क्या यह महज एक बयान है- जितेंद्र कुमार

राष्ट्रपति पद को लेकर शुरू हुई चुनावी प्रक्रिया से पहले जिन दो व्यक्तियों की चर्चा कांग्रेस पार्टी के भीतर सबसे ज्यादा थी उनमें पहला नाम रक्षामंत्री प्रणब मुखर्जी का था और दूसरा नाम गृहमंत्री शिवराज पाटिल का था। पहले नाम का समर्थन तो खुद माकपा ने ही किया था क्योंकि प्रणब बाबू बंगाली भद्रलोक थे। लेकिन दूसरे नाम का वामपंथियों ने पुरजोर विरोध किया था क्योंकि उनका मानना था कि गृह मंत्री शिवराज पाटिल का रुझान दक्षिणपंथी है। परिणामस्वरूप शिवराज पाटिल का नाम राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए गठबंधन में मान्य नहीं हो पाया। और अब औपचारिक तौर पर जो नाम आया है जिसने नामाकंन भी दाखिल कर दिया है और अंतरआत्मा की आवाज पर वोट डालने की परिकल्पना को नकार दें तो उनकी जीत लगभग तय है, क्योंकि अंतरआत्मा की आवाज पर आज तक एक अपवाद छोड़कर कभी वोट नहीं डाला गया है। वह नाम है प्रतिभा पाटिल का है, जो राजस्थान में राज्यपाल थीं। प्रतिभा पाटिल ने अपना नाम घोषित होते ही कम से कम दो ऐसे विवादों को जन्म दे दिया है, जो उनकी छवि पर काफी लंबे समय के लिए चस्पा हो गया है। साथ ही, इस देश में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर लोगों को जनता के मन में उनके भावी बयानों और उठने वाले कदमों को लेकर शंका हो गई है।
श्रीमती पाटिल ने अपने नाम की घोषणा होने के तत्काल बाद कहा कि हिंदुस्तान में परदा प्रथा मुगलों के आने से शुरू हुई (क्योंकि वह स्वंय सिर पर पल्लू रखती हैं और परदा भी रखती हैं)। यद्यपि यह कोई विवाद का कारण नहीं है जब तक कि वह किसी व्यक्ति विशेष व्यवहार और आचरण से जुड़ा हो, लेकिन जब यह चीज पूरे सामाजिक परिवेश को परिभाषित करती हैं तो यह निश्चय ही बहस-विवाद का मसला है। हम जानते हैं कि इस देश में अस्सी फीसदी मुसलमानों में से नब्बे फीसदी से ज्यादा मुसलमान हमेशा से इसी देश के बाशिंदे रहे हैं। परिस्थितिवश उन्होंने धर्मांतरण कर लिया, वह एक अलग बात है। साथा ही श्रीमती पाटिल ने यह भी बताया कि कैसे उन्हें उनके गुरु ने मांऊट आबू में दर्शन देकर (जो 1969 में स्वर्ग सिधार गए हैं) राष्ट्रपति बनने की बात कही और जब वे मंदिर से निकली तब श्रीमती सोनिया गांधी का उनके पास राष्ट्रपति की उम्मीदवारी का फोन आया।
अब दूसरी बात पर भी गौर करें। पूजा अर्चना (चाहे वह किसी भी धर्म की हो) हमेशा ही इंसान का व्यक्तिगत मामला रहा है और तब तक किसी को इससे परेशानी नहीं होनी चाहिए जब तक कि दूसरों को इनके धार्मिक क्रियाकलाप से कष्ट न हो और इसी तरह श्रीमती प्रतिभा पाटिल के परदा रखने या मंदिर में पूजा अर्चना करना उनकी व्यक्तिगत जिंदगी का हिस्सा है, जिस पर बहस में नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन जब वह साक्षात्कार में सार्वजनिक रूप से कहने लगें तो यह बहस और विवाद का मसला है।
अगर परदा प्रथा की चर्चा करें तो हम पाते हैं कि हमारे समाज में इसका चलन काफी पहले से था। कुछ विद्वानों का कहना है कि ऋगवेद में परदा प्रथा नहीं थी। यह सही है कि ऋगवेद में यह प्रथा नहीं थी लेकिन इसक अर्थ यह समझना चाहिए कि जो ऋगवेद में नहीं था वह मुगलों के शासन में आया कितना सही है? क्या ऋगवेद में तुरंत बाद ही मुगल इस देश में आ चुके थे?
