अमेरिका के प्रति 100 व्यक्तियों में 90 के पास बन्दूकें: क्या किसी युध्द की तैयारी

दुनिया का सबसे विकसित देश अमेरिका खुद में अराजकता का गढ़ बनता जा रहा है। अग्नेयास्त्रों का जखीरा बनता अमेरिका, क्या किसी युध्द की तैयारी कर रहा है? या फिर अमेरिका के लोग अपने आप को 'असुरक्षित' समझने लगे हैं।
हाल ही में ''जेनेवा स्थित ग्रेजुएट इन्स्टीटयूट ऑफ स्टडीज के 'स्माल आर्म्स सर्वे 2007' के अनुसार दुनिया के 875 मिलियन अग्नेयास्त्र में तकरीबन 270 मिलियन अग्नेयास्त्र अमेरिकी नागरिकों के पास हैं।'' ऐसा लगता है कि अमेरिकियों ने किसी विश्व-युध्द की तैयारी शुरू कर दी है दुनिया भर में दादागिरी करने वाले अमेरिका के प्रति 100 व्यक्तियों में 90 के पास बन्दूकें है जोकि इन्हें संसार में सबसे अधिक हथियार रखने वाला समाज बनाता है।
असल में अमेरिका ने कभी भी इस मुद्दें पर सोचा ही नहीं। पर यह नहीं भूलना चाहिए अन्य देशों को पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका अपनी ही सीमाओं को तोड़ रहा है। हथियारों के सिलसिलों में इराक पर किया गया युध्द क्या इस परिपेक्ष्य में उचित था? हथियारों में सबसे आगे रहने वाला यह देश क्या किसी को हथियार न रखने का पाठ पढ़ा सकता है? नैतिकता तो यही कहती है कि पहले स्वयंम को सुधारों फिर किसी और को। एक अनुमानत: दुनिया में प्रत्येक वर्ष 8 मिलियन नए शस्त्र बनाये जाते है जिसमें 4.5 मिलियन शस्त्र अकेले अमेरिका ही खरीद लेता है। इसके बाद यमन दूसरा देश है जोकि सबसे ज्यादा शस्त्र रखता है साथ ही साथ इनकी अन्य श्रेणियों में फिनलैण्ड, स्विटजरलैण्ड, इराक ,सरबिया, फ्रांस ,कनाडा, स्वीडन, आस्ट्रिया और जर्मनी आते हैं। .......

अन्न-व्यवस्था को खतरा: डॉ वंदना शिवा

देश की खुदरा अर्थव्यवस्था पर रिलायंस और वालमार्ट जैसी विशाल कंपनियों के कब्जे से इस अर्थव्यवस्था के लिए आसन्न खतरों के प्रति आगाह कर रही हैं: डॉ वंदना शिवा

'भारत खुदरा व्यापार-लोकतंत्र का देश है'। देश में चारों तरफ लोग अपनी क्षमता के अनुसार हजारों साप्ताहिक 'हाट' और 'बाजार' लगाते हैं। ये स्थानीय स्तर पर खरीदारी का सबसे सस्ता और सुलभ माध्यम हैं। इसमें कोई दलाल भी नहीं होता। हमारी गलियां वास्तव में ऐसे जीवन्त बाजार हैं जो लाखों लोगों की सुरक्षित जीविका की स्रोत हैं। वस्तुत: भारत में दुनिया की सबसे ज्यादा दुकानें हैं। हजार लोगों पर 11 खुदरा-दुकानें, जिनमें गांव की दुकानें शामिल नहीं हैं।
हमारी खुदरा-व्यापार की लोकतांत्रिक-व्यवस्था से करीब चार करोड़ लोगों को उच्चस्तरीय जीविका के साथ-साथ रोजगार मिलता है, जो कुल जनसंख्या का चार फीसद और कुल रोजगार का आठ फीसद है। यह पूरी तरह से आत्मनिर्भर व्यवस्था है, जिसमें पूंजी लागत कम से कम तथा विकेन्द्रीकरण का स्तर लगभग 100 फीसद है।
बड़ी जनसंख्या वाले देश में, जहां गरीबी का स्तर भी काफी ज्यादा है, वहां जैविक और आर्थिक अस्तित्व के लिए खुदरा-लोकतंत्र का यह मॉडल ही उपयुक्त है।
हमारी विकेन्द्रित और विविधता आधारित खुदरा-अर्थव्यवस्था पर अब धीरे-धीरे रिलायंस और वालमार्ट जैसी विशाल कंपनियां हावी हो रही हैं। वे खुदरा व्यापार में तानाशाह बनने की कोशिश कर रही हैं और उत्पादन से लेकर विक्रय तक सारी व्यवस्था नियंत्रित करना चाहती हैं।
यह हमला सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों रूपों से किया जा रहा है। भारतीय खुदरा-लोकतंत्र को नीचा और वालमार्ट व रिलायंस की तानाशाही को ऊंचा साबित करने के लिए सुनियोजित तरीके से सांस्कृतिक हमला किया जा रहा है। इस हमले के लिए भाषा और लच्छेदार शब्दों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
खुदरा व्यापार के आत्म-निर्भर क्षेत्र को अब 'असंगठित' और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तानाशाही को 'संगठित' क्षेत्र का नाम दिया जा रहा है। इसे देखकर कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि खुदरा-लोकतंत्र को खुदरा तानाशाही में बदलने का सीधा सा मतलब है- विकेन्द्रित राज्य व्यवस्था को संगठित-तानाशाही राज्य में बदलना।
भारतीय खुदरा-व्यापार आत्म निर्भरता और रोजगार के उच्च अवसर देता है, लेकिन आज तथाकथित विकास (एफडीआई) का मॉडल थोपने के लिए उसे भी अल्पविकसित बताया जा रहा है। इसी तरह व्यापार के देशी-प्रबन्धकों को 'दलाल' का नाम दिया जा रहा है और इन दलालों को खत्म करने के नाम पर चार करोड़ लोगों की रोजी छीनने की साजिश की जा रही है। रिलायंस और वालमार्ट जैसे बड़े दलालों से कोई सवाल पूछने वाला है क्या? वे तो अपने को किसानों का मुक्तिदाता कहते हैं, जबकि वे ही सस्ती चीजें खरीद कर किसानों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहे हैं। कंपनियों का तो यह उसूल ही है-''सस्ता खरीदो, मंहगा बेचो।'' थोड़े समय तक तो बाजार पर अपनी पकड़ बनाने के लिए और उत्पादक और उपभोक्ता के बीच के सभी रिश्तों और विकल्प को खत्म करने के लिए ये कंपनिया सस्ते दामों पर सामान बेचेंगी और एक बार विकल्प खत्म हो गए तो वे किसानों को उत्पादनलागत का कम दाम देंगी और उपभोक्ता को सामान अपनी मर्जी की कीमतों पर देंगी। अर्थात् किसान और उपभोक्ता दोनों को भारी नुकसान।
'फूडवार्स' में छपे एक आलेख में डा. टिमलैंग ने आंकड़े देते हुए लिखा है कि वालमार्ट ने खाद्यान्न व्यापार में प्रवेश करते ही 10 साल के अन्दर ही दामों को 13 फीसद गिरा दिया। ऐसा कहा जा रहा है कि 2010 तक कुल फूड-रिटेलिंग के 10 फीसद पर अमरीका के केवल सात खुदरा व्यापारियों का कब्जा हो जाएगा, जिसमें वालमार्ट का हिस्सा बढ़कर 22 फीसद हो जाएगा। यूरोप में आने वाले 10 साल में 10 प्रमुख खुदरा संगठित व्यापारियों की भागीदारी 37 फीसद से 60 फीसद तक बढ़ जाएगी। इस सबके बीच पीसा जाएगा-किसान और छोटा खुदरा व्यापारी।
ब्रिटेन सरकार के 'प्रतिस्पध्र्दा आयोग 2000' की जांच से स्पष्ट हो गया था कि सुपरमार्केट जनता के हित के अनुकूल नहीं हैं, वे 27 गैर व्यापारिक तरीकों का इस्तेमाल करते हुए पाए गए थे, जिनमें उनका लागत से भी कम मूल्य पर खरीदना-बेचना भी एक तरीका था। इनमें पांच बड़े रिटेलर-टेस्कों, सेंसबरी, एएसडीएवालमार्ट, सेफवे, सोर्सफील्ड शामिल थे। सुपरमार्केट अपने सप्लायर के साथ एकतरफा व्यापारिक-संबंध रखते हैं। सप्लायर का हिस्सा 4-2 फीसद यानी बहुत कम होता है। कभी-कभी तो यह मुनाफा न के बराबर होता हैं क्योंकि मजबूरी में प्राय: वे चीजों को लागत मूल्य से कम दाम पर भी बेच देते हैं।
भारत के खाद्यान्न बाजार में विशाल कारपोरेटियों के आने से 65 करोड़ किसानों और चार करोड़ छोटे खुदरा व्यापारियों पर गाज गिरेगी। 2011 तक 6600 से भी ज्यादा बड़े स्टोर बनाये जाने की योजना है, जिसमें 40,000 करोड़ रुपये निवेश होने की सम्भावना है।
आने वाले चार साल में रिलायंस की भी 25 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा के निवेश से हजारों स्टोर खोलने की योजना है। वालमार्ट के पार्टनर भारती की भी योजना है कि वह अगले आठ साल में लगभग 12 हजार करोड़ रुपये का निवेश नए स्टोर बनाने में करेगा।
वालमार्ट के साथ गठजोड़ करने वाली भारत की भारती टेलीविंचर्स के सुनील मित्तल से जब वालमार्ट की मुनाफाखोरी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ''मैं वालमार्ट के कई स्टोरों पर गया हूं, लेकिन मैंने किसी भी आदमी को नाराज नहीं पाया। उसने लातिन अमेरिकियों को आठ डॉलर प्रति घंटे पर नौकरी पर रख रखा है, लेकिन फिर भी वे लोग नाराज नहीं हैं बल्कि उनके चेहरों पर हमेशा मुस्कुराहट रहती है।''
(पीएनएन)

जेंडर मेंटर किट: बेटी तुम्हें मारने का एक और नया तरीका

मीनाक्षी अरोड़ा
कन्या-भ्रूणहत्या रोकने की हालिया कोशिशें: एक: भारत सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी कहती हैं कि हम हर जिले में अनैच्छिक बेटियों के लिए कन्या-क्रच खोलेंगे, जो लोग बेटी पालना नहीं चाहते वे वहां अपनी बेटी छोड़ दें, ताकि बेटा-बेटी अनुपात संतुलित किया जा सके और कन्या-भ्रूणहत्या रोकी जा सके। दो: कन्या-भ्रूणहत्या रोकने के लिए मदुरै के पुलिस आयुक्त ए.सुब्रह्मण्यम स्वास्थ्य, राजस्व, समाज कल्याण विभाग और पुलिस को मिलाकर एक मिली-जुली एक्शन-टीम बनाई है, जो कन्या-भ्रूणहत्या को रोकने का काम करेगी।
तीन: केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की चेयरमैन रजनी पाटिल कहती हैं कि हम सभी राज्य सरकारों को कन्या-भ्रूणहत्या के खिलाफ़ स्टिंग-ऑपरेशन ग्रुप बनाने के लिए कह रहे हैं, जिसमें एनजीओ और खुफिया विभाग को जरूर शामिल किया जाए।
चार: गुजरात के मुख्यमंत्री ने 'बेटी बचाओ अभियान' चला रखा है और उनके स्वास्थ्यमंत्री अशोक भट्ट के चुनावक्षेत्र में हिन्दुस्तान का सबसे कम सेक्स-अनुपात है, 1000 पुरुष पर मात्र 767 महिलाएं।
पांच: चंडीगढ़ का एक गैर-सरकारी संगठन 'वीमेन पावर कनेक्ट' चंडीगढ़ स्वास्थ्य विभाग के साथ मिलकर निजी क्लीनिक से निकालने वाले बायो-मेडिकल कचरे को चेक करेगा और सुनिश्चित करेगा कि कहीं उस कचरे में कोई कन्या-भ्रूण तो नहीं है।
और भी कोशिशें जारी हैं कन्या-भ्रूणहत्या और कन्या-भ्रूण पहचान की प्रक्रिया रोकने की। रैलियां, कन्या-दिवस मनाने, बालिका शिशु वर्ष, विज्ञापन, बेटियों के लिए लाडली, योजना, नकद प्रोत्साहन और केन्द्र और राज्यों की सैकड़ों योजनाएं; पर जारी है, कन्या-भ्रूणहत्या।

देश के लिए शर्मनाक
देश के लिए शर्मनाक ही है कि कन्या-भ्रूणहत्या प्रतिवर्ष 9 फीसदी की दर से लगातार बढ़ रही है। पिछले दो दशकों में एक करोड़ से ज्यादा कन्या-भ्रूणहत्या की गयी है। तमिलनाडु के सबू जॉर्ज, जो पिछले बीस सालों से इस मसले पर अध्ययन कर रहे हैं, का कहना है कि बेटी-क्रच खोलने जैसी योजनाओं का सीधा मतलब है कि हम कन्या-भ्रूणहत्या रोकने में असफल रहे हैं, क्योंकि बेटियां पैदा होने के बाद कम और गर्भ में ज्यादा मारी जाती हैं। केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की चेयरमैन रजनी पाटिल स्वीकार करती हैं कि तेरह साल हो गए 'प्री-नेटल डाइग्नोस्टिक टेक्नोलाजी एक्ट'-1993 और 'मेडिकल टर्मिनेशन ऑव प्रेगनेन्सी एक्ट' दोनों के तहत अब तक 4,000 मुकदमे दर्ज हुए हैं, पर सजा सिर्फ़ एक डॉक्टर को हुई है।
मुकदमा दर्ज कराने की जिम्मेदारी मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारियों की होती है, पर प्राय: उनके संबंध प्राइवेट क्लिनिक और डाइग्नोस्टिक सेंटर से हुआ करते हैं। इसलिए कन्या-भ्रूणहत्या कराने वाले क्लिनिक तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ मुकदमे ही नहीं दर्ज हो रहे हैं। प्राइवेट क्लिनिक और डाइग्नोस्टिक सेंटर कन्या-भ्रूण पहचान और कन्या-भ्रूणहत्या के रोज नए-नए तरीके अपना रहे हैं। अभी तक यह सारा काम लोकल स्तर पर ही होता था, पर अब उनके साथ बड़ी-बड़ी कंपनियां जुट गयी हैं। अमेरिका की 'लॉवेल लैब' 'ममीज़ थिंकिन कंपनी' आदि ने 'जेंडर मेंटर किट' कन्या-भ्रूण पहचान का एक नया तरीका उपलब्ध कराया है, जिससे कन्या-भ्रूण की पहचान मात्र 5 हफ्ते के अंदर ही हो जाती है, यानी बेटी मारना और आसान.......।
दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और पंजाब; पंजाब में तो 'जेंडर मेंटर किट' का क्रेज लोगों में इस कदर बढ़ रहा है कि देहात के लोग तो इसे 'जन्तर-मन्तर किट' ही कहने लगे हैं। मानो कि यह अनचाहे लिंग के भ्रूण से छुटकारा पाने का सबसे सुरक्षित मन्त्र हो। अल्ट्रासाउण्ड से लिंग का पता ऐसे स्टेज पर लगता है जहां 'अबॉर्शन' कराना खतरनाक हो जाता है, लेकिन 'जन्तर-मन्तर किट' से शुरूआती दौर में ही पता लग जाता है। इसलिए 'जेंडर मेंटर किट' का बाजार गर्माता जा रहा है। पंजाब मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष कुलदीप सिंह का कहना है ''अगर भारतीय बाजारों में यह किट चलता रहा तो बालिका भ्रूण-हत्याओं का सिलसिला और भी तेज होगा।''
गर्भाधान के दौरान लिंग परीक्षण ही मुख्य उत्तरदायी है, कन्या-भ्रूणहत्या का। तरह -तरह के परीक्षण होते हैं- गर्भाधान के दौरान लिंग जानने के लिए। यानी जन्म लेने वाला प्राणी लड़का होगा या लड़की, आप पहले ही जान सकते हैं। लड़का पाने की लालसा फिर कन्या-भ्रूण की मौत कराती है। वैसे इसे वैज्ञानिक तकनीक का एक नया करिश्मा कहें या अभिशाप? दिन-ब-दिन बढ़ते विज्ञान और तकनीकी ने जहां जीवन को सरल और सुविधासम्पन्न बनाया है, वहीं यह उतना ही ज्यादा जटिल और घातक बन रहा है।
इसी वैज्ञानिक तकनीक की एक नई ईजाद है 'जेंडर मेंटर किट- एक ऐसा 'ब्लड टेस्ट' जो गर्भवती स्त्रियों को गर्भाधान के प्रारम्भिक पांच सप्ताह के भीतर यह बता सकता है कि उनका जन्म लेने वाला बच्चा लड़का होगा या लड़की। 'लॉवेल लैब' में 'ब्लड टेस्ट' देने के बाद दो या तीन दिन के भीतर ही स्त्रियों को यह रिपोर्ट मिल जाती है। उसके बाद उन्हें देर नहीं लगती यह तय करने में कि उन्हें लड़की चाहिए या लड़का।
इस मौत के खेल को खेलने के लिए ऑनलाइन मार्केटिंग और लच्छेदार भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस खेल के लिए आवश्यक 'ब्लड टेस्ट' का ही व्यापारिक नाम 'बेबी जेंडर मेंटर' है जो अमरीका के मेसाच्यूसेट्स में लॉवेल की बायोटेक कंपनी- एक्यूजेन बायोलैब द्वारा खेला जा रहा है। एक ऐसी मानसिकता तैयार की जा रही है कि हर आदमी को यह महसूस होने लगे कि यह टेस्ट जरूरी है। इसके लिए अनेक तर्कों का सहारा लिया जा रहा है, जैसे- बच्चे के जन्म से पहले मां का मानसिक रूप से खुद को तैयार करना जरूरी है।
लड़का और लड़की के लिए आवश्यक खरीददारी, तैयारी और योजना बनाने के लिए, उसके लिंग के बारे में पहले से मालूम होना जरूरी है। इसी तरह कुछ बीमारियों आदि के तर्कों का इस्तेमाल कर भ्रामक प्रचार किए जा रहे हैं। इस टेस्ट किट की कीमत मात्र 25 अमरीकी डालर है और कंपनियों का दावा है कि यह किट दुनिया के किसी भी कोने में 24 घंटे के अंदर कहीं भी ऑनलाइन डिमांड पर उपलब्ध कराया जा सकता है। टेस्ट के लिए तैयार गर्भवती महिला की अंगुली से कुछ खून निकालकर टेस्ट किट में मौजूद कार्ड पर लगा दिया जाता है। फिर उसे एक्यूजेन लैब, अमेरिका भेज दिया जाता है, जहां 250 अमरीकी डालर अतिरिक्त फीस देनी होती है। उसके बाद टेस्ट का परिणाम 'पासवर्ड सिक्योरिटी' के साथ वेबसाइट पर डाल दिया जाता है।
'फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन' की टेस्ट को नियमित करने में कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि यह टेस्ट 'नॉन-मेडिकल' की श्रेणी में आता है और इसे किसी भी 'चिकित्सकीय इलाज' के नाम पर रोका नहीं जा सकता। इस तरह एफडीए के नियमों के अधीन न होने की वजह से 'बेबी जेंडर मेंटर टेस्ट' के रास्ते में 'फर्मास्यूटिकल' सम्बन्धी कोई बाधा नहीं है। इतना ही नहीं ये 'लैब' अपने ग्राहकों पर किए गए परीक्षणों का परिणाम बताने या न बताने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है।
कंपनी इस बात को स्वीकार करती है कि लैब की रिपोर्ट आने पर वे चार सम्भावित परिणाम बता सकते हैं- लड़का, लड़की, जुड़वां या कुछ नहीं। कंपनी टेस्ट के परिणाम 99.9 फीसदी सही होने का दावा करती है। पर बेलर कॉलेज ऑव मेडिसिन की प्रोफेसर सैंड्रा कार्सन का भी कहना है कि, ''जब तक एक्यूजेन अपना डाटा नहीं देती, तब तक टेस्ट की विश्वसनीयता नहीं आंकी जा सकती है। इसलिए तब तक के लिए इसे बाजार में नहीं उतारा जाना चाहिए।''
जबकि इसके ठीक विपरीत टेस्ट की मार्केटिंग करने वाली एक वेबसाइट ऐसी महिलाओं के सर्टिफिकेट दिखाती है, जिनको टेस्ट की सही रिपोर्ट दी गई। ' प्रेगनेंसी स्टोर डॉट कॉम' स्वयं को इसका सबसे बड़ा रिटेलर-डिस्ट्रीब्यूटर कहता है। इसकी सीईओ शेरी बोनेली कंपनी के पक्ष में तर्क देती हैं कि टेस्ट लैब के परीक्षणों पर जो वैज्ञानिक उंगली उठा रहे हैं वास्तव में वे सब इससे ईष्या करते हैं। उनके पास कंपनी के खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है।
खैर, यह एक अलग मुद्दा है कि कंपनी कितने सही परिणाम देती है। फिलहाल तो यह टेस्ट कन्या-भ्रूण पहचान और कन्या-भ्रूणहत्या को बढ़ावा दे रहा है। टेस्ट कराने के पीछे यूं तो तमाम तर्क दिए जा सकते हैं। महिलाएं यह टेस्ट क्यों करा रही हैं इसका सही आंकलन कर पाना भी कठिन है। लेकिन एनपीआर की जांच रिपोर्ट के मुताबिक, इसके पीछे मकसद सिर्फ भ्रूण हत्या का है। इसलिए बच्चे के जन्म से पहले ही लिंग जानने की कोशिश की जाती है।
जेनेटिक काउन्सलर डॉ. अनालिया बोर्ज का भी यही मानना है कि परीक्षणों का मकसद 'भ्रूण-हत्या' ही है, क्योंकि अगर माता-पिता को गर्भ में पल रहे भ्रूण से भिन्न लिंग चाहिए तो जल्दी ही 'अबॉर्शन' कराना महिलाओं के लिए सही होता है। देर से कराने पर खतरा बढ़ सकता है, इसलिए टेस्ट द्वारा प्रारम्भिक स्तर पर ही लिंग जानने की कवायद की जाती है। और इसी कारण से यह टेस्ट समाज के लिए विनाशक बन गया है।
पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के सेण्टर फॉर बायो इथिक्स के डायरेक्टर आर्थर कापलान ने बताया कि लिंग जानने का काम केवल अमरीका में ही नहीं, बल्कि भारत और चीन जैसे देशों में खूब धड़ल्ले से किया जा रहा है, क्योंकि यहां लड़की की बजाय लड़कों की चाह माता-पिता को ज्यादा रहती है। भारत में 2001 की जनगणना के आंकड़े देखने से पता चलता है कि यहां 1,000 लड़कों पर 818 लड़कियां हैं। जहां-जहां लिंग जानने के लिए टेस्ट का बाजार गर्म है, वहां तो यह असंतुलन और भी ज्यादा है। नई दिल्ली के एक क्षेत्र विशेष के अध्ययन के बाद 1,000 लड़कों पर 762 लड़कियां होने के तथ्य का खुलासा हुआ। बात करने पर पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री रमेशचन्द्र डोगरा कहते हैं कि वह भारत में इस टेस्ट पर प्रतिबंध लगाने के लिए जल्दी ही कुछ करेंगे।

