महंगाई रोकने का घटिया तरीका है: सस्ता आयात -डा. बनवारी लाल शर्मा

इस समय देश में इस बात की हवा बह रही है कि देश का आर्थिक विकास 8-9 फीसदी यानी तेज गति से हो रहा है। केन्द्र की संप्रग सरकार इसे अपनी सफलता के रूप में प्रचारित कर रही है। कई अर्थशास्त्री भी आर्थिक सफलता की उपलर्ब्धियां गिना रहे हैं। आर्थिक वृध्दि दर 9 फीसदी हो गयी है और उम्मीद है कि यह दो अंको को पार कर जाएगी। स्टाक बाजार में भारी उछाल है, सेंसेक्स 14 हजार के रिकार्ड अंक को पार कर गया है। पूंजी लगाने को विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई.) हमारे स्टॉक बाजार में दौडे चले आ रहे हैं। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार इतना उफन गया है कि वह संभाले नहीं संभलता। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) भी बढ़ता जा रहा है। विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत के बाजार में घुस रही हैं। खेती और खुदरा बाजार इनके नये गंतव्य क्षेत्र हैं।
अर्थजगत के इस खुशी-आनन्द के माहौल में कहीं कोई पैना कांटा है, जो चुभ रहा है। पिछले दिनों देश के उद्योगपतियों के एक सम्मेलन में वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने अपनी शानदार उपलब्धियां गिना डालीं, पर उन्होंने उदास होकर कहा कि ''इस सबके बावजूद 'मुद्रास्फीति' पर काबू नहीं पाया जा रहा है।'' संप्रग सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल में जरूरी चीजों के दाम बेहद बढ़ गये हैं। महंगाई आसमान छू रही है और उपभोक्ताओं, खासतौर से गरीब और निम्न मध्यम वर्ग की इस महंगाई ने कमर तोड़ दी है। मुद्रास्फीति 6.12 फीसदी पहुंच गयी है। कुछ जरूरी चीजों के दाम पिछले तीन सालों में कितने बढे हैं, आइए इसकी एक झलक लेते हैं, गेहूं, चावल परमल, अरहर की दाल और डीजल के दाम तीन साल पहले क्रमश: रुपये प्र.कुं. 950, 940, 2300 और प्र.ली. 22.74 थे, जो अब क्रमश: रुपये प्र.कुं. 1700, 1100, 3200 और प्र.ली. 31.90 हो गये हैं।
महंगाई रोकने के अनेकों सरकारी उपाय नाकाम ही रहे हैं। केन्द्र सरकार अच्छी तरह से जानती है कि महंगाई का बडा व्यापक असर चुनावों पर पड़ता है। प्याज के दाम बढ़ जाने से भाजपा को कई प्रदेशों के चुनावों में मुंह की खानी पड़ी थी। अगले महीनों मे कई प्रदेशों में चुनाव होने वाले हैं। यही सोचकर केन्द्र सरकार ने हड़बड़ी में कई कदम उठाये हैं। सरकार ने जरूरी चीजों, खासतौर से अन्न, दाल और खाद्य तेलों का सस्ता आयात बढा दिया है। 55 लाख टन गेहूँ आयात किया जा रहा है। भारी मात्रा में खाद्य तेल, खास तौर से बिना रिफाइन किया पाम ऑयल और पामोलीन आयात किया जा रहा है।