भारतीय सभ्यता-संस्कृति के बारे में लिखे गए दो सर्वश्रेष्ठ कृति 'द वंडर डैट वाज इंडिया' के पहला खंड के रचयिता प्रो. एएल बाशम और दूसरे खंड के प्रो. ए आर रिजवी को सभी को पढ़ना चाहिए जिसमें भारतीय संस्कृति की बेहतरीन व्याख्या की गई है। प्रो. रिजवी लिखते हैं कि मुगलकालीन भारत में राजपूतों का घर अंग्रेजी के एल आकार के होते थे जबकि मुसलमानों के घर सीधा आई जैसा होता था। घर का आकार महिलाओं को ध्यान में रख बनाया जाता था। प्रो. रिजीव के अनुसार हिंदुस्तानी मुसलमानों में परदा प्रथा हिंदुओं से आया। प्रो. रिजवी की बातों से इत्तेफाक कई अन्य बड़े इतिहासकार भी रखते हैं। उन लोगों के अनुसार हिंदुस्तान में परदा प्रथा की शुरुआत सामंतवाद से साथ ही धीरे-धीरे शुरू हुई थी। इसका कारण यह था कि जैसे-जैसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया शुरू हुई और कल्चरल कैपिटल बनने शुरू हुए, महिलाओं को घर के भीतर धकेलना शुरू कर दिया गया। और जब पूंजी पर पुरुषों का एकाधिकार हो गया और महिलाएं तो महिलाएं पूती घर के भीतर धकेल दी गईं और इस तरह परदा प्रथा अस्तित्व में आई। इसके बाद भी अगर किसी को शक हो तो सुविधा के लिए उन्हें यह बताया जा सकता है कि सामंतवाद का अस्तित्व कम से कम दो हजार साल पुराना जबकि पहला मुगल शासक बाबर ने 1526 में हिंदुस्तान की सरजमीं पर कदम रखा था।
प्रश् यह नहीं है कि परदा प्रथा की आलोचना या समर्थन किया जाना चाहिए या जिस किसी ने भी कहा है कि उनकी आलोचना या समर्थन करना चाहिए । प्रश् यह है कि िकसी भी बात को ऐसी बात से जोड़ देना कितना उचित है, जो स्वयं ही विवादास्पद रहा है? उसी तरह श्रीमती पाटिल का अपने गुरु से रूबरू होने का है। क्या सार्वजनिक जीवन में एक गरिमामय पद (उस दिन तक राज्यपाल थी, अब राष्ट्रपति बनेंगी) पर बैठे इंसान को इस तरह के बयान देना चाहिए जिससे अंधविश्वास और अज्ञानता बढ़ती है।
लेकिन यह मामला बस श्रीमती प्रतिभा पाटिल से जुड़ा नहीं है, यह पूरी तरह 'अंग्रेजी' कल्चर है क्योंकि हम जानते हैं कि अगर यह बात भाजपाई उम्मीदवार कहते तो वे सांप्रदायिक कहलाते क्योंकि वह पार्टी सैध्दांतिक रूप में भी सांप्रदायिक है। लेकिन यह बात कांग्रेसी उम्मीदवार कह रही हैं इसलिए सांप्रदायिक नहीं है (कांग्रेस सैध्दांतिक रूप से सांप्रदायिक नहीं है, सिर्फ व्यवहारिक रूप से सांप्रदायिक है) और चूकि वह सांप्रदायिक नहीं है, इसलिए मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियां उसका समर्थन करती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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