न्यायिक जवाबदेही कहां? न्यायाधीश वाई. के. सब्बरवाल और दिल्ली में सीलिंग

न्यायिक जवाबदेही लंबे समय से समाज के हर जनमानस को सवाल उठाने पर मजबूर कर रही है। इसी मसले को लेकर प्रेस क्लब ऑव इंडिया में प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की गई। 'कैम्पेन फार ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफार्म' के बैनर तले आयोजित इस कांफ्रेंस में पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, भास्कर राव और अन्य बुध्दिजीवियों ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था में होते दुराचार के गंभीर मुद्दे उठाए।
प्रशांत भूषण ने बताया कि 16 फरवरी 2006 को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई. के. सब्बरवाल ने दिल्ली के रिहायशी इलाकों में व्यवसायिक गतिविधियों में इस्तेमाल की जा रही संपत्तियों की सीलिंग के आदेश जारी किए थे। न्यायालय ने ये आदेश दिल्ली मास्टर प्लान-2001 के तहत विधि का शासन लागू करने के लिए जारी किए थे। सीलिंग से जनता को राहत देने के लिए कुछ समय बाद सरकार ने एक नया मास्टर प्लान-2021 लागू किया, जिसमें संपत्ति के व्यवसायिक इस्तेमाल जारी रखने की अनुमति दी गई थी। बावजूद इसके न्यायालय ने सीलिंग के अपने कठोर आदेश जारी रखे।
उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद शॉपिंग मॉल और कमर्शियल कॉम्प्लेक्सों में दुकानों और दफ्तरों के दाम रातोंरात आसमान छूने लगे। अब सवाल यह उठता है कि क्या सीलिंग मॉल और कमर्शियल कॉम्प्लेक्स डेवलपर्स को मुनाफा पहुंचाने के लिए की गई थी। सच तो यह है कि ये आदेश जस्टिस सब्बरवाल ने अपने दोनों बेटों चेतन और नितिन के मुनाफे के लिए जारी किए थे, जो उस समय तक एक्सपोर्ट और एम्पोर्ट का छोटा बिजनेस करते थे। बाद में उन्हाेंने बीपीटीपी ग्रुप कमर्शियल कॉम्प्लेक्स डेवलपर काबुल चावला और पुरुषोत्तम बाघेरिया के साथ साझीदारी कर ली थी। 2004 तक उनके पास मात्र तीन कंपनियां थी- पवन इम्पेक्स, साब्स एक्सपोर्ट और सग एक्सपोर्ट, जिनका रजिस्टर्ड ऑफिस सब्बरवाल का अपना घर 3/81 पंजाबी बाग था। इसे जनवरी 2004 में 6 मोतीलाल नेहरू मार्ग पर स्थानांतरित कर दिया गया और 7 मई 2004 को जस्टिस सब्बरवाल ने सीलिंग के आदेश जारी किए। उसका खुद का घर तो बच गया और सीलिंग के आदेश के बाद तो मॉल्स और कमर्शियल कॉम्प्लेक्स के बिजनेस में उसके बेटों की चांदी हो गई। 22 अगस्त 2006 को पवन इम्पेक्स को यूनियन बैंक ऑफ इंडिया कनॉट प्लेस ने 28 करोड़ रुपए का लोन मंजूर किया, जिसमें सिक्योरिटी के तौर पर नोएडा के सेक्टर-125 में प्लॉट संख्या ए-3, 4 और 5 में स्थित प्लांट, मशीनरी और अन्य संपत्ति रखी गई, जबकि वहां असलियत में प्लांट के बजाय पांच लाख स्क्वायर फिट का एक बड़ा आईटी पार्क बनाया जा रहा है। तीनों प्लॉट (12 हजार वर्ग मीटर प्रति प्लॉट) पवन इम्पेक्स को उत्तर प्रदेश की मुलायम/अमरसिंह सरकार ने 29 दिसंबर 2004 को मात्र 3700 रुपए वर्गमीटर की दर पर आवंटित किए थे। 10 नवम्बर 2006 को 12 हजार वर्ग मीटर का ही एक अन्य प्लॉट (12ए सेक्टर-68) मात्र चार हजार रुपए वर्ग मीटर की दर से, 800 वर्ग मीटर के तीन प्लॉट (सी-103, 104, 105 सेक्टर-63) में 2100 रुपए प्रति वर्ग गज की दर से आवंटित किए थे। और ऊपर से इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सीबीआई जांच के लिए दिए गए निर्देशों पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीपी सिंह ने रोक लगा दी। मजेदार बात तो यह है कि अमरसिंह की पोल खोलने वाले टेप पर भी जस्टिस सब्बरवाल ने ही रोक लगाई। इस तरह मात्र दो साल में ही जस्टिस सब्बरवाल के बेटे कमर्शियल कॉम्प्लेक्स के बिजनेस में करोड़ों में खेलने लगे और यह सब उस दौरान हुआ जब जस्टिस सब्बरवाल मुख्य न्यायाधीश थे और सीलिंग आदेश जारी कर रहे थे।
पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने कहा कि सब्बरवाल और उनके बेटों का व्यवहार न्यायिक मर्यादाओं को भंग करता है। सीलिंग पर दिए गए उनके आदेश प्राकृतिक न्याय के सिध्दांत के खिलाफ है, क्योंकि इनके अनुसार कोई भी जज ऐसा मुकदमा नहीं सुन सकता, जिसमें उसके निजी स्वार्थ टकराते हों। सीलिंग के आदेश से संबंधी यह मामला भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में आता है।
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के निदेशक भास्कर राव, पूर्व कानून मंत्री श्री शांति भूषण और अन्य बुध्दिजीवियों ने इस मामले की पूर्णतया तहकीकात करने की मांग की है। 'कैम्पेन फार ज्यूडिशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफार्म' ने समाज के प्रत्येक वर्ग से इसके खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया है ताकि संसद और सरकार पर एक उचित संवैधानिक संशोधन बिल के लिए दबाव बनाया जा सके।

माओवादियों की आर्थिक नाकेबन्दी-क्या यह महज कानून-व्यवस्था की समस्या है- डॉ. बनवारी लाल शर्मा

माओवादियों ने केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों-खासतौर से सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) बनाने के विरोध में 26 और 27 जून को नाकेबन्दी का ऐलान किया। इस ऐलान से नक्सल वाद से अत्यन्त प्रभावित चार प्रदेशों-बिहार, झारखंड, छत्तीीसगढ़ और उड़ीसा में रेल परिवहन और कच्चे लोहे की आवाजाही पर असर पड़ा। झारखंड में माओवादियों ने कई स्थानों पर रेल की पटरियाँ उखाड़ दी या पटरियों पर माल लदे ट्रक खड़े करके उनके पहिये फोड़ दिये, नतीजन बीसियों गाड़ियों के या तो रास्ते बदलने पड़े या उन्हें रद्द करना पड़ा। छत्ताीसगढ़ के बस्तर जिले में बेलाडिल्ला पहाड़ियों में रेल मार्ग को नुकसान पहुँचाया जिससे कच्चे लोहे का आवागमन ठप हो गया। अनेक स्थानों पर माओवादियों और पुलिस के बीच गोलीबारी चली खासतौर से उड़ीसा और छत्तtीसगढ़ में। बिहार में काफी रेलगाड़ियाँ रद्द कर दी गयी और राजमार्गों पर ट्रकों का चलना बंद हो गया।
इस आर्थिक नाकेबंदी के तुरन्त बाद माओवादियों ने दो बड़ी घटनाएँ जुलाई महीने में कर डाली। 3 जुलाई को बिहार के रोहतास जिले में दो पुलिस चौकियों पर हमला करके पुलिस के हथियार छीन ले गये। 11 जुलाई को छत्ताीसगढ़ के दाँतेवाड़ा के जंगलों में इनकी पुलिस से बड़े पैमाने पर टक्कर हुई जिसमें 24 पुलिसकर्मी मारे गये। कोई 50 माओवादियों की भी पुलिस गोलियों से मौत हो गयी।
आर्थिक नाकेबन्दी का कार्यक्रम लेने की प्रेरणा माओवादियों को लगता है, नेपाल के माओवादियों द्वारा कई चक्काजामों से तथा नन्दीग्राम में घटी हाल की घटना से मिली है। चक्काजाम कर-करके माओवादियों ने नेपाल राज्य की अर्थव्यवस्था ध्वस्त कर दी थी जिससे वहाँ बड़े पैमाने पर सत्ताा परिवर्तन हुआ। भारत में भी वे अर्थव्यवस्था का ढाँचा तोड़ना चाहते हैं, ऐसा उनकी पार्टी सीपीआई (माओवादी) ने लिया है। सन् 1960 से ही पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी गाँव से शुरू हुए इस आन्दोलन का लक्ष्य आदिवासियों और भूमिहीनों को जमीन का हक दिलाना रहा है। यह आन्दोलन फैला है, टूटा-बिखरा भी है पर पिछले 47 सालों में अलग-अलग नामों से और अलग-अलग नेतृत्व में देश के कोई 15 राज्यों के 172 जिलों में कामोवेश फैल गया है। अब तक ये गाँवों के भूपतियों को और सरकार यानी सरकारी अधिकारियों और पुलिस को लक्ष्य बनाकर हथियार बन्द हमले लुके-छिपे करते रहे हैं और जंगलों में इन्होंने अपने अव्े बना रखे हैं। इनके पास एके-47 राकेट जैसे आधुनिक हथियार हैं लेंड-माइनिंग बिछाकर सड़क, रेलपटरी, पुल आदि उड़ाने की प्रौद्योगिकी भी है।
सेज के मुद्दे को लेकर पिछले महीने जो नाकेबन्दी की गयी, उससे माओवादियों की सोच में कुछ फर्क आया है। नाकेबन्दी शुरू होने के दो दिन पहले इनकी तरफ से उड़ीसा में एक वक्तव्य जारी हुआ जिसमें कहा गया कि यह नाकेबन्दी विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के खड़ा करने तथा केन्द्र राज्य सरकारों की नीतियों का विरोध करने के लिए की जा रही है, ये सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में खेल रही हैं।
स्थानीय भूपतियों और सरकारों को लक्ष्य बनाने से आगे अब माओवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में बन रही सेज जैसी नीतियों के खिलाफ खड़े हो रहे हैं, ऐसा जून की घटनाओं से प्रकट होता है। आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में कुछ साल पहले माओवादियों ने कोकाकोला के प्लांट पर हमला किया था, पर वह बात आयी-गयी हो गयी। नीतिगत तरीके से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना लक्ष्य बनाना निश्चित ही बड़ा कदम है।
माओवादी हिंसा में विश्वास रखते हैं, उनके हिंसक तरीकों से कोई असहमत हो सकता है, हम भी असहमत है। पर क्या जो मुद्दे वे उठा रहे हैं, वे मात्र कानून-व्यवस्था के दायरे में आते हैं जैसा कि सरकारे-केन्द्र और राज्य की मानती है। जून-जुलाई के घटनाओं पर प्रधानमंत्री ने कहा है कि यह आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।'' इसको कानून-व्यवस्था का मुद्दा मानकर बार-बार केन्द्रीय गृहमंत्री प्रभावित राज्यों के गृहमंत्रियों की, गृहसचिवों की बैठक बुलाते हैं, उच्चस्तरीय समन्वय समिति गठित करते हैं, खुफिया सूचनाओं के आदान-प्रदान की योजना बनाते हैं, केन्द्रीय बल भेजते हैं। केन्द्र और राज्यों की सरकारें मानती हैं कि इन हथियार बन्द 'उपद्रवियों' को हथियारों से ही काबू किया जा सकता है। इसीलिए छत्ताीसगढ़ में सरकार ने प्रमुख राजनैतिक दलों के समर्थन से आदिवासियों का एक संगठन खड़ा किया है सल्वा जुडुम। माआवादियों से लड़ने के लिए सल्वा जुडुम के सदस्यों को हथियार और प्रशिक्षण दिया गया है। नतीजा यह हुआ कि जिन आदिवासियों की समस्याओं के लिए माओवादी लड़ रहे थे, अब वे उन आदिवासियों से ही लड़ रहे हैं और उन्हें मार रहे हैं।
हम मानते हैं कि जिन मुद्दों के लिए माओवादी लड़ रहे हैं, वे मुद्दे सही है पर माओवादियों का हिंसा का रास्ता सही नहीं है। सरकार भी हिंसा का ही रास्ता अपना रही है, वह भी सही नहीं है। माओवादी तो हिंसा कर रहे हैं, पर सरकार उससे भी बड़ी हिंसा कर रही है। आये दिन हम अखबार में देखते हैं, टीवी चैनलों पर देखते हैं कि लोग अपनी परेशानियों के लिए अपनी समस्याओं के लिए सड़क पर निकले, प्रदर्शन धरना देते है अक्सर वे पुलिस से पिटकर लौटते हैं। अध्यापकों, डाक्टरों को पिटते देखा गया है। सेज का विरोध करने गाँव के किसान, गरीब लोग खड़े हों तो सरकार उन्हें पीटती है और कहती है कि जमीन बड़ी-बड़ी कंपनियों को देकर ही रहेंगे। बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा में लगी सरकार आमजनता से कट गयी हैं, लोगों का सरकार से विश्वास उठ गया है जैसा कि सुरक्षा से जुड़े सरकारी अधिकारी भी मानते लगे हैं।
सरकार की जन विरोधी और कारपोरेट-समर्थक नीतियों से लोग माओवादी संगठनों की तरफ बढ़ते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि बिना धमाके के न तो सरकार जगती है और न मीडिया ध्यान देता हैं कानून-व्यवस्था का मामला मानकर सरकार ने ऑंखे बंद कर ली है, वह नहीं देख पाती कि नेपाल के पशुपति से लेकर आन्ध्रप्रदेश के तिरूपति तक माओवादियों ने 'लाल गलियारा' बना लिया है जिसमें कई जगह सरकार का तंत्र घुस भी नहीं पाता।

