विश्बबैंक, आईएमएफ, डब्लूटीओ तीनों दुनिया में एक नया उपनिवेशवाद कायम कर रहे हैं। इनके नये औजार बाजारीकरण, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने विकासशील समाजों में भयानक आर्थिक संकट पैदा करने के साथ ही पर्यावरण का भी भयानक विनाश किया है। जैव विविधता और प्रकृति की अनमोल देनों का एक-एक करके निजीकरण किया जा रहा है। प्रकृति के अमूल्य उपहारों का मोल-भाव किया जा रहा है। इस साजिश के तहत अब नदियों पर कब्जे की रणनीति भी बनाई जा रही है।
इसी मंशा से विश्वबैंक के कर्जे से 7 लाख करोड़ रुपये की भारी-भरकम नदी-जोड़ो परियोजना चलाने की बात की जा रही है, जो बहुराष्ट्रीय साजिश का ही एक नया पैंतरा है। 1960 में सिंचाई मंत्री के एल राव ने यह सुझाव दिया था कि जिन क्षेत्रों में ज्यादा बाढ़ आती है उन्हें सूखी नदियों से जोड़ दिया जाए, जहां सूखा पड़ता है वहां जलवाली नदियों का रुख कर दिया जाय तो देश में बाढ़-सुखाड़ की समस्या से निपटा जा सकता है। पर योजना आयोग ने इस सुझाव को नकार दिया था। क्योंकि एक नदी से दूसरी नदी में पानी पहुंचाने में बहुत सारे श्रम, तकनीक और पैसे की जरूरत थी और यह आसान काम भी नहीं था। लेकिन अब से तीन साल पहले स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भाषण देते हुए राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने नदी-जोड़ो परियोजना के महत्व को रेखाकिंत किया। उनके भाषण के आधार पर दाखिल याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दे दिया कि नदी-जोड़ो परियोजना को सरकार लागू करे। लेकिन सरकार ने इस योजना में 6.5 लाख करोड़ के अनुमानित खर्च का जबाबी पत्र दाखिल किया। साथ ही कहा है कि इस काम में लगभग 45 साल लगेंगे। जिस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि 'हमारे देश में पैसे की कमी नहीं है। इसलिए सरकार इस परियोजना को जल्दी शुरु करे और रही बात राज्यों की सहमति की, तो उसकी भी कोई बड़ी समस्या नहीं है। उसके लिए परियोजना के नियम व स्वरूप ऐसे बनाए जाएं कि राज्यों की सहमति की जरूरत ही न पड़े।' उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के बाद बिना कुछ सोचे समझे नदी-जोड़ो परियोजना पर कार्य किया जा रहा है। कोई पूछने वाला नहीं है, मात्र राष्ट्रपति के भाषण पर आधारित उच्चतम न्यायालय के इस तर्कहीन निर्णय में न जनता की सहभागिता है और न ही राज्यों की।
6.5 लाख करोड रुपये की नदी-जोड़ो परियोजना का कुल खर्च हमारे वार्षिक राजस्व का ढ़ाई गुना है। 2001-02 में किए गए सरकारी आर्थिक सर्वे के अनुसार इस परियोजना की कुल लागत भारत के सकल घरेलू उत्पाद के बचत से ज्यादा है और भारत के कुल विदेशी कर्ज से भी 54,000 करोड़ ज्यादा है। इतनी बड़ी रकम कहां से आएगी? शायद आखिरी विकल्प कर्ज ही होगा। अगर नदी-जोड़ो परियोजना के लिए कर्ज लिया जाता है तो हर भारतवासी 5,000 रुपयें का नया कर्जदार हो जाएगा जो औसतन वार्षिक आय का 20 फीसदी होगा। कर्ज का वार्षिक ब्याज 20-30 हजार करोड़ रुपये बैठेगा। तो ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर कौन यह सब कर्जे चुकाएगा और कैसे? इतने बड़े कर्जे के लिए गारंटी में क्या दांव पर लगाया जाएगा?
