छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के रानी बोदली गांव में स्थित पुलिस के आधार शिविर में 55 से भी अधिक जवानों की मौत माओवादियों के हमले से हुई, इसमें सलवा जुडुम के भी लोग थे। कहा जाता है कि मृतकों की संख्या 100 से भी अधिक है। घटना स्थल पर सबसे पहले पहुंचने वालों में से छत्तीसगढ़ के डी.जी.पी. एवं ''सलवा जुडुम अभियान'' के अगुआई कर रहे कांग्रेस के नेता महेन्द्र कर्मा थे।
गोण्डी भाषा में सलवा जुडुम का अर्थ है 'शांतिपूर्ण सामूहिक शिकार'। मध्य प्रदेश की सरकार ने माओवादियों का 'सफाया' करने के लिए इस योजना पर काम प्रारंभ किया है, जिसमें केन्द्र सरकार का सहयोग प्राप्त है। नक्सलियों का आरोप है कि 'सलवा जुडुम' के 'शांतिदूतों' ने अब तक 250 से ज्यादा आदिवासियों की हत्या इस अभियान के नाम पर की है। लगभग 100 से अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार किए गये हैं तथा पिछले डेढ़ वर्षों में 600 गाँवों के 3000 हजार से ज्यादा घरों को जलाया गया है। बड़ी कंपनियों को जमीनों पर कब्जा दिलाने के लिए, नक्सलवादियों से आदिवासियों की सुरक्षा के नाम पर 50,000 से अधिक आदिवासियों को जबरदस्ती विस्थापित कर सैनिक शिविरों में रखा गया है।
दरअसल यह समूचा इलाका समृध्द-वन, जल एवं खनिज सम्पदाओं से भरपूर है। यहाँ लौह अयस्क, चूना पत्थर, हीरा, बाक्साइट जैसे खनिज हैं। यहाँ सागौन, सालवृक्ष के अनगिनत दुर्लभ पेड़ों के साथ-साथ करोडों वर्षों से वन प्राणी मिलकर रहते हैं। यहाँ पर इन्द्रावती, शबरी, शंखनी, डंकनी, नयबेरेड, चिन्तावायू, पसलकोट, कोटरी आदि नदियाँ हैं। मगर इस प्राकृतिक समृध्दि पर पूँजीपतियों की गिध्ददृष्टि लगी हुई है।
नक्सली एवं सरकारी हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में आदिवासियों के हित गौण हो रहे हैें। पर्यावरण की रक्षा, आदिवासियों का अस्तित्व एवं वनप्राणियों की सुरक्षा की बात किनारे की जा रही है। लोग डरे हुए हैं कि कहीं 15 मार्च की नक्सली हिंसा के जवाब में होने वाली संभावित सरकारी हिंसा में एक बार फिर निर्दोष आदिवासी मारे जायेगें। नंदीग्राम के नाम पर लोकसभा ठप्प तो होती है, लेकिन तब जबकि किसान मरे, परन्तु आदिवासियों की निरंतर हो रही मौतों पर न तो राष्ट्रपति व राज्यपालों ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग किया है और न ही लोकसभा या विधानसभा ठप्प की गयी।
उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में अब तक खनन परियोजनाओं में 5 लाख करोड़ का निवेश किया जा चुका है। केवल झारखंड में 60 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण होना है। 20 फीसदी यानी लगभग 1 लाख आदिवासियों को उनके घरों से उजाड़ा जाएगा। नित नए कानून बनाकर इन्हें जल-जंगल-जमीन से वंचित कर शहर की ओर खदेड़ा जा रहा है। आदिवासियों की हालत 'न घर का, न घाट का' जैसी हो गयी है।
इसी तरह पूर्वोत्तर क्षेत्र में 168 बड़े बांध बनाने की योजना है। यहाँ बिजली बनाकर दक्षिण पूर्वी देश के बाजारों को बेची जाएगी। यह क्षेत्र भूकंप जोन में आता है। इसकी परवाह किसी को नहीं है। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा तथा क्षेत्र के सांस्कृतिक, सामाजिक माहौल पर गहरा असर पड़ेगा। इस विकास के लिए उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश से कभी भी राय नहीं ली गयी। सेज के नाम पर भी कभी देश की जनता से राय नहीं ली गयी। बजाय इसके देश में नौकरशाहों, दलालों, वेश्याओं व लम्पटों (अर्पहत्ताओं) की फौज खड़ी की जा रही है।
दरअसल भूमंडलीकरण के दौर में सरकार जिस तरह से टाटा, अम्बानी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अहिंसक लड़ाईयों का दमन कर रही है, उससे आमजन में हिंसक प्रतिरोध के प्रति विश्वास बढ़ा है। ऐसी ही परिस्थिति हिंसक संघर्ष की जननी होती है। हिंसक संघर्ष ही धीरे-धीरे आतंकवादी गतिविधियों में बदल जाते हैं। ऐसे में छोटे-समूहों में लोकतांत्रिक ढ़ंग से अपनी बातों को प्रभावी बनाने की संभावना और भी सीमित हो जाती है। यह सत्ता को लोगों के अधिकार छीनने में और आसान करता है। ऐसी स्थिति में रचना एवं संघर्ष की दोहरी प्रक्रिया के द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से परिवर्तन चाहने वाले लोगों की भी हत्या माओवादी एवं राज्य सत्ता मिलकर करने लगते हैं। अन्तरराष्ट्रीय पूंजींवादी शक्तियाँ संगठित हिंसा के माध्यम से सबकुछ तहस-नहस करने पर उतारू हो गयी हैं। यदि ऐसी ही स्थिति रही तो सामाजिक परिवर्तन का सपना अधूरा ही रह जाएगा। ऐसे में देश में बड़े अहिंसक आक्रामक जन आन्दोलन की आवश्यकता है और ऐसे ही आन्दोलन के गर्भ से वैकल्पिक राजनीति निकलेगी। (पीएनएन)