नदियां नहीं, जोहड़ जोड़ो -राजेन्द्र सिंह

विश्बबैंक, आईएमएफ, डब्लूटीओ तीनों दुनिया में एक नया उपनिवेशवाद कायम कर रहे हैं। इनके नये औजार बाजारीकरण, निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने विकासशील समाजों में भयानक आर्थिक संकट पैदा करने के साथ ही पर्यावरण का भी भयानक विनाश किया है। जैव विविधता और प्रकृति की अनमोल देनों का एक-एक करके निजीकरण किया जा रहा है। प्रकृति के अमूल्य उपहारों का मोल-भाव किया जा रहा है। इस साजिश के तहत अब नदियों पर कब्जे की रणनीति भी बनाई जा रही है।
इसी मंशा से विश्वबैंक के कर्जे से 7 लाख करोड़ रुपये की भारी-भरकम नदी-जोड़ो परियोजना चलाने की बात की जा रही है, जो बहुराष्ट्रीय साजिश का ही एक नया पैंतरा है। 1960 में सिंचाई मंत्री के एल राव ने यह सुझाव दिया था कि जिन क्षेत्रों में ज्यादा बाढ़ आती है उन्हें सूखी नदियों से जोड़ दिया जाए, जहां सूखा पड़ता है वहां जलवाली नदियों का रुख कर दिया जाय तो देश में बाढ़-सुखाड़ की समस्या से निपटा जा सकता है। पर योजना आयोग ने इस सुझाव को नकार दिया था। क्योंकि एक नदी से दूसरी नदी में पानी पहुंचाने में बहुत सारे श्रम, तकनीक और पैसे की जरूरत थी और यह आसान काम भी नहीं था। लेकिन अब से तीन साल पहले स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भाषण देते हुए राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने नदी-जोड़ो परियोजना के महत्व को रेखाकिंत किया। उनके भाषण के आधार पर दाखिल याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दे दिया कि नदी-जोड़ो परियोजना को सरकार लागू करे। लेकिन सरकार ने इस योजना में 6.5 लाख करोड़ के अनुमानित खर्च का जबाबी पत्र दाखिल किया। साथ ही कहा है कि इस काम में लगभग 45 साल लगेंगे। जिस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि 'हमारे देश में पैसे की कमी नहीं है। इसलिए सरकार इस परियोजना को जल्दी शुरु करे और रही बात राज्यों की सहमति की, तो उसकी भी कोई बड़ी समस्या नहीं है। उसके लिए परियोजना के नियम व स्वरूप ऐसे बनाए जाएं कि राज्यों की सहमति की जरूरत ही न पड़े।' उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के बाद बिना कुछ सोचे समझे नदी-जोड़ो परियोजना पर कार्य किया जा रहा है। कोई पूछने वाला नहीं है, मात्र राष्ट्रपति के भाषण पर आधारित उच्चतम न्यायालय के इस तर्कहीन निर्णय में न जनता की सहभागिता है और न ही राज्यों की।
6.5 लाख करोड रुपये की नदी-जोड़ो परियोजना का कुल खर्च हमारे वार्षिक राजस्व का ढ़ाई गुना है। 2001-02 में किए गए सरकारी आर्थिक सर्वे के अनुसार इस परियोजना की कुल लागत भारत के सकल घरेलू उत्पाद के बचत से ज्यादा है और भारत के कुल विदेशी कर्ज से भी 54,000 करोड़ ज्यादा है। इतनी बड़ी रकम कहां से आएगी? शायद आखिरी विकल्प कर्ज ही होगा। अगर नदी-जोड़ो परियोजना के लिए कर्ज लिया जाता है तो हर भारतवासी 5,000 रुपयें का नया कर्जदार हो जाएगा जो औसतन वार्षिक आय का 20 फीसदी होगा। कर्ज का वार्षिक ब्याज 20-30 हजार करोड़ रुपये बैठेगा। तो ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर कौन यह सब कर्जे चुकाएगा और कैसे? इतने बड़े कर्जे के लिए गारंटी में क्या दांव पर लगाया जाएगा?
गुजरात के कच्छ-सौराष्ट्र में सरदार सरोवर और नर्मदा को ही पानी का माध्यम बनाने की बात तंय की गयी थी और अब तक इस योजना पर 22,000 करोड़ रु. खर्च हो चुके हैं, लेकिन फिर भी सौराष्ट्र-कच्छ को आज तक पानी नहीं मिला है। इस योजना पर हर वर्ष करीब 1400 करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं, लेकिन परिणाम अच्छे नहीं हैं। इन सबसे सबक लेने की जरूरत है। यही समय है जब सही दिशा में सोचना, अपनी प्राथमिकताओं और कर्तव्यों को समझना है। देश को दुर्दशा से बचाने के लिए ही नदी जोड़ो का विकल्प तलाशा गया है.......जोहड़ जोड़ो। हमारा दावा है कि भूजल संरचनाओं के भरने से धरती के पेट में बहने वाली नदियां सदानीरा बनकर सहज रूप से जुड़ जाएंगी। इससे न केवल बाढ़ और सूखे की समस्या का निदान होगा, साथ ही सबको सहज और मुक्त रूप से पानी मिलेगा। जोहड़ जुड़ना, समाज के साथ भी जुड़ना है। जोहड़ जोडने का सीधा सा अर्थ है, धरती का पेट पानी से भरना।
जल का अर्पण-समर्पण ही भूजल दोहन और पुनर्भरण है। दोहन और पुनर्भरण का संबंध आज टूट चुका है। इसी कारण बाढ़-सुखाड़ की समस्या गहराती जा रही है। नदी जोड़ो से इसे रोक पाना संभव नहीं है, जोहड जोड़ो इसे संभव बनाता है। जोहड़ों को बचाने, जर्जर जोहड़ों के जीर्णोध्दार और नये जोहड़ों के निर्माण का कार्य प्रधानमंत्री राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत कराया जा सकता है। 25,000 करोड़ रुपये हमें रोजगार पर खर्च करने हैं। इस राशि को जोहड़ बनाने, जल संरचनाओं को पानीदार बनाने, जल निकासी के रास्ते को ठीक करने के काम में लगाने से जल-जन के कार्य सहज ही सध जायेंगे। हमारी सरकार काम तो मशीनों से करवा रही है और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता दे रही है। वह यह भूल रही है कि पैसा बांटने से रोजगार और जल नहीं मिलने वाला है। जल संरचनाओं की जगह खोजने से लेकर, जोहड़ बनाने, श्रमदान जुटाने तथा लेखा-जोखा रखने का काम युवाओं से कराया जा सकता है। राजस्थान के बहुत से गांव जोहड़ की साझी मिल्कियत का समान उपयोग कर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जोहड़ भूमिहीन गरीबों का सबसे बडा सहारा है। जब से गांव के जोहड़ों पर सरकार और दबंगो ने कब्जे कर लिए हैं तब से ही गरीबों की गांव से उजड़ने की प्रक्रिया तेज हुई है। जोहड़ के जुड़ने से शहर पर दबाव कम होगा। शहर की कच्ची बस्तियों में रहने वाले वापिस अपने गांव में लौटने लगेंगे।
अभी भी वक्त है सही निर्णय लेने का, आखिर हम क्या चाहते है? विश्वबैक से कर्जा लेकर भारी-भरकम नदी जोड़ो परियोजना, जहां हरेक भारतीय पर 112 डालर का कर्ज होगा, भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश का शिकार होकर गुलाम-जर्जर बना रहेगा, जहां बेरोजगार युवा, आतंक और अपराघ के सिवाय कुछ नहीं होगा, बस होगा तो भूख, गरीबी और दहशत। दूसरी ओर है, जोहड़ जोडो योजना, जिसमें लगभग 7 लाख करोड़ रुपये नहीं, मात्र 25000 करोड़ रुपये की लागत है। विदेशी कर्ज नहीं, कोई विश्व बैंक या विदेशी कंपनी नहीं बल्कि अपना ही धन, अपने ही लोग होंगे, बनाने वाले भी, इस्तेमाल करने वाले भी। हमारे पानी पर किसी की मिल्कियत नहीं होगी बल्कि प्रकृ्रति की अमूल्य धरोहर पानी पर सबका साझा अधिकार होगा। रोजगार बढेग़ा, शहर को पलायन नहीं होगा। गांव की संस्कृति, भारतीय संस्कृति कायम रहेगी। कर्ज के बोझ से दबा भारत नहीं, बल्कि समृद्व और खुशहाल भारत होगा। बस अब ये सोचना है कि हमें जाना किधर है ''बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गूलामी की ओर या भारतीय संस्कृति और सम्प्रभुता की प्रतिष्ठा जोहड़ की ओर''।

आखिर कुछ समझ तो आयी -शिराज केसर

कुछ दिनों पहले एक बड़े अखबार में एक रोचक खबर छपी कि ''अमरीका के सैन फ्र्र्रांसिस्को नगर के निवासियों के एक समूह ने आपस में एक संधि की है कि वे हर सामान के लिए बाजार नहीं जाएंगे, साथ ही आपस में मिल-जुलकर सामान इस्तेमाल करेंगे, क्योंकि ज्यादा सामान के इस्तेमाल का मतलब ज्यादा कचरा। इस संधि का उद्देश्य आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति की कीमत को उजागर करना है। गङ्ढों को भरने वाले कचरे को कम करने की कोशिश में सैन फ्र्र्रांसिस्को के कुछ मुट्ठी भर लोगों ने दिसंबर 2005 में पूरे एक वर्ष तक खरीददारी न करने का निर्णय लिया। 12 महीने बाद इस समूह ने, जिसका नाम ''द काम्पैक्ट'' पड़ गया है, स्वआरोपित चुनौतियों को पूरा कर दिखाया और हजारों अन्य लोंगो को उसका अनुगमन करने के लिए प्रेरित किया। लगभग आठ हजार सदस्य रूमानिया से लेकर न्यूजीलैंड तक उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने के लिए इस समूह में शामिल हो गये हैं और धीरे-धीरे यह विचार एक छोटा वैश्विक आंदोलन बनता जा रहा है। ''
यह खबर अमरीका जैसे उस देश की है जिसने उपभोक्तावादी विकास का एक आदर्श मॉडल बना कर जबरदस्ती पूरी दुनिया को अपनाने के लिए मजबूर किया है और इसके लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सारे हथकंडे अपनाये हैं। इस मॉडल के केन्द्र में बैठा है बाजार, वह भी मुक्त बाजार जो सरकारों और समाज के नियंत्रण से बाहर रहने की बात करता है। इस बाजार को खडा करने के लिए भीमकाय मल्टीनेशनल कंपनियां बनी, जो भारी उत्पादन (मास प्रोडक्शन ) करती हैं और आक्रामक विज्ञापन तंत्र तथा जरूरत पड़ने पर तरह-तरह के आर्थिक-राजनैतिक दबाव डाल कर बाजारों को भरती हैं। इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय पैसे-धन्धे की संस्थाओं-विश्वबैंक, मुद्राकोष, डब्लूटीओ के माध्यम से सरकारों पर कर्ज तथा कानूनी दबाव डलवा कर बाजार खुलवाती हैं। इस मॉडल में मांग-पूर्ति का सिध्दांत उलट गया है। अब चलता है पूर्ति-मांग का सिध्दांत। पहले माल बना डालो, फिर पूरी दुनिया में उसकी मांग पैदा करो। लोगों की मांग बढ़ेगी तो और ज्यादा उत्पादन होगा तो फिर ज्यादा विकास भी होगा, इस सिध्दांत को इस मॉडल ने खूब प्रचारित किया है।
आज पूरा प्रचार तंत्र मांग बढाने में लगा हुआ है। इससे लोगों के मन में लालच भोगवृत्ति, संग्रहवृत्ति, फिजूलखर्ची बढ़ गयी है। जो कुछ नया बाजार में आता है, उसके प्रति मन में ललक पैदा कर दी जाती है। वह सब बटोरने के लिए आदमी जैसे भी हो, पैसा बटोरता है। सही-गलत रास्ते का भेद काफी कमजोर हो गया है। विश्वव्यापी भ्रष्टाचार के पीछे यही मनोवृत्ति है जो बाजार ने पैदा की हैं । फिर बैंकें भी पीछे नहीं हैं। हर जरूरी और ज्यादातर गैरजरूरी काम, सब के लिए वे कर्ज देने को तैयार बैठी रहती हैं। पहले आदमी कर्ज लेने में सकुचाता था, आज शान समझता है। भौतिक सुख की अजीब धारणा मन में बैठायी जा रही है जिससे आदमी का विवेक कमजोर पड़ रहा है।
इस बाजार केन्द्रित विकास ने जिस मात्रा में जरूरतें बढ़ायी हैं। उसी मात्रा में कचरा पैदा किया है, प्राकृतिक संसाधनो का बेतहाशा दोहन किया है और गैर टिकाऊ अर्थव्यवस्था को जन्म दिया है। आज हर देश में ही, पर अमरीका में सबसे ज्यादा कचरे के पहाड़ बनते जा रहे हैं। इस कचरे से जमीन के गङ्ढे-खाई पाटे जा रहे हैं। न जाने कितने सुन्दर, उपयोगी तालाब इस कचरे से अंट गये और उनके ऊपर ऊंची इमारतें खड़ी हो गयी हैं। अनेकों तरह की पर्यावरणीय समस्यायें उठ खड़ी हुई हैं।
अब पानी नाक के ऊपर चढ़ने लगा है। लोगों का, खासतौर से तथाकथित अति विकसित देशों के लोगों का इस बाजारवादी व्यवस्था से धीरे-धीरे मोह भंग होता जा रहा है। वे समझने लगे हैं कि यह बाजार टिकाऊ नहीं है। यह शोषण, अन्याय बर्बरता और क्रूरता के बिना चलता नहीं है। इसके खिलाफ लोगों के मन में जहां-तहां प्रतिक्रिया हो रही है। सान फ्रांसिस्को का प्रयोग उसका एक छोटा नमूना है। वहां के लोग तथा उनकी प्रेरणा से अन्य देशों के कुछ जनसमूह बिना बाजार के जीवन चला रहे हैं। आपस में ही जरूरत के सामानों की अदला-बदली कर लेते हैं। पुराना सामान खरीद कर अपनी जरूरतें पूरी कर लेते हैं। सादा जीवन बिताने का अनूठा सुख भोग रहे हैं ।
सान फ्रांसिस्को का प्रयोग देखने में भले ही नया लगता हो, आज के माहौल में। परन्तु यह नया नहीं है, खासतौर से भारत में। भारत में तो हमेशा से ही ऐसी जीवनशैली अपनाने पर जोर दिया जाता रहा है कि अपनी जरूरतों कों कम करो, संयम अपनाओ। प्रकृति में उपलब्ध संसाधन सीमित हैं अत: उनका कम से कम उपयोग करो, जिससे आगे की पीढ़ियों को उनका लाभ मिलता रहे। गांधीजी ने कहा था, 'इस प्रकृति के पास सभी की जरूरतें पूरी करने की क्षमता है, पर एक भी व्यक्ति का लालच पूरा करने की नहीं'। इसीलिए उन्होंने स्वैच्छिक गरीबी यानी वालंटरी पावर्टी अपनाने की सलाह दी थी। भारतीय समाज में परस्परावलम्बन की लम्बी परम्परा रही है, आपस में सामानों की अदला-बदली कर लेते थे। पुरानी चीजों को फेंकते नहीं थे। पुरानी चीजों से भी कुछ इस्तेमाल करने की चीज बना लेते थे। रिसाइकलिंग का खूब प्रचलन था। आधुनिकता का नगाड़ा पीटने वालों ने इस टिकाऊ जीवन पध्दति को पिछड़ापन कह कर उसका मजाक उडाया है। पर ठोकर खाकर इनमें समझ आयेगी और आ रही है।

महंगाई रोकने का घटिया तरीका है: सस्ता आयात -डा. बनवारी लाल शर्मा

इस समय देश में इस बात की हवा बह रही है कि देश का आर्थिक विकास 8-9 फीसदी यानी तेज गति से हो रहा है। केन्द्र की संप्रग सरकार इसे अपनी सफलता के रूप में प्रचारित कर रही है। कई अर्थशास्त्री भी आर्थिक सफलता की उपलर्ब्धियां गिना रहे हैं। आर्थिक वृध्दि दर 9 फीसदी हो गयी है और उम्मीद है कि यह दो अंको को पार कर जाएगी। स्टाक बाजार में भारी उछाल है, सेंसेक्स 14 हजार के रिकार्ड अंक को पार कर गया है। पूंजी लगाने को विदेशी संस्थागत निवेशक (एफ.आई.आई.) हमारे स्टॉक बाजार में दौडे चले आ रहे हैं। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार इतना उफन गया है कि वह संभाले नहीं संभलता। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) भी बढ़ता जा रहा है। विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत के बाजार में घुस रही हैं। खेती और खुदरा बाजार इनके नये गंतव्य क्षेत्र हैं।
अर्थजगत के इस खुशी-आनन्द के माहौल में कहीं कोई पैना कांटा है, जो चुभ रहा है। पिछले दिनों देश के उद्योगपतियों के एक सम्मेलन में वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने अपनी शानदार उपलब्धियां गिना डालीं, पर उन्होंने उदास होकर कहा कि ''इस सबके बावजूद 'मुद्रास्फीति' पर काबू नहीं पाया जा रहा है।'' संप्रग सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल में जरूरी चीजों के दाम बेहद बढ़ गये हैं। महंगाई आसमान छू रही है और उपभोक्ताओं, खासतौर से गरीब और निम्न मध्यम वर्ग की इस महंगाई ने कमर तोड़ दी है। मुद्रास्फीति 6.12 फीसदी पहुंच गयी है। कुछ जरूरी चीजों के दाम पिछले तीन सालों में कितने बढे हैं, आइए इसकी एक झलक लेते हैं, गेहूं, चावल परमल, अरहर की दाल और डीजल के दाम तीन साल पहले क्रमश: रुपये प्र.कुं. 950, 940, 2300 और प्र.ली. 22.74 थे, जो अब क्रमश: रुपये प्र.कुं. 1700, 1100, 3200 और प्र.ली. 31.90 हो गये हैं।
महंगाई रोकने के अनेकों सरकारी उपाय नाकाम ही रहे हैं। केन्द्र सरकार अच्छी तरह से जानती है कि महंगाई का बडा व्यापक असर चुनावों पर पड़ता है। प्याज के दाम बढ़ जाने से भाजपा को कई प्रदेशों के चुनावों में मुंह की खानी पड़ी थी। अगले महीनों मे कई प्रदेशों में चुनाव होने वाले हैं। यही सोचकर केन्द्र सरकार ने हड़बड़ी में कई कदम उठाये हैं। सरकार ने जरूरी चीजों, खासतौर से अन्न, दाल और खाद्य तेलों का सस्ता आयात बढा दिया है। 55 लाख टन गेहूँ आयात किया जा रहा है। भारी मात्रा में खाद्य तेल, खास तौर से बिना रिफाइन किया पाम ऑयल और पामोलीन आयात किया जा रहा है।
आयात को बढ़ाने के लिए सरकार ने आयात शुल्क घटा दिया है। खाद्य तेलों पर यह शुल्क 12.5 फीसदी बिन्दु (परसेंटेज प्वाइंट्स) कर कर दिया गया है। गेहूँ और दालों पर से सरकार ने आयात शुल्क हटा दिया है। आयात शुल्क में कटौती की घोषणा करते हुए एक सरकारी वक्तव्य में कहा गया है कि ''जरूरी सामानों की कीमतों को काबू में रखने की रणनीति के तहत सरकार ने गेंहूँ और दालों पर से आयात शुल्क समाप्त कर दिया है, खाद्य तेलों के लिए यह दूसरी कटौती है। इस प्रकार रिफांइड ब्लीच्ड और डिओडेराइज्ड पाम ऑयल तथा अन्य रिफांइड पाम आयल पर आयात शुल्क 80 फीसदी से घटाकर 67.5 फीसदी कर दिया गया हैं। गैर रिफांइड पाम आयल शुल्क 70 फीसदी से घटाकर 60 फीसदी कर दिया गया है। इसी प्रकार गैर रिफाइंड सूर्यमुखी के तेल पर कटौती 75 फीसदी से 65 फीसदी तक कर दी गयी है। रिफाइंड सूर्यमुखी तेल पर आयात शुल्क 85 फीसदी से घटाकर 75 फीसदी कर दिया गया है।
सरकार को भरोसा है कि आयातित तेल के दबाव से घरेलू दाम कुछ कम हो जायेंगे। सरकार ने सीमाशुल्क भी घटाया है। पाम तेल का सीमा शुल्क 2006 में जो था, वही बरकरार रहेगा, ऐसी सरकारी आदेश में घोषणा की गयी है। आवश्यक वस्तुओं को 'वायदा कारोबार' (फ्यूचर टें्रडिंग) में लेने के सरकार के फैसले से हालात बदतर हो गये हैं। विपक्ष और वामदलों के दबाव में सरकार ने उड़द और अरहर की दाल को वायदा कारोबार से बाहर निकाल दिया है।
इन सारे सरकारी उपायों से मुद्रास्फीति की दर पर कुछ असर तो पड़ा है। थोक भाव कुछ थमें हैं। लेकिन खुदरा बाजार में कोई खास असर नहीं पड़ा है। आम आदमी का सरोकार तो खुदरा बाजार से ही पड़ता है। जिन्सों के खुदरा भाव थोक भाव से 30 से 60 फीसदी ज्यादा हैं। इसलिए सरकारी नीतियों से आम जन को कोई राहत मिलती दिखाई नहीं दे रही है। खाद्यान्न के अलावा औद्योगिक उत्पादों, जैसे सीमेंट, धातु उत्पादों, रसायनों आदि की महंगाई रोकने के लिए भी सरकार ने आयात शुल्क दरें घटायी हैं। उदाहरण के लिए पोर्टलेंड सीमेंट पर आयात शुल्क 12.5 फीसदी की जगह शून्य कर दिया गया है। रसायनों, गैसों और क्षारीय धातुओं पर सीमा शुल्क दर घटाकर 5 फीसदी कर दी गई है।
सरकार महंगाई का असली कारण जानने के बजाय सस्ते आयात से महंगाई पर काबू पाना चाहती है। पर सरकार की आयात खोलने की नीतियों से महंगाई तो काबू में आती दिखाई नहीं दे रही, बल्कि अर्थव्यवस्था को सस्ते आयात से भारी नुकसान ही होगा। बाहरी आयात से घरेलू दामों में गिरावट पैदा होगी, जिससे किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की आशा भी बिल्कुल क्षीण हो जाएगी, इसका नतीजा उत्पादन पर पड़ेगा। कम क्षेत्रफल में किसान खाद्यान्न उगाएगा।
दरअसल भारत सरकार की पूरी खाद्य-नीति ही गलत दिशा में चल रही है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियां लागू करने से देश की खाद्य सुरक्षा संकट में पड़ गयी है। जब डब्लूटीओ का कृषि समझौता हुआ था, तब अनेक विचारकों, कृषि विशेषज्ञों और समाजकर्मियों ने सरकार को चेताया था कि इससे जो खाद्य सुरक्षा देश ने प्राप्त की है, वह खतरे में पड़ जायेगी। सरकार ने तब नहीं सुनी, बल्कि कृषि क्षेत्र को भी विदेशी प्रत्यक्ष पूंजी के लिए खोल कर संकट ंऔर बढ़ा दिया है। कृषि क्षेत्र में 'भारत-अमरीकी ज्ञान पहल' बनाकर मोनसेंटो जैसी विदशी कंपनियों को छूट दे दी गयी है, भारत की कृषि व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की। सेज और कांटे्रक्ट फार्मिंग जैसे कार्यक्रम खाद्य सुरक्षा के लिए भारी खतरा ही उत्पन्न करेंगे।

