कितना गहरा खोदेंगे हम? - अरुंधती रॉय

अभी हाल ही में एक युवा कश्मीरी मित्र से मेरी बात हो रही थी कश्मीर में जीवन के बारे में। राजनीतिक बिकाऊपन और अवसरवादिता के बारे में, सुरक्षा बलों की असंवेदनशील क्रूरता, हिंसा से सरोबार समाज की रिसती पनपती सीमाओं के बारे में, जहाँ हथियारबंद कट्टरपंथी, पुलिस, गुप्तचर सेवाओं के अधिकारी, सरकारी अफ़सर, व्यापारी, यहाँ तक कि पत्रकार भी एक दूसरे का सामना करते हैं और धीरे-धीरे, समय के साथ, एक दूसरे जैसे बन जाते हैं। उसने बात की अंतहीन हत्याओं के बारे में, 'खो चुके' लोगों की बढ़ती हुई संख्या के बारे में, कानाफूसी के बारे में, उन अफ़वाहों के बारे में जिनका कोई जवाब नहीं देता, किसी भी तरह के संबंध की उस विक्षिप्त अनुपस्थिति के बारे में जो होना चाहिए उस सबके बीच जो असल में कश्मीर में हो रहा है, जो कश्मीरी जानते हैं कि हो रहा है और जो हम बाकी लोगों को बताया जा रहा है कि हो रहा है। उसने कहा कि "कश्मीर पहले व्यापार हुआ करता था। अब यह पागलखाना बन गया है।"........

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