माओवादियों की आर्थिक नाकेबन्दी-क्या यह महज कानून-व्यवस्था की समस्या है- डॉ. बनवारी लाल शर्मा

माओवादियों ने केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों-खासतौर से सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) बनाने के विरोध में 26 और 27 जून को नाकेबन्दी का ऐलान किया। इस ऐलान से नक्सल वाद से अत्यन्त प्रभावित चार प्रदेशों-बिहार, झारखंड, छत्तीीसगढ़ और उड़ीसा में रेल परिवहन और कच्चे लोहे की आवाजाही पर असर पड़ा। झारखंड में माओवादियों ने कई स्थानों पर रेल की पटरियाँ उखाड़ दी या पटरियों पर माल लदे ट्रक खड़े करके उनके पहिये फोड़ दिये, नतीजन बीसियों गाड़ियों के या तो रास्ते बदलने पड़े या उन्हें रद्द करना पड़ा। छत्ताीसगढ़ के बस्तर जिले में बेलाडिल्ला पहाड़ियों में रेल मार्ग को नुकसान पहुँचाया जिससे कच्चे लोहे का आवागमन ठप हो गया। अनेक स्थानों पर माओवादियों और पुलिस के बीच गोलीबारी चली खासतौर से उड़ीसा और छत्तtीसगढ़ में। बिहार में काफी रेलगाड़ियाँ रद्द कर दी गयी और राजमार्गों पर ट्रकों का चलना बंद हो गया।
इस आर्थिक नाकेबंदी के तुरन्त बाद माओवादियों ने दो बड़ी घटनाएँ जुलाई महीने में कर डाली। 3 जुलाई को बिहार के रोहतास जिले में दो पुलिस चौकियों पर हमला करके पुलिस के हथियार छीन ले गये। 11 जुलाई को छत्ताीसगढ़ के दाँतेवाड़ा के जंगलों में इनकी पुलिस से बड़े पैमाने पर टक्कर हुई जिसमें 24 पुलिसकर्मी मारे गये। कोई 50 माओवादियों की भी पुलिस गोलियों से मौत हो गयी।
आर्थिक नाकेबन्दी का कार्यक्रम लेने की प्रेरणा माओवादियों को लगता है, नेपाल के माओवादियों द्वारा कई चक्काजामों से तथा नन्दीग्राम में घटी हाल की घटना से मिली है। चक्काजाम कर-करके माओवादियों ने नेपाल राज्य की अर्थव्यवस्था ध्वस्त कर दी थी जिससे वहाँ बड़े पैमाने पर सत्ताा परिवर्तन हुआ। भारत में भी वे अर्थव्यवस्था का ढाँचा तोड़ना चाहते हैं, ऐसा उनकी पार्टी सीपीआई (माओवादी) ने लिया है। सन् 1960 से ही पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी गाँव से शुरू हुए इस आन्दोलन का लक्ष्य आदिवासियों और भूमिहीनों को जमीन का हक दिलाना रहा है। यह आन्दोलन फैला है, टूटा-बिखरा भी है पर पिछले 47 सालों में अलग-अलग नामों से और अलग-अलग नेतृत्व में देश के कोई 15 राज्यों के 172 जिलों में कामोवेश फैल गया है। अब तक ये गाँवों के भूपतियों को और सरकार यानी सरकारी अधिकारियों और पुलिस को लक्ष्य बनाकर हथियार बन्द हमले लुके-छिपे करते रहे हैं और जंगलों में इन्होंने अपने अव्े बना रखे हैं। इनके पास एके-47 राकेट जैसे आधुनिक हथियार हैं लेंड-माइनिंग बिछाकर सड़क, रेलपटरी, पुल आदि उड़ाने की प्रौद्योगिकी भी है।
सेज के मुद्दे को लेकर पिछले महीने जो नाकेबन्दी की गयी, उससे माओवादियों की सोच में कुछ फर्क आया है। नाकेबन्दी शुरू होने के दो दिन पहले इनकी तरफ से उड़ीसा में एक वक्तव्य जारी हुआ जिसमें कहा गया कि यह नाकेबन्दी विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के खड़ा करने तथा केन्द्र राज्य सरकारों की नीतियों का विरोध करने के लिए की जा रही है, ये सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में खेल रही हैं।
