कुछ दिनों पहले एक बड़े अखबार में एक रोचक खबर छपी कि ''अमरीका के सैन फ्र्र्रांसिस्को नगर के निवासियों के एक समूह ने आपस में एक संधि की है कि वे हर सामान के लिए बाजार नहीं जाएंगे, साथ ही आपस में मिल-जुलकर सामान इस्तेमाल करेंगे, क्योंकि ज्यादा सामान के इस्तेमाल का मतलब ज्यादा कचरा। इस संधि का उद्देश्य आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति की कीमत को उजागर करना है। गङ्ढों को भरने वाले कचरे को कम करने की कोशिश में सैन फ्र्र्रांसिस्को के कुछ मुट्ठी भर लोगों ने दिसंबर 2005 में पूरे एक वर्ष तक खरीददारी न करने का निर्णय लिया। 12 महीने बाद इस समूह ने, जिसका नाम ''द काम्पैक्ट'' पड़ गया है, स्वआरोपित चुनौतियों को पूरा कर दिखाया और हजारों अन्य लोंगो को उसका अनुगमन करने के लिए प्रेरित किया। लगभग आठ हजार सदस्य रूमानिया से लेकर न्यूजीलैंड तक उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने के लिए इस समूह में शामिल हो गये हैं और धीरे-धीरे यह विचार एक छोटा वैश्विक आंदोलन बनता जा रहा है। ''
यह खबर अमरीका जैसे उस देश की है जिसने उपभोक्तावादी विकास का एक आदर्श मॉडल बना कर जबरदस्ती पूरी दुनिया को अपनाने के लिए मजबूर किया है और इसके लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सारे हथकंडे अपनाये हैं। इस मॉडल के केन्द्र में बैठा है बाजार, वह भी मुक्त बाजार जो सरकारों और समाज के नियंत्रण से बाहर रहने की बात करता है। इस बाजार को खडा करने के लिए भीमकाय मल्टीनेशनल कंपनियां बनी, जो भारी उत्पादन (मास प्रोडक्शन ) करती हैं और आक्रामक विज्ञापन तंत्र तथा जरूरत पड़ने पर तरह-तरह के आर्थिक-राजनैतिक दबाव डाल कर बाजारों को भरती हैं। इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय पैसे-धन्धे की संस्थाओं-विश्वबैंक, मुद्राकोष, डब्लूटीओ के माध्यम से सरकारों पर कर्ज तथा कानूनी दबाव डलवा कर बाजार खुलवाती हैं। इस मॉडल में मांग-पूर्ति का सिध्दांत उलट गया है। अब चलता है पूर्ति-मांग का सिध्दांत। पहले माल बना डालो, फिर पूरी दुनिया में उसकी मांग पैदा करो। लोगों की मांग बढ़ेगी तो और ज्यादा उत्पादन होगा तो फिर ज्यादा विकास भी होगा, इस सिध्दांत को इस मॉडल ने खूब प्रचारित किया है।
आज पूरा प्रचार तंत्र मांग बढाने में लगा हुआ है। इससे लोगों के मन में लालच भोगवृत्ति, संग्रहवृत्ति, फिजूलखर्ची बढ़ गयी है। जो कुछ नया बाजार में आता है, उसके प्रति मन में ललक पैदा कर दी जाती है। वह सब बटोरने के लिए आदमी जैसे भी हो, पैसा बटोरता है। सही-गलत रास्ते का भेद काफी कमजोर हो गया है। विश्वव्यापी भ्रष्टाचार के पीछे यही मनोवृत्ति है जो बाजार ने पैदा की हैं । फिर बैंकें भी पीछे नहीं हैं। हर जरूरी और ज्यादातर गैरजरूरी काम, सब के लिए वे कर्ज देने को तैयार बैठी रहती हैं। पहले आदमी कर्ज लेने में सकुचाता था, आज शान समझता है। भौतिक सुख की अजीब धारणा मन में बैठायी जा रही है जिससे आदमी का विवेक कमजोर पड़ रहा है।
