उपनिवेशकाल में भारत के पढ़े-लिखे लोगों में यूरोप-केन्द्रित दृष्टि इतनी जम गयी कि आज भी वह वर्ग उसको दुहराने और उसका उपकार जताने में किसी प्रकार की हया-शर्म महसूस नहीं करता। सितम्बर 1996 में भी पी. चिदम्बरम आज की तरह भारत सरकार के वित्तामंत्री थे और अपनी उदारीकरण की नीतियों के कारण पश्चिम की दुनिया के दुलारे थे। वे वाशिंगटन में व्यवसायियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे। उन्होंने अमरीकी उद्यमियों से कहा था, 'आप में से उन लोगों से, जो भारत आना चाहते हैं, मुझे यह कहना है कि आप लम्बे समय के लिए वहां आइए। पिछली बार आप भारत पर एक दृष्टि डालने के लिए आए थे। आप दो सौ साल ठहरे। इसलिए इस बार, अगर आप आएं तो और दो सौ साल रहने के लिए तैयारी करके आएं। वहीं सबसे बड़े प्रतिफल हैं।'
वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तो दो कदम आगे बढ़ गये। 8 जुलाई 2005 को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण करने पर व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, 'आज बीते समय को पीछे मुड़कर देखने से जो संतुलन और परिप्रेक्ष्य मिलता है, उससे एक भारतीय प्रधानमंत्री के लिए दावे के साथ कहना संभव है कि भारत का ब्रिटेन के साथ का अनुभव लाभकारी भी था। कानून, संवैधानिक सरकार, स्वतंत्र प्रेस, पेशेवर नागरिक सेवा, आधुनिक विश्वविद्यालय और शोध प्रयोगशालाओं के बारे में हमारी अवधारणाओं ने उस कढ़ाव में स्वरूप ग्रहण किया है, जहां एक युगों पुरानी सभ्यता उस समय के प्रबल साम्राज्य से मिली। ये वे सभी तत्व हैं जिन्हें हम अभी भी मूल्यवान समझते हैं और जिनका आनन्द लेते हैं। हमारी न्यायपालिका, हमारी कानून व्यवस्था, हमारी अफसरशाही और हमारी पुलिस, सभी महान संस्थाएं हैं जो ब्रितानी-भारतीय प्रशासन से निकली हैं और उन्होंने देश की अच्छी सेवा की है। ब्रिटिश राज की सभी धरोहरों में अंग्रेजी भाषा और आधुनिक विद्यालय व्यवस्था से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई धरोहर नहीं।'