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन स्वरूप लेने लगा है

देश भर में चल रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ राष्ट्रीय सभा का आयोजन 7-8 फरवरी 2007 को नई दिल्ली के लोधी रोड स्थित 'इण्डियन सोशल इंस्टीटयूट' में किया गया। इस सभा का आयोजन पूर्व वित्त सचिव (भारत सरकार) एस. पी. शुक्ला, सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण और नवधान्य की संस्थापिका डा. वंदना शिवा द्वारा किया गया। सभा का उद्देश्य जमीनी स्तर के आंदोलनों को राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाना है, जो सेज़ के लिए कब्जाई जा रही जमीनों के अभियान के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। सभा में उपस्थित अनेक नीति निर्माताओं, विशेषज्ञों और लड़ने वालों ने एकसाथ मिलकर जमीन और जमीन संबंधी अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक रणनीति पर विचार किया। इस अवसर पर सेज अधिनियम के सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक-राजनैतिक स्वरूप का विश्लेषण भी किया गया, जिससे यह बात साफ-साफ दिखाई देने लगी कि सेज कुछ नहीं है बल्कि लाखों किसानों से जमीनें छीनकर उन्हें कंगाल बना देने की एक बहुराष्ट्रीय साजिश है।
पहली बार ऐसा हुआ है कि देश के विभिन्न भागों के बहुराष्ट्रीय भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ने वाले जनांदोलन अपने संघर्ष को तेज करने के लिए एकजुट हो गए हैं। किसान जागरूक मंच (गुड़गांव-झज्जर), भारत किसान यूनिसन एकता (पंजाब), विदर्भ जनांदोलन (महाराष्ट्र), कर्नाटक राज्य रैयत संघ (कर्नाटक), विस्थापन विरोधी जनमंच (कलिंग नगर,उड़ीसा), राष्ट्रीय युवा संगठन (उडीसा), प. बंगाल खेत मजदूर समिति ( प.बंगाल), नंदीग्राम के किसान आंदोलन और अन्य संगठनों ने राष्ट्रीय सभा में मिलकर संघर्ष के लिए विचार किया। विभिन्न आंदोलनकारियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में चल रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्षों के बारे में भी बताया। उनके व्याख्यानों में विद्रोह के स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। कर्नाटक राज्य रैयत संघ की ओर से कर्नाटक में हो रहे संघर्ष के बारे में बोलते हुए बासवराजू ने कहा -''सारे गांव को ब्रोंकरों और बिचौलियों का गांव बनाया जा रहा है।''
अनुराधा तलवार जिनको सिंगूर में गिरफ्तार कर लिया गया था। 6 फरवरी को जेल से रिहा होने के बाद सीधे ही प.बंगाल से राष्ट्रीय सभा में पहुंचीं। उन्होंने बताया कि तेभागा आंदोलन में औरतो ने यहां तक कहा है कि ''हम जान दे देगें लेकिन चावल नहीं देंगें'', ''हम जान दे देंगे लेकिन जमीनें नहीं देंगे।''वालमार्ट की सप्लायर 'ट्रिडेंट ग्रुप ऑव इण्डट्रीज' के द्वारा बरनाला में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष कर रहे भारत किसान यूनियन एकता के सुखदेव सिंह ने बताया कि कैसे पुलिस ने गांव में आतंक फैला रखा है और जमीन की रक्षा करते हुए किस तरह तीन किसान भी शहीद हुए हैं। लेकिन किसान अब भी डटे हुए हैं। इस अभियान को उन्होंने ''मातृभूमि रक्षा'' का नाम दिया है। 31 जनवरी को पुलिस के साथ हुई आमने-सामने की भिड़ंत में 70 किसान घायल हो गए थे, इस संघर्ष की अगुवाई पन्द्रह वर्षीया एक लड़की द्वारा की गई थी। 9 फरवरी को बच्चे और औरतें मिलकर एक आंदोलन करेंगें जिसका नारा है ''''बच्चा-बच्चा झोक देंगे, जमीन ते कब्जा रोक देंगे।''
गुड़गांव और झज्जर में रिलायंस के खिलाफ लड़ने वाले 22 गांवों के जागृत किसान मंच की ओर से सद्बीर गुलिया ने बताया कि सेज बनाकर सरकार प्रोपर्टी डीलर बन गई है और जमीनें कब्जाने वाले बहुराष्ट्रीय माफिया राज्य के शासक बन बैठे हैं। उन्होंने आगे यह भी कहा कि किसान अपनी जमीनों के अधिकारों के लिए लड़ रहे है और लड़ते हुए जान भी देनी पडी, तो वे इसके लिए भी तैयार हैं। पूर्व नौ सेना अध्यक्ष एडमिरल रामदास, जो अब महाराष्ट्र के अलीबाग में किसानी करते हैं। वे भी 22 गांवों की समिति के सदस्य हैं और भारत के सेज (सिलेक्टिव एक्सक्लूसिव जमींदार) से अपनी जमीनें बचाने के लिए लड़ रहे हैं। उन्हांने बताया कि ''मैने 45 वर्षों तक देश की रक्षा के लिए काम किया है और अब सरकार हमारी जमीनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दे रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हथियाई जा रही जमीनों की सबसे बड़ी कीमत उड़ीसा के किसानों और आदिवासियों को चुकानी पड़ी है। 2001 में काशीपुर में 3 और 2006 में कलिंगनगर में 13 आदिवासी मारे गए। उड़ीसा के प्रफुल्ल सामंत्र ने बताया कि उडीसा में 45 स्टील प्लांटों के लिए 2,00,000 एकड़ जमीन पर कब्जा किया जा रहा है और यह स्टील भी भारत की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं बनाया जाएगा। इससे तो ऐसा लगता है कि भारत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पर्यावरणीय छूट देकर अपने प्राकृतिक संसाधनों को खत्म कर रहा है।
इस अवसर पर वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने बताया कि ''भारत ने जमींदारी प्रथा खत्म करके भूमि हदबंदी की और भूमि सुधार किए, पर अब वही भारत नए जमींदारों की जमात पैदा कर रहा है। सेज के अंतर्गत अमीर कंपनियों को दावत दी जा रही है। अन्य व्यापारियों पर सीलिंग के आदेश दिए जा रहे हैं। रिलायंस को 60,000 एकड़ जमीन दी गई हैं। मुकेश अंबानी रिलायंस में 50 फीसदी का हिस्सेदार होने के कारण किसानों के 30,000 एकड़ जमीन का मालिक बन बैठा है।
गुड़गांव-झज्जर संघर्ष के महावीर गुलिया ने घोषणा की कि सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह सोचना छोड़ देना चाहिए कि वे किसानों को थोड़े से पैसे का लालच देकर जमींन से उनके रिश्ते को तोड़ देंगे। भूमि सुधारों संबंधी मुद््दों के विशेषज्ञ और पूर्व 'रूरल डेवलपमेन्ट सेक्रेटरी' के. बी. सक्सेना ने बताया कि मजदूर, शिल्पकार आदि को किसानों में गिना हीं नहीं जाता और जो 40 फीसदी लोग गिने जाते है उनमें भी केवल 14 फीसदी को ही पुर्नस्थापित किया गया है। पहले से ही देश में करोड़ो लोगों को उजाड़ा जा चुका है, इसके बाद 10 करोड़ किसानों को और जमीन से उजाड़ दिया जाएगा तो स्थिति और भी भयावह हो जाएगी, जिससे ऐसा सामाजिक, सांस्कृतिक और राजन्तिक विनाश पैदा होगा जो भारतीय इतिहास में कभी नहीं हुआ। सरकार कई तर्कों का सहारा लेकर इस विस्थापन को उचित साबित कह रही है जैसे इसके लिए पश्चिमी समाजों के ऐतिहासिक विकास का उदाहरण देकर कहा जा रहा है कि भारत में बहुत ज्यादा किसान हो गए हैं। डा. वंदना शिवा और डा. उत्सा पटनायक ने बताया कि जब इंग्लैण्ड में किसानों को उजाडा गया था तो उन्होंने अमरीका में रेड इण्डियनों की, आस्ट्रेलिया में अबोरिजन और अफ्रीका में देसी समुदायों की जमीनों पर उपनिवेश बना लिए थे। अगर भारत के खेतों पर भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने उपनिवेश बना लिए तो भारत के उजड़े किसान कहां जाएगे? जनांदोलनों ने सेज के खिलाफ एक साथ लड़ने का संकल्प किया। पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह, आगरा के सांसद राजबब्बर और जनमोर्चा के अध्यक्ष ने भी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन का साथ देने की घोषणा की। महाराष्ट्र के भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन के प्रमुख एन. डी. पाटिल भी इस सेमिनार में शामिल हुए और कहा कि सेज अधिनियम को खत्म किया जाना चाहिए। भारत जनांदोलन के नेता व पूर्व कमिश्नर बी डी शर्मा भी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ रहे हैं, उन्होंने भी सभा को संबोधित किया और कहा कि यह लडाई जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने वाली कंपनियों और जनता के बीच है जो अपनी जमीन, पानी और जीविका की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। नवधान्य ने किसानों की भू सम्प्रभुता की रक्षा के लिए एक चार्टर और 'कंपनियों का जमीनों पर कब्जा' नामक रिपोर्ट भी सभा में प्रस्तुत की। आंदोलनों ने भारत में सेज के खिलाफ विरोध को राष्ट्रीयव्यापी करने का संकल्प किया।

सरकार और नक्सल के बीच पिसते आदिवासी -प्रभात कुमार

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के रानी बोदली गांव में स्थित पुलिस के आधार शिविर में 55 से भी अधिक जवानों की मौत माओवादियों के हमले से हुई, इसमें सलवा जुडुम के भी लोग थे। कहा जाता है कि मृतकों की संख्या 100 से भी अधिक है। घटना स्थल पर सबसे पहले पहुंचने वालों में से छत्तीसगढ़ के डी.जी.पी. एवं ''सलवा जुडुम अभियान'' के अगुआई कर रहे कांग्रेस के नेता महेन्द्र कर्मा थे।
गोण्डी भाषा में सलवा जुडुम का अर्थ है 'शांतिपूर्ण सामूहिक शिकार'। मध्य प्रदेश की सरकार ने माओवादियों का 'सफाया' करने के लिए इस योजना पर काम प्रारंभ किया है, जिसमें केन्द्र सरकार का सहयोग प्राप्त है। नक्सलियों का आरोप है कि 'सलवा जुडुम' के 'शांतिदूतों' ने अब तक 250 से ज्यादा आदिवासियों की हत्या इस अभियान के नाम पर की है। लगभग 100 से अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार किए गये हैं तथा पिछले डेढ़ वर्षों में 600 गाँवों के 3000 हजार से ज्यादा घरों को जलाया गया है। बड़ी कंपनियों को जमीनों पर कब्जा दिलाने के लिए, नक्सलवादियों से आदिवासियों की सुरक्षा के नाम पर 50,000 से अधिक आदिवासियों को जबरदस्ती विस्थापित कर सैनिक शिविरों में रखा गया है।
दरअसल यह समूचा इलाका समृध्द-वन, जल एवं खनिज सम्पदाओं से भरपूर है। यहाँ लौह अयस्क, चूना पत्थर, हीरा, बाक्साइट जैसे खनिज हैं। यहाँ सागौन, सालवृक्ष के अनगिनत दुर्लभ पेड़ों के साथ-साथ करोडों वर्षों से वन प्राणी मिलकर रहते हैं। यहाँ पर इन्द्रावती, शबरी, शंखनी, डंकनी, नयबेरेड, चिन्तावायू, पसलकोट, कोटरी आदि नदियाँ हैं। मगर इस प्राकृतिक समृध्दि पर पूँजीपतियों की गिध्ददृष्टि लगी हुई है।
नक्सली एवं सरकारी हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर में आदिवासियों के हित गौण हो रहे हैें। पर्यावरण की रक्षा, आदिवासियों का अस्तित्व एवं वनप्राणियों की सुरक्षा की बात किनारे की जा रही है। लोग डरे हुए हैं कि कहीं 15 मार्च की नक्सली हिंसा के जवाब में होने वाली संभावित सरकारी हिंसा में एक बार फिर निर्दोष आदिवासी मारे जायेगें। नंदीग्राम के नाम पर लोकसभा ठप्प तो होती है, लेकिन तब जबकि किसान मरे, परन्तु आदिवासियों की निरंतर हो रही मौतों पर न तो राष्ट्रपति व राज्यपालों ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग किया है और न ही लोकसभा या विधानसभा ठप्प की गयी।
उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में अब तक खनन परियोजनाओं में 5 लाख करोड़ का निवेश किया जा चुका है। केवल झारखंड में 60 हजार एकड़ भूमि का अधिग्रहण होना है। 20 फीसदी यानी लगभग 1 लाख आदिवासियों को उनके घरों से उजाड़ा जाएगा। नित नए कानून बनाकर इन्हें जल-जंगल-जमीन से वंचित कर शहर की ओर खदेड़ा जा रहा है। आदिवासियों की हालत 'न घर का, न घाट का' जैसी हो गयी है।
इसी तरह पूर्वोत्तर क्षेत्र में 168 बड़े बांध बनाने की योजना है। यहाँ बिजली बनाकर दक्षिण पूर्वी देश के बाजारों को बेची जाएगी। यह क्षेत्र भूकंप जोन में आता है। इसकी परवाह किसी को नहीं है। इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा तथा क्षेत्र के सांस्कृतिक, सामाजिक माहौल पर गहरा असर पड़ेगा। इस विकास के लिए उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश से कभी भी राय नहीं ली गयी। सेज के नाम पर भी कभी देश की जनता से राय नहीं ली गयी। बजाय इसके देश में नौकरशाहों, दलालों, वेश्याओं व लम्पटों (अर्पहत्ताओं) की फौज खड़ी की जा रही है।
दरअसल भूमंडलीकरण के दौर में सरकार जिस तरह से टाटा, अम्बानी एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अहिंसक लड़ाईयों का दमन कर रही है, उससे आमजन में हिंसक प्रतिरोध के प्रति विश्वास बढ़ा है। ऐसी ही परिस्थिति हिंसक संघर्ष की जननी होती है। हिंसक संघर्ष ही धीरे-धीरे आतंकवादी गतिविधियों में बदल जाते हैं। ऐसे में छोटे-समूहों में लोकतांत्रिक ढ़ंग से अपनी बातों को प्रभावी बनाने की संभावना और भी सीमित हो जाती है। यह सत्ता को लोगों के अधिकार छीनने में और आसान करता है। ऐसी स्थिति में रचना एवं संघर्ष की दोहरी प्रक्रिया के द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से परिवर्तन चाहने वाले लोगों की भी हत्या माओवादी एवं राज्य सत्ता मिलकर करने लगते हैं। अन्तरराष्ट्रीय पूंजींवादी शक्तियाँ संगठित हिंसा के माध्यम से सबकुछ तहस-नहस करने पर उतारू हो गयी हैं। यदि ऐसी ही स्थिति रही तो सामाजिक परिवर्तन का सपना अधूरा ही रह जाएगा। ऐसे में देश में बड़े अहिंसक आक्रामक जन आन्दोलन की आवश्यकता है और ऐसे ही आन्दोलन के गर्भ से वैकल्पिक राजनीति निकलेगी। (पीएनएन)

यह पूरी तरह जंग है और दोनों ही पक्ष अपने-अपने हथियार चुन रहे हैं: अरुंधति रॉय

(अरुंधति रॉय से शोमा चौधरी की बातचीत)

आज पूरे देश में जो हिंसा का माहौल बना हुआ है; आप इन चीजों को कैसे देखती हैं? इनके क्या कारण हैं? इसे किस संदर्भ में देखा जाना चाहिए?
यह सब देख पाने के लिए विद्वान होना कोई जरूरी नहीं है। हमारे बीच एक ऐसा मध्यमवर्ग बढ़ रहा है, जिसमें स्वछंद-उपभोक्तावाद और बेतहाशा लालच पनप रही है। इसके लिए औद्योगिक पश्चिमी देशों ने तो संसाधनों की लूट व 'श्रमिक-दासों' के लिए उपनिवेश कायम कर लिए थे। लेकिन हमने तो अपने भीतर ही उपनिवेश कायम कर लिए हैं और खुद को ही खाना शुरू कर दिया है। बाजारीकरण के लिए बढ़ाई गई यह बेतहाशा लालच, ( इसे ही राष्ट्रवाद के रूप में बेचा जा रहा है) लालच की प्यास गरीबों से उनकी जल-जंगल और जमीन को लूट करके ही बुझा सकते हैं।
आजाद भारत में जो सबसे सफल अलगाववाद आन्दोलन हम देख रहे हैं, वह यह है कि उच्च और मध्यम वर्ग ने अपने आपको पूरे देश से काट लिया है, यह संघर्ष लम्बवत है, क्षैतिज नहीें। वे वैश्विक प्रभु वर्ग में शामिल होकर एक अलग स्वर्ग बना लेना चाहते हैं, क्योंकि वे इसे अपना हक समझते हैं। उसने कोयला, खनिज, बाक्साइट, पानी और बिजली आदि सभी संसाधनों पर पहले ही कब्जा जमा लिया है। अब उन्हें और ज्यादा कारें, और ज्यादा बम, और ज्यादा खदानें- सुपरपावर्स के नागरिकों के लिए सुपरट्वायज (बम, मिसाइल आदि) बनाने के लिए गरीबों के जमीन की जरूरत है। यह पूरी तरह एक जंग ही है, जहाँ अमीर-गरीब दोनों तरफ के लोग अपने-अपने हथियार चुन रहे हैं। उच्च वर्ग की बेतहाशा लालच को पूरा करने के लिए ही सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियां ढ़ांचागत समायोजन में जुटी हैं, इस व्यवस्था को विश्व बैंक, एफडीआई (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश), एडीबी (एशियन विकास बैंक), न्यायालय के आदेश, नीति-निर्माता, कार्पोरेट मीडिया और पुलिस आदि मिलकर सब के सब जनता की गर्दन दबा रहे हैं। इसके विपरीत, जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं; उन्होंने धरने, भूख हड़ताल और सत्याग्रह किये, न्यायालय गए और हर उस काम को किया, लेकिन राहत नहीं मिली, इसलिए अब वे हताश होकर बंदूक उठा रहे हैं। क्या ये हिंसा बढ़ेगी? अगर जनता की प्रगति और सम्पन्नता मापने का बैरोमीटर सेंसेक्स और विकास दर ही है, तो निश्चित रूप से हिंसा बढ़ेगी। मैं इस सबको किस रूप में देखती हूं? इन चीजों को देखना ज्यादा मुश्किल नहीं है, यह तो साफ-साफ दिखाई दे रहा है। बीमारी तो सिर चढ़ गयी है।

