बेटियों की जिस्मफरोशी से जिंदा समाज

जिस तरह देश में मंदसौर अफीम उत्पादन, तस्करी के लिए मशहूर है, उसी तरह नीमच, मंदसौर, रतलाम के कुछ खास इलाके भी बाछड़ा समाज की देह मंडी के रुप में कुख्यात है। जो वेश्यावृत्ति के दूसरे ठिकानों की तुलना में इस मायनें में अनूठे हैं, कि यहां सदियों से लोग अपनी ही बेटियों को इस काम में लगाए हुए हैं। इनके लिए ज्यादा बेटियों का मतलब है, ज्यादा ग्राहक! ऐसे में जब आप किसी टैक्सी वाले से नीमच चलने के लिए कहते हैं, तो उसके चेहरे में एक प्रश्नवाचक मुस्कुराहट स्वत: तैर आती है। इस यात्रा में अनायास ही ऐसे दृश्य सामने आने लगते हैं, जो आमतौर पर सरेराह दिनदहाड़े कम से कम मप्र में तो कहीं नहीं देखने को मिलते। हां, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जरूर कभी- कभार दिख रहते हैं। पलक झपकते ही मौसम की शर्मिला टैगोर , चांदनी बार की तब्बू , चमेली की करीना आंखों के सामने तैरने लगती हैं। (दिन-दहाड़े सरे-राह बाछड़ा जाति करवाती है, अपनी ही बेटियों से वेश्यावृत्ति)यह आलेख अभी डिस्पैच में है।

ब्लॉग के बक्से में हिंदी

ब्लॉग को हम कंप्यूटर पर लिखी जाने वाली निजी डायरी कह सकते हैं - ऐसी डायरी, जिसे हम सार्वजनिक करना चाहते हैं। हिन्दी में ब्लॉग की संख्या एक हजार से ज्यादा हो गई है। इस कंप्यूटरी डायरी को चलाने में कंप्यूटर और इंटरनेट के इस्तेमाल के अलावा कोई खर्च नहीं होता। आज हजार से ज्यादा लोग हिन्दी पर अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं और उससे कहीं ज्यादा लोग उसे पढ़ रहे हैं। हिन्दी को मिली इस तकनीकी शक्ति की सीमाएं क्या हैं और इससे पूरी होने वाली उम्मीदें कौन सी हैं? जब हिन्दी ब्लॉग पर चर्चा हो तो यह सवाल उठना वाजिब ही है कि कितने हिन्दी भाषी कंप्यूटर साक्षर हैं और निजी या कैफे के कंप्यूटर तक कितनों की पहुंच है। लेकिन यह सवाल अपने सीमित दायरे में पढ़ने-लिखने के शेष माध्यमों के लिए भी लागू होती है। हिन्दी ब्लॉग की दूसरी सीमा है इंटरनेटी हिन्दी के मानकीकरण की। हालांकि इससे जुड़ी समस्याओं के बारे में न तो हर साल हिन्दी पखवाड़ा के रूप में हिन्दी का मर्सिया पढ़ने वाले सरकारी संस्थानों ने और न ही हिन्दी के लिए जान-प्राण देने का दावा करने वाले हिन्दी मठाधीशों ने कोई कोशिश की। लेकिन यूनीकोड ने हिन्दी ब्लॉग की इस तकनीकी सीमा को लगभग दूर कर दिया है। अब बहुत तेजी से हिन्दी में ब्लॉग की संख्या बढ़ने वाली है। सीमित लोगों तक पहुंच के कारण हिन्दी ब्लॉग की अनदेखी नहीं की जा सकती। ब्लॉग-लेखन का चलन हिन्दी दुनिया के लिए भले नई चीज है, मगर इसका समाज पर कुछ तो प्रभाव पड़ेगा। कम से कम इतना कि खाता-पीता हिन्दी मध्यमवर्ग जिसके लिए सोचना-विचारना धीरे-धीरे गैरजरूरी होता जा रहा वह भूल-भटके ही सही - इंटरनेट की दुनिया में विचरते-विचरते हिन्दी के किसी उद्वेलित करने वाले ब्लॉग तक पहुंच जाए और उसे भी देश, दुनिया और समाज के बारे में सोचने की आदत लग जाए। कई तरह के असंतोष और हाशिए के लोगों की आवाज दूसरे माधयमों की तुलना में ब्लॉग पर आसानी से पहुंच सकती है। कई तरह की बहस के लिए मुख्यधारा में जगह नहीं होती। मिसाल के तौर पर न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में बात करना हो तो, ब्लॉग एक आसान माध्यम है, क्योंकि परंपरागत माध्यम में इस तरह की चर्चा नहीं हो सकती। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि हिन्दी-जगत को ब्लॉग का यह तोहफा हिन्दी को संप्रेषण का सशक्त माध्यम बनाने को कटिबद्ध दिखने वाली सरकार का दिया हुआ नहीं है। यह कमाल है बहुत से शौकिया लोगों और अर्धव्यवसायी संस्थाओं का। साभार -सामयिक वार्ता