आयात को बढ़ाने के लिए सरकार ने आयात शुल्क घटा दिया है। खाद्य तेलों पर यह शुल्क 12.5 फीसदी बिन्दु (परसेंटेज प्वाइंट्स) कर कर दिया गया है। गेहूँ और दालों पर से सरकार ने आयात शुल्क हटा दिया है। आयात शुल्क में कटौती की घोषणा करते हुए एक सरकारी वक्तव्य में कहा गया है कि ''जरूरी सामानों की कीमतों को काबू में रखने की रणनीति के तहत सरकार ने गेंहूँ और दालों पर से आयात शुल्क समाप्त कर दिया है, खाद्य तेलों के लिए यह दूसरी कटौती है। इस प्रकार रिफांइड ब्लीच्ड और डिओडेराइज्ड पाम ऑयल तथा अन्य रिफांइड पाम आयल पर आयात शुल्क 80 फीसदी से घटाकर 67.5 फीसदी कर दिया गया हैं। गैर रिफांइड पाम आयल शुल्क 70 फीसदी से घटाकर 60 फीसदी कर दिया गया है। इसी प्रकार गैर रिफाइंड सूर्यमुखी के तेल पर कटौती 75 फीसदी से 65 फीसदी तक कर दी गयी है। रिफाइंड सूर्यमुखी तेल पर आयात शुल्क 85 फीसदी से घटाकर 75 फीसदी कर दिया गया है।
सरकार को भरोसा है कि आयातित तेल के दबाव से घरेलू दाम कुछ कम हो जायेंगे। सरकार ने सीमाशुल्क भी घटाया है। पाम तेल का सीमा शुल्क 2006 में जो था, वही बरकरार रहेगा, ऐसी सरकारी आदेश में घोषणा की गयी है। आवश्यक वस्तुओं को 'वायदा कारोबार' (फ्यूचर टें्रडिंग) में लेने के सरकार के फैसले से हालात बदतर हो गये हैं। विपक्ष और वामदलों के दबाव में सरकार ने उड़द और अरहर की दाल को वायदा कारोबार से बाहर निकाल दिया है।
इन सारे सरकारी उपायों से मुद्रास्फीति की दर पर कुछ असर तो पड़ा है। थोक भाव कुछ थमें हैं। लेकिन खुदरा बाजार में कोई खास असर नहीं पड़ा है। आम आदमी का सरोकार तो खुदरा बाजार से ही पड़ता है। जिन्सों के खुदरा भाव थोक भाव से 30 से 60 फीसदी ज्यादा हैं। इसलिए सरकारी नीतियों से आम जन को कोई राहत मिलती दिखाई नहीं दे रही है। खाद्यान्न के अलावा औद्योगिक उत्पादों, जैसे सीमेंट, धातु उत्पादों, रसायनों आदि की महंगाई रोकने के लिए भी सरकार ने आयात शुल्क दरें घटायी हैं। उदाहरण के लिए पोर्टलेंड सीमेंट पर आयात शुल्क 12.5 फीसदी की जगह शून्य कर दिया गया है। रसायनों, गैसों और क्षारीय धातुओं पर सीमा शुल्क दर घटाकर 5 फीसदी कर दी गई है।
सरकार महंगाई का असली कारण जानने के बजाय सस्ते आयात से महंगाई पर काबू पाना चाहती है। पर सरकार की आयात खोलने की नीतियों से महंगाई तो काबू में आती दिखाई नहीं दे रही, बल्कि अर्थव्यवस्था को सस्ते आयात से भारी नुकसान ही होगा। बाहरी आयात से घरेलू दामों में गिरावट पैदा होगी, जिससे किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की आशा भी बिल्कुल क्षीण हो जाएगी, इसका नतीजा उत्पादन पर पड़ेगा। कम क्षेत्रफल में किसान खाद्यान्न उगाएगा।
दरअसल भारत सरकार की पूरी खाद्य-नीति ही गलत दिशा में चल रही है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियां लागू करने से देश की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ गयी है। जब डब्लूटीओ का कृषि समझौता हुआ था, तब अनेक विचारकों, कृषि विशेषज्ञों और समाजकर्मियों ने सरकार को चेताया था कि इससे जो खाद्य सुरक्षा देश ने प्राप्त की है, वह खतरे में पड़ जायेगी। सरकार ने तब नहीं सुनी, बल्कि कृषि क्षेत्र को भी विदेशी प्रत्यक्ष पूंजी के लिए खोल कर संकट ंऔर बढ़ा दिया है। कृषि क्षेत्र में 'भारत-अमरीकी ज्ञान पहल' बनाकर मोनसेंटो जैसी विदशी कंपनियों को छूट दे दी गयी है, भारत की कृषि व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की। सेज और कांटे्रक्ट फार्मिंग जैसे कार्यक्रम खाद्य सुरक्षा के लिए भारी खतरा ही उत्पन्न करेंगे।

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