नेतृत्व ने बदले नारी के तेवर - लोकेन्द्रसिंह कोट

विभिन्न स्तरों पर नारी
आज नारी समाज का अभिन्न अंग है भी, और नहीं भी। उपभोग करते समय नारी समाज का अभिन्न अंग है, वहीं शेष कार्यों में समाज का अभिन्न अंग नहीं है। यूँ तो आज के इस उपभोक्तावादी समाज में लगभग हर रिश्ते में एक अजीब प्रकार का शून्य उभर रहा है, फिर भी नारी के साथ जितने भी रिश्ते जुड़े हैं उनमें इस शून्य के साथ-साथ दोयम दर्जे का व्यवहार भी नारी के ही पल्ले बँधता है।हमारा समाज वास्तव में अब स्पष्ट तौर पर तीन हिस्सों में विभक्त हो चुका है।
पहला शहरी समाज दूसरा, कस्बाई समाज तथा तीसरा, ग्रामीण समाज। इन तीनों में अनेक समानताएं हैं, परन्तु महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशाल अंतर है। शहरी समाज अपनी अधकचरी उन्नति के दंभ से फटा हुआ है और यहाँ की स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता मिली है, किन्तु नारी को एक विशेष संघर्ष करना होता है, क्योंकि नारी को दोयम दर्जे का रखने का खेल यहां सलीके से खेला जाता है। दूसरे पक्ष अर्थात् खुद नारी के पक्ष में देखें, तो नारी भी अपने आपको नारा बनाए जाने में योगदान ही करती है। नारियों में पुरूषों के पदचिन्हों पर चलने की, पुरूषों की तरह समस्याएँ सुलझाने की प्रवृति बहुत ज्यादा है। जबकि नारी को पुरूष का कार्य करने की जरूरत ही नहीं है। उसे तो पुरूषों के विचारों पर भी सोचने की आवश्यकता नहीं है, उसका लक्ष्य तो नारीत्व को अभिव्यक्ति देना है। उसका कार्य अपनी सभी गतिविधियों में नारीत्व के तत्व को जोड़ कर एक नई मानवीय दुनिया का निर्माण करना है। . . . . . . . पूरा पढ़ें

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