आखिर कब तक? इरोम शर्मिला का सत्याग्रह -हर्ष डोभाल

राममनोहर लोहिया अस्पताल, नई दिल्ली के नर्सिंग होम की इमारत के बाहर एक दर्जन पुलिसकर्मियों का सख्त पहरा, जो इमारत में प्रवेश करने पर कड़ी पूछताछ करते हैं। उसमें एक छोटा सा कमरा 8ए आता है। यहां भी 10 से 12 हथियारबंद पुलिसकर्मियों का पहरा रहता है, जो यह आभास कराता है कि यहां कोई 'महत्वपूर्ण व्यक्ति' भर्ती है, मिलने की इजाजत मांगने पर पुलिसकर्मी एकदम मना कर देते हैं; वह और कोई नहीं 'इरोम शर्मिला चानू' है। पिछले 6 साल से सत्याग्रह करने वाली इरोम शर्मिला मणिपुर के बाद अब दिल्ली में आफ्सफा के खिलाफ अनशन पर है। वह अस्पताल के कमरे में ही योगाभ्यास करती हैं, कविता लिखती है, पुस्तकें पढ़ती हैं और अगले दौर की लड़ाई की तैयारियों के बारे में सोचती हैं। पढ़ने में अत्यधिक रूचि रखने वाली इस युवती ने योग, नेल्सन मंडेला, गांधी आदि के बारे में लगातार किताबें पढ़ी हैं। उसका व्यक्तिगत जीवन एकदम सादा, संयमित और सरल है।
मणिपुर की 34 वर्षीया कवयित्री, चित्रकार और गांधीवादी इरोम शर्मिला चानू 4 नवम्बर, 2000 से आमरण अनशन पर है। उसे जीवित रखने के लिए नाक में नली डालकर जबरदस्ती तरल पदार्थ दिये जा रहे हैं। उसकी स्पष्ट मांग है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आफ्सपा), 1958 रद्द किया जाय ताकि पूर्वोत्तर में इस कानून के बर्बरतापूर्वक इस्तेमाल को रोका जा सके।
शर्मिला के सत्याग्रह अनशन के छह साल पूरे हो चुके हैं। इम्फाल के बाहरी इलाके में स्थित कोंगखम गांव के इरोम नंदा और इरोम सखी देवी को पता नहीं था कि 14 मार्च, 1972 को जन्मी उनकी बेटी आगे चलकर क्या करेगी। अस्पताल में उसकी देखभाल कर रही एक दोस्त से उसने कहा, ''मैं एक निरक्षर, करुणामयी और मजबूत मां की सबसे छोटी बेटी हूं -हम नौ बच्चे थे, मेरा सबसे बड़ा भाई बीमारी के कारण चल बसा। मैं इस दुनिया के लिए महत्वपूर्ण नहीं हूं, एक कीड़े की तरह हूं, जिसे कुचला जा सकता है।''
जब शर्मिला केवल 15 दिन की थी तो उसे उबले चावल का पानी पिलाना शुरू किया गया क्योंकि उसकी मां को पर्याप्त दूध नहीं हो पाता था। कुछ दिन बाद उसका भाई सिंहजीत उसे पड़ोस की ऐसी 'अन्य मांओं' के पास ले जाता, जिन्होंने हाल में ही बच्चों को जन्म दिया हो। सिंहजीत ने बताया, ''उसे मणिपुर की कई माताओं ने दूध पिलाया है, इसीलिए शायद वह सामाजिक और राजनीतिक रूप से इतनी जागरूक है।''
शर्मिला कहती है ''मुझे अपने को स्वस्थ रखने की आवश्यकता है। जबरदस्ती खिलाना पूरी तरह अप्राकृतिक है। मुझे ताकतवर बनना है। मुझे लड़ना है।'' अगर अनुमति दी जाती है तो वह अस्पताल के गलियारे में लगभग दो घंटे टहलती है, जिसके प्रत्येक सिरे पर एक सुरक्षा कर्मचारी खड़ा रहता है। आशुलिपि सीखने के अलावा शर्मिला ने अभी योग और प्राकृतिक चिकित्सा में पाठ्यक्रम पूरा किया है।
जब उसने चार नवम्बर, 2000 को अनशन शुरू किया था तो अधिकतर लोगों को उसके संकल्प के बारे में बहुत कम अनुमान था। कुछ ने इसकी अनदेखी कर दी, कुछ ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और थोड़े बहुत ने इसकी खिल्ली भी उड़ाई। लेकिन शर्मिला के लिए जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया था- एक स्पष्ट गंतव्य वाली कठिन लंबी यात्रा, जहां से वापस नहीं लौटा जा सकता था।