आपने एक बार कहा था कि चाहे मैं हिंसा का सहारा नहीं लूगीं लेकिन देश के हालात को देखकर उसकी निंदा करना मैं अनैतिक मानती हूं। क्या इसे आप तफसील से बता सकती हैं?
गुरिल्ला बनकर तो मैं बोझ बन जाउंगी! मुझे शक है कि मैंने 'अनैतिक' शब्द का प्रयोग किया होगा, 'नैतिकता' शब्द गिरगिट जैसी हो गयी है, जो माहौल देखकर रंग बदल लेती है। मैं ऐसा महसूस करती हूं कि अहिंसक आंदोलन दशकों से इस देश की हर लोकतांत्रिक संस्था का दरवाजा खटका रहे हैं, लेकिन वे उपेक्षित और अपमानित ही हुए हैं। भोपाल गैस पीड़ितों या नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) को ही देख लीजिए। नर्मदा बचाओ आंदोलन के पास किसी भी दूसरे जनांदोलनों के अपेक्षा एक रसूख नेतृत्व, मीडिया कवरेज और संसाधन थे। लेकिन हुआ क्या? आज लोग रणनीति पर पुनर्विचार के लिए बाध्य हो गये हैं। आज जब सोनिया गांधी दावोस के वर्ल्ड इकॉनामिक फ़ोरम का गुणगान कर रहीं हैं, तो हमारे लिए यह सोचने और चौंकने का समय है। उदाहरण के तौर पर क्या आज एक लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य में सविनय अवज्ञा करना संभव रह गया है? क्या यह ऐसे युग में संभव है, जबकि मीडिया बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित है और गलत सूचनाएँ जनता तक पहुँचा रहा है? क्या भूख हड़ताल और 'सेलिब्रेटी पोलिटिक्स' के बीच नाभिकीय रिस्ता हो गया है? अगर नांगला मांछी या भाटी माइन्स के लोग भूख हड़ताल करने लगें तो क्या कोई उनकी परवाह करेगा? इरोम शर्मिला पिछले छ: सालों से भूख हड़ताल पर है। यह हममें से कईयों के लिए सबक भी है। मैंने हमेशा यह महसूस किया है कि यह एक माखौल की बात है कि ऐसे देश में जहाँ अधिकांश लोग भूखे रहते हैं; वहाँ भूख हड़ताल को राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। अब जमाना बदल गया है, हमारे शत्रु का स्वरूप बदल गया है। हम एनजीओ के युग में प्रवेश कर चुके हैं या कहें कि हम 'पालतू शेर' के एक युग में प्रवेश कर चुके हैं, जहां जनांदोलन का रास्ता भी फिसलन भरा हो सकता है। पैसे देकर प्रदर्शन और प्रायोजित धरने कराए जाते हैं, सोशल फोरम बनाई जाती हैं, जो लड़ाकू प्रवृत्ति रखने की नाटकीय भूमिका अदा करती हैं, लेकिन वह जो उपदेश देती हैं, खुद उसका कभी पालन नहीं करतीं। हमारे पास भिन्न-भिन्न तरह के 'आभासी' विरोध होते हैं। सेज बनाने वाले ही सेज के खिलाफ़ बैठकों को प्रायोजित कर रहे हैं। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही पर्यावरण सुरक्षा और सामुदायिक कार्यों के लिए पुरस्कार और सहायता दे रही हैं। उड़ीसा के जंगलों में बाक्साइट का उत्खनन करने वाली कंपनी 'वेदांता' अब विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है। टाटा के दो चैरिटेबल ट्रस्ट हैं, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देश भर के जनांदोलनों और आंदोलनकारियों को पैसे दे रहे हैं, क्या यही कारण तो नहीं है कि सिंगूर की आलोचना नंदीग्राम से कम हो रही है और शायद इसीलिए न तो उन्हें निशाना, न ही बहिष्कार व घेराव किया गया है।
निश्चित रूप से टाटा और बिड़ला ने गाँधी को भी पैसा दिया था- शायद वही (गांधी) हमारे पहले एनजीओ थे। लेकिन आज के एनजीओ तो बहुत शोर करते हैं, बहुत सी रिपोटर्ें लिखते हैं, लेकिन सरकार को इनसे किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं है। पूरे राजनीतिक माहौल में भाड़े के लोग अपनी नौटंकी को ही असली राजनीति साबित करने में जुटे हैं। दिखावे का प्रतिरोध आज बोझ बन गया है।
एक समय था जब जनांदोलन न्याय के लिए न्यायालय की तरफ़ देखते थे, लेकिन अब तो न्यायालयों ने पक्षपातपूर्ण फैसलों की झड़ी लगा दी है, अनेकों ऐसे निर्णय दिए हैं, जो अन्यायपूर्ण हैं, जिनमें गरीबों की इतनी बेइज्जती की जा रही है और जो भाषा इस्तेमाल की गयी है, उससे तो हलक सूख जाता है। हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फ़ैसले में वसन्तकुंज मॉल के पुन:निर्माण की आज्ञा दी है, हालांकि इसके पास आवश्यक कानूनी मंजूरी भी नहीं है। इस फैसले में न्यायालय ने कहा कि किसी भी कारपोरेशन द्वारा गोरखधंधा करने का सवाल ही नहीं उठता है।
बहुराष्ट्रीय भूमंडलीकरण के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भूमि हड़पने, एनरॉन और मोन्सेंटो, हेलीबर्टन और बैक्टेल के जमाने में यह बोलना देश की सबसे शक्तिशाली संस्थाओं के विचारधारा को उजागर कर देती है। कॉर्पोरेट प्रेस के साथ-साथ न्यायपालिका भी नवउदारवाद का हथियार बन गयी है। ऐसे माहौल में जबकि लोग खुद को इस अनवरत लोकतांत्रिक प्रक्रिया से थका हुआ महसूस कर रहे हैं, उन्हें केवल जलील किया जाता है, ऐसे में उनको क्या करना चाहिए? ऐसा नहीं है कि उनके पास हिंसा या अहिंसा का ही रास्ता बचा है। ऐसे राजनैतिक दल भी हैं, जो सशस्त्र संघर्ष में विश्वास तो करते हैं, लेकिन यह उनकी पूरी स्ट्रैटेजी का केवल एक हिस्सा है; इन संघर्षों में राजनैतिक कार्यकर्ताओं को बेरहमी से मारा-पीटा गया है और झूठे आरोप भी लगाए भी गये हैं, गिरफ्तार भी किया गया है। जनता इस बात को अच्छी तरह समझती है कि हथियार उठाने का मतलब क्या है; हिन्दुस्तान के राजकीय हिंसा के हजारों रूपों को अपने ही झेलना। छापामार सशस्त्र सर्ंञ्ष अगर रणनीति बन जाए तो आपकी दुनिया सिमट जाती है और सिर्फ दो ही रंग- स्वेत या श्याम दिखाई पड़ते हैं। लेकिन सभी विकल्प खत्म हो जाने पर हारकर जनता हथियार उठाने का निर्णय लेती है तब क्या हमें उसकी निंदा करनी चाहिए? क्या कोई विश्वास करेगा कि अगर नंदीग्राम के लोग धरना देते या गाना गाते तो पश्चिम बंगाल सरकार अपना निर्णय वापस ले लेती?
हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां निष्क्रिय रहने का मतलब निरंकुशता का समर्थन करना है (जो निश्चित रूप से हममें से कुछ लोगों को भाता भी है) और सक्रिय होने का मतलब भयानक कीमत चुकाना है और जो लोग इस कीमत को चुकाने के लिए तैयार हैं, उनकी आलोचना करना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है।

आपने बहुत सारी यात्राएं की हैं-बहुत सारे संघर्षों को भी देखा है, क्या उनके बारे में कुछ बता सकती हैं? आप कौन से ऐसे स्थानों पर गई हैं? क्या इन स्थानों के कुछ संञ्र्षों के मुद्दों पर आप रोशनी डाल सकती हैं?
बहुत बड़ा प्रश्न है- क्या कहूँ? कश्मीर में सैनिक कब्जा, गुजरात में नव फ़ांसीवाद, छत्तीसगढ़ में गृह-युध्द, उड़ीसा में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा लूट, नर्मदा घाटी में सैकड़ों गांवों का डूबना, भुखमरी के कगार पर खड़े लोग, जंगलों का उजाड़ा जाना और भोपाल गैस त्रासदी के 24 वर्ष के आंदोलन से पीड़ितों को कुछ नहीं मिलने के बावजूद पश्चिम बंगाल सरकार नंदीग्राम में यूनियन कार्बाइड (जिसे अब 'डॉव केमिकल्स' ने खरीद लिया है।) को दोबारा निमंत्रण दे रही है। मैं अभी हाल में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र तो नहीं गई हूं, लेकिन हम जानते हैं कि वहां लगभग एक लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। आंध्र प्रदेश में हुईं झूठी गिरफ्तारियों और भयानक दमन के बारे में हम जानते ही हैं। इनमें से हर स्थान का अपना विशिष्ट इतिहास, अर्थव्यवस्था और पर्यावरण है। इनका विश्लेषण करना आसान नहीं है, फिर भी इन सबमें कुछ चीजें जैसे विशाल अंतरराष्ट्रीयता, सांस्कृतिक और आर्थिक दबाव के कारण एक जुड़ाव है। हिन्दुत्व प्रोजेक्ट की भी मैं बात करना चाहूंगी, जो हमारे नश में अपना जहर फैला रहा है और एक बार फ़िर फटने का इंतजार कर रहा है। मैं कहूंगी कि इस सबके बाद भी विडम्बना तो यह है कि हम अब भी एक देश, एक संस्कृति और एक समाज हैं, जहाँ आज भी छुआछूत की प्रथा का प्रचलन है। जहां हमारे अर्थशास्त्री वृध्दि दर को लेकर डींग हांकते हैं, जबकि देश में अभी भी पेट पालने के लिए लाखाें दलित प्रतिदिन दूसरे लोगों के मनों मैला अपने सिर पर ढोते हैं। दुनिया में कोई और ऐसा सुपरपावर है क्या?

हाल ही में बंगाल में हुई राज्य और पुलिस द्वारा हिंसा को कैसे देखा जा सकता है?
यह मामला किसी अन्य दूसरे राज्यों में हुई राज्य और पुलिस द्वारा हिंसा से अलग नहीं है- इसमें पाखंड और दोमुहें व्याख्यानों का मामला भी शामिल है, जिसमें मुख्यधारा के वामपंथी दल सहित अन्य सभी राजनैतिक पार्टियों की वाकपटुता शामिल है। क्या साम्यवादियों की गोलियां पूंजीवादियों से अलग हैं? अजीब- अजीब घटनाएं हो रही हैं। सउदी अरब में बर्फ़ पड़ रही है, तो कहीं दिन में उल्लू दिखाई दे रहे हैं। चीन सरकार निजी संपत्ति के अधिकार विधेयक को पारित करने के लिए बैठक कर रही है। मुझे नहीं पता कि क्या यह सब वातावरण परिवर्तन की वजह से हो रहा है! चीन के साम्यवादी इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़ी पूँजीवादी बन रहे हैं। तो फ़िर हम अपने संसदीय वामपंथियों से अलग उम्मीद क्यों करें? नंदीग्राम और सिंगूर इस बात के स्पष्ट संकेत हैं।
यह सोचने की बात है कि क्या हर क्रांति का अंत आधुनिक-पूँजीवाद होता है? जरा सोचिए, आपको आश्चर्य होगा-फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, चीनी क्रान्ति, वियतनाम युध्द, रंगभेद विरोधी संघर्ष और भारत में स्वतंत्रता के लिए कथित गाँधीवादी संघर्ष! इन सबका अंजाम क्या हुआ? क्या यह कल्पना का अंत है?

बीजापुर में माओवादी हमला- जिसमें पचपन पुलिस कर्मियों की मौत हुई थी। क्या यह विद्रोह राजकीय हिंसा का ही दूसरा चेहरा तो नहीं है?
कैसे यह कहा जा सकता है कि यह हमला राजकीय हिंसा का दूसरा चेहरा है? क्या कोई यह कहेगा कि जो लोग रंगभेद के खिलाफ़ लड़े, चाहे उनके तरीके कैसे भी रहे हाें, वह भी राजकीय हिंसा का दूसरा रूप था? जो अल्जीरिया में फ्रांसीसियों से लड़े उनके बारे में आप क्या कहेंगे? या जो नाजियों से लड़े, जो उपनिवेशवादी ताकतों से लड़े, या वे जो इराक में अमेरिकी कब्जे के खिलाफ़ लड़ रहे हैं, क्या यह सब भी राजकीय हिंसा का दूसरा रूप है? इससे आधुनिक मानव अधिकार वाली रिपोर्ट की भाषा का प्रयोग कर हम राजनीतिक बन जाते हैं, जिससे असली राजनीति बह जाती है। जितना भी हम धर्मात्मा बनने की कोशिश करें, जितना भी हम अपनी जटा में भभूत लगाएं, हमारे पास कोई विकल्प नहीं रह गया है। लेकिन दु:खद तो यह है कि हम हिंसा के माहौल में खुद को साफ-सुथरा नहीं रख सकते, हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं है। छत्तीसगढ़ में गृहयुध्द चल रहा है, जिसे राज्य सरकार चला रही है और सार्वजनिक रूप से बुश सिध्दांत का पालन कर रही है- 'अगर तुम हमारे साथ नहीं हो तो तुम आतंकवादियों के साथ हो।' इस जंग में औपचारिक सुरक्षा बलों के साथ-साथ सलवा-जुडूम भी एक प्रमुख हथियार है, जो नागरिक सेना का सरकारी समर्थन प्राप्त सशस्त्र सैनिक है, जो 'स्पेशल पुलिस आफ़िसर' (एसपीओ) बनने को मजबूर हो गया है। सरकारों ने कश्मीर, मणिपुर नागालैंड में भी यही कोशिश की है। हजारों लोग मारे गए हैं। लाखों लोगों को सताया गया है, हजारों लोग लापता हो गए हैं। कोई 'बनाना रिपब्लिक' ही ऐसी चीजों पर गर्व कर सकती हैं....... और अब सरकार इन नकारा तरीकों को हर जगह पर लागू करना चाहती है। हजारों आदिवासी अपनी खनिज प्रधान जमीनों को पुलिस छावनी में बदलने पर मजबूर हो गए हैं। सैकड़ों गाँवों को जबरदस्ती खाली करा दिया गया है। जिन जमीनों में लौह-अयस्क बहुतायत में है, वहां टाटा और एस्सार जैसी कंपनियों की गिध्द-दृष्टि लगी हुई है। जमीन देने के समझौता-पत्रों (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गए हैं लेकिन कोई नहीं जानता कि उनमें क्या कहा गया है, पर भूमि अधिग्रहण शुरू हो गया है। इसी तरह की ञ्टनाएं दुनिया के सबसे ज्यादा उजड़े हुए देशों में से एक कोलंबिया में हो रही हैं, जब सबकी आखें सरकारी समर्थन प्राप्त नागरिक सैनिकों और गुरिल्ला सैनिकों के बीच बढ़ती हुई हिंसा पर लगी है, तो ऐसे समय में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां चुपचाप खनिज सम्पदा लूटने में लगी हुई हैं। रंगमंच की ऐसी ही छोटी सी 'स्क्रिप्ट' छत्तीसगढ़ में लिखी जा रही है।
वास्तव में यह दुख की बात है कि 55 पुलिसकर्मी मारे गए; लेकिन वे भी दूसरों की तरह सरकारी नीति के ही शिकार हैं। सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए तो मात्र वे एक तोप के गोले के तरह हैं- पुलिसकर्मी तो सत्ता के हथियार मात्र हैं, कुछ मर गये तो सरकारे और भर्ती कर लेंगी। ऐसी मौतों पर मगरमच्छ के ऑंसू बहाए जाएँगे, कुछ समय के लिए टीवी एंकर हमें भी फड़फड़ा देते हैं। होगा क्या? और पुलिसकर्मी आ जाएंगे। जहां तक माओवादियों की बात है- तो उन्होंने जिन पुलिस और 'पुलिस के विशेष अधिकारियों' (एसपीओ) व सरकारी अधिकारियों को मारा; वे सब दमन, यातनाओं, हत्याओं और झूठे मुठभेड़ों के आरोपी थे; गांवों को जलाना और स्त्रियों के साथ बलात्कार करना उनके व्यवसायिक कर्तव्यों में था। चाहे कितना ही दूर तक सोच लीजिए- अगर वे वास्तव में ऐसे हैं- तो वे निर्दोष नागरिक नहीं हैं।
मुझे इनमें कोई संदेह नहीं कि माओवादी आतंक और दमन के एजेंट हैं। मुझे इसमें भी कोई शक नहीं कि उन्होंने भी बेरहमी की होंगी। बेशक वे इस बात का भी दावा नहीं कर सकते कि स्थानीय लोग बिना किसी प्रतिरोध के उनका समर्थन कर रहे हैं- लेकिन यह दावा कौन कर सकता है? फ़िर भी कोई गुरिल्ला सेना बिना स्थानीय समर्थन के टिक भी तो नहीं सकती। यह तार्किक रूप से भी असम्भव है और माओवादियों का समर्थन कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ रहा है। जनता के पास कोई विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि वह जिसको कम बुरा समझती है, उसकी ओर हो जाती है। पर यह कहना कि नाईसाफी के खिलाफ जो लड़ रहे हैं और जो नाइंसाफी सरकार कर रही है दोनों एक जैसे हैं, तो यह कहना अजीब सी बात है। सरकार ने अहिंसक प्रतिरोध के लिए सभी दरवाजे बंद कर लिये हैं। इस पर जब लोग हथियार उठाते हैं, तो हर प्रकार की हिंसा होने लगती है- क्रांतिकारी, लम्पट और पूरी तरह अपराधी। इससे उत्पन्न हुई भयानक परिस्थितियों के लिए सरकार खुद उत्तरदायी है।

'नक्सली', 'माओवादी' और 'बाहरी लोग' इस तरह के शब्द आजकल बहुत ज्यादा इस्तेमाल किए जा रहे हैं। क्या आप इन्हें परिभाषित कर सकती हैं?
'बाहरी ताकतें' इस तरह का दोषारोपण दमन की प्रारंभिक अवस्था में किसी भी सरकार द्वारा किया जाना स्वाभाविक है। किसी भी घटना के लिए सरकारें सहजता से सारा दोष बाहरी ताकतों के सिर मढ़ देती हैं और अपने ही प्रचार पर विश्वास करने लगती हैैं और सरकारें शायद इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पातीं कि जनता उसके विरोध में खड़ी हो गई है। यही सब बंगाल में माकपा कर रही है। हालांकि कुछ लोग कहेंगे कि बंगाल में यह दमन नया नहीं है। बस अब केवल बढ़ गया है- फिर भी ये 'बाहरी ताकतें' कौन हैं? सीमाओं का निर्धारण कौन करता है? क्या वे गाँव की सीमाएँ हैं? तहसील? ब्लाक? जिला या राज्य की सीमाएँ हैं? क्या संकीर्ण क्षेत्रीय और धार्मिक राजनीति साम्यवादियों का नया मंत्र है? रही नक्सली और माओवादियों की बात- भारत पुलिस राज्य बनता जा रहा है, जिसमें जो भी व्यवस्था का समर्थन नहीं करेगा, उसे आतंकवादी करार दिए जाने का खतरा उठाना पड़ेगा। मुस्लिम आतंकवादी को मुस्लिम होना जरूरी है- आदि जैसे वर्गीकरण से बचने के लिए उन्हें एक ऐसा नाम चाहिए था, जो सभी को परिभाषित कर दे। इसलिए परिभाषाओं को छोड़ दें, बिना परिभाषा के ही ठीक हैं। क्योंकि वह समय दूर नहीं जब हम सभी को माओवादी या नक्सलवादी, आतंकवादी या आतंकवादियों का समर्थक कहा जाएगा और फिर जेलों में बंद कर दिया जाएगा, उन लोगों के द्वारा जो वास्तव में या तो जानते नहीं हैं या इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि माओवादी या नक्सली कौन हैं। गांवों में यह कार्यक्रम शुरु हो गया है और हजारों लोगों को जेलों में डाला जा रहा है। उन्हें राज्य को समाप्त करने की कोशिश करने वाले आतंकवादी करार दिया गया है। असली नक्सली और माओवादी कौन हैं? मैं इस विषय की विशेषज्ञ तो नहीं हूँ, लेकिन इनका एक मौलिक इतिहास है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में हुआ था और 1964 में इसका विभाजन हुआ और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी -माकपा इससे अलग हो गई और एक अलग पार्टी बना ली। दोनों ही संसदीय राजनैतिक दल थे। 1967 में माकपा ने कांग्रेस से अलग हुए एक ग्रुप के साथ पश्चिम बंगाल में सत्ता हासिल की। उस समय देहात के भूखोें मर रहे किसानों में काफ़ी रोष था। माकपा के स्थानीय नेता कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने नक्सलबाड़ी जिले में किसानों को संगठित किया और यहीं से नक्सली शब्द की शुरूआत हुई। 1969 में सरकार गिर गई और सिध्दार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस के हाथ में पुन: सत्ता आ गई। नक्सलियों को निर्दयता से कुचला गया। इस समय के बारे में महाश्वेता देवी ने लिखा भी है। 1969 में माकपा से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (लेनिनवादी-माक्र्सवादी)-'सीपीआई (एमएल)' अलग हो गए। कुछ सालों के बाद 1971 के आसपास सीपीआई(एमएल) कुछ दलों में बँट गई। जैसे बिहार में सीपीआई-एमएल(लिबरेशन), सीपीआई- एमएल(न्यू डिमोक्रसी) जो आंध्र प्रदेश और बिहार के कई हिस्सों में काम कर रही है और सीपीआई-एमएल (वर्गसंघर्ष) जो मुख्य रूप से बंगाल में सक्रिय है। इन दलों को ही नक्सली कहा जाता है। वे अपने को माओवादी नहीं, बल्कि लेनिनवादी माक्र्सवादी के रूप में देखते हैं। वे चुनावों, जनकार्यवाही और हमला होने की स्थिति में सशस्त्र संघर्ष में भी विश्वास करते हैं। बिहार में कार्यरत एमसीसी(माओईस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) का गठन 1968 में हुआ था। आंध्र प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में क्रियाशील पीडब्लूजी(पीपुल्स वार ग्रुप) 1980 में बनी थी और एमसीसी और पीडब्लूजी ने 2004 में ही मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(माओवादी) का गठन किया है। वे राज्य को समाप्त करने और पूर्ण युध्द में विश्वास करते हैं। वे चुनाव में भाग नहीं लेते। यही वह दल हैं, जो बिहार, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में गुरिल्ला युध्द कर रहे हैं।