इस बाजार केन्द्रित विकास ने जिस मात्रा में जरूरतें बढ़ायी हैं। उसी मात्रा में कचरा पैदा किया है, प्राकृतिक संसाधनो का बेतहाशा दोहन किया है और गैर टिकाऊ अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है। आज हर देश में ही, पर अमरीका में सबसे ज्यादा कचरे के पहाड़ बनते जा रहे हैं। इस कचरे से जमीन के गङ्ढे-खाई पाटे जा रहे हैं। न जाने कितने सुन्दर, उपयोगी तालाब इस कचरे से अंट गये और उनके ऊपर ऊंची इमारतें खड़ी हो गयी हैं। अनेकों तरह की पर्यावरणीय समस्यायें उठ खड़ी हुई हैं।
अब पानी नाक के ऊपर चढ़ने लगा है। लोगों का, खासतौर से तथाकथित अति विकसित देशों के लोगों का इस बाजारवादी व्यवस्था से धीरे-धीरे मोह भंग होता जा रहा है। वे समझने लगे हैं कि यह बाजार टिकाऊ नहीं है। यह शोषण, अन्याय बर्बरता और क्रूरता के बिना चलता नहीं है। इसके खिलाफ लोगों के मन में जहां-तहां प्रतिक्रिया हो रही है। सान फ्रांसिस्को का प्रयोग उसका एक छोटा नमूना है। वहां के लोग तथा उनकी प्रेरणा से अन्य देशों के कुछ जनसमूह बिना बाजार के जीवन चला रहे हैं। आपस में ही जरूरत के सामानों की अदला-बदली कर लेते हैं। पुराना सामान खरीद कर अपनी जरूरतें पूरी कर लेते हैं। सादा जीवन बिताने का अनूठा सुख भोग रहे हैं ।
सान फ्रांसिस्को का प्रयोग देखने में भले ही नया लगता हो, आज के माहौल में। परन्तु यह नया नहीं है, खासतौर से भारत में। भारत में तो हमेशा से ही ऐसी जीवनशैली अपनाने पर जोर दिया जाता रहा है कि अपनी जरूरतों कों कम करो, संयम अपनाओ। प्रकृति में उपलब्ध संसाधन सीमित हैं अत: उनका कम से कम उपयोग करो, जिससे आगे की पीढ़ियों को उनका लाभ मिलता रहे। गांधीजी ने कहा था, 'इस प्रकृति के पास सभी की जरूरतें पूरी करने की क्षमता है, पर एक भी व्यक्ति का लालच पूरा करने की नहीं'। इसीलिए उन्होंने स्वैच्छिक गरीबी यानी वालंटरी पावर्टी अपनाने की सलाह दी थी। भारतीय समाज में परस्परावलम्बन की लम्बी परम्परा रही है, आपस में सामानों की अदला-बदली कर लेते थे। पुरानी चीजों को फेंकते नहीं थे। पुरानी चीजों से भी कुछ इस्तेमाल करने की चीज बना लेते थे। रिसाइकलिंग का खूब प्रचलन था। आधुनिकता का नगाड़ा पीटने वालों ने इस टिकाऊ जीवन पध्दति को पिछड़ापन कह कर उसका मजाक उडाया है। पर ठोकर खाकर इनमें समझ आयेगी और आ रही है।
यह खबर अमरीका जैसे उस देश की है जिसने उपभोक्तावादी विकास का एक आदर्श मॉडल बना कर जबरदस्ती पूरी दुनिया को अपनाने के लिए मजबूर किया है और इसके लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सारे हथकंडे अपनाये हैं। इस मॉडल के केन्द्र में बैठा है बाजार, वह भी मुक्त बाजार जो सरकारों और समाज के नियंत्रण से बाहर रहने की बात करता है। इस बाजार को खडा करने के लिए भीमकाय मल्टीनेशनल कंपनियां बनी, जो भारी उत्पादन (मास प्रोडक्शन ) करती हैं और आक्रामक विज्ञापन तंत्र तथा जरूरत पड़ने पर तरह-तरह के आर्थिक-राजनैतिक दबाव डाल कर बाजारों को भरती हैं। इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय पैसे-धन्धे की संस्थाओं-विश्वबैंक, मुद्राकोष, डब्लूटीओ के माध्यम से सरकारों पर कर्ज तथा कानूनी दबाव डलवा कर बाजार खुलवाती हैं। इस मॉडल में मांग-पूर्ति का सिध्दांत उलट गया है। अब चलता है पूर्ति-मांग का सिध्दांत। पहले माल बना डालो, फिर पूरी दुनिया में उसकी मांग पैदा करो। लोगों की मांग बढ़ेगी तो और ज्यादा उत्पादन होगा तो फिर ज्यादा विकास भी होगा, इस सिध्दांत को इस मॉडल ने खूब प्रचारित किया है।
