश पर 850 करोड़ रुपए से भी ज्यादा है। इसी तरह की डील उत्तर प्रदेश के दादरी, महाराष्ट्र के रायगढ़ के सेज के लिए अंबानी बंधुओं के साथ होने की बात सामने आ रही है।
नवउदारीकरण ने आज पारम्परिक राजनैतिक विभिन्नताओं को समाप्त कर दिया है। सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं ने यह बता दिया है कि वामपंथी दल भी विश्वबैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी संस्थाओं का समर्थन करने वाले केन्द्र में बैठे आर्थिक नीति-निर्माताओं से भिन्न नहीं हैं। राम मंदिर और वंदेमातरम् के झंडावरदार हिंदुत्ववादी भी अंत में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने ही शीश नवा रहे हैं। राजनीति दोगली हो गयी है। 1984 के दंगों के जनसंहार को शायद कांग्रेस भूल गयी है। वामदल गुजरात के 2002 के दंगों को बार-बार उठाते हैं, जिसे भाजपा राज्य सरकार झूठे प्रचार के माध्यम से दबाती है। एक ओर आडवाणी नंदीग्राम में हुए जनसंहार की तुलना जलियाँवाला बाग से करते हैं, तो वामपंथी नेता और समर्थक इसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना का नाम देकर चुप्पी साध लेते हैं। सिंगूर और नंदीग्राम की तरह टाटा को जमीन देने का विरोध कर रहे कलिंगनगर के 13 आदिवासियों पर पुलिस ने बिना चेतावनी के ही गोलियां चला दीं। क्या ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं पर बचाव के लिए कोरे शब्दों का इस्तेमाल करना ठीक होगा कि नवीन पटनायक बुध्ददेव भट्टाचार्य से इसलिए अलग हैं, क्याेंकि वह भिन्न पार्टी से हैं?
उदारीकरण के इस दौर में सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व और राज्य को एजेन्ट वाली भूमिका का औद्योगिकरण ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन दूसरी ओर देश में सब ओर इस तथाकथित विकास के विरूध्द विद्रोह पनप रहा है। महाराष्ट्र, पंजाब, आंध्रप्रदेश में किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। क्योंकि सरकार डब्लूटीओ के झंडे तले एक नए प्रकार की व्यवसायिक कृषि लाद रही है, जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारी निवेश तो है। लेकिन किसानों के उत्पाद का न तो उचित मूल्य है और न ही कोई सबसिडी। उधर छत्तीसगढ़ में भी सलवा-जुडुम के नेतृत्व में आदिवासियों को उग्रवाद के नाम पर उनके घरों से निकाला जा रहा है। क्योंकि वहां की खनिज संपदा पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी गिध्ददृष्टि लगाए हुए हैं। गरीब आदमी देश की अपार प्राकृतिक संपदा का मालिक है, फिर भी उसके इस अधिकार को नकारा जा रहा है।
संवैधानिक तौर पर भूमि राज्य का विषय होने के बावजूद भी विभिन्न राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपापात्र बनने के लिए भूमि कब्जाने की होड़ में लगी हुई हैं और शान से कहती हैं' पश्चिम बंगाल में भले ही न सही हम उत्तरांचल में अपने मकसद् में जरूर कामयाब होंगे' या टाटा, जिंदल या और ऐसी किसी भी कंपनी की खुशामद के लिए हम उड़ीसा से भी ज्यादा भयानक बन सकते हैं।