भारत सरकार और मीडिया माओवादियों को 'आंतरिक सुरक्षा' के लिए बड़े खतरे के रूप में देखते हैं। क्या उन्हें इसी रूप में देखा जाना चाहिए?
मुझे यकीन है कि माओवादी इस परिभाषा से काफी खुश होंगे।

माओवादी व्यवस्था बदलने के मकसद से लड़ रहे हैं। वे माओ की तानाशाही विचारधारा से प्रेरणा लेते हैं। वे क्या विकल्प तय करेंगे? क्या उनके शासन में शोषणकारी निरंकुश हिंसा नहीं होगी? क्या वे पहले से ही आम आदमी का शोषण नहीं कर रहे हैं? क्या वास्तव में उन्हें आम आदमी का समर्थन मिल रहा है?
मुझे लगता है कि हमारे लिए यह बताना जरूरी है कि माओ और स्टालिन दोनों ही हत्याओं के इतिहास के साथ संदिग्ध हीरो हैं। उनके शासन में करोड़ों लोग मारे गए थे। चीन और सोवियत संघ में जो कुछ हुआ, उसके अलावा पोलपोट ने चीनी साम्यवादी दल के समर्थन से कम्बोडिया में दो लाख लोगों को खत्म कर दिया था (इस दौरान पश्चिमी देशों ने जानबूझकर चुप्पी साध रखी थी) और लाखों लोगों को बीमारी और भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था। क्या हम चीन में हुई सांस्कृतिक क्रान्ति की हिंसा से मुंह मोड़ सकते हैं? या इस बात को नकार सकते हैं कि सोवियत संञ् और पूर्वी यूरोप में लाखों लोग लेबर कैंपों और टार्चर-चैम्बरों, जासूसों और गुप्तचरों व पुलिस के शिकार नहीं हुए थे? इनका इतिहास भी पश्चिमी साम्राज्यवाद के इतिहास की तरह अंधकारमय ही है। बस केवल इतना फर्क है कि इसका जीवनकाल बहुत छोटा था। अगर हम तिब्बत और चेचन्या के मुद्दे पर मौन रहते हैं तो हम इराक, फिलीस्तीन, और कश्मीर में हो रही कार्यवाहियों की आलोचना भी नहीं कर सकते। मैं यह उम्मीद करूंगी कि माओवादी, नक्सली और मुख्य वामपंथी अपने इतिहास से सीख लेते हुए अपने इतिहास को दोबारा नहीं दोहराएंगे और भविष्य में जन-विश्वास को कायम रखेंगे। क्योंकि लोग यही उम्मीद करते हैं कि इतिहास दोहराया नहीं जाएगा। लेकिन वे इससे पलटते हैं तो जनता का विश्वास नहीं जीत सकते............फिर भी नेपाल के माओवादियों ने नेपाल के राजतंत्र के खिलाफ़ बहादुरी और सफ़लतापूर्वक सर्ंञ्ष किया है और अब भारत में भी माओवादी और विभिन्न लेनिनवादी-माक्र्सवादी दल अन्याय के खिलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं। वे न केवल राज्य बल्कि सामंती जमींदारों और उनके सशस्त्र सैनिकों के खिलाफ़ भी संघर्ष कर रहे हैं। लड़ने वालों में वे आज अकेले ही हैं और इसके लिए मैं उनकी प्रशंसा करती हूँ। ऐसा हो सकता है, जैसा आपने कहा कि जब उनके हाथ में सत्ता आए तो वे क्रूर, अन्यायी और निरंकुश और शायद वर्तमान सरकार से भी बुरे साबित हों। हो सकता है, लेकिन मैं इस सब के बारे में पूर्वधारणा बनाने के लिए तैयार नहीं हूं। अगर वे ऐसे बनते हैं तो हमें उनके खिलाफ़ भी लड़ना होगा और उसके लिए पहला व्यक्ति कोई मेरे जैसा ही होगा। लेकिन अभी तो यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे प्रतिरोध के मोर्चे पर सबसे आगे खड़े हैं। हममें से कई लोग, उन लोगों के साथ हो लेते हैं, जहां हमें पता है कि यहाँ धार्मिक या वैचारिक रूप से हमारी कोई जगह नहीं है। यह सच है कि सत्ता मिलते ही प्रत्येक स्वाभाविक रूप से बदल जाता है। मंडेला के अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को ही देख लीजिए- भ्रष्ट, पूंजीवादी, आईएमएफ के आगे सिर झुकाने वाली, गरीबों को उनके ञ्र से बेघर करने वाली, लाखों इन्डोनेशियाई साम्यवादियों की हत्या करने वाले सुहार्तो का सम्मान करने वाली (जिसे दक्षिण अफ्रीका के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से नवाजा गया था)। किसने सोचा था कि ऐसा होगा, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि दक्षिण अफ््रीक़ा को रंगभेद के खिलाफ़ सर्ंञ्ष को रोक देना चाहिए था? या फिर इसके लिए उन्हें अब पछताना चाहिए? क्या इसका मतलब यह है कि अल्जीरिया को फ्रंासीसी उपनिवेश में बने रहना चाहिए? क्या कश्मीरियों, फिलिस्तीनियों और इराकियों को सैनिक कब्जा को स्वीकार कर लेना चाहिए? जिन लोगों की गरिमा को चोट पहुंची है, क्या उन्हें लड़ाई छोड़ देनी चाहिए? इसलिए कि उन्हें जंग में नेतृत्व करने वाला कोई संत-महात्मा नहीं मिला।

क्या हमारे समाज में आपसी संवाद की भाषा खत्म हो गयी है?
बिल्कुल।

आखिर कब तक? इरोम शर्मिला का सत्याग्रह -हर्ष डोभाल

राममनोहर लोहिया अस्पताल, नई दिल्ली के नर्सिंग होम की इमारत के बाहर एक दर्जन पुलिसकर्मियों का सख्त पहरा, जो इमारत में प्रवेश करने पर कड़ी पूछताछ करते हैं। उसमें एक छोटा सा कमरा 8ए आता है। यहां भी 10 से 12 हथियारबंद पुलिसकर्मियों का पहरा रहता है, जो यह आभास कराता है कि यहां कोई 'महत्वपूर्ण व्यक्ति' भर्ती है, मिलने की इजाजत मांगने पर पुलिसकर्मी एकदम मना कर देते हैं; वह और कोई नहीं 'इरोम शर्मिला चानू' है। पिछले 6 साल से सत्याग्रह करने वाली इरोम शर्मिला मणिपुर के बाद अब दिल्ली में आफ्सफा के खिलाफ अनशन पर है। वह अस्पताल के कमरे में ही योगाभ्यास करती हैं, कविता लिखती है, पुस्तकें पढ़ती हैं और अगले दौर की लड़ाई की तैयारियों के बारे में सोचती हैं। पढ़ने में अत्यधिक रूचि रखने वाली इस युवती ने योग, नेल्सन मंडेला, गांधी आदि के बारे में लगातार किताबें पढ़ी हैं। उसका व्यक्तिगत जीवन एकदम सादा, संयमित और सरल है।
मणिपुर की 34 वर्षीया कवयित्री, चित्रकार और गांधीवादी इरोम शर्मिला चानू 4 नवम्बर, 2000 से आमरण अनशन पर है। उसे जीवित रखने के लिए नाक में नली डालकर जबरदस्ती तरल पदार्थ दिये जा रहे हैं। उसकी स्पष्ट मांग है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आफ्सपा), 1958 रद्द किया जाय ताकि पूर्वोत्तर में इस कानून के बर्बरतापूर्वक इस्तेमाल को रोका जा सके।
शर्मिला के सत्याग्रह अनशन के छह साल पूरे हो चुके हैं। इम्फाल के बाहरी इलाके में स्थित कोंगखम गांव के इरोम नंदा और इरोम सखी देवी को पता नहीं था कि 14 मार्च, 1972 को जन्मी उनकी बेटी आगे चलकर क्या करेगी। अस्पताल में उसकी देखभाल कर रही एक दोस्त से उसने कहा, ''मैं एक निरक्षर, करुणामयी और मजबूत मां की सबसे छोटी बेटी हूं -हम नौ बच्चे थे, मेरा सबसे बड़ा भाई बीमारी के कारण चल बसा। मैं इस दुनिया के लिए महत्वपूर्ण नहीं हूं, एक कीड़े की तरह हूं, जिसे कुचला जा सकता है।''
जब शर्मिला केवल 15 दिन की थी तो उसे उबले चावल का पानी पिलाना शुरू किया गया क्योंकि उसकी मां को पर्याप्त दूध नहीं हो पाता था। कुछ दिन बाद उसका भाई सिंहजीत उसे पड़ोस की ऐसी 'अन्य मांओं' के पास ले जाता, जिन्होंने हाल में ही बच्चों को जन्म दिया हो। सिंहजीत ने बताया, ''उसे मणिपुर की कई माताओं ने दूध पिलाया है, इसीलिए शायद वह सामाजिक और राजनीतिक रूप से इतनी जागरूक है।''
शर्मिला कहती है ''मुझे अपने को स्वस्थ रखने की आवश्यकता है। जबरदस्ती खिलाना पूरी तरह अप्राकृतिक है। मुझे ताकतवर बनना है। मुझे लड़ना है।'' अगर अनुमति दी जाती है तो वह अस्पताल के गलियारे में लगभग दो घंटे टहलती है, जिसके प्रत्येक सिरे पर एक सुरक्षा कर्मचारी खड़ा रहता है। आशुलिपि सीखने के अलावा शर्मिला ने अभी योग और प्राकृतिक चिकित्सा में पाठ्यक्रम पूरा किया है।
जब उसने चार नवम्बर, 2000 को अनशन शुरू किया था तो अधिकतर लोगों को उसके संकल्प के बारे में बहुत कम अनुमान था। कुछ ने इसकी अनदेखी कर दी, कुछ ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और थोड़े बहुत ने इसकी खिल्ली भी उड़ाई। लेकिन शर्मिला के लिए जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया था- एक स्पष्ट गंतव्य वाली कठिन लंबी यात्रा, जहां से वापस नहीं लौटा जा सकता था।
अनशन पर जाने का फैसला हालांकि सोच-समझकर लिया गया था, लेकिन इसके लिए पहले से ही कोई योजना नहीं बनाई गयी थी। वास्तव में शर्मिला अपना अनशन शुरू करने से केवल दो हफ्ते पहले ही आफ्सपा विरोधी आंदोलन में शामिल हुई थी। न्यायमूर्ति एच. सुरेश की अध्यक्षता में तीन सदस्यों वाली इंडियन पीपुल्स इंक्वायरी कमेटी (आईपीआईसी) ने वर्ष 2000 में अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में मणिपुर का दौरा किया। यह समिति मणिपुर के विभिन्न इलाकों में कई पीड़ित लोगों, उनके रिश्तेदारों और दोस्तों से मिली, जिन्होंने अन्याय, बलात्कार, हिंसा, हत्या और लोगों के गायब होने जैसे मामलों के बारे में आपबीती सुनायी। उसने कार्यशालाएं आयोजित कीं तथा मानवाधिकार अधिवक्ताओं, पत्रकारों, विद्वानों और अन्य लोगों के साथ व्यापक विचार-विमर्श किया। शर्मिला स्वयंसेवी के रूप में इस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा थी और यह राजनीतिक रूप से उसकी पहली भागीदारी थी। आईपीआईसी की जांच के दौरान वह विशेष रूप से एक जवान लड़की के बयान से बुरी तरह हिल गयी, जिसके साथ लामडेन गांव में सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया था। शर्मिला और दो अन्य स्वयंसेवी महिलाओं ने अलग से इस लड़की के साथ बातचीत की थी।
आईपीआईसी ने अक्टूबर के तीसरे सप्ताह तक अपनी जांच पूरी कर ली थी और इस बीच शर्मिला की आत्मा उसे कचोटने लगी थी। उसके भीतर चिंगारी भड़क उठी थी। सेना की ज्यादतियों और दमनकारी कानूनों, विशेष रूप से आफ्सपा के बारे में और अधिक जानकारी हासिल करने के लिए अगले कुछ दिनों में वह कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों से मिली।
इंफाल से करीब 15 किलोमीटर दूर मालोम में दो नवम्बर, 2000 को सुरक्षा बलों ने एक बस स्टॉप पर खड़े निर्दोष लोगों पर गोलीबारी की जिसमें दस लोग मारे गए। वह वृहस्पतिवार का दिन था। इस दिन बचपन से ही शर्मिला हर हफ्ते उपवास रखती थी। उसके भाई सिंहजीत ने बताया कि यह उपवास आज तक जारी है। हालांकि उसने इसके बारे में चार नवम्बर को घोषणा की। मालोम नरसंहार मणिपुर के लोगों के लिए नया नहीं था, क्योंकि इससे पहले भी उन्होंने इसी तरह की नृशंस हत्याएं देखी थीं, जब सुरक्षा बल आपे से बाहर होकर आम आदमियों को मारने लगते थे। शर्मिला खून से सनी सड़क का नजारा बर्दाश्त नहीं कर सकी। इस एक घटना ने उसका जीवन बदल दिया। अब तक वह एक फैसला ले चुकी थी। वह चार नवम्बर को अपनी मां के पास गयी तथा 'लोगों के लिए कुछ बेहतर करने' के वास्ते उसका आशीर्वाद लिया। यह अंतिम दिन था जब मां और बेटी ने एक दूसरे को देखा। ''मेरी मां मेरे निर्णय के बारे में हर बात जानती है। वह बहुत साधारण है, लेकिन उसके पास मुझे मेरा लाजमी कर्तव्य करने की इजाजत देने का साहस है......। मेरी मां ने मुझे आशीर्वाद दिया है। यदि मैं उससे मिली तो यह हम दोनों को कमजोर बना सकता है।'' इसके बाद से शर्मिला ने अपने बालों में कंघी नहीं की, न ही शीशे में अपने को देखा और न ही पानी की एक बूंद उसके मुंह में गयी। वह अपने दांत सूखी रुई से साफ करती है।
अपनी मां के आशीर्वाद के साथ शर्मिला सीधे नरसंहार स्थल पर पहुंची। और इस प्रकार ऐतिहासिक, शांतिपूर्ण अनशन शुरू हुआ। 21 नवम्बर को उसे 'आत्महत्या का प्रयास' करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। उसे इंफाल के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में भर्ती कराकर प्रशासन उसे जबरदस्ती नाक के रास्ते खिलाने लगा। इस बात को छह साल हो गए हैं। न्यायिक हिरासत में रहते हुए उसने अपना अनशन तोड़ने या जमानत देने से इंकार कर दिया। जैसा कि नियम है एक साल पूरा होने पर अदालत ने उसे रिहा कर दिया, क्योंकि आत्महत्या के प्रयास के मामले में उसे अधिकतम सजा एक साल की ही दी जा सकती थी। उसका बिना पानी का अनशन जारी रहने के कारण उसे बार-बार रिहा होने के दो-तीन दिन के भीतर गिरफ्तार कर लिया जाता है और यह चक्र आज तक जारी है।
शर्मिला का कहना है : ''लाशों को देखकर मुझे गहरा सदमा लगा था। सशस्त्र बलों और हिंसा को रोकने के लिए कोई साधन नहीं था.........यह (उपवास) सबसे कारगर तरीका है, क्योंकि यह आध्यात्मिक लड़ाई पर आधारित है.........मेरा अनशन मणिपुर के लोगों की ओर से है। यह व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है, प्रतीकात्मक लड़ाई है। यह सत्य, प्रेम और शांति का प्रतीक है।''
इस साल तीन अक्टूबर को अदालत द्वारा उसे फिर बरी किये जाने के बाद उसके भाई और एक दोस्त ने उसे रात भर के लिए पत्रकारों की पहुंच से दूर रखा। दूसरे दिन पत्रकारों और सुरक्षा बलों को चकमा देते हुए उन्होंने शर्मिला को चोरी-छिपे मणिपुर से बाहर निकाल दिया। इस मुद्दे पर राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करने के प्रयास में उसी दिन वह दिल्ली पहुंची। हवाई अड्डे से वह महात्मा गांधी को श्रध्दांजलि अर्पित करने के लिए सीधे उनके समाधिस्थल राजघाट पहुंची। शर्मिला ने पत्रकारों से कहा, ''अगर गांधीजी आज जीवित होते तो वह आफ्सपा के खिलाफ आंदोलन शुरू करते। मेरी देश के नागरिकों से अपील है कि वे आफ्सपा के खिलाफ संघर्ष में शामिल हों।'' उस दिन, बाद में शर्मिला जंतरमंतर पहुंची और अपना अनशन जारी रखा। समर्थन व्यक्त करने के लिए वहां लोगों का तांता लगा रहा। तीन दिन के बाद आधी रात को पुलिस ने उसे पकड़कर एम्स में भर्ती करा दिया। अब वह रामनोहर लोहिया अस्पताल में है।
शर्मिला अपने संघर्ष में अकेली नहीं है। पूर्वोत्तर की महिलाओं, विशेष रूप से मणिपुर की महान माताओं की एकजुट राजनीतिक कार्रवाई, कड़े प्रतिरोध और बलिदान का अपना इतिहास है। शर्मिला इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इसे नयी ऊंचाई तक पहुंचा रही है। वर्ष 2004 में राज्य में उस समय हिंसा भड़क उठी जब असम राइफल के जवानों ने एक जवान महिला कार्यकर्ता थंगजाम मनोरमा देवी के साथ बलात्कार करके बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी। इस क्रूर घटना के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया, जिसने देश की आत्मा हिला दी। नृशंस और असंवेदनशील सुरक्षा बलों और इंफाल तथा दिल्ली के सरकारी तंत्र का ध्यान आकर्षित करने के प्रयास में मणिपुर की माताओं ने अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल किया। उन्होंने इंफाल में असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने नंगी होकर सेना को उनके साथ बलात्कार करने की चुनौती दी। पूर्ण रूप से नग्न होकर उन्होंने प्रदर्शन किया और उनके बैनर पर लिखा था ''भारतीय सेना आओ हमसे बलात्कार करो।''
इस बीच, अस्पताल के एक कमरे में बंद कविता लिखती, किताबें पढ़ती, योग करती शर्मिला का अनशन हिरासत में भी जारी है। दिल्ली और मणिपुर में आफ्सपा के खिलाफ संघर्ष चल रहा है। अदम्य साहसी, दृढ़ और कृत-संकल्प शर्मिला का स्पष्ट रूप से कहना है कि उसका पीछे हटने का कोई इरादा नहीं है। ''जब तक आफ्सपा को रद्द नहीं किया जाता तब तक मैं अपना अनशन नहीं तोड़ूंगी।'' (पीएनएन-कॉम्बैट लॉ)

