एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक यथार्थ संचार के लिए बोलना और सुनना ही एक मात्र सहज उपाय है। साथ ही यह भी सही है कि बोलने व सुनने का महत्व मूक-बधिर मानव या अन्य मूक-बधिर जीवों को अधिक होता है। किसी भी बात की कमी ही उसके वास्तविक मूल्य व महत्व का भान कराती है।
एक दूसरे से परस्पर संबंध बनाने के इस सहज उपाय में प्रत्येक पक्ष की बोलने व सुनने की अपनी-अपनी सीमाएं होती हैं, (उसी तरह, जिस तरह प्रकृति में प्रत्येक कण-कण की अपनी-अपनी सीमाएं हैं), उसी सीमा के तहत ये दोनों बातें अच्छी लगती हैं, समायोजित अस्तित्व का आभास कराती हैं। हमारे यहाँ तो हमेशा से सामंती शासन रहा और एक बड़ा वर्ग सुनने-सहने के लिए ही बना रहा। महिलाएँ सदैव से पुरूषों का खिलौना बनी रही और उन्हे सिर्फ गुलाम के तौर पर रखा जाता था। उन्हे ज्यादा बोलने या सुनने की मनाही थी। किंतु जैसे ही बोलने या सुनने की अपनी वर्जनाएं टूटती हैं तो कोई भूचाल नहीं आता है, कोई दृश्यगत हानि नहीं होती है, परंतु उसके द्वारा संपूर्ण परिदृश्य में मनोवैज्ञानिक बदलाव जरूर होते हैं, जो एक नए प्रकार की कुण्ठा, अवसाद को जन्म देते हैं व विद्रोह का आधार बनते हैं। एक हद तक खामोशी या सुनना भी ठीक है तथा आवाज या बोलना भी ठीक है परन्तु इनकी अति होने पर दोनों ही अन्याय व तत्पश्चात विद्रोह के हेतु बन जाती है। . . . . . पूरा पढ़ें