बाजार और मीडिया का दुलारा क्रिकेट

दक्षिणी अफ्रीका में हुए क्रिकेट के बीस-बीस ओवरों के दंगल में 'टीम इंडिया' की जीत के बाद 'टीम इंडिया' के खिलाड़ियों को 'राजकुमार' और 'विश्व विजेताओं' का दर्जा दिया गया। उन पर फूला ही नहीं धन की भी अभूतपूर्व वर्षा हुई। क्रिकेट पर हुई इस प्रेम-वर्षा से कुछ सवाल नए सिरे से उठे हैं। सबसे पहला सवाल हाल में एशिया कप जीते हॉकी खिलाड़ियों की ओर से आया। उन्होंने हॉकी के प्रति सौतेलेपन की शिकायत की और मांग रखी कि यदि 'राष्ट्रीय खेल' पर भी यूं ही धन और फूल न बरसाए गए तो वे लोग भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। हॉकी की शिकायत में थोड़ा बौनापन और अकेला होने का अहसास था। हॉकी ने अपने प्रति सौतेलापन तो महसूस किया लेकिन बाकी कई सारे खेलों के अनाथ जैसा होने के सच से अपने को अलग रखा। हॉकी ने अपने हक की मांग की भी तो सबको साथ लेकर नहीं बल्कि राष्ट्रीय खेल होने की दावेदारी के साथ। क्रिकेट की राजनीति में कुछ सवाल और भी छुपे हैं। सबसे पहले यह सोचने की जरूरत है कि क्रिकेट के इतने लोकप्रिय दिखने के पीछे असली कारण क्या हैं। चलिए हम इस सच्चाई को अनदेखा कर देते हैं कि कुछेक अपवादों को छोड़कर क्रिकेट उन्हीं देशों में लोकप्रिय हुआ जहां किसी-न-किसी रूप में कभी न कभी अंग्रेजों का उपनिवेशवाद रहा। लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि असल में यह बाजार और मीडिया की अपनी जरूरत है कि क्रिकेट को लोकप्रिय बनाया जाए। यह क्रिकेट ही है जो भारत के मध्यम वर्ग को टी.वी. के सामने ला बिठाता है। बाजार जिस ग्राहक तक पहुंचने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए रखता है, वह एकमुश्त उसके तमाशे को देखने वाला बंधुआ दर्शक बन जाता है। इस तरह देखा जा सकता है कि क्रिकेट के विश्व विजेताओं पर बरसने वाले लाख-करोड़ इसके दर्शकों की जेब से गए पैसे ही हैं। क्या हमारे पास बाजार के बंधुआ दर्शक बनने के अलावा कोई विकल्प है? क्रिकेट बाकी खेलों के हिस्से की रोटी मार कर मक्खन तो खा ही रहा है खेलों की एक ठस्स-इकहरी दुनिया भी बना रहा है। बाजार का एजेंट बन अपने ही चाहने और पालने वालों की जेब भी साफ कर रहा है। सवाल पूछा जा सकता है कि क्रिकेट के जिन राजकुमारों को भारतवासियों ने हमेशा सर-आंखों पर लिया उन्होंने अपनी जिंदगी बाजार के इशारों पर ही तय की या कभी उस समाज की जरूरतों की ओर भी देखा जिसने उन्हें करोड़पति बनाया।

शिक्षा का अधिकार, राज्य और नवउदारवादी हमला

शिक्षा का अधिकार गहरे अर्थों में एक मूल अधिकार है। यह आलेख शिक्षा के अधिकार वेफ खिलाफ खड़ी व्यवस्था की जांच-पड़ताल करता है। शिक्षा से जुड़े सवालों को राजनीति के केंद्र में लाने की जरूरत पर बल देता है। इस आलेख में उठाए गए मुद्दे राजनीतिक चर्चा और पहल-कदमी की मांग करते हैं और एक सचेत नागरिक को अपनी भूमिका तय करने में मदद करते हैं।

आज से सवा सौ साल पहले महात्मा ज्योतिराव फुले ने ब्रिटिश राज द्वारा गठित भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को प्रस्तुत अपने ज्ञापन में एक विडंबना का जिक्र करते हुए कहा था कि सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनतकश किसान-मजदूरों से आता है लेकिन इसके द्वारा दी जाने वाली शिक्षा का प्रमुख लाभ उच्च वर्ग और उच्च वर्ण उठा लेता है। महात्मा फुले की यह टिप्पणी भारत की आज की शिक्षा पर भी सटीक बैठेगी। सन् 1911 में इम्पीरियल असेम्बली में गोपाल कृष्ण गोखले ने मुफ्रत और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का विधेयक पेश किया। लेकिन यह विधेयक सामंती और नव-ध्नाढय ताकतों के विरोध ..... .. पूरा पढ़ें
साभार- सामयिक वार्ता

भाषाओं की सिकुड़ती दुनिया - चंदन श्रीवास्तव

जानकार कहते हैं कि भाषाओं का भूगोल सिकुड़ता जा रहा है। भाषाएं मिट रही हैं और उनके मिटने की रफ्तार हैरतअंगेज है। इस सदी के अंत तक आज के मुकाबले दुनिया में भाषाओं की तादाद आधी रह जाएगी। भाषाओं का मिटना उनके भीतर समाए ज्ञान का मिटना तो है ही कहीं न कहीं मानवता के भविष्य पर मंडराती एक बड़ी विनाशलीला की भी पूर्व-सूचना है।
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साभार- सामयिक वार्ता