अनशन पर जाने का फैसला हालांकि सोच-समझकर लिया गया था, लेकिन इसके लिए पहले से ही कोई योजना नहीं बनाई गयी थी। वास्तव में शर्मिला अपना अनशन शुरू करने से केवल दो हफ्ते पहले ही आफ्सपा विरोधी आंदोलन में शामिल हुई थी। न्यायमूर्ति एच. सुरेश की अध्यक्षता में तीन सदस्यों वाली इंडियन पीपुल्स इंक्वायरी कमेटी (आईपीआईसी) ने वर्ष 2000 में अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में मणिपुर का दौरा किया। यह समिति मणिपुर के विभिन्न इलाकों में कई पीड़ित लोगों, उनके रिश्तेदारों और दोस्तों से मिली, जिन्होंने अन्याय, बलात्कार, हिंसा, हत्या और लोगों के गायब होने जैसे मामलों के बारे में आपबीती सुनायी। उसने कार्यशालाएं आयोजित कीं तथा मानवाधिकार अधिवक्ताओं, पत्रकारों, विद्वानों और अन्य लोगों के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया। शर्मिला स्वयंसेवी के रूप में इस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा थी और यह राजनीतिक रूप से उसकी पहली भागीदारी थी। आईपीआईसी की जांच के दौरान वह विशेष रूप से एक जवान लड़की के बयान से बुरी तरह हिल गयी, जिसके साथ लामडेन गांव में सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया था। शर्मिला और दो अन्य स्वयंसेवी महिलाओं ने अलग से इस लड़की के साथ बातचीत की थी।
आईपीआईसी ने अक्टूबर के तीसरे सप्ताह तक अपनी जांच पूरी कर ली थी और इस बीच शर्मिला की आत्मा उसे कचोटने लगी थी। उसके भीतर चिंगारी भड़क उठी थी। सेना की ज्यादतियों और दमनकारी कानूनों, विशेष रूप से आफ्सपा के बारे में और अधिक जानकारी हासिल करने के लिए अगले कुछ दिनों में वह कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों से मिली।
इंफाल से करीब 15 किलोमीटर दूर मालोम में दो नवम्बर, 2000 को सुरक्षा बलों ने एक बस स्टॉप पर खड़े निर्दोष लोगों पर गोलीबारी की जिसमें दस लोग मारे गए। वह वृहस्पतिवार का दिन था। इस दिन बचपन से ही शर्मिला हर हफ्ते उपवास रखती थी। उसके भाई सिंहजीत ने बताया कि यह उपवास आज तक जारी है। हालांकि उसने इसके बारे में चार नवम्बर को घोषणा की। मालोम नरसंहार मणिपुर के लोगों के लिए नया नहीं था, क्योंकि इससे पहले भी उन्होंने इसी तरह की नृशंस हत्याएं देखी थीं, जब सुरक्षा बल आपे से बाहर होकर आम आदमियों को मारने लगते थे। शर्मिला खून से सनी सड़क का नजारा बर्दाश्त नहीं कर सकी। इस एक घटना ने उसका जीवन बदल दिया। अब तक वह एक फैसला ले चुकी थी। वह चार नवम्बर को अपनी मां के पास गयी तथा 'लोगों के लिए कुछ बेहतर करने' के वास्ते उसका आशीर्वाद लिया। यह अंतिम दिन था जब मां और बेटी ने एक दूसरे को देखा। ''मेरी मां मेरे निर्णय के बारे में हर बात जानती है। वह बहुत साधारण है, लेकिन उसके पास मुझे मेरा लाजमी कर्तव्य करने की इजाजत देने का साहस है......। मेरी मां ने मुझे आशीर्वाद दिया है। यदि मैं उससे मिली तो यह हम दोनों को कमजोर बना सकता है।'' इसके बाद से शर्मिला ने अपने बालों में कंघी नहीं की, न ही शीशे में अपने को देखा और न ही पानी की एक बूंद उसके मुंह में गयी। वह अपने दांत सूखी रुई से साफ करती है।
अपनी मां के आशीर्वाद के साथ शर्मिला सीधे नरसंहार स्थल पर पहुंची। और इस प्रकार ऐतिहासिक, शांतिपूर्ण अनशन शुरू हुआ। 21 नवम्बर को उसे 'आत्महत्या का प्रयास' करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उसे इंफाल के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में भर्ती कराकर प्रशासन उसे जबरदस्ती नाक के रास्ते खिलाने लगा। इस बात को छह साल हो गए हैं। न्यायिक हिरासत में रहते हुए उसने अपना अनशन तोड़ने या जमानत देने से इंकार कर दिया। जैसा कि नियम है एक साल पूरा होने पर अदालत ने उसे रिहा कर दिया, क्योंकि आत्महत्या के प्रयास के मामले में उसे अधिकतम सजा एक साल की ही दी जा सकती थी। उसका बिना पानी का अनशन जारी रहने के कारण उसे बार-बार रिहा होने के दो-तीन दिन के भीतर गिरफ्तार कर लिया जाता है और यह चक्र आज तक जारी है।