गुजरात के कच्छ-सौराष्ट्र में सरदार सरोवर और नर्मदा को ही पानी का माध्यम बनाने की बात तंय की गयी थी और अब तक इस योजना पर 22,000 करोड़ रु. खर्च हो चुके हैं, लेकिन फिर भी सौराष्ट्र-कच्छ को आज तक पानी नहीं मिला है। इस योजना पर हर वर्ष करीब 1400 करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं, लेकिन परिणाम अच्छे नहीं हैं। इन सबसे सबक लेने की जरूरत है। यही समय है जब सही दिशा में सोचना, अपनी प्राथमिकताओं और कर्तव्यों को समझना है। देश को दुर्दशा से बचाने के लिए ही नदी जोड़ो का विकल्प तलाशा गया है.......जोहड़ जोड़ो। हमारा दावा है कि भूजल संरचनाओं के भरने से धरती के पेट में बहने वाली नदियां सदानीरा बनकर सहज रूप से जुड़ जाएंगी। इससे न केवल बाढ़ और सूखे की समस्या का निदान होगा, साथ ही सबको सहज और मुक्त रूप से पानी मिलेगा। जोहड़ जुड़ना, समाज के साथ भी जुड़ना है। जोहड़ जोडने का सीधा सा अर्थ है, धरती का पेट पानी से भरना।
जल का अर्पण-समर्पण ही भूजल दोहन और पुनर्भरण है। दोहन और पुनर्भरण का संबंध आज टूट चुका है। इसी कारण बाढ़-सुखाड़ की समस्या गहराती जा रही है। नदी जोड़ो से इसे रोक पाना संभव नहीं है, जोहड जोड़ो इसे संभव बनाता है। जोहड़ों को बचाने, जर्जर जोहड़ों के जीर्णोध्दार और नये जोहड़ों के निर्माण का कार्य प्रधानमंत्री राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत कराया जा सकता है। 25,000 करोड़ रुपये हमें रोजगार पर खर्च करने हैं। इस राशि को जोहड़ बनाने, जल संरचनाओं को पानीदार बनाने, जल निकासी के रास्ते को ठीक करने के काम में लगाने से जल-जन के कार्य सहज ही सध जायेंगे। हमारी सरकार काम तो मशीनों से करवा रही है और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दे रही है। वह यह भूल रही है कि पैसा बांटने से रोजगार और जल नहीं मिलने वाला है। जल संरचनाओं की जगह खोजने से लेकर, जोहड़ बनाने, श्रमदान जुटाने तथा लेखा-जोखा रखने का काम युवाओं से कराया जा सकता है। राजस्थान के बहुत से गांव जोहड़ की साझी मिल्कियत का समान उपयोग कर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जोहड़ भूमिहीन गरीबों का सबसे बडा सहारा है। जब से गांव के जोहड़ों पर सरकार और दबंगो ने कब्जे कर लिए हैं तब से ही गरीबों की गांव से उजड़ने की प्रक्रिया तेज हुई है। जोहड़ के जुड़ने से शहर पर दबाव कम होगा। शहर की कच्ची बस्तियों में रहने वाले वापिस अपने गांव में लौटने लगेंगे।
अभी भी वक्त है सही निर्णय लेने का, आखिर हम क्या चाहते है? विश्वबैक से कर्जा लेकर भारी-भरकम नदी जोड़ो परियोजना, जहां हरेक भारतीय पर 112 डालर का कर्ज होगा, भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश का शिकार होकर गुलाम-जर्जर बना रहेगा, जहां बेरोजगार युवा, आतंक और अपराघ के सिवाय कुछ नहीं होगा, बस होगा तो भूख, गरीबी और दहशत। दूसरी ओर है, जोहड़ जोडो योजना, जिसमें लगभग 7 लाख करोड़ रुपये नहीं, मात्र 25000 करोड़ रुपये की लागत है। विदेशी कर्ज नहीं, कोई विश्व बैंक या विदेशी कंपनी नहीं बल्कि अपना ही धन, अपने ही लोग होंगे, बनाने वाले भी, इस्तेमाल करने वाले भी। हमारे पानी पर