मध्य प्रदेश में लोकतंत्र को जिला-बदर - रपट - सुनील

भारत एक लोकतंत्र है। कई बार हम गर्व करते हैं कि जनसंख्या के हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। अपने पड़ोसियों की तुलना में भी हमने लोकतंत्र को बचाकर रखा है। लेकिन इस लोकतंत्र में आम लोगों की इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा चेतना को बाधिात करने व कुचलने की काफी गुंजाइश रखी गई है। ऐसा ही एक मामला मध्य प्रदेश के हरदा जिले में सामने आया है। हरदा जिले के कलेक्टर ने इस जिले में आदिवासियों, दलितों और गरीब तबकों को संगठित करने का काम कर रहे एक दंपति को जिला बदर करने का नोटिस दिया है। समाजवादी जन परिषद् से जुड़े शमीम मोदी और अनुराग मोदी पर आरोप लगाया गया है कि वे बार-बार बिना सरकारी अनुमति के बैठकों, रैली, धरना आदि का आयोजन करते हैं तथा आदिवासियों को जंगल काटने और वनभूमि पर अतिक्रमण करने के लिए भड़काते हैं। वे परचे छपवाते हैं और जबरन चंदा करते हैं। मध्य प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम 1990 की धारा 5(ख) .......पूरा पढ़ें
साभार- सामयिक वार्ता

परमाणु ऊर्जा कुछ अनबुझे प्रश्न - गोपा जोशी

हाल ही में हरियाणा के झज्जर जिले के झाड़ली गांव में इन्दिरा गांधी बिजली परियोजना की आधारशिला रखने के बाद रैली को सम्बोधित करते हुए सोनिया गांधी ने एटमी करार का विरोध करने वालों को विकास और अमन का दुश्मन बताया। सोनिया गांधी ने आगे जोड़ा कि अमेरिका के साथ एटमी करार का मकसद गांव गांव बिजली पहुचाना है। यह हताशा में की गई टिप्पणी थी। सोनिया गांधी समझ गई थी कि अमेरिका के साथ परमाणु समझौता की कीमत संयुक्त प्रगतिशील सरकार की स्थिरता थी।लेकिन सोनिया गांधी ने हताशा में ही सही एक बड़ा अहम मुद्दा उठा दिया। इस लेख में परमाणु कार्यक्रम सम्बन्धी उपलब्ध तथ्यों की सहायता से यह समझने की कोशिश की जाएगी कि परमाणु ऊर्जा से आम आदमी की खुशहाली में कितना इजाफा होता है
परमाणु कार्यक्रम से होने वाले तथाकथित विकास की एक झलक डा. रोजेली बर्टेल,(अध्यक्ष इन्टरनेशनल इन्स्टिट्यूट आफ कनसर्न फार पब्लिक हेंल्थ तथा इन्टरनेशनल परस्पैक्टिव इन पब्लिक हेंल्थ के प्रधान संपादक) द्वारा दिये गए आकड़ों से मिल जाती है।डा. रोजेली बर्टेल का कहना है कि परमाणु हथियारों के परीक्षण से लगभग 1,200 मिलियन लोग ..............
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"विश्व बैंक बदल रहा है" - ईसाबेल ग्वेरेरो

भारत में विश्व बैंक की नई अध्यक्ष ईसाबेल ग्वेरेरो ने निजीकरण, उदारीकरण और इस अंतरराष्ट्रीय संस्था में अमेरिका का प्रभुत्व जैसे मसलों पर संकर्षण ठाकुर से बातचीत की. उन्होंने माना कि विश्व बैंक से गलतियां हुई हैं मगर पिछले कुछ समय से इसकी कार्यप्रणाली में काफी बदलाव भी आया है. देखें बातचीत के अंश
विश्व बैंक की नई अध्यक्ष ईसाबेल ग्वेरेरो ने बड़ी चतुराई से गोलमोल किया है
पीएनएन “सवाल दर सवाल है – जवाब चाहिए” कॉलम के तहत शृंखला शूरु करेगा (हिन्दी और अंग्रेजी में)
माफ करना विश्व बैंक की नई अध्यक्ष नहीं कंट्री डायरेक्टर ईसाबेल ग्वेरेरो को हम अंग्रेजी में मेल भी करेंगे।

लुधियाना का साईकिल उद्योग……..खो रहा है - डॉ. कृष्ण स्वरूप आनन्दी

सस्ते आयात के कारण देश के औद्योगिक नगरों का अवसान हो रहा है, अनौद्योगीकरण की आत्मघाती प्रक्रिया चालू हो गयी है, जिसके कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, विस्थापन और बदहाली फैल रही है।
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साईकिल उद्योग की तरह ही, लुधियाना सिलाई मशीन उद्योग का भी पिछले 100 वर्षों से केन्द्र रहा है। देश की कुल सिलाई मशीन निर्माण का 75 प्रतिशत कारोबार लुधियाना में ही होता है। यह देश का सबसे बड़ा सिलाई मशीन उत्पादन केन्द्र है। परन्तु अब यह चीनी सिलाई मशीनों और उनके कल-पुर्र्जों, जो भारतीय मशीनों और कलपुर्जों से 40 से 60 प्रतिशत तक सस्ते हैं, के मुकाबले बाजार में पिछड़ रहा है। अब बड़ी रेडीमेड वस्त्र निर्माण कम्पनियों के सिलाई केन्द्रों में भी लुधियाना की बनी मशीनों के स्थान पर जगुआर, जुलसी, पैगासस् आदि नामों की आयातित सिलाई मशीनें इस्तेमाल की जा रही हैं। कढ़ाई मशीनों का भी 60 प्रतिशत बाजार चीनी कढ़ाई मशीनों के कब्जे में आ चुका है। सियुविंग मशीन डीलर्स एण्ड एसेम्बलर्स एसोसियेशन के प्रेसीडेंट वरिन्दर रखेजा के मुताबिक ''भारतीय बाजार में चीन की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ रही है,क्योंकि सिलाई मशीनों में इस्तेमाल होने वाली सुई, सुई प्लेट, बाबिन्स और बाबिन केस जैसे जरूरी 95 प्रतिशत तक चीन से आयातित कल-पुर्जे ही इस्तेमाल हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण इनके मूल्य में भारी अन्तर होना है।'' ...........पूरा पढ़ें