शर्मिला का कहना है : ''लाशों को देखकर मुझे गहरा सदमा लगा था। सशस्त्र बलों और हिंसा को रोकने के लिए कोई साधन नहीं था.........यह (उपवास) सबसे कारगर तरीका है, क्योंकि यह आध्यात्मिक लड़ाई पर आधारित है.........मेरा अनशन मणिपुर के लोगों की ओर से है। यह व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है, प्रतीकात्मक लड़ाई है। यह सत्य, प्रेम और शांति का प्रतीक है।''
इस साल तीन अक्टूबर को अदालत द्वारा उसे फिर बरी किये जाने के बाद उसके भाई और एक दोस्त ने उसे रात भर के लिए पत्रकारों की पहुंच से दूर रखा। दूसरे दिन पत्रकारों और सुरक्षा बलों को चकमा देते हुए उन्होंने शर्मिला को चोरी-छिपे मणिपुर से बाहर निकाल दिया। इस मुद्दे पर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करने के प्रयास में उसी दिन वह दिल्ली पहुंची। हवाई अड्डे से वह महात्मा गांधी को श्रध्दांजलि अर्पित करने के लिए सीधे उनके समाधिस्थल राजघाट पहुंची। शर्मिला ने पत्रकारों से कहा, ''अगर गांधीजी आज जीवित होते तो वह आफ्सपा के खिलाफ आंदोलन शुरू करते। मेरी देश के नागरिकों से अपील है कि वे आफ्सपा के खिलाफ संघर्ष में शामिल हों।'' उस दिन, बाद में शर्मिला जंतरमंतर पहुंची और अपना अनशन जारी रखा। समर्थन व्यक्त करने के लिए वहां लोगों का तांता लगा रहा। तीन दिन के बाद आधी रात को पुलिस ने उसे पकड़कर एम्स में भर्ती करा दिया। अब वह रामनोहर लोहिया अस्पताल में है।
शर्मिला अपने संघर्ष में अकेली नहीं है। पूर्वोत्तर की महिलाओं, विशेष रूप से मणिपुर की महान माताओं की एकजुट राजनीतिक कार्रवाई, कड़े प्रतिरोध और बलिदान का अपना इतिहास है। शर्मिला इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इसे नयी ऊंचाई तक पहुंचा रही है। वर्ष 2004 में राज्य में उस समय हिंसा भड़क उठी जब असम राइफल के जवानों ने एक जवान महिला कार्यकर्ता थंगजाम मनोरमा देवी के साथ बलात्कार करके बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी। इस क्रूर घटना के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, जिसने देश की आत्मा हिला दी। नृशंस और असंवेदनशील सुरक्षा बलों और इंफाल तथा दिल्ली के सरकारी तंत्र का ध्यान आकर्षित करने के प्रयास में मणिपुर की माताओं ने अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल किया। उन्होंने इंफाल में असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने नंगी होकर सेना को उनके साथ बलात्कार करने की चुनौती दी। पूर्ण रूप से नग्न होकर उन्होंने प्रदर्शन किया और उनके बैनर पर लिखा था ''भारतीय सेना आओ हमसे बलात्कार करो।''
इस बीच, अस्पताल के एक कमरे में बंद कविता लिखती, किताबें पढ़ती, योग करती शर्मिला का अनशन हिरासत में भी जारी है। दिल्ली और मणिपुर में आफ्सपा के खिलाफ संघर्ष चल रहा है। अदम्य साहसी, दृढ़ और कृत-संकल्प शर्मिला का स्पष्ट रूप से कहना है कि उसका पीछे हटने का कोई इरादा नहीं है। ''जब तक आफ्सपा को रद्द नहीं किया जाता तब तक मैं अपना अनशन नहीं तोड़ूंगी।'' (पीएनएन-कॉम्बैट लॉ)

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