किसी की मिल्कियत नहीं होगी बल्कि प्रकृ्रति की अमूल्य धरोहर पानी पर सबका साझा अधिकार होगा। रोजगार बढेग़ा, शहर को पलायन नहीं होगा। गांव की संस्कृति, भारतीय संस्कृति कायम रहेगी। कर्ज के बोझ से दबा भारत नहीं, बल्कि समृद्व और खुशहाल भारत होगा। बस अब ये सोचना है कि हमें जाना किधर है ''बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गूलामी की ओर या भारतीय संस्कृति और सम्प्रभुता की प्रतिष्ठा जोहड़ की ओर''।
इसी मंशा से विश्वबैंक के कर्जे से 7 लाख करोड़ रुपये की भारी-भरकम नदी-जोड़ो परियोजना चलाने की बात की जा रही है, जो बहुराष्ट्रीय साजिश का ही एक नया पैंतरा है। 1960 में सिंचाई मंत्री के एल राव ने यह सुझाव दिया था कि जिन क्षेत्रों में ज्यादा बाढ़ आती है उन्हें सूखी नदियों से जोड़ दिया जाए, जहां सूखा पड़ता है वहां जलवाली नदियों का रुख कर दिया जाय तो देश में बाढ़-सुखाड़ की समस्या से निपटा जा सकता है। पर योजना आयोग ने इस सुझाव को नकार दिया था। क्योंकि एक नदी से दूसरी नदी में पानी पहुंचाने में बहुत सारे श्रम, तकनीक और पैसे की जरूरत थी और यह आसान काम भी नहीं था। लेकिन अब से तीन साल पहले स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भाषण देते हुए राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने नदी-जोड़ो परियोजना के महत्व को रेखाकिंत किया। उनके भाषण के आधार पर दाखिल याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दे दिया कि नदी-जोड़ो परियोजना को सरकार लागू करे। लेकिन सरकार ने इस योजना में 6.5 लाख करोड़ के अनुमानित खर्च का जबाबी पत्र दाखिल किया। साथ ही कहा है कि इस काम में लगभग 45 साल लगेंगे। जिस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि 'हमारे देश में पैसे की कमी नहीं है। इसलिए सरकार इस परियोजना को जल्दी शुरु करे और रही बात राज्यों की सहमति की, तो उसकी भी कोई बड़ी समस्या नहीं है। उसके लिए परियोजना के नियम व स्वरूप ऐसे बनाए जाएं कि राज्यों की सहमति की जरूरत ही न पड़े।' उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के बाद बिना कुछ सोचे समझे नदी-जोड़ो परियोजना पर कार्य किया जा रहा है। कोई पूछने वाला नहीं है, मात्र राष्ट्रपति के भाषण पर आधारित उच्चतम न्यायालय के इस तर्कहीन निर्णय में न जनता की सहभागिता है और न ही राज्यों की।
6.5 लाख करोड रुपये की नदी-जोड़ो परियोजना का कुल खर्च हमारे वार्षिक राजस्व का ढ़ाई गुना है। 2001-02 में किए गए सरकारी आर्थिक सर्वे के अनुसार इस परियोजना की कुल लागत भारत के सकल घरेलू उत्पाद के बचत से ज्यादा है और भारत के कुल विदेशी कर्ज से भी 54,000 करोड़ ज्यादा है। इतनी बड़ी रकम कहां से आएगी? शायद आखिरी विकल्प कर्ज ही होगा। अगर नदी-जोड़ो परियोजना के लिए कर्ज लिया जाता है तो हर भारतवासी 5,000 रुपयें का नया कर्जदार हो जाएगा जो औसतन वार्षिक आय का 20 फीसदी होगा। कर्ज का वार्षिक ब्याज 20-30 हजार करोड़ रुपये बैठेगा। तो ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर कौन यह सब कर्जे चुकाएगा और कैसे? इतने बड़े कर्जे के लिए गारंटी में क्या दांव पर लगाया जाएगा?
