पारम्परिक व्यवस्था के अनुसार बैगा आदिवासी धरती को मां के रूप में स्वीकार करता है जिसके सीने पर हल नहीं चलाया जा सकता है। ऐसे में उसकी खेती की व्यवस्था ही ऐसी बनी जिसमें बिना हल वाली कोदो-कुटकी जैसी पारम्परिक फसल को अपनाया। इस फसल के बीज सामान्य रूप से खेत में छिड़क दिये जाते हैं और बिना हल-बिना पानी के कोदो-कुटकी की फसल लहलहाने लगती है। इसी उत्पादन में से कुछ बीज बनाकर वे अगली फसल के लिए सुरक्षित रख लेते थे परन्तु बाजार के लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार नहीं हुई और सुनियोजित ढंग से नकद फसलों को इन इलाको में भी प्रोत्साहित किया जाने लगया। सरकार ने भी पारम्परिक कृषि और सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने में बाजार का हर संभव-असंभव सहयोग दिया है। परिणाम यह हुआ कि 20 हजार बैगा परिवार में से एक भी कर्ज मुक्त परिवार खोज पाना नामुमकिन हो गया। . . . . . पूरा पढ़ें