ये आंसू तो घड़ियाली हैं -बलाश

लंदन के गार्जियन अखबार से लेकर अंग्रेजी के अखबार 'द हिन्दू' ने एक खबर छापी जिसे पढ़ने में तो अच्छा लगा, लेकिन जिसने सोच में डाल दिया, पहले खबर देख लें :
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23 अगस्त को लंदन में उस शहर के मेअर केन लिविंग स्टोन ने दास प्रथा की समाप्ति की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए आयोजित सभा में भावुक और ऑंखों में ऑंसू भरकर राजधानी नगर और उसकी संस्थाओं की तरफ से माफी माँगी।
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लंदन के मेअर रो पड़े जब वे स्मारक सभा में अफ्रीका से ढोकर लाये गये दसियों लाख लोगों पर ढाये गये जुल्मों और उसकी विरासत को आज भी भोगते लोगों के हालात बयान कर रहे थे। मौजूद राजनेताओं, लेखकों और विशिष्टजनों की सभा में अमरीका के मानवाधिकार नेता रेवरेंड जैस जैक्सन ने मेअर के पास जाकर उनके कन्धे पर हाथ रखकर सांत्वना दी।..........पूरा पढ़ें

कंपनी के चंगुल में फँसता किसान

मैं सरकार से पूछना चाहता हूँ कि किसान और आम नागरिक के बीच में ये ठेला वाले, रेहड़ी वाले, थोक विक्रेता वाले बिचौलियें हैं तो ये बहुराष्ट्रीय कम्पनी वाले कौन हैं ये भी तो बिचौलियों का ही काम करने आये हैं। सरकार को सोचना चाहिए कि आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आ जाने से करोड़ों लोग बेरोजगार हो जायेंगें खासकर गरीब तबके के लोग भुखमरी के चपेट में आ जायेंगे। देशी हो या विदेशी ये सारी कम्पनियाँ केवल मुनाफा कमाना जानती हैं। ऐसा लगता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हम लोगों को आर्थिक गुलामी की ओर ले जा रही हैं। इस नीति के बारे में सरकार को जरूर सोचना चाहिए, नहीं तो अगामी कुछ वर्षों के बाद किसान के साथ-साथ आम नागरिक भी शोषित होंगे।............पूरा पढ़ें

राजस्व का भारी नुकसान :

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये ओ.एफ.सी. मुनाफे की हेरा-फेरी करने की सर्वोत्ताम जगह बनी है। यहाँ ऐसा लेन-देन चलता है जिसमें मुनाफे और घाटे को कागजों पर गुणाभाग करके इस तरह समायोजित किया जाता है कि जिससे कम से कम या न के बराबर टैक्स देना पड़े। मुनाफे की यह हेराफेरी उन कम्पनियों द्वारा की जाती है जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की सम्पत्तिा की देखभाल के लिये बनायी जाती हैं।
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अपना मुनाफा छिपाने के लिये कम्पनी पेटेन्टों, कापीराइट एवं डिजाइन जैसी चीजों की मालकियत ओ.एफ.सी. स्थित कम्पनी को ट्रांसफर कर देती है और कम टैक्स वाले अधिकार क्षेत्रों में जाकर रायल्टी की रकमें वसूल कर लेती है। इसी वर्ष, दवा बहुराष्ट्रीय कम्पनी मर्क ने 2.3 अरब डॉलर के टैक्स की चोरी की। इसने अपने पेटेन्टों की मालकियत को बारामुडा स्थित अपनी ही कम्पनी को ट्रांसफर कर दिया और तब टैक्स बचा कर रायल्टी अपनी ही कम्पनी द्वारा अपने आप को दे दी। माइक्रो सॉफ्ट भी इस तरह की गतिविधियों में लिप्त है। ........पूरा पढ़ें

