बाजार और मीडिया का दुलारा क्रिकेट

दक्षिणी अफ्रीका में हुए क्रिकेट के बीस-बीस ओवरों के दंगल में 'टीम इंडिया' की जीत के बाद 'टीम इंडिया' के खिलाड़ियों को 'राजकुमार' और 'विश्व विजेताओं' का दर्जा दिया गया। उन पर फूला ही नहीं धन की भी अभूतपूर्व वर्षा हुई। क्रिकेट पर हुई इस प्रेम-वर्षा से कुछ सवाल नए सिरे से उठे हैं। सबसे पहला सवाल हाल में एशिया कप जीते हॉकी खिलाड़ियों की ओर से आया। उन्होंने हॉकी के प्रति सौतेलेपन की शिकायत की और मांग रखी कि यदि 'राष्ट्रीय खेल' पर भी यूं ही धन और फूल न बरसाए गए तो वे लोग भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। हॉकी की शिकायत में थोड़ा बौनापन और अकेला होने का अहसास था। हॉकी ने अपने प्रति सौतेलापन तो महसूस किया लेकिन बाकी कई सारे खेलों के अनाथ जैसा होने के सच से अपने को अलग रखा। हॉकी ने अपने हक की मांग की भी तो सबको साथ लेकर नहीं बल्कि राष्ट्रीय खेल होने की दावेदारी के साथ। क्रिकेट की राजनीति में कुछ सवाल और भी छुपे हैं। सबसे पहले यह सोचने की जरूरत है कि क्रिकेट के इतने लोकप्रिय दिखने के पीछे असली कारण क्या हैं। चलिए हम इस सच्चाई को अनदेखा कर देते हैं कि कुछेक अपवादों को छोड़कर क्रिकेट उन्हीं देशों में लोकप्रिय हुआ जहां किसी-न-किसी रूप में कभी न कभी अंग्रेजों का उपनिवेशवाद रहा। लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि असल में यह बाजार और मीडिया की अपनी जरूरत है कि क्रिकेट को लोकप्रिय बनाया जाए। यह क्रिकेट ही है जो भारत के मध्यम वर्ग को टी.वी. के सामने ला बिठाता है। बाजार जिस ग्राहक तक पहुंचने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए रखता है, वह एकमुश्त उसके तमाशे को देखने वाला बंधुआ दर्शक बन जाता है। इस तरह देखा जा सकता है कि क्रिकेट के विश्व विजेताओं पर बरसने वाले लाख-करोड़ इसके दर्शकों की जेब से गए पैसे ही हैं। क्या हमारे पास बाजार के बंधुआ दर्शक बनने के अलावा कोई विकल्प है? क्रिकेट बाकी खेलों के हिस्से की रोटी मार कर मक्खन तो खा ही रहा है खेलों की एक ठस्स-इकहरी दुनिया भी बना रहा है। बाजार का एजेंट बन अपने ही चाहने और पालने वालों की जेब भी साफ कर रहा है। सवाल पूछा जा सकता है कि क्रिकेट के जिन राजकुमारों को भारतवासियों ने हमेशा सर-आंखों पर लिया उन्होंने अपनी जिंदगी बाजार के इशारों पर ही तय की या कभी उस समाज की जरूरतों की ओर भी देखा जिसने उन्हें करोड़पति बनाया।

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