जरूरी हो गया है भारत की न्यायिक व्यवस्था का पुनर्गठन- - प्रशांत भूषण

ऐसी धारणा बनती जा रही है कि अब न्यायपालिका ही देश की एकमात्र अमलदार और जिम्मेदार संस्था रह गयी है, और यही अपराधियों द्वारा नियंत्रित सरकार के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन देश का बहुत बड़ा तबका थोडे से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से नहीं करता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद ही नहीं होती कि एक निश्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेशानी और सजा से ज्यादा खर्चे और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है।
न्यायालय द्वारा अगर किसी मुकदमे का निर्णय हो भी जाता है तो वह भी विकृतिपूर्ण ही होता है। वास्तव में पूरी न्यायिक प्रक्रिया ही भ्रष्टाचार की शिकार हो गयी है। जो लोग न्यायिक प्रक्रिया से जुडे हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि न्यायपालिका में भी उतना ही भ्रष्टाचार है जितना कि राज्य की अन्य संस्थाओं में। न्यायपालिका में जवाबदेही के लिए कोई तंत्र न होने की .....

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