नंदीग्राम का सबक - शिराज केसर

पश्चिमी बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य की वजह से आज पूर्वी मेदिनीपुर की नंदीग्राम तहसील किसी परिचय का मोहताज नहीं रह गयी है। बुध्ददेव के तेज रफ्तार की औद्योगीकरण की आंधी में नंदीग्राम भी एक पड़ाव है। नंदीग्राम का सेज इंडोनेशिया की कंपनी 'सलेम ग्रुप' द्वारा बनाया जाना है। नंदीग्राम में बनने वाला सेज 'केमिकल सेज' है। इसके लिए नंदीग्राम और आसपास के गावों की कुल 14,200 एकड़ जमीन ली जानी है। यह जमीन सलेम ग्रुप को दी जानी है। माकपा सरकार और पुलिस ने सिंगूर में दमन के बदौलत जमीन हथियाने में सफल रहने के बाद कुछ समय पहले ही नंदीग्राम में भी वही रास्ता अपनाने का मन बना लिया था। नंदीग्राम के धिनौने नरसंहार के बहाने ही देश को यह जानने का मौका मिला है कि पश्चिमी बंगाल में लोकतंत्र के नाम पर माकपा की पार्टी-तानाशाही चलती है। पश्चिमी बंगाल के माकपा मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य का कहना है कि नंदीग्राम में कानून की स्थिति सुधारने तथा गांव वालों से बातचीत के लिए पुलिस को भेजा गया था। फिर पुलिस के साथ-साथ माकपा कैडर (पुलिस के ड्रेस में) क्यों भेजा गया? क्या कानून की रखवाली का काम माकपा कैडर से ही करवाते हैं मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य? कैडर की गांव वालों ने पहचान बताई कि कैडर होता तो है पुलिस ड्रेस में, पर उसके हथियार पुलिस के हथियार से अलग तथा जूतों के बजाय चप्पल होती है।
गांधी के बाद कांग्रेस कीे वैचारिक विपन्न्ता ने हिन्दुस्तानी चिंतन की धारा को ही रोक दिया। साम्यवादी बुध्दिजीवियों ने कांग्रेस को वैचारिक रूप से कब्जे में ले लिया और हिन्दुस्तान की शाश्वत चिंतन परपंरा को कुंद कर दिया। अब तक लगातार इनने 'सर्वहारा तानाशाही' का समर्थन किया है। नंदीग्राम के नरसंहार पर शायद ही किसी साम्यवादी को आश्चर्य हुआ होगा। लोकतंत्र को पूंजीवाद का मुखौटा कहने वाले साम्यवादियों को शायद ही कभी लोकतंत्र में विश्वास रहा हो। लोकतंत्र के बजाए साम्यवाद के एजेंडे पर काम रहे लोगों का हाल वही है, जैसे कुछ लोग हिन्दु राष्ट्र के लिए काम कर रहे हैं।
वैसे यह साम्यवाद का पुराना झगड़ा रहा है कि जमीन और उद्योग में प्राथमिक क्या होना चाहिए? यह सवाल ही रूस और चीन के बीच मतभेद का कारण भी रहा है। रूस ने जब उद्योगों के माध्यम से विकास का रास्ता पकड़ा तब चीन ने खेती के विकास से आगे बढ़ने की कोशिश की, जो काफी हद तक सफल भी रहा। रूस की गलतफहमी इतिहास बन चुकी है, जबकि चीन आगे बढ़ रहा है। भारत में यही झगड़ा भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी में विभाजन का कारण बना। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) माकपा का जन्म खेती से विकास के रास्ता मानने वालों ने किया। पर माकपा अपने ही मान्यताओं से आज अलग खड़ी है।
माकपा ने अपनी मान्यताओं की बलि जाने कब की दे दी है। साथ ही 'पार्टी तानाशाही' की स्थापना भी वह काफी समय से कर चुकी थी, पर बुध्दिजीवियों के लिए वह दानापानी उपलब्ध कराती रही थी, इसीलिए उनको देर से शायद अब दिखना शुरू हुआ है, सुमित सरकार हों अन्य कोई भी। चीन में लोकतंत्र की मांग करने वाले 10,000 से ज्यादा नौजवानों की हत्या करने वालों को प्रशंसित निगाह से देखने वालों को शायद ही उस समय शर्म आई हो या अब आएगी।
हां ज्यादा से ज्यादा साम्यवादी बुध्दिजीवियों को यह लग रहा होगा कि आखिर छिपी खबरें देश के सामने क्यों आ रही हैं? हालांकि कुछ साम्यवादी बुध्दिजीवियों ने इस्तीफा दिए हैं। पर ये बातें हमारे उस चिंता का समाधान नहीं हैं कि जिनको लोकतंत्र में विश्वास नहीं है; आखिर उनके साथ देश का क्या बर्ताव होना चाहिए।
चलिए अब नंदीग्राम का हाल जानते हैं। मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य कहते हैं कि वहां कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गयी थी। कानून का राज स्थापित करने के लिए पुलिस को भेजा गया था। लोगों के हिंसक प्रतिरोध की स्थिति में पुलिस को गोली चलानी पड़ी। पर क्या यह सोचने का सवाल नहीं है कि दो दशक से भी ज्यादा समय से राज कर रही माकपा ने लोगों को आज तक सिखाया क्या है; तोड़फोड़, हिंसा और असहिष्णुता। पार्टी लाइन से कोई असहमत है तो, उसको मारपीट कर समझाना माकपा का पुनीत काम रहा है। क्या नंदीग्राम में हिंसक आन्दोलन शुरू से ही रहा? नहीं! तो फिर क्या कारण है कि आज पूरा नंदीग्राम हिंसक हो चुका है? बुध्ददेव को याद होगा कि नंदीग्राम का आन्दोलन शुरू से ही हिंसक नहीं रहा है। पर माकपा कैडर के बार-बार हमले की वजह से लोगों ने आत्मरक्षा में हथियार उठाए हैं। पुलिस और कैडर का यह चौथा हमला है। 14 मार्च के नरसंहार के पहले भी माकपा कैडर 10 से ज्यादा लोगों की जान ले चुका है। पुलिस के लिए तो लोगों ने जनता र्कफ्यू लगा रखा है, पुलिस को तो लोग अपने इलाके में घुसने नहीं देते। माकपा का कैडर ही हथियारबध्द होकर छापामार तरीके से हमला करता रहा है।
नंदीग्राम के लोगों के नारों की गूंज आज देश में 'अंतरधारा' बनकर घूम रही है। 'जान देगें: जमीन नहीं देंगे।' क्या यह नारा माकपा ने नहीं सुना। जहां तहां लोगों ने इस नारे में परिवर्तन भी कर लिया है, 'जमीन नहीं देंगे: जान नहीं देंगे, जरूरत पड़ी तो जान ले लेंगे।' क्या बुध्ददेव जी आपने कभी सोचा है कि जिस विकास को लाने के लिए आप लोगों की जान ले रहे हैं, लोग ही नहीं रहेंगे जो विकास किसका करेंगे। शायद आपको यह भी नहीं मालूम कि नंदीग्राम में केवल तृणमूल ही नहीं लड़ रही है, गांधी को मानने वाले और नक्सली दोनों साथ-साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे हैं। जो लोग क्रान्ति के हिंसक रास्ते में विश्वास करते हैं उनसे शायद आपका माकपा कैडर तो निपट ले, पर आत्मोत्सर्ग, प्रायश्चित, अहिंसा और प्रेम से हक की लड़ाई लड़ने वालों से आप कैसे निपटेंगे?नंदीग्राम का सबक बहुत साफ है कि देश को किसी भी तरह की तानाशाही नहीं चाहिए, चाहे वह पूंजीवाद की हो या साम्यवाद की।

क्या यह महज एक बयान है- जितेंद्र कुमार

राष्ट्रपति पद को लेकर शुरू हुई चुनावी प्रक्रिया से पहले जिन दो व्यक्तियों की चर्चा कांग्रेस पार्टी के भीतर सबसे ज्यादा थी उनमें पहला नाम रक्षामंत्री प्रणब मुखर्जी का था और दूसरा नाम गृहमंत्री शिवराज पाटिल का था। पहले नाम का समर्थन तो खुद माकपा ने ही किया था क्योंकि प्रणब बाबू बंगाली भद्रलोक थे। लेकिन दूसरे नाम का वामपंथियों ने पुरजोर विरोध किया था क्योंकि उनका मानना था कि गृह मंत्री शिवराज पाटिल का रुझान दक्षिणपंथी है। परिणामस्वरूप शिवराज पाटिल का नाम राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए गठबंधन में मान्य नहीं हो पाया। और अब औपचारिक तौर पर जो नाम आया है जिसने नामाकंन भी दाखिल कर दिया है और अंतरआत्मा की आवाज पर वोट डालने की परिकल्पना को नकार दें तो उनकी जीत लगभग तय है, क्योंकि अंतरआत्मा की आवाज पर आज तक एक अपवाद छोड़कर कभी वोट नहीं डाला गया है। वह नाम है प्रतिभा पाटिल का है, जो राजस्थान में राज्यपाल थीं। प्रतिभा पाटिल ने अपना नाम घोषित होते ही कम से कम दो ऐसे विवादों को जन्म दे दिया है, जो उनकी छवि पर काफी लंबे समय के लिए चस्पा हो गया है। साथ ही, इस देश में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर लोगों को जनता के मन में उनके भावी बयानों और उठने वाले कदमों को लेकर शंका हो गई है।
श्रीमती पाटिल ने अपने नाम की घोषणा होने के तत्काल बाद कहा कि हिंदुस्तान में परदा प्रथा मुगलों के आने से शुरू हुई (क्योंकि वह स्वंय सिर पर पल्लू रखती हैं और परदा भी रखती हैं)। यद्यपि यह कोई विवाद का कारण नहीं है जब तक कि वह किसी व्यक्ति विशेष व्यवहार और आचरण से जुड़ा हो, लेकिन जब यह चीज पूरे सामाजिक परिवेश को परिभाषित करती हैं तो यह निश्चय ही बहस-विवाद का मसला है। हम जानते हैं कि इस देश में अस्सी फीसदी मुसलमानों में से नब्बे फीसदी से ज्यादा मुसलमान हमेशा से इसी देश के बाशिंदे रहे हैं। परिस्थितिवश उन्होंने धर्मांतरण कर लिया, वह एक अलग बात है। साथा ही श्रीमती पाटिल ने यह भी बताया कि कैसे उन्हें उनके गुरु ने मांऊट आबू में दर्शन देकर (जो 1969 में स्वर्ग सिधार गए हैं) राष्ट्रपति बनने की बात कही और जब वे मंदिर से निकली तब श्रीमती सोनिया गांधी का उनके पास राष्ट्रपति की उम्मीदवारी का फोन आया।
अब दूसरी बात पर भी गौर करें। पूजा अर्चना (चाहे वह किसी भी धर्म की हो) हमेशा ही इंसान का व्यक्तिगत मामला रहा है और तब तक किसी को इससे परेशानी नहीं होनी चाहिए जब तक कि दूसरों को इनके धार्मिक क्रियाकलाप से कष्ट न हो और इसी तरह श्रीमती प्रतिभा पाटिल के परदा रखने या मंदिर में पूजा अर्चना करना उनकी व्यक्तिगत जिंदगी का हिस्सा है, जिस पर बहस में नहीं पड़ना चाहिए। लेकिन जब वह साक्षात्कार में सार्वजनिक रूप से कहने लगें तो यह बहस और विवाद का मसला है।
अगर परदा प्रथा की चर्चा करें तो हम पाते हैं कि हमारे समाज में इसका चलन काफी पहले से था। कुछ विद्वानों का कहना है कि ऋगवेद में परदा प्रथा नहीं थी। यह सही है कि ऋगवेद में यह प्रथा नहीं थी लेकिन इसक अर्थ यह समझना चाहिए कि जो ऋगवेद में नहीं था वह मुगलों के शासन में आया कितना सही है? क्या ऋगवेद में तुरंत बाद ही मुगल इस देश में आ चुके थे?
भारतीय सभ्यता-संस्कृति के बारे में लिखे गए दो सर्वश्रेष्ठ कृति 'द वंडर डैट वाज इंडिया' के पहला खंड के रचयिता प्रो. एएल बाशम और दूसरे खंड के प्रो. ए आर रिजवी को सभी को पढ़ना चाहिए जिसमें भारतीय संस्कृति की बेहतरीन व्याख्या की गई है। प्रो. रिजवी लिखते हैं कि मुगलकालीन भारत में राजपूतों का घर अंग्रेजी के एल आकार के होते थे जबकि मुसलमानों के घर सीधा आई जैसा होता था। घर का आकार महिलाओं को ध्यान में रख बनाया जाता था। प्रो. रिजीव के अनुसार हिंदुस्तानी मुसलमानों में परदा प्रथा हिंदुओं से आया। प्रो. रिजवी की बातों से इत्तेफाक कई अन्य बड़े इतिहासकार भी रखते हैं। उन लोगों के अनुसार हिंदुस्तान में परदा प्रथा की शुरुआत सामंतवाद से साथ ही धीरे-धीरे शुरू हुई थी। इसका कारण यह था कि जैसे-जैसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया शुरू हुई और कल्चरल कैपिटल बनने शुरू हुए, महिलाओं को घर के भीतर धकेलना शुरू कर दिया गया। और जब पूंजी पर पुरुषों का एकाधिकार हो गया और महिलाएं तो महिलाएं पूती घर के भीतर धकेल दी गईं और इस तरह परदा प्रथा अस्तित्व में आई। इसके बाद भी अगर किसी को शक हो तो सुविधा के लिए उन्हें यह बताया जा सकता है कि सामंतवाद का अस्तित्व कम से कम दो हजार साल पुराना जबकि पहला मुगल शासक बाबर ने 1526 में हिंदुस्तान की सरजमीं पर कदम रखा था।
प्रश् यह नहीं है कि परदा प्रथा की आलोचना या समर्थन किया जाना चाहिए या जिस किसी ने भी कहा है कि उनकी आलोचना या समर्थन करना चाहिए । प्रश् यह है कि िकसी भी बात को ऐसी बात से जोड़ देना कितना उचित है, जो स्वयं ही विवादास्पद रहा है? उसी तरह श्रीमती पाटिल का अपने गुरु से रूबरू होने का है। क्या सार्वजनिक जीवन में एक गरिमामय पद (उस दिन तक राज्यपाल थी, अब राष्ट्रपति बनेंगी) पर बैठे इंसान को इस तरह के बयान देना चाहिए जिससे अंधविश्वास और अज्ञानता बढ़ती है।
लेकिन यह मामला बस श्रीमती प्रतिभा पाटिल से जुड़ा नहीं है, यह पूरी तरह 'अंग्रेजी' कल्चर है क्योंकि हम जानते हैं कि अगर यह बात भाजपाई उम्मीदवार कहते तो वे सांप्रदायिक कहलाते क्योंकि वह पार्टी सैध्दांतिक रूप में भी सांप्रदायिक है। लेकिन यह बात कांग्रेसी उम्मीदवार कह रही हैं इसलिए सांप्रदायिक नहीं है (कांग्रेस सैध्दांतिक रूप से सांप्रदायिक नहीं है, सिर्फ व्यवहारिक रूप से सांप्रदायिक है) और चूकि वह सांप्रदायिक नहीं है, इसलिए मुख्यधारा की वामपंथी पार्टियां उसका समर्थन करती है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

दुनिया के भोजन पर कंपनियां कब्जा करना चाहती हैं -डॉ. शिव चोपड़ा

भारत में पशु चिकित्सा विज्ञान (वेटेनरी साइंस) में उच्च शिक्षा और डाक्टरेट की डिग्री लेकर मैं कनाडा में एक वैज्ञानिक की तरह एक सरकारी प्रतिष्ठान में सेवा करने लगा। 1969 से 1989 तक बीस वर्ष मैं प्रचलित व्यवस्था का अंग था। उस समय अन्य वैज्ञानिकों की तरहमैं भी मानता था कि विज्ञान सब कुछ कर देगा, स्वास्थ्य में, भोजनमें, सभी में। विज्ञान ही मानवता की आशा है, ऐसा मैं भी मानता था।
पर धीरे-धीरे मुझे उस व्यवस्था पर संदेह होने लगा। मैं समझने लगा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जिनमें मोनसांटो का नाम पहले आता है, दिखावा तो करती है कि रिसर्च कर रही हैं, पर दरअसल वह रिसर्चनहीं कर रही हैं, वह सिर्फ पैसा बना रही हैं। ये कंपनियां कहती हैं कि देशों के कानून बड़े कठोर हैं, उनमें ढिलाई होनी चाहिए। वैज्ञानिक जो कार्य करें उन पर कानून लागू नहीं होने चाहिए। मुझे काम करते-करते यह शक होने लगा कि एड्स का रोग दवाओं के कारण भी बढ़ रहा है।
इस बीच एक घटना मेरे परिवार में घटी। मेरी पत्नीनिर्मला खुद वैज्ञानिक हैं। उसे भी कई बातें स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक महसूस हुई। उन्होंने ब्रेस्ट इम्प्लांट का विरोध किया। इसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
1990 के आते-आते मेरी उलझनें बढ़ने लगी। मैंने सवाल पूछने शुरू कर दिये। खासतौर से हारमोन के क्षेत्र में। बोबाइन ग्रोथ हारमोन का प्रयोग खतरनाक है, ऐसा मुझे वैज्ञानिक परीक्षण से पता चला। इन्हें देने से पेनक्रियाज और नर्वस सिस्टम बिगड़ता है। यह मेरे संज्ञान में आने लगा। मैंने 'बोबाइन ग्रोथ हारमोन' के उपयोग पर सवाल पूछने शुरू किये। मैंने ऊपर के वैज्ञानिकों, विभाग से संबंधित मंत्रियोंको पत्र लिखे और वैज्ञानिक प्रमाण देकर बताया कि इस हारमोन का प्रयोग कितना खतरनाक है और कंपनियां अपना उत्पादन और मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में विज्ञान की उपेक्षा कर रही हैं।
दरअसल कई मल्टीनेशनल कंपनियां जैसे-फाइजर, इली-लिली और मोनसांटो इस क्षेत्र में बहुत बड़ा व्यवसाय देख रही थीं। इनमें दो कंपनियां इली-लिली और मोनसांटो सबसे बड़ी लुटेरी हैं। ये एक-दूसरे पर निगाह भी रखती हैं, पर साझे स्वार्थ के लिए एकजुट भी हो जाती हैं। मोनसांटो का अमरीका के व्हाइट हाउस पर प्रभाव था। इन कंपनियों ने अपना मंतव्य पूरा करने के लिए कनाडा का इस्तेमाल किया। अपने 4-5 लोग मुख्य स्थानों पर बैठा दिये जो सरकारी नीतियों को प्रभावित कर सकें। इन कंपनियों ने एक बड़ी चाल चली। इन्होंने अफ्रीका के छोटे-गरीब 14 देशों में लोभ-लालच देकर अपने जीएम बीज को मान्यता दिलवायी और वे कनाडा पहुंची और कहा देखिए कितने देशों ने मान्यता दे दी है, आप भी दीजिए! इस प्रकार कनाडा से भी मान्यता प्राप्त कर ली। हकीकत यह है कि इन जीएम बीजों को न लोग चाहते हैं और न ही किसान।
एंटीबायोटिक्स का मुद्दा भी अत्यन्त गंभीर है। 75 फीसदी से अधिक एंटीबायोटिक्स खेती में इस्तेमाल किये जाते हैं। इनके कारण जो अच्छे बैक्टीरिया होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। अब सभी बैक्टीरिया प्रतिरोधी रेजिस्टेंट हो गये हैं। अत: एंटीबायोटिक्स काम नहीं करते पर उनका इस्तेमाल जारी है जिसका नतीजा यह है कि हजारों लोग मर रहे हैं। पर सरकारें इसे मानने को तैयार नहीं हैं।
यूरोप ने एंटीबायोटिक्स पर प्रतिबंध लगा दिया है पर अमरीका, कनाडा ने नहीं। इस पर डब्लूटीओ में अमरीका और यूरोपीय संघ के बीच बड़ी लड़ाई चल रही है। अमेरिका में बड़ी मात्रा में दूध, मांस पैदा हो रहा है। अमेरिका उसको हर कीमत पर बेचना चाहता है। वैज्ञानिकों को पूछा नहीं जाता। व्यापार ने दरअसल सरकारों पर नियंत्रण कायम कर लिया है। पीछे के दरवाजे से घुसी कंपनियां सरकारों से वही करारही हैं, जो वे चाहती हैं।
ये सारी बातों की पोल मैंने खोली। हमारा विभाग तथा कनाडा की सरकार आग बबूला हो गयी। मेरे ऊपर इल्जाम लगाया कि यह व्यक्ति विदेशीहै, बहुत सवाल पूछता है, जिसका इसको हक नहीं है। मैंने कनाडा सरकार पररंगभेद का मुकदमा दायर किया और 1997 मेंजीता।
मेरे ऊपर इल्जाम लगाया कि शिव चोपड़ा लाइलाज है। पर मैंने कहा 'जो यहां हो रहा है, वह भ्रष्टाचार है। मैं इसे नहीं होने दूंगा।' परमेरे ऊपर प्रतिबंध लगा दिया कि मैं किसी विषय पर मुंह नहीं खोलूंगा। मेरे साथ 5 वैज्ञानिक और इस लड़ाई में खड़े हो गये। हम छ: लोगों की नौकरी खत्म कर दी गयी। मेरी जो मानसिक प्रताड़ना हुई, उसे मैंने गांधीजी को याद करके, उनकी आत्मकथा पढ़ कर साहस के साथ पार किया।
कंपनियां आखिर चाहती क्या हैं? वे पूरी दुनिया के खाद्य भंडार पर पूर्ण नियंत्रण चाहती हैं। इसके लिए एक तो उन्होंने जेनिटकली मोडीफाइड फसलों का रास्ता पकड़ा है और दूसरा जानवरों के क्लोनिंग का। इसके लिए अमरीका की कंपनियां कई तरीके अपना रही हैं।
भोजन ईश्वर ने बनाया है,बिना हारमोन का, बिना एंटीबायोटिक्स का, बिना जीएमओ का।आज गायों में जो भयंकर बीमारियां मेडकाउ जैसी फैली हैं, उनका मूल कारण यही है कि उन्हें मांसाहारी भोजन ज्यादा मांस, दूध बढ़ाने के लिए दिया जा रहा है। कत्लखानों में जो बचता है उसे सुखा कर चूरा बना कर गायों के भोजन में मिला दिया जाता है।
बर्डफ्ल्यू एक बड़ा धोखा है। यह हमेशा पूर्व में फैलता है। लाखों-करोड़ों मुर्गियां मार दी जाती हैं। तभी तो वालमार्ट को अपने हारमोन, एंटीबायोटिक्स और जीएमओ वाली मुर्गी बेचने का मौका मिलेगा। यह हमारा दैविक अधिकार है कि हम जैविक भोजन प्राप्त कर सकें। इसके लिए कंपनियों को ध्वस्त करना होगा।
(डॉ. शिव चोपड़ा भारतीय मूल के कनाडाई जीवविज्ञानी हैं। हारमोन, एंटीबायोटिक्स पर की गयी शोधों के लिए इन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले हैं। लेकिन बहुराश्ट्रीय कंपनियों द्वारा हारमोन, एंटीबायोटिक्स का दुरुपयोग करने पर इन्होंने विरोध किया, लम्बी लड़ाइयां लड़ीं, कानूनी लड़ाइयों में विजयी भी हुए। पर कंपनियों के सरकारों पर दबाव होने के कारण इन्हें अन्तत: अपनी वैज्ञानिक के रूप में नौकरी खोनी पड़ी। मांनसांटो जैसी कंपनियों के विरोध में वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करके वे संघर्ष कर रहे हैं।)

औद्योगिकीकरण-अब कौन सी राह ?