स्थानीय भूपतियों और सरकारों को लक्ष्य बनाने से आगे अब माओवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में बन रही सेज जैसी नीतियों के खिलाफ खड़े हो रहे हैं, ऐसा जून की घटनाओं से प्रकट होता है। आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में कुछ साल पहले माओवादियों ने कोकाकोला के प्लांट पर हमला किया था, पर वह बात आयी-गयी हो गयी। नीतिगत तरीके से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना लक्ष्य बनाना निश्चित ही बड़ा कदम है।
माओवादी हिंसा में विश्वास रखते हैं, उनके हिंसक तरीकों से कोई असहमत हो सकता है, हम भी असहमत है। पर क्या जो मुद्दे वे उठा रहे हैं, वे मात्र कानून-व्यवस्था के दायरे में आते हैं जैसा कि सरकारे-केन्द्र और राज्य की मानती है। जून-जुलाई के घटनाओं पर प्रधानमंत्री ने कहा है कि यह आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।'' इसको कानून-व्यवस्था का मुद्दा मानकर बार-बार केन्द्रीय गृहमंत्री प्रभावित राज्यों के गृहमंत्रियों की, गृहसचिवों की बैठक बुलाते हैं, उच्चस्तरीय समन्वय समिति गठित करते हैं, खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान की योजना बनाते हैं, केन्द्रीय बल भेजते हैं। केन्द्र और राज्यों की सरकारें मानती हैं कि इन हथियार बन्द 'उपद्रवियों' को हथियारों से ही काबू किया जा सकता है। इसीलिए छत्ताीसगढ़ में सरकार ने प्रमुख राजनैतिक दलों के समर्थन से आदिवासियों का एक संगठन खड़ा किया है सल्वा जुडुम। माआवादियों से लड़ने के लिए सल्वा जुडुम के सदस्यों को हथियार और प्रशिक्षण दिया गया है। नतीजा यह हुआ कि जिन आदिवासियों की समस्याओं के लिए माओवादी लड़ रहे थे, अब वे उन आदिवासियों से ही लड़ रहे हैं और उन्हें मार रहे हैं।
हम मानते हैं कि जिन मुद्दों के लिए माओवादी लड़ रहे हैं, वे मुद्दे सही है पर माओवादियों का हिंसा का रास्ता सही नहीं है। सरकार भी हिंसा का ही रास्ता अपना रही है, वह भी सही नहीं है। माओवादी तो हिंसा कर रहे हैं, पर सरकार उससे भी बड़ी हिंसा कर रही है। आये दिन हम अखबार में देखते हैं, टीवी चैनलों पर देखते हैं कि लोग अपनी परेशानियों के लिए अपनी समस्याओं के लिए सड़क पर निकले, प्रदर्शन धरना देते है अक्सर वे पुलिस से पिटकर लौटते हैं। अध्यापकों, डाक्टरों को पिटते देखा गया है। सेज का विरोध करने गाँव के किसान, गरीब लोग खड़े हों तो सरकार उन्हें पीटती है और कहती है कि जमीन बड़ी-बड़ी कंपनियों को देकर ही रहेंगे। बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा में लगी सरकार आमजनता से कट गयी हैं, लोगों का सरकार से विश्वास उठ गया है जैसा कि सुरक्षा से जुड़े सरकारी अधिकारी भी मानते लगे हैं।
सरकार की जन विरोधी और कारपोरेट-समर्थक नीतियों से लोग माओवादी संगठनों की तरफ बढ़ते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि बिना धमाके के न तो सरकार जगती है और न मीडिया ध्यान देता हैं कानून-व्यवस्था का मामला मानकर सरकार ने ऑंखे बंद कर ली है, वह नहीं देख पाती कि नेपाल के पशुपति से लेकर आन्ध्रप्रदेश के तिरूपति तक माओवादियों ने 'लाल गलियारा' बना लिया है जिसमें कई जगह सरकार का तंत्र घुस भी नहीं पाता।

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