न्यायपालिका और कार्यपालिका तथा विधायिका में टकराव होता रहता है, एक-दूसरे पर हावी होने की प्रवृत्ति साफ देखी जा सकती है। आजकल एक नया रूझान और भी उभरकर सामने आया है कि न्यायपालिका और प्रेस के मध्य भी टकराव होने लगा है। हाल ही में भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल साहब के आचरण को लेकर उठी आवाजों के मद्देनजर पूरे दस्तावेजी सबूतों को आधार बनाकर मिड डे नामक अखबार ने लेख छाप दिए, न्यायपालिका इस स्वस्थ आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पाई, फलत: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक स्वत: स्फूर्त प्रसंज्ञान के जरिए मिड डे के चार पत्रकारों को कोर्ट की अवमानना करने के अपराध में चार-चार महीने की सजा सुना दी। कोर्ट की इस कार्यवाही को लेकर मीडिया की ओर से देशभर में जबरदस्त हल्ला मचा हुआ है, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी है मगर यह बहस तो छिड़ ही गई है कि- क्या न्यायपालिका निर्विवाद है, उस पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती है, क्या वह ईश्वरीय शक्ति संपन्न है! उसकी आलोचना करना क्या 'ईशनिंदा' है? क्या माननीय न्यायाधीशगण दैवीय ऊर्जा वाले विशिष्ट महामानव होते है कि उनके काम और आचरण पर प्रश्न ही नहीं खड़े किए जा सके? . . . . . पूरा पढ़ें