जमीनें अलग-अलग तरीकों से कब्जाई जा रही हैं, खनन, उद्योगों, विशाल रियासतों, आईटी पार्कों और विदेशी क्षेत्रों- सेज के नाम पर। विदेशी क्षेत्र का उपबंध भूमि के निजी स्वामित्व के अधिकार को जनहित में राज्य के अधिकार में बदल देता है। इसमें भूमि के साथ पानी, खनिज आदि भी शामिल है। एक कृषि प्रधान देश में जहां भूमि ही रोजी-रोटी का मुख्यस्रोत है, जहां किसान के लिए जमीन ण्क सम्पत्ति नहीं बल्कि रोजी है; वहां आम आदमी से जबरदस्ती संसाधन छीनकर निजी कंपनियों को दिए जा रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने के पुराने अधिनियम में ही 1984 में कुछ संशोधन करके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधने के लिए गरीब से न केवल निवाला छीना जा रहा है; बल्कि उसे घर से भी बेघर किया जा रहा है। प्राय: ऐसा कहा जाता है कि इस आर्थिक प्रक्रिया में लगातार लाभ प्राप्त करता और खोने वाले होते हैं, जिसे शुम्पीटर ने 'रचनात्मक विनाश' का नाम दिया है। हालांकि वर्तमान संदर्भ में यह एक भ्रमित करने वाला आधा सच है। यदि ऐसा 'रचनात्मक विनाश' पूंजीवादी विकास की आम प्रक्रिया होती तो शायद निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफ से जनहित के नाम पर राज्य को हस्तक्षेप करने की जरूरत ही न पड़ती। इस लेन-देन में दो निजी पक्ष बहुराष्ट्रीय कंपनी और जमीन का मालिक किसान शामिल है। राज्य का कर्य तो इस लेन-देन को ऐच्छिक बनाने के लिए होना चाहिए। क्योंकि इस सौदे में एक पक्ष यानी किसान आर्थिक रूप से कमजोर है। इसका मतलब होगा कि कंपनियां उस मुल्य पर तमीन खरीदें। जहां किसान स्वेच्छा से उसे बेचने के लिए तैयार हों। उसका निर्णय चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक। आदिवासियों की जमीन के सौदे के लिए तो निर्णय सामूहिक होना चाहिए। लेकिन आज किसानों और कंपनियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा के बजाय राज्य सूचना के अधिकार की परवाह किए बिना हिंसा और दमन से जमीनें कब्जा रहे हैं।
सेज की योजन में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित-साधन ही है। भले ही नंदीग्राम और सिंगूर में कानूनी रूप से टाटा व फिएट के ज्वांइट वेंचर और सलेम ग्रुप के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण कानूनी रूप से सही रहा हो, परन्तु उन किसानों के नजरिए से देखा जाए, जो उस जमीन से जीविका पाते थे, तो गलत है। नंदीग्राम की घटना के बाद ज्यादातर राजनीतिक दल, जिसमें वामदल भी शामिल हैं, ने सरकार को यह सलाह दी की कि सभी सेज को खत्म न किया जाए बल्कि उनका अधिकतम भूमि का दायरा सीमित कर दिया जाए। हालांकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को किसानों से छीनकर दिए गये संसाधनों में केवल जमीन ही दिखाई देती है, लेकिन सम्स्याएं तो और भी गहरी हैं। परोक्ष और अपरोक्ष दोनों रूपों से नीतियां गरीबों के खिलाफ बनाई जा रही हैं, योजनाओं में सीधे तौर पर देखा जा सकता है। भारत की 60 फीसदी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। परन्तु पिछली जितनी भी पंचवर्षीय योजनाएं थीं, उसमें सरकार ने पाँच फीसदी से अधिक कृषि को नहीं दिया। अपरोक्ष रूप फसल की खपत और पैदावार के प्रति सरकार द्वारा तय नीति में देखा जा सकता है। कई बड़ी परियोजनाएं जैसे मॉल्स, भूमिगत मैट्रो सब जनता के खर्च पर शहरीकरण की अच्छी छवि बनाते हैं। इन सब चीजों को मूलभूत सुविधा मानकर स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि इनसे यात्रा में समय की बचत होती ही है। जीवन स्तर भी बेहतर बनता है। साथ ही निवेश को भी बढ़ावा मिलता है। यह तर्क गलत नही ंतो एकतरफा तो जरूर है। हमें जरूरत तो है, पर शायद ही हम उस ग्रामीण भारत को सुविधाएं और बेहतर बनाने के बारे में सोचते हैं। जहां देश की अधिकांश आबादी रहती है।