आफशोर बैंकिंग में खेल रही हैं घातक खेल - पीटर जिलेप्सी

(जैसे-जैसे बड़ी कम्पनियाँ और अमीरजादे अपनी दौलत आफशोर बैंकों के कर स्वर्गों (टैक्स हैवन्स) में जमा कर रहे हैं वैसे-वैसे दुनिया भर के देशों को भारी राजस्व की हानि उठानी पड़ रही है। 500 अरब डॉलर की हानि प्रतिवर्ष होने का अनुमान है। यह राशि संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डेवलेपमेंट लक्ष्यों को हासिल करने के लिये जरूरी धनराशि से भी ज्यादा है। दुनिया भर के नागरिक संगठन इस आफशोर वित्ताीय तन्त्र को चुनाती दे रहे हैं। इस वित्ताीय तन्त्र पर एक छोटा सा खोजपरक लेख ओटावा (कनाडा) स्थित इण्टरनेशनल सोशल जस्टिस आर्गेनाइजेशन से जुड़े शोधकर्ता पीटर जिलेप्सी ने लिखा है जो थर्ड वर्ल्ड इकानामिक्स के अंक नं.- 407, 16-31 अगस्त 07 में प्रकाशित हुआ है। इसी लेख का कुछ हिस्सा यहाँ हम दे रहे हैं- सम्पादक)
विकासशील देशों के भ्रष्ट शासकों का भारी धान ओ.एफ.सी. में जमा रहता है। इण्डोनेशिया के तानाशाह सुहार्तो ने वर्षों इण्डोनेशिया को लूटा और उनका लगभग 35 अरब डॉलर कैमान आइलैण्ड, बाहमास, पनामा, कुक आइलैण्ड, बनाऊतु, वेस्ट समोआ स्थित ओ.एफ.सी. में रखा है। मैक्सिको के पूर्व राष्ट्रपति के भाई राडल सालिनास को सिटीबैंक ने मदद करके आफशोर ट्रस्ट खुलवाया और वहाँ गुप्त खातों में इनकी रकम पहुँचवायी। रिगी बैंक ऑफ वाशिंगटन ने चिली के पिनोशेट के लिये ओ.एफ.सी. में डमी कार्पोरेशन और गुमनाम खाते खुलवाये। अफ्रीका के कुछ गरीबतम् देशों की लूट का धन भी ओ.एफ.सी. पहुँचा। 1993 से 1998 तक नाईजीरिया के तानाशाह सानी अबाचा ने स्विट्जरलैण्ड, लक्समबर्ग, लीटेस्टीन, लंदन के ओ.एफ.सी. में अरबों डॉलर पहुंचाये। जायरे के मोबुतु से से सेको और सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक के बादशाह ने अपने देशों को भूखे मार कर अरबों डॉलर लूटा और ओ.एफ.सी. में भेज दिया तथा उनके इस कार्य में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बैंकों ने बड़ी मदद की। ........पूरा पढ़ें

मुद्रा कोष: विकसित देशों का वायसराय

(विकसित देश यूं तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था के पक्षधर नजर आते हैं। परंतु अपनी स्वार्थ सिध्दि हेतु वे किसी भी विश्व आर्थिक संस्थान को प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाना चाहते। पिछले दिनों विश्व बैंक एवं अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के उच्चतम पदों पर होने वाली संभावित नियुक्तियों ने पूरी प्रक्रिया को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। चयन की इस अलोकतंत्रीय प्रक्रिया को उजागर करता संक्षिप्त आलेख। का.स.).

पिछले कुछ हफ्तों के दौरान हम सभी दुनिया की दो सबसे शक्तिशाली संस्थाओ, विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ.) के नेतुत्व परिवर्तन प्रक्रिया के साक्षी रहे हैं। परंतु इससे कोई अच्छा संदेश नहीं गया अपितु यह सिध्द हो गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप........पूरा पढ़ें

झमेला : एक-दो रुपये का

छोटे दुकानदार जिनकी दुकानदारी में खुले पैसों का बडा महत्व है, चूंकि उनकी छोटी दुकानदारी में छोटी-छोटी लेन देन के लिए छोटी मुद्रा की बडी भूमिका होती है। साथ ही छोटे खरीददार यानि जो अपनी मूलभूत आवश्यकता का सामान रोजाना खरीदते है, उनके लिए इन एक-दो रूपयों का बड़ा महत्व होता है। इन छोटे-छोटे पैसों के चक्कर में या तो दुकानदार छोटा सामान नहीं बेचे यदि उसे बेचना है तो एक-दो रूपये के खुले नोट अपने पास रखने होगें। दूसरी तरफ छोटा खरीददार या तो कम से कम 5 रूपये का सामान खरीदे या फिर अपने पास एक या दो रूपये के खुले सिक्के अपने पास रखे, जो उसके पास होते नहीं है।
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यदि इसके परिणामों पर गौर करें तो दो बातें साफ तौर पर निकलकर आती है पहली यह कि उपभोक्ता की क्रय क्षमता जो ना होते हुए भी बढेगी। क्योंकि जब एक-दो रूपये का सामान खरीदने के लिए ना तो खुले पैसे खरीददार के पास होंगे और ना ही दुकानदार के पास। तो स्वाभाविक है कि कम से कम उसे पांच रूपये का सामान खरीदना पडेगा। दूसरी छोटे दुकानदार जो गली -मौहल्लों में होते है...........पूरा पढ़ें

वो सुबह अभी तो नहीं आयेगी - प्रो. अरुण कुमार

नेहरू के ''नियती से मिलन'' नारे ने आशा जगाई की भारत नई चुनौतियों से मुकाबला करने के लिये जाग उठेगा। 60 वर्ष पूर्व उस ऐतिहासिक दिन के बाद से भारत ने काफी भौतिक उन्नति तो की है परंतु स्वतंत्रता संग्राम के कुछ अन्य लक्ष्य और भी थे। अनगिणत लोगो ने अपना 'आज' हमारे 'कल' के लिये कुर्बान कर दिया था। क्या वह सुंदर कल हमें मिला, क्या वह दृष्टि अलग नहीं थी उस दृष्टि से, जिसके लिये हमने काम किया। संदेह होता है क्योंकि भयंकर गरीबी, अक्षिक्षा और गंदगी एवं बिमारियाँ भारी कीमत वसूल रही हैं। केवल इतना ही नहीं बल्कि हमारे सामने पश्चिम का अनुसरण करने के अलावा और कोई भी दृष्टि नहीं रह गयी है और इस प्रक्रिया में हमने ये दोनो बदत्तार चीजें हीं हासिल की है।.........पूरा पढ़ें