गोण्डी भाषा में सलवा जुडुम का अर्थ है 'शांतिपूर्ण सामूहिक शिकार'। मध्य प्रदेश की सरकार ने माओवादियों का 'सफाया' करने के लिए इस योजना पर काम प्रारंभ किया है, जिसमें केन्द्र सरकार का सहयोग प्राप्त है। नक्सलियों का आरोप है कि 'सलवा जुडुम' के 'शांतिदूतों' ने अब तक 250 से ज्यादा आदिवासियों की हत्या इस अभियान के नाम पर की है। लगभग 100 से अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार किए गये हैं तथा पिछले डेढ़ वर्षों में 600 गाँवों के 3000 हजार से ज्यादा घरों को जलाया गया है। बड़ी कंपनियों को जमीनों पर कब्जा दिलाने के लिए, नक्सलवादियों से आदिवासियों की सुरक्षा के नाम पर 50,000 से अधिक आदिवासियों को जबरदस्ती विस्थापित कर सैनिक शिविरों में रखा गया है।
दरअसल यह समूचा इलाका समृध्द-वन, जल एवं खनिज सम्पदाओं से भरपूर है। यहाँ लौह अयस्क, चूना पत्थर, हीरा, बाक्साइट जैसे खनिज हैं। यहाँ सागौन, सालवृक्ष के अनगिनत दुर्लभ पेड़ों के साथ-साथ करोडों वर्षों से वन प्राणी मिलकर रहते हैं। यहाँ पर इन्द्रावती, शबरी, शंखनी, डंकनी, नयबेरेड, चिन्तावायू, पसलकोट, कोटरी आदि नदियाँ हैं। मगर इस प्राकृतिक समृध्दि पर पूँजीपतियों की गिध्ददृष्टि लगी हुई है।
नक्सली एवं सरकारी हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में आदिवासियों के हित गौण हो रहे हैें। पर्यावरण की रक्षा, आदिवासियों का अस्तित्व एवं वनप्राणियों की सुरक्षा की बात किनारे की जा रही है। लोग डरे हुए हैं कि कहीं 15 मार्च की नक्सली हिंसा के जवाब में होने वाली संभावित सरकारी हिंसा में एक बार फिर निर्दोष आदिवासी मारे जायेगें। नंदीग्राम के नाम पर लोकसभा ठप्प तो होती है, लेकिन तब जबकि किसान मरे, परन्तु आदिवासियों की निरंतर हो रही मौतों पर न तो राष्ट्रपति व राज्यपालों ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग किया है और न ही लोकसभा या विधानसभा ठप्प की गयी।
उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में अब तक खनन परियोजनाओं में 5 लाख करोड़ का निवेश किया जा चुका है। केवल झारखंड में 60 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण होना है। 20 फीसदी यानी लगभग 1 लाख आदिवासियों को उनके घरों से उजाड़ा जाएगा। नित नए कानून बनाकर इन्हें जल-जंगल-जमीन से वंचित कर शहर की ओर खदेड़ा जा रहा है। आदिवासियों की हालत 'न घर का, न घाट का' जैसी हो गयी है।
इसी तरह पूर्वोत्तर क्षेत्र में 168 बड़े बांध बनाने की योजना है। यहाँ बिजली बनाकर दक्षिण पूर्वी देश के बाजारों को बेची जाएगी। यह क्षेत्र भूकंप जोन में आता है। इसकी परवाह किसी को नहीं है। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा तथा क्षेत्र के सांस्कृतिक, सामाजिक माहौल पर गहरा असर पड़ेगा। इस विकास के लिए उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश से कभी भी राय नहीं ली गयी। सेज के नाम पर भी कभी देश की जनता से राय नहीं ली गयी। बजाय इसके देश में नौकरशाहों, दलालों, वेश्याओं व लम्पटों (अर्पहत्ताओं) की फौज खड़ी की जा रही है।
दरअसल भूमंडलीकरण के दौर में सरकार जिस तरह से टाटा, अम्बानी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अहिंसक लड़ाईयों का दमन कर रही है, उससे आमजन में हिंसक प्रतिरोध के प्रति विश्वास बढ़ा है। ऐसी ही परिस्थिति हिंसक संघर्ष की जननी होती है। हिंसक संघर्ष ही धीरे-धीरे आतंकवादी गतिविधियों में बदल जाते हैं। ऐसे में छोटे-समूहों में लोकतांत्रिक ढ़ंग से अपनी बातों को प्रभावी बनाने की संभावना और भी सीमित हो जाती है। यह सत्ता को लोगों के अधिकार छीनने में और आसान करता है। ऐसी स्थिति में रचना एवं संघर्ष की दोहरी प्रक्रिया के द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से परिवर्तन चाहने वाले लोगों की भी हत्या माओवादी एवं राज्य सत्ता मिलकर करने लगते हैं। अन्तरराष्ट्रीय पूंजींवादी शक्तियाँ संगठित हिंसा के माध्यम से सबकुछ तहस-नहस करने पर उतारू हो गयी हैं। यदि ऐसी ही स्थिति रही तो सामाजिक परिवर्तन का सपना अधूरा ही रह जाएगा। ऐसे में देश में बड़े अहिंसक आक्रामक जन आन्दोलन की आवश्यकता है और ऐसे ही आन्दोलन के गर्भ से वैकल्पिक राजनीति निकलेगी। (पीएनएन)