गुजरात के कच्छ-सौराष्ट्र में सरदार सरोवर और नर्मदा को ही पानी का माध्यम बनाने की बात तंय की गयी थी और अब तक इस योजना पर 22,000 करोड़ रु. खर्च हो चुके हैं, लेकिन फिर भी सौराष्ट्र-कच्छ को आज तक पानी नहीं मिला है। इस योजना पर हर वर्ष करीब 1400 करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं, लेकिन परिणाम अच्छे नहीं हैं। इन सबसे सबक लेने की जरूरत है। यही समय है जब सही दिशा में सोचना, अपनी प्राथमिकताओं और कर्तव्यों को समझना है। देश को दुर्दशा से बचाने के लिए ही नदी जोड़ो का विकल्प तलाशा गया है.......जोहड़ जोड़ो। हमारा दावा है कि भूजल संरचनाओं के भरने से धरती के पेट में बहने वाली नदियां सदानीरा बनकर सहज रूप से जुड़ जाएंगी। इससे न केवल बाढ़ और सूखे की समस्या का निदान होगा, साथ ही सबको सहज और मुक्त रूप से पानी मिलेगा। जोहड़ जुड़ना, समाज के साथ भी जुड़ना है। जोहड़ जोडने का सीधा सा अर्थ है, धरती का पेट पानी से भरना।
जल का अर्पण-समर्पण ही भूजल दोहन और पुनर्भरण है। दोहन और पुनर्भरण का संबंध आज टूट चुका है। इसी कारण बाढ़-सुखाड़ की समस्या गहराती जा रही है। नदी जोड़ो से इसे रोक पाना संभव नहीं है, जोहड जोड़ो इसे संभव बनाता है। जोहड़ों को बचाने, जर्जर जोहड़ों के जीर्णोध्दार और नये जोहड़ों के निर्माण का कार्य प्रधानमंत्री राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत कराया जा सकता है। 25,000 करोड़ रुपये हमें रोजगार पर खर्च करने हैं। इस राशि को जोहड़ बनाने, जल संरचनाओं को पानीदार बनाने, जल निकासी के रास्ते को ठीक करने के काम में लगाने से जल-जन के कार्य सहज ही सध जायेंगे। हमारी सरकार काम तो मशीनों से करवा रही है और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दे रही है। वह यह भूल रही है कि पैसा बांटने से रोजगार और जल नहीं मिलने वाला है। जल संरचनाओं की जगह खोजने से लेकर, जोहड़ बनाने, श्रमदान जुटाने तथा लेखा-जोखा रखने का काम युवाओं से कराया जा सकता है। राजस्थान के बहुत से गांव जोहड़ की साझी मिल्कियत का समान उपयोग कर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जोहड़ भूमिहीन गरीबों का सबसे बडा सहारा है। जब से गांव के जोहड़ों पर सरकार और दबंगो ने कब्जे कर लिए हैं तब से ही गरीबों की गांव से उजड़ने की प्रक्रिया तेज हुई है। जोहड़ के जुड़ने से शहर पर दबाव कम होगा। शहर की कच्ची बस्तियों में रहने वाले वापिस अपने गांव में लौटने लगेंगे।
अभी भी वक्त है सही निर्णय लेने का, आखिर हम क्या चाहते है? विश्वबैक से कर्जा लेकर भारी-भरकम नदी जोड़ो परियोजना, जहां हरेक भारतीय पर 112 डालर का कर्ज होगा, भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश का शिकार होकर गुलाम-जर्जर बना रहेगा, जहां बेरोजगार युवा, आतंक और अपराघ के सिवाय कुछ नहीं होगा, बस होगा तो भूख, गरीबी और दहशत। दूसरी ओर है, जोहड़ जोडो योजना, जिसमें लगभग 7 लाख करोड़ रुपये नहीं, मात्र 25000 करोड़ रुपये की लागत है। विदेशी कर्ज नहीं, कोई विश्व बैंक या विदेशी कंपनी नहीं बल्कि अपना ही धन, अपने ही लोग होंगे, बनाने वाले भी, इस्तेमाल करने वाले भी। हमारे पानी पर किसी की मिल्कियत नहीं होगी बल्कि प्रकृ्रति की अमूल्य धरोहर पानी पर सबका साझा अधिकार होगा। रोजगार बढेग़ा, शहर को पलायन नहीं होगा। गांव की संस्कृति, भारतीय संस्कृति कायम रहेगी। कर्ज के बोझ से दबा भारत नहीं, बल्कि समृद्व और खुशहाल भारत होगा। बस अब ये सोचना है कि हमें जाना किधर है ''बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गूलामी की ओर या भारतीय संस्कृति और सम्प्रभुता की प्रतिष्ठा जोहड़ की ओर''।