कोला कम्पनियों का नया मंत्र: छीनो-झपटो और आगे बढ़ो - डा. कृष्ण स्वरूप आनन्दी

''एक काम जो मुझे कर देना चाहिये था वह यह कि मुझे भारत में तीन साल पहले आना चाहिये था और कहना चाहिये था; 'ये उत्पाद दुनिया के सबसे सुरक्षित उत्पाद है, कुछ भी हो, आपका ........' पेप्सी को की सीइओ इन्दिरा नुई ने यें बाते अमरीका की बिजिनेस बीक पत्रिका से एक इन्टरवियू के दौरान कही।
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यह उदाहरण है गुलाम मस्तिष्क की विमुखी अवस्था की मालिक भारत में पैदा हुई अब हाउस्टन की नागरिक इन्दिरा नुई का। एक अमरीकन कम्पनी के हितों की रक्षा करने का काम करने वाली, इन्दिरा नुई ने अपने वक्तव्य में न केवल विज्ञान को झिड़क दिया बल्कि भारतीय विज्ञान प्रयोगशालाओं की विश्वसनीयता, भरोसा और प्रमाणिकता पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया। 'कोला में कीटनाशक' के विवाद के पूर्व उच्चतम न्यायालय ने 2 दिसम्बर 2002 को पेप्सी कोला कम्पनी की हिमालय पर्वत की चट्टानों पर पेंट से विज्ञापन लिखने के कारण हो रहे पर्यावरणीय नुकसान के लिए खिंचाई की थी। उसके बाद, दुनिया भर में कम्पनी ....... पूरा पढ़ें

ड्रग्स से सच उगलवाने का सफेद झूठ - पी चन्द्रशेखरन

फोरेंसिक साइंस के विशेषज्ञों का कहना है कि सच उगलवाने के लिए किसी अभियुक्त के शरीर में ड्रग्स का इस्तेमाल गैर-जरूरी है। जब पुलिसकर्मी पूछताछ के दौरान नार्को-एनालिसिस जैसे बाध्यकारी तरीकों का इस्तेमाल करते हैं तो वे कानून से ऊपर नहीं हो जाते। पूछताछ की किसी भी कार्रवाई में मानवाधिकारों की हिफाजत के सवाल को ताक पर नहीं रखा जा सकता, पी चन्द्रशेखरन का विश्लेषण

किसी अपराध की तहकीकात के क्रम में अभियुक्त से पूछताछ संबंधित केस का एक अहम पहलू होता है। पूछताछ यह एक तरह की कला होती है, जिसमें पारंगत होने के लिए काफी अध्ययन और तजुर्बा जरूरी है। पूछताछ उस सूरत में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है,जब किसी मामले में जांच एजेंसी के पास साक्ष्य नहीं होते या होते भी हैं तो उन्हें पर्याप्त नहीं माना जाता। पुलिस और अन्य जांचकर्ता किसी भी मामले की गुत्थी सुलझाने के लिए पूछताछ को सबसे श्रेयष्कर साधन मानते हैं। सभ्य मुल्कों में यह सर्वस्वीकार्य मानदंड है कि नैतिक और व्यावहारिक ...........पूरा पढ़ें

जनता को ताकत दो, पुलिस को नहीं - कॉलिन गोन्साल्विस

(साम्प्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ित पुनर्वास) विधेयक, 2005 पर टिप्पणी में कॉलिन गोन्साल्विस ने राय दी है कि इस कानून ने पीड़ितों के हितों का अवमूल्यन किया है। उदाहरण के तौर पर यौन हिंसा की स्थिति में यह कानून इस बात को स्वीकार नहीं करता कि दंगों में महिलाओं पर की गई ज्यादतियां सामान्य स्थिति में किए गए अपराध से मूल रूप से अलग हैं)

यूपीए सरकार ने एक बार फिर कानून बनाने में अपनी लापरवाही दर्शायी है। आश्चर्य की बात है कि साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक दुरुस्त नहीं है और इसे सिविल सोसायटी ग्रुपों द्वारा विभिन्न एनजीओ के साथ लगातार परामर्श के बाद प्रस्तावित किए गए विधेयकों के दो मसौदों की अनदेखी करते हुए तैयार किया गया है। इस विधेयक में साम्प्रदायिक अपराध की स्थिति में कार्रवाई शुरू करने और मुकदमों पर नियंत्रण के लिए समाज को शक्तिशाली बनाने की बजाए पुलिस की शक्तियां बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया है। यह मानते हुए कि कई मामलों में सरकार प्रमुख रूप से गलती के लिए जिम्मेदार होती है। .............पूरा पढ़ें

भागलपुर दंगों की आग - स्वतंत्र मिश्र

(भागलपुर दंगों की याद भर दिल दहला देती है। इन दंगों के मामलें में पिछले दिनों अदालत के फैसले के परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्र मिश्र बता रहे हैं कि सांस्कृतिक पहलों के कमजोर पड़ने से दंगों जैसी बुरी घटनाएं होती हैं)

बिहार का भागलपुर शहर रेशमी वस्त्रों के उत्पादन के लिए प्रसिध्द रहा है। गंगा के तट पर बसे इस शहर को नाम के साथ बदनामी भी खूब झेलनी पड़ी है। हिन्दूवादी शक्तियों और राज-व्यवस्था के पैरोकारों की मिलीभगत ने आजाद भारत के 60 साल के दौरान कम-से-कम इसे दो बार निश्चित तौर पर सन्न किया। पहली बार 1980-81 में अंखफोड़वा कांड (जिसे पुलिस प्रशासन द्वारा अंजाम दिया गया था) तो दूसरी बार 1989-90 में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगों के दौरान। .......पूरा पढ़ें