महानगरों में हमें मूलभूत सुविधाएं चाहिएं। मैनहटन जैसे शहर हमारा लक्ष्य बना दिए गये हैं। जबकि भारत में 25 से 60 फीसदी जनसंख्या को झोपड़पट्टी में मानवीय जीवन की सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। यह पक्षपात क्यों? इससे किसको लाभ होगा। उस धनाढय शहरी वर्ग को, जो कि शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है। जहां रोज बिजली-पानी और जगह की हवस बढ़ती जा रही है। इसलिए बिना पुनर्वास के झोपड़पट्टियां उजाड़ी जा रही हैं। आवागमन के नए साधन जिनके लिए नए फ्लाई ओवर, नए तरह के शॉपिंग व आवासीय काम्पलेक्स को हम बढ़ावा दे रहे हैं, आश्चर्यजनक है! यह सब गहन बिजली खपत करते हैं। जिसका खामियाजा उन लोगों को भी भुगतना पड़ता है, जो इसका उपयोग नहीं करते। इसलिए किसानों को पानी, बिजली, साफ पीने का पानी और शौचालय आदि गाँवों में मयस्सर नहीं है।
यह सोच कि उद्योग कृषि से ज्यादा सक्षम हैं, वास्तव में किसान और गरीब विरोधी हैं। लगभग दो-तिहाई भारत की कामकाजी जनसंख्या कृषि कार्य करती है और राष्ट्रीय आय में मात्र एक चौथाई ही देती है, जबकि उद्योग राष्ट्रीय आय में दुगना देते हैं।
दूसरे तरह के विकास करने वाला आर्थिक विकल्प भी संभव है। जिसके तत्व आज के राजनीतिक-आर्थिक पध्दति में मौजूद हैं, जो तीन बातों पर निर्भर हैं; पहला हमें विदेशी बाजार की बजाए अपने ञ्रेलू बाजार पर विश्वास करना होगा। आम आदमी की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए रोजगार के अवसर को बढ़ाना होगा। कुछ सालों में भारत का रिकॉर्ड इस दिशा में कुछ खास अच्छा नहीं रहा हैं। ऐसा सोचना तो मूर्खता ही होगी कि कंपनियां से रोजगार पैदा हाेंगे क्याेंकि इनको मुनाफा चाहिए, जिसके लिए वह कम से कम लागत में काम करना चाहती है, इसमें श्रम की लागत भी शामिल है। अगर हम भूमण्डलीकरण को बिना शर्त स्वीकार करते हैं, तो बजाए घरेलू बाजार के विदेशी बाजार ही मजबूत होगा, मतलब निर्यात बढ़ाने क लिए श्रम की लागत में कमी होगी, ज्यादा निर्यात का मतलब, यहां की जनता की जरूरत के हिसाब से उत्पादन का नहीं होना है। घरेलू बाजार के विकास के लिए जरूरी है, रोजगाार के अवसर। अत: हमें भूमण्डलीकरण का चुनाव सोच-समझ से करना होगा।
दूसरा, रोजगार की बढ़ोत्तरी से आर्थिक विकास होना चाहिए न कि आर्थिक विकास के लिए रोजगार ही खत्म कर दिए जाएँ। रोजगार रोजगार वृध्दि आर्थिक वृध्दि दर में कितना योगदान देती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी उत्पादकता से श्रम को लगाया जा सकता है। भारत इस क्षेत्र में बहुत पीछे है, जिसके नतीजे अच्छे नहीं हैं। कारण केन्द्रीकृत नौकरशाही, जो स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णयों को खत्म कर देती है। हमें एक नई शुरुआत करनी होगी, सामाजिक रूढ़िवाद और नवउदारवादी नीतियों के मिले-जुले स्वरूप के साथ। एक ओर तो हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल से बचना है, जिसके लिए हमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि को केन्द्रीय बिन्दु बनाना होगा, दूसरी तरफ़ हमें मौजूदा केन्द्रीकृत नौकरशाही को खत्म करना होगा। यह तभी संभव है, जब मौजूदा राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना को पूर्ण रोजगार में तब्दील कर पंचायताें तथा स्थानीय लोगों को अधिक से अधिक शक्तियां दी जाएं ताकि वे अपने स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा कर रोजगार दें। इसके लिए जमीन से संबंधित स्थानीय नियंत्रण पंचायतों को अधिकतम आर्थिक स्वायत्तता देना पहली शर्त है। हालांकि संविशान के अनुच्छेद 243 के अनुसार ग्राम्य/वार्ड स्तर के स्थानीय निकायों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने और सहायता देने के लिए 1993 में एक वित्त आयोग की स्थापना की जानी थी। लेकिन न तो केन्द्र और न ही राज्य की सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया।
