
पिछले माह भारतीय सरकार ने विद्रोह की घटनाओं का जो प्रदर्शन कराया, वह इतना घटिया था कि लगा कि जैसे कोठे की औरतें मंच पर ठुमके लगा रही हों। माफ करना ऐसे नाटकबाजी से।
एक बार तो हमने अग्रेजों के मन में इतना आतंक बैठा दिया था लेकिन वो खौफ उनके चेहरों से जल्दी ही नदारद हो गया और 1947 तक आते-आते उन्होने कट्टरपंथी मुस्लिमों और संकीर्ण मानसिकता वाले ब्राह्मणों को दो हिस्सों में बांट दिया, दोस्ती के वो दिन हवा हो गए जब आजादी की लड़ाई में वें एक साथ लड़े थे अब दोनों अलग अलग अपने-अपने रास्ते चले गए।आज 1857 की विचारधारा को ध्रुवीकृत करके देखा जा रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी ने इस बात की ओर अपना ध्यान दिया कि आरएसएस और बीजेपी इस दिन को उत्सव की तरह मनाने में कोई रुचि नहीं ले रही है। बस इसका महत्व केवल राष्ट्रीय स्तर तक ही सिमट कर रह गया है।