पुलिस राज का आतंक - के बालागोपाल

यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो सरकार और न ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएं पुलिसिया जुल्म के मुद्दे को तवज्जो देती दिखाई दे रही हैं। प्राय: देखा गया है कि पुलिस के पक्षपातपूर्ण रवैये और कानूनी अतिवाद के जरिये आम आदमी के मानवाधिकारों को कुचला जा रहा है। जब तक हम इस मुद्दे को पूरी गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक सरकारी मशीनरी बेकसूर लोगों को कानून-व्यवस्था के बहाने मुकदमों, यातनाओं और मृत्युदंडों का कोपभाजन बनाती रहेगी बता रहे हैं के बालागोपाल
यह बेहद दुखदायी है कि हमारे मुल्क में कानूनी अतिवाद के चलते होने वाली मौतों, गुमशुदगियों और हिरासत में दी जाने वाली यातनाओं से जुड़ी घटनाओं में हर साल इजाफा होता जा रहा है। अकेले आंध्र प्रदेश में ही पुलिस उत्पीड़न, हिरासत में मौत और फर्जी मुठभेड़ों के वाकिये इतने बढ़ गए हैं कि वहां का आम आदमी खासा आतंकित हो चला है। राज्य के सीमावर्ती इलाकों में जाकर कोई भी देख सकता है कि किस प्रकार कथित नक्सलवादी होने .........पूरा पढ़ें

आगे आयें मानवाधिकार संगठन - न्यायमूर्ति एएम अहमदी

मानवाधिकार संगठनों को पुलिस हिरासत में लंबी और कड़ी पूछताछ के दौरान यातना के विरुद्ध सक्रिय रवैया अपनाना चाहिए, कह रहे हैं न्यायमूर्ति एएम अहमदी
देश में 1973 में दंड प्रक्रिया संहिता का संशोधन किया गया। मामला यहीं पर समाप्त नहीं होता। हम पिछले कई वर्षों से इस पर प्रयोग कर रहे थे। पहले हमारे यहां एक प्रक्रिया थी जिसे सुपुर्दगी प्रक्रिया कहा जाता था। यह व्यवस्था हमने अंग्रेजों से ली थी।सुपुर्दगी की प्रक्रिया भारतीय परिस्थितियों में विकसित हुई थी। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ही कोई अपराध होता है और आरोपपत्र तैयार किया जाता है, महत्त्वपूर्ण गवाहों जैसे कि प्रत्यक्षदर्शियों से तत्काल मजिस्टे्रट की अदालत में शपथ पर बयान लिए जाते हैं। प्रत्यक्षदर्शी का बयान इसलिए लिया जाता है ........पूरा पढ़ें

मानस मंथन - जोश गैमन

फौजदारी न्याय पर राष्ट्रीय परामर्श के अंतर्गत नई दिल्ली में देश भर के कानूनविदों ने आरोपियों को कानून से प्राप्त संरक्षण सीमित करने की कोशिशों पर चर्चा की। इस पर जोश गैमन की रिपोर्ट .......... पूरा पढ़ें

सुनवाई की हो समय-सीमा - कॉलिन गोन्साल्विस

गरीब, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक खासकर मुसलमानों को वर्षों जेलों में सड़ने को मजबूर होना पड़ता है क्योंकि उनकी जमानत कराने वाला तक कोई नहीं। कॉलिन गोन्साल्विस का कहना है कि छोटे अपराधों के आरोपों में बंद लोगों को निजी मुचलके पर रिहाई की पुख्ता व्यवस्था हो।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन अधिनियम, 2005 का राष्ट्रीय जन संचार माध्यमों में स्वागत हुआ है क्योंकि इसने ऐसे पचास हजार लोगों की रिहाई के लिए रास्ते खोल दिये हैं जिन पर मुकदमे चल रहे थे। इनमें अनेक ऐसे हैं जो वर्षों से जेलों में सड़ रहे हैं और उनकी सुनवाई शुरू भी नहीं हुई। यह संशोधन अधिनियम दरअसल 1996 और उसके बाद कॉमन कॉज नामक संस्था और राजदेव शर्मा के मामलों में उच्चतम न्यायालय के फैसलों के उलट है।...... पूरा पढ़ें

मानवाधिकार आयोग नींद में?

पीपुल्स वॉच द्वारा हाल में प्रकाशित सैबिन नायरहॉफ की पुस्तक 'फ्रॉम होप टू डिस्पेयर' यानी आशा से निराशा में निष्कर्ष निकाला गया है कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग भारत में मानव अधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों पर कार्रवाई करने में बुरी तरह असफल रहा है। निष्कर्ष के मुख्य अंश :पीपुल्स वॉच के अध्ययन के निष्कर्ष राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के लिए काफी हद तक घातक हैं। विश्लेषण के किसी भी श्रेणी के परिणाम अनुकूल नहीं हैं।

कुल प्राप्त शिकायतों में से एक तिहाई से अधिक में आयोग ने शिकायतकर्ता को कोई जवाब नहीं दिया, इतना ही नहीं आयोग ने शिकायतकर्ता को यह बताने का कष्ट भी नहीं किया कि उसकी शिकायत मिल गई है या उस पर विचार किया जा रहा है।जिन मामलों में कोई प्रारम्भिक जवाब नहीं मिला उनमें शिकायतकर्ता औसतन दो से अधिक वर्ष से जवाब की प्रतीक्षा में हैं। ........ पूरा पढ़ें

