न्यायालय की अवमानना का आधार

अदालत की अवमानना से संबंधित कानून में बदलाव की मांग पहले भी कई बार उठी है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले के चलते इस कानून पर पुनर्विचार और अवमानना को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत एक फिर महसूस की जा रही है। न्यायालय ने अंग्रेजी दैनिक मिडडे मील के संपादक सहित चार पत्रकारों को भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश योगेश कुमार सब्बरवाल के खिलाफ एक खबर प्रकाशित करने केक आरोप में चार महीने कैद की सजा सुनाई है। अदालत ने माना कि इन पत्रकारों ने जो सामग्री प्रकाशित की, उससे सुप्रीम कोर्ट की छवि खराब हुई, इसलिए ये अवमानना के दोषी हैं। इस पर मीडिया जगत में तो तीखी प्रतिक्रिया हुई ही है, अनेक विधिवेत्ताओं ने भी असहमति जताई है। फैसले को लेकर जो सवाल उठे हैं उनमें से एक यह है कि अदालत ने खबर की सचाई जानने की कोशिश नहीं की। अवमानना कानून में संशोधन की मांग के पीछे एक प्रमुख तर्क यह रहा है कि सच को बचाव का आधार मानना चाहिए। यानी अगर सार्वजनिक की गई जानकारी सही है और जनहित में है तो यह बचाव के लिए काफी है। दोषी ठहराए गए पत्रकारों का दावा है कि उन्होंने जो कुछ प्रकाशित किया वह प्रामाणिक है। संबंधित अखबार ने इस बाबत खबर छापी थी कि पूर्व मुख्य न्यायधीश सब्बरवाल के बेटे के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की सीलिंग में उन्हें फायदा पहुंचाया गया। लेकिन हाईकोर्ट ने खबर की सच्चाई को जानने की जरूरत नहीं समझी। जबकि होना तो यह चाहिए कि आरोप सही जाए जाएं तो आगे की जांच का आदेश दिया जाए।

यहां यह भी गौरतलब है कि रपट ऐसी नहीं थी जो किसी अदालती फैसले के पीछे जजों की नीयत पर शक करती हो या न्यायिक कार्यवाही को प्रभावित करने की मंशा से प्रकाशित की गई हो। यही नहीं, खबर का ताल्लुक सेवानिवृत्त हो चुके जज से था। लेकिन अदालत ने इसे अवमानना का जुर्म माना, इसलिए कि रपट तब के बारे में थी जब वे प्रधान न्यायधीश की कुर्सी पर थे। इस तरह एक अवकाश प्राप्त जज को अवमानना कानून का लाभ देने से सवाल उठा है कि क्या यह कानून उनके लिए जीवन भर की संरक्षण की गारंटी देता है जो एक बार जज की कुर्सी पर पहुंच जाते हैं। अगर इस मामाले में सेवानिवृत्त जज महोदय को लगा कि उनकी छवि पर आंच आई है तो वे उस कानूनी विकल्पों का सहारा ले सकते थे जो सभी नागरिकों के लिए खुले हैं। पर ऐसा नहीं किया गया। यहां इस बात को दोहराना जरूरी लगता है कि न्यायपालिका के प्रति लोगों के मन में जैसा आदर और भरोसा है वैसा किसी और संस्था के प्रति नहीं। इसकी वजह यह भी है कि इसने कई बार कार्यपालिका या विधायिका को गलती करने से रोका है और उन्हें संवैधानिक तकाजों की याद दिलाई है। समय-समय पर अदालती हस्तक्षेपों से लोकतांत्रिक अधिकारों का बचाव हुआ है। क्या हम कह सकते हैं कि अवमानना के ताजा फैसले से नागरिक अधिकारों की रक्षा करने से उसकी परंपरा और पुष्ट हुई है? सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार यह व्यवस्था दी है कि ऐसा कोई भी कानून स्वीकार्य नहीं हो सकता जो हमारे संविधान के मूल ढांचे से मेल न खाता हो। कई विधिवेत्ताओं ने रेखांकित किया है कि जब हम संविधान के मूल ढांचे की बात करते हैं तो इसका आशय सबसे पहले हमारे लोकतांत्रिक या नागरिक अधिकारों से होता है। क्या इस संदर्भ में भी अवमानना संबंधी कानून पर पुनर्विचार नहीं होना चाहिए।

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