मीनाक्षी अरोड़ा
कन्या-भ्रूणहत्या रोकने की हालिया कोशिशें: एक: भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी कहती हैं कि हम हर जिले में अनैच्छिक बेटियों के लिए कन्या-क्रच खोलेंगे, जो लोग बेटी पालना नहीं चाहते वे वहां अपनी बेटी छोड़ दें, ताकि बेटा-बेटी अनुपात संतुलित किया जा सके और कन्या-भ्रूणहत्या रोकी जा सके। दो: कन्या-भ्रूणहत्या रोकने के लिए मदुरै के पुलिस आयुक्त ए.सुब्रह्मण्यम स्वास्थ्य, राजस्व, समाज कल्याण विभाग और पुलिस को मिलाकर एक मिली-जुली एक्शन-टीम बनाई है, जो कन्या-भ्रूणहत्या को रोकने का काम करेगी।
तीन: केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की चेयरमैन रजनी पाटिल कहती हैं कि हम सभी राज्य सरकारों को कन्या-भ्रूणहत्या के खिलाफ़ स्टिंग-ऑपरेशन ग्रुप बनाने के लिए कह रहे हैं, जिसमें एनजीओ और खुफिया विभाग को जरूर शामिल किया जाए।
चार: गुजरात के मुख्यमंत्री ने 'बेटी बचाओ अभियान' चला रखा है और उनके स्वास्थ्यमंत्री अशोक भट्ट के चुनावक्षेत्र में हिन्दुस्तान का सबसे कम सेक्स-अनुपात है, 1000 पुरुष पर मात्र 767 महिलाएं।
पांच: चंडीगढ़ का एक गैर-सरकारी संगठन 'वीमेन पावर कनेक्ट' चंडीगढ़ स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर निजी क्लीनिक से निकालने वाले बायो-मेडिकल कचरे को चेक करेगा और सुनिश्चित करेगा कि कहीं उस कचरे में कोई कन्या-भ्रूण तो नहीं है।
और भी कोशिशें जारी हैं कन्या-भ्रूणहत्या और कन्या-भ्रूण पहचान की प्रक्रिया रोकने की। रैलियां, कन्या-दिवस मनाने, बालिका शिशु वर्ष, विज्ञापन, बेटियों के लिए लाडली, योजना, नकद प्रोत्साहन और केन्द्र और राज्यों की सैकड़ों योजनाएं; पर जारी है, कन्या-भ्रूणहत्या।
देश के लिए शर्मनाक ही है कि कन्या-भ्रूणहत्या प्रतिवर्ष 9 फीसदी की दर से लगातार बढ़ रही है। पिछले दो दशकों में एक करोड़ से ज्यादा कन्या-भ्रूणहत्या की गयी है। तमिलनाडु के सबू जॉर्ज, जो पिछले बीस सालों से इस मसले पर अध्ययन कर रहे हैं, का कहना है कि बेटी-क्रच खोलने जैसी योजनाओं का सीधा मतलब है कि हम कन्या-भ्रूणहत्या रोकने में असफल रहे हैं, क्योंकि बेटियां पैदा होने के बाद कम और गर्भ में ज्यादा मारी जाती हैं। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की चेयरमैन रजनी पाटिल स्वीकार करती हैं कि तेरह साल हो गए 'प्री-नेटल डाइग्नोस्टिक टेक्नोलाजी एक्ट'-1993 और 'मेडिकल टर्मिनेशन ऑव प्रेगनेन्सी एक्ट' दोनों के तहत अब तक 4,000 मुकदमे दर्ज हुए हैं, पर सजा सिर्फ़ एक डॉक्टर को हुई है।
मुकदमा दर्ज कराने की जिम्मेदारी मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारियों की होती है, पर प्राय: उनके संबंध प्राइवेट क्लिनिक और डाइग्नोस्टिक सेंटर से हुआ करते हैं। इसलिए कन्या-भ्रूणहत्या कराने वाले क्लिनिक तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ मुकदमे ही नहीं दर्ज हो रहे हैं। प्राइवेट क्लिनिक और डाइग्नोस्टिक सेंटर कन्या-भ्रूण पहचान और कन्या-भ्रूणहत्या के रोज नए-नए तरीके अपना रहे हैं। अभी तक यह सारा काम लोकल स्तर पर ही होता था, पर अब उनके साथ बड़ी-बड़ी कंपनियां जुट गयी हैं। अमेरिका की 'लॉवेल लैब' 'ममीज़ थिंकिन कंपनी' आदि ने 'जेंडर मेंटर किट' कन्या-भ्रूण पहचान का एक नया तरीका उपलब्ध कराया है, जिससे कन्या-भ्रूण की पहचान मात्र 5 हफ्ते के अंदर ही हो जाती है, यानी बेटी मारना और आसान.......।
दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और पंजाब; पंजाब में तो 'जेंडर मेंटर किट' का क्रेज लोगों में इस कदर बढ़ रहा है कि देहात के लोग तो इसे 'जन्तर-मन्तर किट' ही कहने लगे हैं। मानो कि यह अनचाहे लिंग के भ्रूण से छुटकारा पाने का सबसे सुरक्षित मन्त्र हो। अल्ट्रासाउण्ड से लिंग का पता ऐसे स्टेज पर लगता है जहां 'अबॉर्शन' कराना खतरनाक हो जाता है, लेकिन 'जन्तर-मन्तर किट' से शुरूआती दौर में ही पता लग जाता है। इसलिए 'जेंडर मेंटर किट' का बाजार गर्माता जा रहा है। पंजाब मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष कुलदीप सिंह का कहना है ''अगर भारतीय बाजारों में यह किट चलता रहा तो बालिका भ्रूण-हत्याओं का सिलसिला और भी तेज होगा।''
गर्भाधान के दौरान लिंग परीक्षण ही मुख्य उत्तरदायी है, कन्या-भ्रूणहत्या का। तरह -तरह के परीक्षण होते हैं- गर्भाधान के दौरान लिंग जानने के लिए। यानी जन्म लेने वाला प्राणी लड़का होगा या लड़की, आप पहले ही जान सकते हैं। लड़का पाने की लालसा फिर कन्या-भ्रूण की मौत कराती है। वैसे इसे वैज्ञानिक तकनीक का एक नया करिश्मा कहें या अभिशाप? दिन-ब-दिन बढ़ते विज्ञान और तकनीकी ने जहां जीवन को सरल और सुविधासम्पन्न बनाया है, वहीं यह उतना ही ज्यादा जटिल और घातक बन रहा है।
इसी वैज्ञानिक तकनीक की एक नई ईजाद है 'जेंडर मेंटर किट- एक ऐसा 'ब्लड टेस्ट' जो गर्भवती स्त्रियों को गर्भाधान के प्रारम्भिक पांच सप्ताह के भीतर यह बता सकता है कि उनका जन्म लेने वाला बच्चा लड़का होगा या लड़की। 'लॉवेल लैब' में 'ब्लड टेस्ट' देने के बाद दो या तीन दिन के भीतर ही स्त्रियों को यह रिपोर्ट मिल जाती है। उसके बाद उन्हें देर नहीं लगती यह तय करने में कि उन्हें लड़की चाहिए या लड़का।
इस मौत के खेल को खेलने के लिए ऑनलाइन मार्केटिंग और लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस खेल के लिए आवश्यक 'ब्लड टेस्ट' का ही व्यापारिक नाम 'बेबी जेंडर मेंटर' है जो अमरीका के मेसाच्यूसेट्स में लॉवेल की बायोटेक कंपनी- एक्यूजेन बायोलैब द्वारा खेला जा रहा है। एक ऐसी मानसिकता तैयार की जा रही है कि हर आदमी को यह महसूस होने लगे कि यह टेस्ट जरूरी है। इसके लिए अनेक तर्कों का सहारा लिया जा रहा है, जैसे- बच्चे के जन्म से पहले मां का मानसिक रूप से खुद को तैयार करना जरूरी है।
लड़का और लड़की के लिए आवश्यक खरीददारी, तैयारी और योजना बनाने के लिए, उसके लिंग के बारे में पहले से मालूम होना जरूरी है। इसी तरह कुछ बीमारियों आदि के तर्कों का इस्तेमाल कर भ्रामक प्रचार किए जा रहे हैं। इस टेस्ट किट की कीमत मात्र 25 अमरीकी डालर है और कंपनियों का दावा है कि यह किट दुनिया के किसी भी कोने में 24 घंटे के अंदर कहीं भी ऑनलाइन डिमांड पर उपलब्ध कराया जा सकता है। टेस्ट के लिए तैयार गर्भवती महिला की अंगुली से कुछ खून निकालकर टेस्ट किट में मौजूद कार्ड पर लगा दिया जाता है। फिर उसे एक्यूजेन लैब, अमेरिका भेज दिया जाता है, जहां 250 अमरीकी डालर अतिरिक्त फीस देनी होती है। उसके बाद टेस्ट का परिणाम 'पासवर्ड सिक्योरिटी' के साथ वेबसाइट पर डाल दिया जाता है।
'फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन' की टेस्ट को नियमित करने में कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि यह टेस्ट 'नॉन-मेडिकल' की श्रेणी में आता है और इसे किसी भी 'चिकित्सकीय इलाज' के नाम पर रोका नहीं जा सकता। इस तरह एफडीए के नियमों के अधीन न होने की वजह से 'बेबी जेंडर मेंटर टेस्ट' के रास्ते में 'फर्मास्यूटिकल' सम्बन्धी कोई बाधा नहीं है। इतना ही नहीं ये 'लैब' अपने ग्राहकों पर किए गए परीक्षणों का परिणाम बताने या न बताने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है।
कंपनी इस बात को स्वीकार करती है कि लैब की रिपोर्ट आने पर वे चार सम्भावित परिणाम बता सकते हैं- लड़का, लड़की, जुड़वां या कुछ नहीं। कंपनी टेस्ट के परिणाम 99.9 फीसदी सही होने का दावा करती है। पर बेलर कॉलेज ऑव मेडिसिन की प्रोफेसर सैंड्रा कार्सन का भी कहना है कि, ''जब तक एक्यूजेन अपना डाटा नहीं देती, तब तक टेस्ट की विश्वसनीयता नहीं आंकी जा सकती है। इसलिए तब तक के लिए इसे बाजार में नहीं उतारा जाना चाहिए।''
जबकि इसके ठीक विपरीत टेस्ट की मार्केटिंग करने वाली एक वेबसाइट ऐसी महिलाओं के सर्टिफिकेट दिखाती है, जिनको टेस्ट की सही रिपोर्ट दी गई। ' प्रेगनेंसी स्टोर डॉट कॉम' स्वयं को इसका सबसे बड़ा रिटेलर-डिस्ट्रीब्यूटर कहता है। इसकी सीईओ शेरी बोनेली कंपनी के पक्ष में तर्क देती हैं कि टेस्ट लैब के परीक्षणों पर जो वैज्ञानिक उंगली उठा रहे हैं वास्तव में वे सब इससे ईष्या करते हैं। उनके पास कंपनी के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है।
खैर, यह एक अलग मुद्दा है कि कंपनी कितने सही परिणाम देती है। फिलहाल तो यह टेस्ट कन्या-भ्रूण पहचान और कन्या-भ्रूणहत्या को बढ़ावा दे रहा है। टेस्ट कराने के पीछे यूं तो तमाम तर्क दिए जा सकते हैं। महिलाएं यह टेस्ट क्यों करा रही हैं इसका सही आंकलन कर पाना भी कठिन है। लेकिन एनपीआर की जांच रिपोर्ट के मुताबिक, इसके पीछे मकसद सिर्फ भ्रूण हत्या का है। इसलिए बच्चे के जन्म से पहले ही लिंग जानने की कोशिश की जाती है।
जेनेटिक काउन्सलर डॉ. अनालिया बोर्ज का भी यही मानना है कि परीक्षणों का मकसद 'भ्रूण-हत्या' ही है, क्योंकि अगर माता-पिता को गर्भ में पल रहे भ्रूण से भिन्न लिंग चाहिए तो जल्दी ही 'अबॉर्शन' कराना महिलाओं के लिए सही होता है। देर से कराने पर खतरा बढ़ सकता है, इसलिए टेस्ट द्वारा प्रारम्भिक स्तर पर ही लिंग जानने की कवायद की जाती है। और इसी कारण से यह टेस्ट समाज के लिए विनाशक बन गया है।
पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के सेण्टर फॉर बायो इथिक्स के डायरेक्टर आर्थर कापलान ने बताया कि लिंग जानने का काम केवल अमरीका में ही नहीं, बल्कि भारत और चीन जैसे देशों में खूब धड़ल्ले से किया जा रहा है, क्योंकि यहां लड़की की बजाय लड़कों की चाह माता-पिता को ज्यादा रहती है। भारत में 2001 की जनगणना के आंकड़े देखने से पता चलता है कि यहां 1,000 लड़कों पर 818 लड़कियां हैं। जहां-जहां लिंग जानने के लिए टेस्ट का बाजार गर्म है, वहां तो यह असंतुलन और भी ज्यादा है। नई दिल्ली के एक क्षेत्र विशेष के अध्ययन के बाद 1,000 लड़कों पर 762 लड़कियां होने के तथ्य का खुलासा हुआ। बात करने पर पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री रमेशचन्द्र डोगरा कहते हैं कि वह भारत में इस टेस्ट पर प्रतिबंध लगाने के लिए जल्दी ही कुछ करेंगे।