''विश्व बैंक'' की खुली थैली। शर्त शर्त पर शर्त विषैली । - शिराज केसर

“विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण”
लोगों ने कहा ''विश्व बैंक'' की खुली थैली। शर्त शर्त पर शर्त विषैली।
वक्ताओं ने कहा 'विश्वबैंक के कर्मचारी ही परोक्ष रूप से भारत सरकार की नीतियां बना रहे हैं'

21-24 सितम्बर 2007 को सैकड़ों लोग 'विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' के लिए इकट्ठा हुए। 4 दिन के इस सत्र में दुनिया की सर्वाधिक शक्तिशाली संस्थाओं में से एक विश्वबैंक के खिलाफ अपने जीवन के हर क्षेत्र की शिकायतें दर्जनों न्यायधीशों के सामने रखा। गरीबों, आदिवासियों, दलितों, महिलाओं और अन्य वंचित लोगों के अनुभवों और साक्ष्यों को उजागर करता हुआ यह न्यायाधिकरण विश्वबैंक के; आर्थिक और सामाजिक नीति के ज्ञान के) साधनों के खिलाफ सीधा संघर्ष है। उन्होंने विश्वबैंक की नीतियों के बारे में बताया, जिनके खेत, जंगल और घर छीन लिये गये हैं। उनकी बचत को खत्म कर दिया गया है, उनका स्वास्थ्य तक खराब कर दिया गया है, उनके परिवारों को तोड़ दिया गया है, उनसे पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा को छीन लिया गया है और उन्हें स्थानीय सूदखोरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ संघर्ष के अखाड़े में ला दिया है। उनकी व्यक्तिगत और सामूहिक कहानियां एक दूसरी ही सच्चाई बयां कर रही थीं 'विश्वबैंक पर स्वतंत्र जन न्यायाधिकरण' में। नई दिल्ली में, वे गरीब जिनके नाम पर विकास का तमाशा किया जा रहा है उनकी आवाज ने यही कहा ''विश्व बैंक'' की खुली थैली। शर्त शर्त पर शर्त विषैली । .............

विकल्प है - माइकल ऐल्बर्ट

पूंजीवाद में मालिक लोग जनसंख्या के लगभग पाँचवें हिस्से, जिनके पास निर्णय ले सकने के अधिकार वाला काम है, से मिल कर यह तय करते हैं कि किस चीज़ का उत्पादन किया जाए, किन माध्यमों से किया जाए, और उसका किस तरह से वितरण किया जाए। जनसंख्या का लगभग चार बटा पाँच हिस्सा मुख्यतः रटी रटाई मेहनत वाला काम करता है, उसकी आय कम होती है, आदेशों का पालन करता है, बोरियत झेलता है, और यह सब कुछ ऊपर से थोपा हुआ होता है। जॉन लेनन के शब्दों में कहें तो "पैदा होते ही तुम्हें छोटा महसूस कराया जाता है, सारा समय देने के बजाय कुछ समय न देकर। "

पूंजीवाद भाईचारे को खत्म कर देता है, विविधता को एकसार कर देता है, बराबरी को मिटा देता है, और सख़्त पदानुक्रम थोप देता है। ताकत और अवसर इस में ऊपर की तरफ केन्द्रित होते हैं। जबकि पीड़ा तथा प्रतिबंध का भार नीचे ही अधिक होता है। यहाँ तक कहा जा सकता है कि पूंजीवाद कामगारों पर जिस स्तर का अनुशासन थोपता है उतना तो किसी तानाशाह ने भी राजनीतिक तौर पर लागू करने का नहीं सोचा होगा। किसने सुना होगा कि नागरिकों को बाथरूम जाने के लिए अनुमति लेनी पड़े, जो कि कई निगमों, बड़ी कंपनियों में आम बात है। .....

कितना गहरा खोदेंगे हम? - अरुंधती रॉय

अभी हाल ही में एक युवा कश्मीरी मित्र से मेरी बात हो रही थी कश्मीर में जीवन के बारे में। राजनीतिक बिकाऊपन और अवसरवादिता के बारे में, सुरक्षा बलों की असंवेदनशील क्रूरता, हिंसा से सरोबार समाज की रिसती पनपती सीमाओं के बारे में, जहाँ हथियारबंद कट्टरपंथी, पुलिस, गुप्तचर सेवाओं के अधिकारी, सरकारी अफ़सर, व्यापारी, यहाँ तक कि पत्रकार भी एक दूसरे का सामना करते हैं और धीरे-धीरे, समय के साथ, एक दूसरे जैसे बन जाते हैं। उसने बात की अंतहीन हत्याओं के बारे में, 'खो चुके' लोगों की बढ़ती हुई संख्या के बारे में, कानाफूसी के बारे में, उन अफ़वाहों के बारे में जिनका कोई जवाब नहीं देता, किसी भी तरह के संबंध की उस विक्षिप्त अनुपस्थिति के बारे में जो होना चाहिए उस सबके बीच जो असल में कश्मीर में हो रहा है, जो कश्मीरी जानते हैं कि हो रहा है और जो हम बाकी लोगों को बताया जा रहा है कि हो रहा है। उसने कहा कि "कश्मीर पहले व्यापार हुआ करता था। अब यह पागलखाना बन गया है।"........

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