-प्रो. अमित भादुरी

यदि बहुदलीय संसदीय प्रजातंत्र का मतलब जनता को राजनीतिक चयन की स्वतंत्रता देना है, तो फिर भारत में इसके लिए ढेरों छोटी-बड़ी पार्टियां मौजूद हैं। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर शायद ही किसी भी पार्टी के पास कोई नया विकल्प रह गया है। वस्तुत: आज राजनीतिक दलों के पास न तो कोई राजनीतिक एजेन्डा रह गया है, न ही आर्थिक। फिर भी भ्रमित पार्टियां ' आर्थिक वृध्दि', 'औद्योगिकीकरण' और विकास के नारे लगा रही हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर आर्थिक वृध्दि दर बढ़ाने के लिए एक निश्चित प्रकार के औद्योगिकीकरण की जरूरत हो, तो क्या इस औद्योगिकीकरण को विकास का पर्याय माना जा सकता है?
आर्थिक वृध्दि दर बढ़ाने के लिए भारत में इस समय जिस तरह का औद्योगिकीकरण हो रहा है। उसमें नवउदारीकरण की तीन मुख्य विशेषताएं नजर आती हैं। पहली:- इसके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियां काम कर रही हैं। दूसरी:- ये कंपनियां अधिकांशत: निजी क्षेत्र की हैं। तीसरी:- केन्द्र व राज्य सरकारें नियामक की बजाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की एजेन्ट बन गयी हैं। सभी राजनीतिक दल यथास्थिति से सहमत हैं। इस बात को बार-बार दोहराया जा रहा है। कि ऐसे औद्योगिकीकरण के लिए त्याग की जरूरत है। लेकिन इस सच्चाई को सभी छुपाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह त्याग सिर्फ गरीबों को करना है। अमीरों को तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं है, उस पर तुर्रा ये कि उन्हें तो सरकार से सहायता भी दी जा रही है॥ सिंगूर, पश्चिम बंगाल में टाटा को दी जाने वाली अनुमानित सबसिडी 1000 करोड़ रूपये के निवेश पर 850 करोड़ रुपए से भी ज्यादा है। इसी तरह की डील उत्तर प्रदेश के दादरी, महाराष्ट्र के रायगढ़ के सेज के लिए अंबानी बंधुओं के साथ होने की बात सामने आ रही है।
नवउदारीकरण ने आज पारम्परिक राजनैतिक विभिन्नताओं को समाप्त कर दिया है। सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं ने यह बता दिया है कि वामपंथी दल भी विश्वबैंक, आईएमएफ और एडीबी जैसी संस्थाओं का समर्थन करने वाले केन्द्र में बैठे आर्थिक नीति-निर्माताओं से भिन्न नहीं हैं। राम मंदिर और वंदेमातरम् के झंडावरदार हिंदुत्ववादी भी अंत में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने ही शीश नवा रहे हैं। राजनीति दोगली हो गयी है। 1984 के दंगों के जनसंहार को शायद कांग्रेस भूल गयी है। वामदल गुजरात के 2002 के दंगों को बार-बार उठाते हैं, जिसे भाजपा राज्य सरकार झूठे प्रचार के माध्यम से दबाती है। एक ओर आडवाणी नंदीग्राम में हुए जनसंहार की तुलना जलियाँवाला बाग से करते हैं, तो वामपंथी नेता और समर्थक इसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना का नाम देकर चुप्पी साध लेते हैं। सिंगूर और नंदीग्राम की तरह टाटा को जमीन देने का विरोध कर रहे कलिंगनगर के 13 आदिवासियों पर पुलिस ने बिना चेतावनी के ही गोलियां चला दीं। क्या ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं पर बचाव के लिए कोरे शब्दों का इस्तेमाल करना ठीक होगा कि नवीन पटनायक बुध्ददेव भट्टाचार्य से इसलिए अलग हैं, क्याेंकि वह भिन्न पार्टी से हैं?
उदारीकरण के इस दौर में सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नेतृत्व और राज्य को एजेन्ट वाली भूमिका का औद्योगिकरण ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन दूसरी ओर देश में सब ओर इस तथाकथित विकास के विरूध्द विद्रोह पनप रहा है। महाराष्ट्र, पंजाब, आंध्रप्रदेश में किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। क्योंकि सरकार डब्लूटीओ के झंडे तले एक नए प्रकार की व्यवसायिक कृषि लाद रही है, जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारी निवेश तो है। लेकिन किसानों के उत्पाद का न तो उचित मूल्य है और न ही कोई सबसिडी। उधर छत्तीसगढ़ में भी सलवा-जुडुम के नेतृत्व में आदिवासियों को उग्रवाद के नाम पर उनके घरों से निकाला जा रहा है। क्योंकि वहां की खनिज संपदा पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनी गिध्ददृष्टि लगाए हुए हैं। गरीब आदमी देश की अपार प्राकृतिक संपदा का मालिक है, फिर भी उसके इस अधिकार को नकारा जा रहा है।
संवैधानिक तौर पर भूमि राज्य का विषय होने के बावजूद भी विभिन्न राज्य सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपापात्र बनने के लिए भूमि कब्जाने की होड़ में लगी हुई हैं और शान से कहती हैं' पश्चिम बंगाल में भले ही न सही हम उत्तरांचल में अपने मकसद् में जरूर कामयाब होंगे' या टाटा, जिंदल या और ऐसी किसी भी कंपनी की खुशामद के लिए हम उड़ीसा से भी ज्यादा भयानक बन सकते हैं।
जमीनें अलग-अलग तरीकों से कब्जाई जा रही हैं, खनन, उद्योगों, विशाल रियासतों, आईटी पार्कों और विदेशी क्षेत्रों- सेज के नाम पर। विदेशी क्षेत्र का उपबंध भूमि के निजी स्वामित्व के अधिकार को जनहित में राज्य के अधिकार में बदल देता है। इसमें भूमि के साथ पानी, खनिज आदि भी शामिल है। एक कृषि प्रधान देश में जहां भूमि ही रोजी-रोटी का मुख्यस्रोत है, जहां किसान के लिए जमीन ण्क सम्पत्ति नहीं बल्कि रोजी है; वहां आम आदमी से जबरदस्ती संसाधन छीनकर निजी कंपनियों को दिए जा रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने के पुराने अधिनियम में ही 1984 में कुछ संशोधन करके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधने के लिए गरीब से न केवल निवाला छीना जा रहा है; बल्कि उसे घर से भी बेघर किया जा रहा है। प्राय: ऐसा कहा जाता है कि इस आर्थिक प्रक्रिया में लगातार लाभ प्राप्त करता और खोने वाले होते हैं, जिसे शुम्पीटर ने 'रचनात्मक विनाश' का नाम दिया है। हालांकि वर्तमान संदर्भ में यह एक भ्रमित करने वाला आधा सच है। यदि ऐसा 'रचनात्मक विनाश' पूंजीवादी विकास की आम प्रक्रिया होती तो शायद निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफ से जनहित के नाम पर राज्य को हस्तक्षेप करने की जरूरत ही न पड़ती। इस लेन-देन में दो निजी पक्ष बहुराष्ट्रीय कंपनी और जमीन का मालिक किसान शामिल है। राज्य का कर्य तो इस लेन-देन को ऐच्छिक बनाने के लिए होना चाहिए। क्योंकि इस सौदे में एक पक्ष यानी किसान आर्थिक रूप से कमजोर है। इसका मतलब होगा कि कंपनियां उस मुल्य पर तमीन खरीदें। जहां किसान स्वेच्छा से उसे बेचने के लिए तैयार हों। उसका निर्णय चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक। आदिवासियों की जमीन के सौदे के लिए तो निर्णय सामूहिक होना चाहिए। लेकिन आज किसानों और कंपनियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा के बजाय राज्य सूचना के अधिकार की परवाह किए बिना हिंसा और दमन से जमीनें कब्जा रहे हैं।
सेज की योजन में भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित-साधन ही है। भले ही नंदीग्राम और सिंगूर में कानूनी रूप से टाटा व फिएट के ज्वांइट वेंचर और सलेम ग्रुप के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण कानूनी रूप से सही रहा हो, परन्तु उन किसानों के नजरिए से देखा जाए, जो उस जमीन से जीविका पाते थे, तो गलत है। नंदीग्राम की घटना के बाद ज्यादातर राजनीतिक दल, जिसमें वामदल भी शामिल हैं, ने सरकार को यह सलाह दी की कि सभी सेज को खत्म न किया जाए बल्कि उनका अधिकतम भूमि का दायरा सीमित कर दिया जाए। हालांकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को किसानों से छीनकर दिए गये संसाधनों में केवल जमीन ही दिखाई देती है, लेकिन सम्स्याएं तो और भी गहरी हैं। परोक्ष और अपरोक्ष दोनों रूपों से नीतियां गरीबों के खिलाफ बनाई जा रही हैं, योजनाओं में सीधे तौर पर देखा जा सकता है। भारत की 60 फीसदी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। परन्तु पिछली जितनी भी पंचवर्षीय योजनाएं थीं, उसमें सरकार ने पाँच फीसदी से अधिक कृषि को नहीं दिया। अपरोक्ष रूप फसल की खपत और पैदावार के प्रति सरकार द्वारा तय नीति में देखा जा सकता है। कई बड़ी परियोजनाएं जैसे मॉल्स, भूमिगत मैट्रो सब जनता के खर्च पर शहरीकरण की अच्छी छवि बनाते हैं। इन सब चीजों को मूलभूत सुविधा मानकर स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि इनसे यात्रा में समय की बचत होती ही है। जीवन स्तर भी बेहतर बनता है। साथ ही निवेश को भी बढ़ावा मिलता है। यह तर्क गलत नही ंतो एकतरफा तो जरूर है। हमें जरूरत तो है, पर शायद ही हम उस ग्रामीण भारत को सुविधाएं और बेहतर बनाने के बारे में सोचते हैं। जहां देश की अधिकांश आबादी रहती है।
महानगरों में हमें मूलभूत सुविधाएं चाहिएं। मैनहटन जैसे शहर हमारा लक्ष्य बना दिए गये हैं। जबकि भारत में 25 से 60 फीसदी जनसंख्या को झोपड़पट्टी में मानवीय जीवन की सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। यह पक्षपात क्यों? इससे किसको लाभ होगा। उस धनाढय शहरी वर्ग को, जो कि शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है। जहां रोज बिजली-पानी और जगह की हवस बढ़ती जा रही है। इसलिए बिना पुनर्वास के झोपड़पट्टियां उजाड़ी जा रही हैं। आवागमन के नए साधन जिनके लिए नए फ्लाई ओवर, नए तरह के शॉपिंग व आवासीय काम्पलेक्स को हम बढ़ावा दे रहे हैं, आश्चर्यजनक है! यह सब गहन बिजली खपत करते हैं। जिसका खामियाजा उन लोगों को भी भुगतना पड़ता है, जो इसका उपयोग नहीं करते। इसलिए किसानों को पानी, बिजली, साफ पीने का पानी और शौचालय आदि गाँवों में मयस्सर नहीं है।
यह सोच कि उद्योग कृषि से ज्यादा सक्षम हैं, वास्तव में किसान और गरीब विरोधी हैं। लगभग दो-तिहाई भारत की कामकाजी जनसंख्या कृषि कार्य करती है और राष्ट्रीय आय में मात्र एक चौथाई ही देती है, जबकि उद्योग राष्ट्रीय आय में दुगना देते हैं।
दूसरे तरह के विकास करने वाला आर्थिक विकल्प भी संभव है। जिसके तत्व आज के राजनीतिक-आर्थिक पध्दति में मौजूद हैं, जो तीन बातों पर निर्भर हैं; पहला हमें विदेशी बाजार की बजाए अपने ञ्रेलू बाजार पर विश्वास करना होगा। आम आदमी की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए रोजगार के अवसर को बढ़ाना होगा। कुछ सालों में भारत का रिकॉर्ड इस दिशा में कुछ खास अच्छा नहीं रहा हैं। ऐसा सोचना तो मूर्खता ही होगी कि कंपनियां से रोजगार पैदा हाेंगे क्याेंकि इनको मुनाफा चाहिए, जिसके लिए वह कम से कम लागत में काम करना चाहती है, इसमें श्रम की लागत भी शामिल है। अगर हम भूमण्डलीकरण को बिना शर्त स्वीकार करते हैं, तो बजाए घरेलू बाजार के विदेशी बाजार ही मजबूत होगा, मतलब निर्यात बढ़ाने क लिए श्रम की लागत में कमी होगी, ज्यादा निर्यात का मतलब, यहां की जनता की जरूरत के हिसाब से उत्पादन का नहीं होना है। घरेलू बाजार के विकास के लिए जरूरी है, रोजगाार के अवसर। अत: हमें भूमण्डलीकरण का चुनाव सोच-समझ से करना होगा।
दूसरा, रोजगार की बढ़ोत्तरी से आर्थिक विकास होना चाहिए न कि आर्थिक विकास के लिए रोजगार ही खत्म कर दिए जाएँ। रोजगार रोजगार वृध्दि आर्थिक वृध्दि दर में कितना योगदान देती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी उत्पादकता से श्रम को लगाया जा सकता है। भारत इस क्षेत्र में बहुत पीछे है, जिसके नतीजे अच्छे नहीं हैं। कारण केन्द्रीकृत नौकरशाही, जो स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णयों को खत्म कर देती है। हमें एक नई शुरुआत करनी होगी, सामाजिक रूढ़िवाद और नवउदारवादी नीतियों के मिले-जुले स्वरूप के साथ। एक ओर तो हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल से बचना है, जिसके लिए हमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि को केन्द्रीय बिन्दु बनाना होगा, दूसरी तरफ़ हमें मौजूदा केन्द्रीकृत नौकरशाही को खत्म करना होगा। यह तभी संभव है, जब मौजूदा राष्ट्रीय रोजगार गारन्टी योजना को पूर्ण रोजगार में तब्दील कर पंचायताें तथा स्थानीय लोगों को अधिक से अधिक शक्तियां दी जाएं ताकि वे अपने स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा कर रोजगार दें। इसके लिए जमीन से संबंधित स्थानीय नियंत्रण पंचायतों को अधिकतम आर्थिक स्वायत्तता देना पहली शर्त है। हालांकि संविशान के अनुच्छेद 243 के अनुसार ग्राम्य/वार्ड स्तर के स्थानीय निकायों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने और सहायता देने के लिए 1993 में एक वित्त आयोग की स्थापना की जानी थी। लेकिन न तो केन्द्र और न ही राज्य की सरकारों ने इसे गंभीरता से लिया।
लेकिन न तो केन्द्र की सरकार ने और राज्य की सरकार ने इसे गम्भीरता से लिया। इस मामले में केरल अव्वल रहा तो पश्चिम बंगाल सबसे खराब। गौरतलब है कि वामदल ने नरेगा को पास कराने में अहम भूमिका निभाई, परंतु आश्चर्यजनक बात यह है कि मात्र 14 फीसदी धन का जो कि रोजगार के लिए आबंटित हुआ था, पुरूलिया के लिए प्रयोग में लाया गया। दिसम्बर 2006 तक केन्द्र द्वारा आबंटित आधे से ज्यादा धन खर्च ही नहीं किया गया और न ही 16 दिन से ज्यादा का रोजगार दिया गया; जबकि नियम के हिसाब से 100 दिन का होना चाहिए था। अगर सरकार ने थोड़ा भी अपना ध्यान या थोड़ी भी इच्छाशक्ति रोजगार देने के वादे पर लगाई होती तो भूमि अधिग्रहण के बजाए यह सही विकास की दिशा में पहला कदम होता।
अंत में सवाल आता है कि इन सब के लिए धन कहाँ से आएगा? उसका सही उपयोग किस तरह होगा? वित्त संबंधी जिम्मेदारी और बजट व्यवस्था अधिनियम-2003 ने रोजगार जैसे आवश्यक मामलों में धन खर्च करने के लिए सरकार के हाथ बांधे हुए हैं, इसे खत्म कर देना चाहिए। आर्थिक मदद के नाम पर सरकार अधिनियम की आड़ में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और मूलभूत सुविधाओं जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा में खर्च की कटौती कर वित्तीय अनुशासन के नाम पर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही है। इससे तो विश्वबैंक, आईएमएफ और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ही भला हो रहा है। वे तो चाहते ही यही हैं कि राज्य इन्हें बनाए नहीं बल्कि केवल लागू करने की भूमिका करें। वामदलों को इसके विरुध्द कार्य करना चाहिए और आग्रह करना चाहिए कि यह धन प्राथमिक शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य एवं असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा पर खर्च किया जाना चाहिए। अगर जरूरत पड़े तो कानूनों में बदलाव किया जाना चाहिए। इस नवीन उदारवादी अर्थिक विचारधारा के खिलाफ पहले थोड़ा बहुत हल्ला तो हुआ परंतु अब सबकी उर्जा इसी बहुराष्ट्रीय औद्योगिकरण पर लग रही है।
स्थानीय संस्थानों की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा उनके बजट को अलग से राष्ट्रीय बैंको में भी रखा जा सकता है, जिसमें पंचायतों को भी क्रेडिट लाइन दी जाए, जो कि राष्ट्रीय बैंकों से मिले जिसमें पंचायत भी शामिल हों। इसका यह फ़ायदा होगा कि कोई फ़र्जी संस्थान नहीं चला पाएगा और व्यवस्था द्वारा इन पर निगाह भी रखी जा सकेगी यानी 'नियंत्रण व संतुलन' की व्यवस्था कायम हो सकेगी कि इन्होंने जिन परियोजनाओं के लिए धन लिया था उन पर कार्य किया कि नहीं तभी आगे की परियोजनाओं के लिए धन मिलेगा।
इससे भले ही विकास की गति 8 से 10 फीसदी न हो, परंतु समाज के गरीब तबके का भला होगा और वह सबल और सक्षम बन सकेगा, जिससे भारत की गणतंत्र व्यवस्था मजबूत होगी। हम उम्मीद कर सकते हैं कि कंपनीहीन विकास ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देगा, जो कि मुख्य बिन्दु है, जिससे देश आगे बढ़ेगा।

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