वास्तव में भारत के किसान संकट से गुजर रहे हैं। व्यापारिक उदारीकरण के एक दशक में 150,000 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं और जहां किसान बचे हैं उनकी आय तेजी से गिर रही है। भारत अपने किसानों को बचाने में असमर्थ है लेकिन विश्व बैंक की किसान-विरोधी नीतियां तेजी से किसानों से न केवल उनकी आय छीन रही हैं, बल्कि कृषि संकट भी पैदा कर रही हैं। विश्वबैंक की नीतियों के तहत ही किसान के हाथ से सब कुछ छीनकर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दिया जा रहा है। किसानों पर यह संकट दो रूपों में शुरू हुआ। एक तो 1965-90 में हरित क्रांति के नाम पर और दूसरा ढांचागत समायोजन और व्यापारिक उदारीकरण के नाम पर। विश्वबैंक ने गरीब किसानों को केमिकल इस्तेमाल करने को मजबूर किया और भारतीय खाद उद्योग पर विश्वबैंक और यूएसआईडी दोनों ने मिलकर उदारीकरण और घरेलू प्रतिबंध हटाने के लिए दबाव डाला। हरित क्रांति से समृध्दि का दिवास्वप्न 1980 में टूट गया और पंजाब के किसानों में रोष फैल गया। लेकिन फिर भी विश्व बैंक ने 1990 में नई शर्तें राज्य पर थोप दीं और हरित क्रांति में निभाई गई उसकी भूमिका से भी उसे बेदखल कर दिया।