लेकिन न तो केन्द्र की सरकार ने और राज्य की सरकार ने इसे गम्भीरता से लिया। इस मामले में केरल अव्वल रहा तो पश्चिम बंगाल सबसे खराब। गौरतलब है कि वामदल ने नरेगा को पास कराने में अहम भूमिका निभाई, परंतु आश्चर्यजनक बात यह है कि मात्र 14 फीसदी धन का जो कि रोजगार के लिए आबंटित हुआ था, पुरूलिया के लिए प्रयोग में लाया गया। दिसम्बर 2006 तक केन्द्र द्वारा आबंटित आधे से ज्यादा धन खर्च ही नहीं किया गया और न ही 16 दिन से ज्यादा का रोजगार दिया गया; जबकि नियम के हिसाब से 100 दिन का होना चाहिए था। अगर सरकार ने थोड़ा भी अपना ध्यान या थोड़ी भी इच्छाशक्ति रोजगार देने के वादे पर लगाई होती तो भूमि अधिग्रहण के बजाए यह सही विकास की दिशा में पहला कदम होता।
अंत में सवाल आता है कि इन सब के लिए धन कहाँ से आएगा? उसका सही उपयोग किस तरह होगा? वित्त संबंधी जिम्मेदारी और बजट व्यवस्था अधिनियम-2003 ने रोजगार जैसे आवश्यक मामलों में धन खर्च करने के लिए सरकार के हाथ बांधे हुए हैं, इसे खत्म कर देना चाहिए। आर्थिक मदद के नाम पर सरकार अधिनियम की आड़ में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और मूलभूत सुविधाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा में खर्च की कटौती कर वित्तीय अनुशासन के नाम पर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है। इससे तो विश्वबैंक, आईएमएफ और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ही भला हो रहा है। वे तो चाहते ही यही हैं कि राज्य इन्हें बनाए नहीं बल्कि केवल लागू करने की भूमिका करें। वामदलों को इसके विरुध्द कार्य करना चाहिए और आग्रह करना चाहिए कि यह धन प्राथमिक शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य एवं असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा पर खर्च किया जाना चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए। इस नवीन उदारवादी अर्थिक विचारधारा के खिलाफ पहले थोड़ा बहुत हल्ला तो हुआ परंतु अब सबकी उर्जा इसी बहुराष्ट्रीय औद्योगिकरण पर लग रही है।
स्थानीय संस्थानों की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा उनके बजट को अलग से राष्ट्रीय बैंको में भी रखा जा सकता है, जिसमें पंचायतों को भी क्रेडिट लाइन दी जाए, जो कि राष्ट्रीय बैंकों से मिले जिसमें पंचायत भी शामिल हों। इसका यह फ़ायदा होगा कि कोई फ़र्जी संस्थान नहीं चला पाएगा और व्यवस्था द्वारा इन पर निगाह भी रखी जा सकेगी यानी 'नियंत्रण व संतुलन' की व्यवस्था कायम हो सकेगी कि इन्होंने जिन परियोजनाओं के लिए धन लिया था उन पर कार्य किया कि नहीं तभी आगे की परियोजनाओं के लिए धन मिलेगा।
इससे भले ही विकास की गति 8 से 10 फीसदी न हो, परंतु समाज के गरीब तबके का भला होगा और वह सबल और सक्षम बन सकेगा, जिससे भारत की गणतंत्र व्यवस्था मजबूत होगी। हम उम्मीद कर सकते हैं कि कंपनीहीन विकास ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देगा, जो कि मुख्य बिन्दु है, जिससे देश आगे बढ़ेगा।