आज पूरा प्रचार तंत्र मांग बढाने में लगा हुआ है। इससे लोगों के मन में लालच भोगवृत्ति, संग्रहवृत्ति, फिजूलखर्ची बढ़ गयी है। जो कुछ नया बाजार में आता है, उसके प्रति मन में ललक पैदा कर दी जाती है। वह सब बटोरने के लिए आदमी जैसे भी हो, पैसा बटोरता है। सही-गलत रास्ते का भेद काफी कमजोर हो गया है। विश्वव्यापी भ्रष्टाचार के पीछे यही मनोवृत्ति है जो बाजार ने पैदा की हैं । फिर बैंकें भी पीछे नहीं हैं। हर जरूरी और ज्यादातर गैरजरूरी काम, सब के लिए वे कर्ज देने को तैयार बैठी रहती हैं। पहले आदमी कर्ज लेने में सकुचाता था, आज शान समझता है। भौतिक सुख की अजीब धारणा मन में बैठायी जा रही है जिससे आदमी का विवेक कमजोर पड़ रहा है।
इस बाजार केन्द्रित विकास ने जिस मात्रा में जरूरतें बढ़ायी हैं। उसी मात्रा में कचरा पैदा किया है, प्राकृतिक संसाधनो का बेतहाशा दोहन किया है और गैर टिकाऊ अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है। आज हर देश में ही, पर अमरीका में सबसे ज्यादा कचरे के पहाड़ बनते जा रहे हैं। इस कचरे से जमीन के गङ्ढे-खाई पाटे जा रहे हैं। न जाने कितने सुन्दर, उपयोगी तालाब इस कचरे से अंट गये और उनके ऊपर ऊंची इमारतें खड़ी हो गयी हैं। अनेकों तरह की पर्यावरणीय समस्यायें उठ खड़ी हुई हैं।
अब पानी नाक के ऊपर चढ़ने लगा है। लोगों का, खासतौर से तथाकथित अति विकसित देशों के लोगों का इस बाजारवादी व्यवस्था से धीरे-धीरे मोह भंग होता जा रहा है। वे समझने लगे हैं कि यह बाजार टिकाऊ नहीं है। यह शोषण, अन्याय बर्बरता और क्रूरता के बिना चलता नहीं है। इसके खिलाफ लोगों के मन में जहां-तहां प्रतिक्रिया हो रही है। सान फ्रांसिस्को का प्रयोग उसका एक छोटा नमूना है। वहां के लोग तथा उनकी प्रेरणा से अन्य देशों के कुछ जनसमूह बिना बाजार के जीवन चला रहे हैं। आपस में ही जरूरत के सामानों की अदला-बदली कर लेते हैं। पुराना सामान खरीद कर अपनी जरूरतें पूरी कर लेते हैं। सादा जीवन बिताने का अनूठा सुख भोग रहे हैं ।
सान फ्रांसिस्को का प्रयोग देखने में भले ही नया लगता हो, आज के माहौल में। परन्तु यह नया नहीं है, खासतौर से भारत में। भारत में तो हमेशा से ही ऐसी जीवनशैली अपनाने पर जोर दिया जाता रहा है कि अपनी जरूरतों कों कम करो, संयम अपनाओ। प्रकृति में उपलब्ध संसाधन सीमित हैं अत: उनका कम से कम उपयोग करो, जिससे आगे की पीढ़ियों को उनका लाभ मिलता रहे। गांधीजी ने कहा था, 'इस प्रकृति के पास सभी की जरूरतें पूरी करने की क्षमता है, पर एक भी व्यक्ति का लालच पूरा करने की नहीं'। इसीलिए उन्होंने स्वैच्छिक गरीबी यानी वालंटरी पावर्टी अपनाने की सलाह दी थी। भारतीय समाज में परस्परावलम्बन की लम्बी परम्परा रही है, आपस में सामानों की अदला-बदली कर लेते थे। पुरानी चीजों को फेंकते नहीं थे। पुरानी चीजों से भी कुछ इस्तेमाल करने की चीज बना लेते थे। रिसाइकलिंग का खूब प्रचलन था। आधुनिकता का नगाड़ा पीटने वालों ने इस टिकाऊ जीवन पध्दति को पिछड़ापन कह कर उसका मजाक उडाया है। पर ठोकर खाकर इनमें समझ आयेगी और आ रही है।